शनिवार, 5 दिसंबर 2009

माई ( भाग - दो )

डाक्टरों द्वारा माई की जीवन रेखा को यूँ तीन वर्षों की समयावधि में समेट दिए जाने से हम सभी भाई-बहन सकते में आ गए । हमारे तो हाथ -पांव ही फूल गए । खैर हम अब कर भी क्या सकते थे सिवाय माई को नित मौत के और करीब जाते देखने के अलावा ।


आख़िरकार वह मनहूस वक्त भी आ ही गया, जब माई हम सबको सदा के लिए छोड़कर चली जाने वाली थी । सन १९९८ में सबसे छोटे भाई काशी नाथ ( जो एक अच्छा भोजपुरी गायक भी है ) की शादी होने वाली थी । शादी के एक महीने पहले ही माई की हालत बिगड़ने लगी । मुझे कलकत्ता ख़बर की गई , मै भागा-भागा गाँव पहुँचा । मैं तो यह देखकर दंग ही रह गया कि माई बस हड्डियों का ढांचा भर रह गयी थी । उसने भोजन करना बिल्कुल ही बंद कर दिया था । माई की ऐसी हालत देखकर हम सभी को यह चिंता सताने लगी कि कहीं माई का स्वर्गवास शादी के पहले ही न हो जाए ? इसलिए हमने आपस में सलाह-मशविरा कर शादी की तिथि में परिवर्तन करने का फ़ैसला किया ताकि माई अपनी नई बहू को जीते -जी देख सके , लेकिन माई ने हमें ऐसा करने से सख्ती से मना कर दिया। उसने हमें आश्वस्त करते हुए साफ-साफ कह दिया की शादी नियत समय पर ही होगी , परन्तु तुम लोग डरो मत मै शादी के दो दिन बाद इस शरीर का त्याग करुँगी । और आश्चर्य की बात है कि हुआ भी ठीक ऐसा ही माई केवल गंगाजल पीकर नई बहु के स्वागत के लिए पच्चीस दिनों तक जीवित रही । माई ने अपने वचन का पालन करते हुए शादी के ठीक दो दिनों बाद इस नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया । हम तीन भाईयों के अतिरिक्त मझली दीदी प्रेमकुमारी ,चिंता व मीरा दीदी तथा छोटी बहने कंचन और रंजन व अन्य परिजनों की उपस्थिति में माई की आत्मा राम,राम राम,रा----- का उच्चारण करते हुए सदा के लिए परमात्मा में विलीन हो गयी । ( किसी कारणवश बड़ी दीदी शैलकुमारी उस वक्त वहां मौजूद नहीं थी शायद जीजा को छुट्टी नही मिल पाई थी, लेकिन हाँ माई उसे बहुत याद करती थी । बार-बार एक ही बात कहती थी कि सब त देखात बा बस बड़की पुतरिया नईखे लउकत ? )

माई भले ही आज इस दुनिया में नहीं रही लेकिन जब भी कभी माई के गीतों को बहनों के मुख से सुनता हूँ तो मन,प्राण झंकृत हो उठता है । ऐसा लगता है जैसे माई कहीं दूर गगन से ममता की अविरल अमृत वर्षा कर रही है

---बद्री नाथ वर्मा





















































































































































































































































































































































































































































































































































































































आख़िरकार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

माई ( भाग - एक )

बाबूजी के असामयिक निधन ने हमारे पुरे परिवार को हिलाकर रख दिया। हमने तो कभी कल्पना भी नही की थी की कभी ऐसा भी होगा। मुझे तो बहुत दिनों तक यह विश्वास ही नही होता था कि बाबूजी अब इस दुनिया में नही रहे। मुझे लगता था कि मै कोई सपना देख रहा हूँ और जैसे ही आंख खुलेगी सब कुछ पहले की तरह ठीक हो जाएगा, लेकिन न तो ऐसा होना था न हुआ। माई के तो आंसू रुकने का नाम ही नही लेते थे। माई को रोते देख कर हम सभी भाई बहन भी रोने लगते थे अंततः माई को अपने आंसुओं को पीना पड़ता था। खैर बाबूजी की मृत्यु के बाद चाचा द्वारा हमसे पिंड छुडा लेने के बाद माई ने जिस तरह से हम भाई बहनों को संभाला वह माई के ही वश की बात थी। यहाँ उसकी जिजीविषा प्रकट होती है, वह साहसी तो इतनी थी की कोई भी काम उसके लिए असंभव नही था।

