शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

त्रिफला चूर्ण : संघ, बीजेपी और जेडीयू


हाजिर नाजिर

इन्ट्रो- गठबंधन के घटक दल सत्ता की नाव में बैठते ही एक दूसरे की तली में छेद करने में लग जाते हैं। तलाश रहती है एक उपयुक्त हथियार की। सेक्युलर नाम के ऐसे ही हथियार का प्रयोग कर रहे हैं नीतीश

हाईलाईटर- देश के दोनों सबसे बड़े गठबंधन टूटने की कगार पर
- हर घटक दल में है प्रधानमंत्री के दावेदार


सेक्युलर या धर्मनिरपेक्ष एक ऐसा शब्द बन गया है जिसका हर कोई श्लोक की तरह रट्टा मार रहा है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता एक ऐसी दुधारू गाय बन गई है, जिसे हर नेता अपने फायदे के लिए दुहने की फिराक में लगा रहता है। अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार नेता समय-समय पर इसकी अपने तरीके से व्याख्या करते रहते हैं। यानी यहां भी मामला 'चित भी मेरी पट भी मेरीÓ वाला ही है। बहरहाल, पिछले डेढ़ दशक से भाजपा के साथ सत्ता की मलाई चख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर इस गाय को दुहने की फिराक में जुट गए हैं। इससे एनडीए में एक बार फिर बिखराव का खतरा मंडराने लगा है। वैसे भी एनडीए मुख्यत: चार ही दलों का गठबंधन रह गया है। कई पुराने साथी उससे पहले ही किनारा कर चुके हैं। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि, क्या एनडीए एक बार फिर कमजोर होगा? लगता तो ऐसा ही है।
कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ तो जल्द ही जदयू भी एनडीए को बाय-बाय बोल देगा। यहां एक बात और गौर करने लायक है कि जदयू केराष्ट्रीय अध्यक्ष भले ही शरद यादव हैं पर चलती नीतीश की ही है। ज्यों ही अगले प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के नाम की चर्चा शुरू हुई, सामाजिक इंजीनियरिंग के महारथी नीतीश की महत्वाकांक्षा भी जोर मारने लगी। नीतीश कुमार को भला यह क्यों मंजूर होने लगा कि उनके रहते कोई नरेंद्र मोदी एनडीए का पीएम इन वेटिंग बन जाए। नीतीश ने कह दिया कि देश का अगला प्रधानमंत्री सेक्युलर होना चाहिए। इसी बहाने उन्होंने अपनी दावेदारी पेश कर दी। हालांकि खुलकर उन्होंने नहीं कहा, पर इशारों ही इशारों में जता दिया कि उनके रहते प्रधानमंत्री के लिए नरेंद्र मोदी का कोई नाम ले यह उन्हें मंजूर नहीं। इसी के साथ राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा के खिलाफ जाकर प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर जदयू ने एनडीए छोडऩे की भूमिका भी बना ली। अटकल तो यह भी लगाया जा रहा है कि इसके पीछे भाजपा के भीष्म पितामह, लालकृष्ण आडवाणी, का दिमाग काम कर रहा है। वही नीतीश को हवा दे रहे हैं। वैसे भी नीतीश के साथ उनकी बेहतर ट्यूनिंग है। क्योंकि अपनी पिछली रथयात्रा उन्होंने बिहार से ही शुरू की थी। सबसे मजे की बात यह है कि इस बेमतलब की कवायद को त्रिफला चूर्ण की करामात बताई जा रही है। त्रिफला चूर्ण यानी आरएसएस, बीजेपी और जदयू।
दरअसल, साल 2014 में होने वाला लोकसभा चुनाव ने नीतीश कुमार जैसे आधा दर्जन से अधिक नेताओं की उम्मीदों का पारा चढ़ा दिया है। उन्हें लग रहा है कि अगले चुनाव में जनता यूपीए को नकारने वाली है। ऐसे में न जाने किसके भाग से छींका टूट जाए और प्रधानमंत्री पद उनकी ही झोली में आ गिरे। देश में प्रधानमंत्री का पद तो मात्र एक ही है पर दावेदार आधा दर्जन से अधिक। प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के नाम की चर्चा क्या शुरू हुई सभी अपनी-अपनी गोटियां सेट करने में लग गए। दरअसल जिस तरह से नरेंद्र मोदी की जिद के आगे बेबस भाजपा को संजय जोशी से इस्तीफा लेना पड़ा उससे पार्टी में मोदी की अहमियत उजागर हुई। यहां एक बात साफ-साफ दिखाई दी की मोदी, पार्टी से भी बड़े हो गए हैं। इससे ऐसा माहौल तैयार हुआ मानो मोदी बीजेपी के नए सूर्य हों। इसी बहाने आरएसएस की कमजोरियां भी खुलकर सामने आ गईं। यहीं से एनडीए के राजनीतिक ताने-बाने की कलई खुलने लगती है। दरअसल, आरएसएस की कमजोरियों का असर बीजेपी पर पड़ रहा है और बीजेपी की फूट का असर एनडीए पर। