शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

क्या यह बसपा का गेमप्लान है


बद्रीनाथ वर्मा 9718389836

 हाजिर- नाजिर
राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- सपा के दिग्गज जानते हैं कि मूर्तियों के टूटने की आवाज बसपा को जिंदा कर सकती है। ऐसे में मूर्तिभंजन के पीछे खुद बसपा के हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता। 

हाईलाईटर- मूर्ति ध्वंसक अमित जानी के सूत्र सपा के साथ-साथ बसपा के भी कई नेताओं से बताए जा रहे हैं

मायावती की मूर्ति क्या टूटी बसपा को मानो संजीवनी ही मिल गई। विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार से हताश बसपा कार्यकर्ताओं में इस घटना ने नया ओज भर दिया। मुद्दाविहीन कार्यकर्ताओं को बहनजी की मूर्ति पर हुए प्रहार ने अपना दमखम दिखाने का एक अवसर प्रदान कर दिया। दूसरे शब्दों में उन्हें एकजुट होने का सुनहरा मौका दे दिया। ऐसे में राजनीतिक गलियारे में कुछ सवाल उठने लगे हैं। कहीं यह बसपा का ही  तो किया धरा नहीं है? इस तरह की आशंका व्यक्त करने वालों का तर्क है कि सपा को यह भलीभांति पता है कि मूर्तियों से छेड़छाड़ बसपा कार्यकर्ता बर्दाश्त नहीं करेंगे। ऐसे में भला सपा ऐसा क्यों करेगी कि आ बैल मुझे मार?
अगर कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि सपा की शह पर ही मूर्तियां तोड़ी गई हैं, तो सवाल उठता है कि राजनीतिक अखाड़े के मंझे हुए पहलवान मुलायम सिंह यादव क्या इतने नासमझ हैं कि उन्हें इसके नफे-नुकसान का अंदाजा नहीं था? तो क्या मायावती की मूर्ति का तोड़ा जाना खुद बसपा का ही गेमप्लान था? इस आशंका को सहज ही खारिज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि इस प्रकरण से अगर किसी को फायदा पहुंच रहा है, तो वह है बसपा। एक तो इससे बैकफुट पर चली गई बसपा को फ्रंटफुट पर आने का मौका मिल गया और इसी बहाने अखिलेश सरकार को चेतावनी भी दे दी गई। कहा जा रहा है कि मूर्ति तोड़े जाने के सूत्रधार अमित जानी का सपा नेताओं से गहरा ताल्लुकात रहा है। वह समाजवादी पार्टी का कार्यकर्ता भी रहा है। हालांकि सूत्र बताते हैं कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों से भी उसके अच्छे संबंध रहे हैं। इस लिहाज से इस कांड में बसपा की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता। सूत्रों का तो दावा है कि विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार से अभी भी बसपा कार्यकर्ता उबर नहीं पाए हैं। ऐसे में आनेवाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बसपा को मुद्दा बनाने के लिहाज से इस घटना को अंजाम दिलवाया गया है। इस आशंका को बल इस बात से भी मिलता है कि मूर्ति तोड़े जाने की घटना मोबाइल के जरिए चंद मिनटों में ही पूरे प्रदेश में फैल गई। फिर क्या था, हड़कंप मचना ही था। मचा भी। इसे दलित अस्मिता पर हमला मानते हुए अदना बसपा कार्यकर्ताओं से लेकर बड़े नेता तक उद्वेलित हो गए। जगह-जगह बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए। उन्हें काबू करने में अफसरों के पसीने छूट गए। हालांकि राज्य सरकार ने आननफानन में नई मूर्ति लगवाकर मामले को बिगडऩे से बचाने की भरपूर कोशिश की। किंतु इस बीच बसपा को जो फायदा मिलने वाला था वह तो मिल ही गया।  राज्य सरकार को झुका देने का गर्वबोध लिए बसपाई अब नए सिरे से उठ खड़े हुए हैं। लब्बोलुआब यह कि एक ही झटके में बसपा लाइमलाइट में आ गई।