जिस माई ने बाबूजी के जीवन काल में कभी बिना घूँघट के घर की दहलीज नहीं लांघी थी, उसे अब हम भाई-बहनों के भूख लडाई लड़नी थी। उसने इस चुनौती को स्वीकार किया और निकल पड़ी हमारे भूख से दो -दो हाथ करने। माई ने हमारे लालन - पालन में कोई कमी नही रखी। उसने हर वह काम किया जो सामाजिक मर्यादाओं के दायरे में आता है। उसने हमें बाबूजी के न होने का कभी अहसाह तक न होने दिया। माई ने उस घोर संकट काल में भी कभी भी हमें भूखे पेट नही सोने दिया। बहुत बार तो ऐसा भी हुआ कि हमारा पेट भरने के लिए ख़ुद माई को भूखे पेट सो जाना पड़ता था, फ़िर भी उसके चेहरे पर एक शिकन तक न पड़ती थी , उल्टे उसके चेहरे पर आत्म संतुस्टी का भाव झलकता था। यह सब देख कर कभी-कभी मेरा बालमन विद्रोह कर उठता था। मन करता था कि पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करूँ जिससे माई की कुछ सहायता कर सकू लेकिन माई मुझे ऐसा करने से मना करते हुए बड़े प्यार से समझाते हुए कहती कि देख बचवा , सुख-दुःख दिन -रात के तरह होला जईसे दिन के बाद रात आ रात के बाद दिन आवेला ओसही सुख के बाद दुःख आ दुःख के बाद सुख जरुर आवेला, एही से आदमी के कुल चिंता भगवान पर छोड़ के बस आपन काम में मन लगावे के चाही । तोहार काम बा अभी पढाई कईल एसे तू कुल चिंता-फिकिर छोड़ के केवल आपन पढाई पर ध्यान और गीता का एक श्लोक कर्मण्ये वा धिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन--------अर्थ सहित सुना देती थी। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि माई ने औपचारिक स्कूली शिक्षा तो नहीं पाई थी किंतु स्वाध्याय के बदौलत रामायण व गीता भली-भांति पढ़ व समझ लेती थी। माई गीत भी बहुत मधुर गाती थी , मै तो बार-बार जिद्द करके उससे भजन और खासकर "जतसार" ( ग्रामीण महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला एक प्रकार का पारंपरिक विरह गीत ) गवा कर सुनता था। माई को लगभग आधा रामायण कंठस्थ था। पढ़ने को तो माई कठिन से कठिन संस्कृत के श्लोक भी पढ़ लेती थी किंतु टेढ़े-मेढ़े अक्षरो में अपना नाम लिखने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं लिख पाती थी। बहरहाल माई सारी जिंदगी ख़ुद जलकर हमारे जीवन को रौशन करती रही। हमारी जिंदगियां सवारने में वह ऐसी खोई कि ख़ुद का सुध -बुध ही भुला बैठी । सन १९९५ की बात है। कोलकाता में मझली दीदी प्रेम कुमारी की पुत्री की शादी थी। मै भी उस वक्त तक कोलकाता में ही सेटल हो गया था। उसी शादी में शामिल होने के लिए माई भी कोलकाता आई हुई थी। शादी के एक सप्ताह पहले ही माई के पेट में भयंकर दर्द उठा। डाक्टरों ने बताया की पित्ताशय का कैंसर है। काफी ईलाज हुआ किंतु कैंसर अन्तिम स्टेज पर पहुच चुका था। डाक्टरों ने माई की जीवन रेखा को छोटी करते हुए अधिकतम तीन वर्षों की समय-सीमा में समेट दिया। उन्होंने साफ-साफ कह दिया की माई अब इस दुनिया में अधिकतम तीन वर्षों की ही मेहमान है। --------शेषांश अगले पोस्ट में । बद्री नाथ वर्मा ९८३६७२१२७६ तथा 8013538901