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि संगमा के नाम पर बीजेपी अपने सहयोगियों तक को नहीं मना सकी। यहां तक कि शिवसेना ने भी संगमा के बजाय प्रणव मुखर्जी के पक्ष में खड़ा होना उचित समझा। जदयू तो पहले ही प्रणव मुखर्जी को अपने समर्थन का ऐलान कर चुकी थी। इसे लेकर बीजेपी और जदयू में सिर फुटौव्वल जैसी स्थिति पैदा हो गई। नीतीश के विश्वसनीय माने जाने वाले शिवानंद तिवारी तो बीजेपी पर दाना-पानी लेकर ही पिल पड़े। बार-बार बीजेपी नेताओं को आड़े हाथों ले रहे शिवानंद तिवारी पर आखिरकार जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को लगाम लगाना पड़ा। यादव ने शिवानंद तिवारी समेत सभी प्रवक्ताओं से दो टूक कह दिया कि वह किसी भी तरह का बयान देने से पहले नेतृत्व से राय-विचार कर लें।
दूसरी ओर देश का अगला प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए, कहकर बवाल मचा देने वाले नीतीश कुमार अभी भी अपने बयान पर डटे हुए हैं। उन्होंने एक बार फिर अपनी बात इस रूप में दोहराई कि गोल्डन वड्र्स आर नॉट रिपीटेड (स्वर्णिम शब्द दुहराए नहीं जाते)। बहरहाल, लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, पर एनडीए में प्रधानमंत्री पद को लेकर घमासान अभी से तेज हो गया है। पीएम उम्मीदवार को लेकर शर्तें रखे जाने पर गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी भी कहां चूकने वाले थे। उन्होंने भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर पलटवार किया। मोदी ने ट्वीट किया कि चरित्र से इच्छा का निर्माण होता है और कर्म से चरित्र का। जैसा कर्म होगा, वैसी इच्छा होगी। यहां एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि शिवसेना ने भी एनडीए की तरफ से पीएम उम्मीदवार के नाम का ऐलान एडवांस में किए जाने की नीतीश की मांग का समर्थन किया है। शिवसेना सांसद भरत राउत ने कहा है कि एनडीए में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते बीजेपी को पीएम उम्मीदवार के नाम का ऐलान एडवांस में करना चाहिए।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि 'प्रथम ग्रासे मच्छिकापात।Ó एनडीए में फूट के बीज पड़ चुके हैं। देखना यही है कि फसल पक कर तैयार कब होती है। इसी की अगली कड़ी है, राष्ट्रपति के लिए प्रणव मुखर्जी का समर्थन। ऐसा कर जदयू ने भाजपा से दूरी बनानी शुरू कर दी है। इधर नीतीश, एनडीए से छिटकने की तैयारी में हैं तो उधर यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी घटक, तृणमूल कांग्रेस, भी यूपीए से किनारा करने की कगार पर है। दोनों गठबंधन एक ही नाव पर सवार हैं। बहरहाल, बात अगर प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की की जाए तो उनकी संख्या दर्जनों में पहुंच जाएगी। नरेंद्र मोदी से लेकर नीतीश, मुलायम, लालू प्रसाद यादव तथा रामविलास पासवान तक सभी का लक्ष्य एक ही है, प्रधानमंत्री बनना। अगर इसे थोड़ा और विस्तार दें तो मायावती और ममता बनर्जी भी इस कतार में खड़ी दिखाई देंगी। सीधा सा हिसाब है न जाने किसके भाग्य से छींका टूट जाए। जब देवेगौड़ा, गुजराल और पी वी नरसिंहाराव जैसों के भाग खुल सकते हैं तो फिर इनको कैसे नकारा जा सकता है। हो सकता है कि 2014 की परिस्थितियां ऐसी ही बन जाएं। सभी इसी फेर में हैं। सबका अपना-अपना अंकगणित है। सबके अपने-अपने आंकलन हैं। पर 2014 के चुनाव में सबसे बड़ा खिलाड़ी वही बनेगा जो गणित में पक्का होगा। अब तक नीतीश और मोदी, दोनों इस गणित में माहिर साबित हुए हैं। लेकिन, दोनों की असली परीक्षा अगले आम चुनाव में होगी।

..............................................................बद्रीनाथ वर्मा

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