मूर्ति तोड़े जाने को खुद बसपा का गेमप्लान बताने वालों का तर्क है कि सपा मुखिया नेताजी व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस बात का भली भांति एहसास है कि मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ का मतलब अचेत पड़ी बसपा को संजीवनी देना होगा। हालांकि दोनों पिता-पुत्र विधानसभा चुनाव के दौरान हाथी पार्कों में अस्पताल व स्कूल खोलने के  चुनावी गुब्बारे उड़ाते रहे थे। परंतु मुख्यमंत्री बनते ही अखिलेश यादव इस बात को भूल गए। जनता की तालियों की गडग़ड़ाहट में भले ही मुर्तियों पर बुलडोजर चलवाने की बड़ी-बड़ी डींगे हांकते रहे परंतु वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ कदापि नहीं रहे। उन्हें पता था कि मूर्तियों से छेड़छाड़ को दलित अस्मिता पर हमला करार देकर बहनजी इसका राजनीतिक फायदा बटोर ले जाएंगी। जबकि उल्टे सपा को इसका नुकसान ही होगा। ऐसे में भला सपा अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगी?
 खुद की मूर्ति स्थापित करने को लेकर मीडिया में भले ही मायावती की जितनी भी आलोचना हुई हो पर इसका उनके समर्थकों पर रंचमात्र भी असर नहीं पड़ा। उल्टे इसे मनुवादी मीडिया की भड़ास कहकर खारिज कर दिया गया। ऐसे में मूर्तियों से छेड़छाड़ करने से हाथ जल जाने का शत प्रतिशत खतरा था। फिर क्योंकर सपा की तरफ से ऐसी गुस्ताखी की जाती। इससे तो खामखां बैठे बिठाए बसपा को फायदा ही पहुंचने वाला था। जाहिर है यह सपा या उसके इशारे पर तो कम से कम नहीं ही किया गया है। फिर सवाल उठता है कि यह काम किसने और किस मंशा से किया? मूर्तिं टूटने से आखिर फायदा किसको मिला? जाहिर है बसपा को। तो भला मुलायम सिंह यादव या उनके रणनीतिकार बहनजी को फायदा पहुंचाने वाला काम क्यों करेंगे? यह ऐसा सवाल है जो राजनीतिक पंडितों को परेशान कर रहा है। घूम फिरकर बात बसपा पर पहुंच जाती है। स्थितियां भी बसपा की ओर ही इशारा कर रही हैं। दरअसल, बसपा का मूल वोट बैंक दलित जो बिदक रहा था, इस प्रकरण से वह एकबार फिर एकजुट हो गया है। सूत्रों की अगर मानें तो यह सारा कुछ खुद बहनजी व उनके कुछ विश्वस्त सहयोगियों की योजना का परिणाम है। इसे बसपा की कारस्तानी मानने वालों का एक तर्क और भी है। उनका कहना है कि मूर्ति तोडऩे की जिम्मेदारी लेने वाले उत्तर प्रदेश नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष अमित जानी व उसके सहयोगियों को प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मूर्ति तोडऩे के लिए उकसाया गया। हाथी पार्कों में अस्पताल या स्कूल खोले जाने के मुख्यमंत्री अखिलेश के वादे की याद दिलाने के लिए आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में जब अमित जानी ने कहा कि यदि सरकार ने पार्कों से मूर्तियां नहीं हटाईं तो नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता मूर्तियों को तोड़ देंगे। तब उन्हें उकसाने के मकसद से बार-बार कहा गया कि मूर्तियां तोड़ कर दिखाओ। वहां मौजूद पत्रकारों का कहना है कि ऐसा कई बार कहा गया। एक तरह से उन्हें ऐसा करने के लिए बार-बार प्रेरित किया गया। आखिरकार जोश में आकर उन्होंने घटना को अंजाम दे डाला। बाकायदा टीवी कैमरों के सामने हथौड़े से मायावती की मूर्ति के सिर व हाथों को तोड़ दिया गया। उसके बाद जो होना था, वह हुआ। मिनटों में मोबाइल व टीवी के जरिए यह खबर राज्य के हर छोटे-बड़े शहर-गांव तक पहुंच गई। फिर क्या था घटना की खबर लगते ही सुस्त पड़े बसपा कार्यकर्ताओं में नई जान आ गई। तुरंत सड़कों पर जाम लगा दिया गया। कई जगह तो उग्र कार्यकर्ताओं को तितर बितर करने के लिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। बहरहाल, बसपा कार्यकर्ताओं को शांत करने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तत्काल क्षतिग्रस्त मूर्ति को ठीक करने का आदेश दे दिया। मूर्तियां फिर से स्थापित भी कर दी गईं। खैर, जो भी हो मूर्ति टूटी, विरोध हुआ, फिर मूर्ति लग भी गई। पर, यहां सवाल उठता है कि  मायावती ने यह मूर्तियां इसीलिए तो नहीं लगवाईं कि मूर्तियों के रहने से तो फायदा मिले ही उनके टूटने से भी फायदा बसपा को ही मिले। मूर्तिमोह की इस राजनीति में उत्तर प्रदेश की जनता कब तक फंसी रहेगी देखना यह भी है।

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