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

दिशाहीन नक्सली आन्दोलन

सन १९६७ में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव में जिस आन्दोलन ने जन्म लिया था , वह अब अपनी धार खोकर पुरी तरह से दिशाहीन हो गया लगता है । नक्सलबाड़ी गाँव के मेहनतकश लोगो द्वारा जमींदारो के खिलाफ किए गए सशत्र विद्रोह को नक्सल आन्दोलन नाम मिला था । लगातार कई दिनों तक चले इस आन्दोलन का नेतृत्व तब के स्थानीय वामपंथी नेता चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने किया था। इस आन्दोलन की लपटे इतनी तेज थी कि जल्दी ही यह देश के कई हिस्सों में फ़ैल गई, और देखते ही देखते पश्चिम बंगाल सहित उडीसा , बिहार, मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश , छत्तीसगढ़ ,झारखण्ड तथा दक्षिण के आंध्र प्रदेश सरीखे कई राज्य इसकी चपेट में आ गए।
लेकिन अन्याय और अत्याचार के खिलाफ शुरू हुआ यह आन्दोलन आज ख़ुद ही अत्याचार का प्रतिक बन गया है । आजकल जगह-जगह इसका विभत्स रूप दिखाई दे रहा है। निरीह लोगो का खून बहाना तो जैसे इन नक्सलियों का शगल बन गया है। कब,कौन,कहाँ इनके हत्थे चढ़ जाएगा और कब, किस आरोप में आरोपित हो इन खून के प्यासे नरपिशाचो कि बर्बरता का शिकार हो जाएगा, कहना मुश्किल है। इनकी वर्त्तमान कार्यशैली को देख कर तो कही से भी नही लगता कि यह जनता की भलाई के लिए किया जाने वाला कोई आन्दोलन है, बल्कि ठीक इसके उलट ऐसा लगता है कि जैसे इन कार्रवाईयों को किन्ही गुंडा गिरोहों द्वारा अंजाम दिया जा रहा हो। इनके रोंगटे खड़े कर देने वाले कारनामे रोज अखबारों कि सुर्खिया बटोर रहे हैं ।
अगर पिछले एक महीने की ही बात की जाय तो महारास्त्र के गढ़चिरौली में १७ सुरक्षाकर्मियों कि हत्या, बिहार के खगडिया में ग्रामीणों का सामूहिक नरसंहार ,झारखण्ड पुलिस के इंसपेक्टर इन्दुवर फ्रांसिस कि निर्मम तरीके से की गई हत्या .नक्सली बंद के दौरान रेल पटरियों को विस्फोट कर छत -विछत कर देना , पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के जंगली इलाको में रोज बा रोज राजनितिक कार्यकर्ताओ कि हो रही हत्याए तथा इसी जिले के सांकराइल थाना के दो पुलिस अधिकारियो की थाने में घुसकर हत्या और हथियारों कि लूट इनके खुनी आन्दोलन के नमूने है । इनकी दुस्साहसिकता कितनी बढ़ गई है यह इसी घटना से परिलक्षित होती है कि अभी चार दिनों पहले ही भुवनेश्वर से दिल्ली जा रही राजधानी एक्सप्रेस बाश्ताला में करीब पाच घंटो तक बंधक बनाये रखा ।
इस सबको देखकर तो यही लगता है कि पानी सर के ऊपर जा चुका है .अब सरकार को बिना देर किए व बिना राजनितिक लाभ-हानि का गुना भाग किए इन पर तत्काल सख्त कार्रवाई करनी चाहिए । सर्वहारा की बात कराने वाले नक्सलियों ने व्यक्तिगत रूप से अकूत संपत्ति इकट्ठी कि है। इनके वर्चस्व वाले इलाको में व्यवसाईयों व नौकरीपेशा लोगो से जबरन लेवी वसूली जाती है ।
जगह- जगह रेल पटरियों .विद्यालय भवनों को विस्फोट कर उड़ा देना, सड़को को कट कर आवागमन बंद कर देना या फ़िर बिजली के तारो व खम्भों टेलीफोन टावरों आदि को तोड़कर अथवा निर्दोष नागरिको कि न्रिशंश हत्याओ और सार्वजनिक संपत्तियों का नुकसान कर किसका और कितना भला हो रहा है यह तो वही बेहतर बता सकते है। वैसे एकाधिक बार यह प्रमाणित हो चुका है कि इनको विदेशी ताकतों से आर्थिक सहायता मिलती है। यहाँ एक बात और स्पस्ट कर दू कि गहन जंगलो में और आदिवासियों के बिच नक्सली या मावोवादी इसलिए नही जामे है कि वे आदिवासियों कि गरीबी और बदहाली से चिंतित या दुखी है। वे वह इसलिए रहते है क्योंकि एक अवैध आर्म्ड फोर्स होने के नाते वे जंगली इलाको में सामरिक रूप से ख़ुद को ज्यादा सुरक्षित और उपयुक्त पाते है। इसलिए अपने नियंत्रण वाले इलाको में नक्सली सड़क,रेल,स्कुल ,अस्पताल, दूरसंचार आदि सभी बुनियादी सुविधाओ का विरोध करते है, क्योंकि उन्हें पता है कि आदिवासियों के बीच विकास की रौशनी जिस दिन पहुँच जायेगी उसी दिन इनकी सशत्र क्रांति या यूँ कहे कि भ्रान्ति का पर्दाफाश हो जाएगा। -- बद्री नाथ वर्मा

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

apani baat

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो - रो के बात कहने की आदत नहीं रही.
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
मुझ पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही .
दुष्यंत की उपर्युक्त पंक्तिया मेरे जीवन पर बिलकुल ठीक बैठती है. मैंने जो भी अच्छा;-बुरा किया या हासिल;किया अपने दम पर ही किया है . मैंने अपने जीवन में जितना संघर्ष किया है शायद ही किसी ने किया हो ;-बद्री नाथ वर्मा
बद्री नाथ वर्मा
दुष्यंत की ईन पंक्तियों पर गौर फरमाईये-
मुझ को चलने दो अकेला , यूं ही चले मेरा सफर ।
गर मुझे रोका गया तो काफिला बन जाऊँगा ॥
( दो )
मौन शंकर मौन चंडी देश में , हो रहे हावी शिखंडी देश में ।
अपना बौनापन छिपाने के लिए , बो रहे हैं वो अरंडी देश में ।
भाव की पर्ची लगी हर भाल पर , हर गली बाज़ार मंडी देश में । हर गली ----------॥

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

वो गुजरा ज़माना बचपन का

मेरा जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के अत्यंत पिछडे जिले गाजीपुर के गहमर ग्राम में आज से करीब ४० वर्षो पूर्व एक मध्यम वर्गीय स्वर्णकार परिवार में हुआ था ।वैसे गहमर मेरा ननिहाल है । मेरे अपने गाँव का नाम परसा है जो इसी जिले के मुहम्मदाबाद थानान्तर्गत पड़ता है ।मेरा गाँव सड़क व रेलमार्ग से जुडा हुआ है । हम कुल नौ भाई -बहन है । मुझसे बड़ी चार बहने हैं । तो जाहिर है की मै जब पैदा हुआ तो बहनों के साथ ही बाबूजी ( स्वर्गीय गंगा प्रसाद ) और माई ( स्वर्गीया राम रति ) की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा । हो भी क्यों न मेरे जन्म से मेरी माई के ऊपर लगा निपूती का कलंक जो धुल गया था ।खैर मेरे बाद एक और भाई केदार नाथ फ़िर दो बहने तथा सबसे छोटा भाई काशी नाथ पैदा हुआ ।घर में खूब वैभव तो नहीं था किंतु हाँ दाल - रोटी की कमी नहीं थी । यहाँ एक बात जोड़ना चाहूँगा कि बाबूजी एक गैर सरकारी संस्था में मुनीम थे । जब वह छुट्टियों में घर आते थे तो फ़िर क्या पूछना, घर में दूध - दही की नदियाँ बहने लगती थी। इन दिनों हमारे नखरे देखने लायक होते थे .हमारी इच्छाएं तत्काल पुरी की जाती थी .कुल मिलकर हमारा परिवार एक खुशहाल परिवार था । लेकिन विधाता को शायद यह मंजूर नहीं था ,उससे हमारी खुशियाँ देखि नहीं गई और वह हो गया जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी । हाँ तो मैंने जैसा kaha की बाबूजी मुनीम थे , उस वक्त वे पटना की एक गैर सरकारी संस्था में सेवारत थे .वही हृदयाघात से उनका आकस्मिक निधन हो गया .बाबूजी की मृत्यु हमारे लिए किसी वज्रपात से कम नही थी । इस असर संसार से बाबूजी के अचानक यूँ चले जाने से माई के सामने हम सात भाई -बहनों को पालने की जिम्मेदारी एक विराट चुनौती बन कर खड़ी हो गई ,क्योंकि हमारे चाचा ने बाबूजी की तेरहवी के अगले दिन ही यह कहते hue हमसे पल्ला झाड़ लिया की अब अपना खर्चा संभालो । हमें अलग कर दिया । यहाँ यह स्पस्ट कर दू की बाबूजी अपनी मृत्यु के पूर्व ही दो बड़ी बहनों की शादी कर चुके थे । इस प्रकार बचे हम सात भाई -बहनों के पेट पालने की जिम्मेदारी मेरी माई के कंधो पर आ पड़ी । उस समय मै दस साल का था जबकि सबसे छोटे भाई की उमर थी महज डेढ़ साल । उस वक्त मै दुनिया जहाँ से बेखबर गाँव की ही प्राईमरी पाठशाला में कक्षा ५ वी का छात्र था। शेष अगली बार - बद्री नाथ वर्मा, कोलकाता 09836721276

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

शुभकामना

सभी पाठको व शुभचिंतको को दीपावली तथा छठ पूजा की हार्दिक बधाई । हमारी अकांछा है की सभी के जीवन में सुख,समृद्धि व खुशियाँ आए । आपका - बद्री नाथ वर्मा ०९८३६७२१२७६ कोलकाता

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

आओ बस्ती-बस्ती खेलें

महात्मा गाँधी के जन्मदिन २ अक्टूबर को कांग्रेसियों ने हास्यास्पद बना दिया । उत्तर प्रदेश के कांग्रिसियो के इस बस्ती - बस्ती खेल से दलितों का कितना फायदा हुआ वह तो नही पता लेकिन हाँ ,नेताऒ को प्रचार खूब मिला । और शायद यही कारणहै की दलित बस्तियों में जाने और वहां रात गुजारने की जैसे कांग्रेस में होड़ लग गई हो । हर कोई इस बहती गंगा में हाथ धोने को उतावला नजर आया । कोयला राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जैसवाल से लेकर भारतीय क्रिकेट टीम के पुर्व कप्तान व नए नवेले सांसद मो अजहरुद्दीन तक इस बस्ती-बस्ती खेल में ख़ुद को शामिल करने से नही रोक पाए । और कूद पड़े बिना कुछ सोचे समझे इस मजेदार खेल का हिस्सा बनने के लिए । वैसे दलित बस्तियों में रात गुजारने का चलन कांग्रेसी युवराज राहुल गाँधी ने शुरू किया था । इसी को आगे बढाते हुए क्रिकेट में मैच फिक्सिंग को लेकर मशहूर हुए मो अजहरुद्दीन आव देखा न ताव और दनादन अपने चुनाव क्षेत्र की एक दलित बस्ती में जा पहुंचे । खैर अजहरुद्दीन जाने को तो दलित बस्ती में जा पहुंचे किंतु शायद वहां की गरीबी या गन्दगी देखकर उनकी हिम्मत जवाब दे गई .बेचारे गए तो थे पुरे मीडिया के तामझाम के साथ अछूतोद्धार करने किंतु वहां जाकर किसी दलित के घर नही बल्कि हलवाई से बनवाकर खाना खाया ,और बमुश्किल एक घंटा ही वहां उस दमघोटू माहौल में बिता कर उल्टे पाववापस लौट आए । सवाल उठता है की ऐसे ड्रामे से क्या दलितों की दशा मेंसुधार हो जाएगा अगर सचमुच दलितों की चिंता है तो नाटकबाजी छोड़कर कुछ ठोस करें जिससे उनकी जिंदगी में खुशहाली आए । -बद्री नाथ वर्मा उप -संपादक भारतमित्र कोलकाता मोबाइल नम्बर -09836721276