शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

दामन दागदार नहीं करेंगे दादा


स्लग- प्रसंगवश
राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो : भले ही प्रणव मुखर्जी यूपीए उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति चुने गए हैं। पर, उन्होंने इशारों ही इशारों में साफ जता दिया है कि कांग्रेस उनसे किसी अनैतिक फायदे की उम्मीद न पाले

हाईलाईटर- देश के शीर्ष राजनीतिक आसन पर विराजमान होने वाले प्रणव मुखर्जी 43 वर्षों की भारतीय राजनीति के गवाह हैं

'राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से ऊपर होता है। अवसर मिलने पर मैं इस पद की गरिमा और मूल्यों की हिफाजत करने का पूरा प्रयास करूंगा। ऐसा कोई भी काम नहीं करूंगा जिससे राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस लगे। मैं संविधान की शूचिता का पूरा ख्याल रखते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करूंगा।Ó देश के चौदहवें राष्ट्रपति चुने जाने के बाद दिया गया प्रणव मुखर्जी का यह बयान साफ इशारा करता है कि वह सिर्फ रबर स्टांप की तरह काम नहीं करेंगे। उनके इस बयान को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उनका बयान कांग्रेस को यह बतलाने के लिए है कि पार्टी उनसे किसी विशेष लाभ की उम्मीद न करे। वह गैर संविधान सम्मत कोई भी कार्य नहीं करेंगे। इसके पीछे वजह बताई जा रही है कि लगभग डेढ़ साल बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। जिस तरह से कांग्रेस के भीतर से राहुल गांधी को बड़ी भूमिका देने की बात उठ रही है। उससे साफ लग रहा है कि अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन सिंह के बजाय राहुल के नेतृत्व में लड़ेगी। चूंकि ताजा हालात को देखते हुए कांग्रेस की हालत पतली ही नजर आ रही है। ऐसे में रायसीना हिल्स की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। पर मुखर्जी ने भले ही इशारों में ही सही पर साफ जता दिया है कि वह दलीय आधार या कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाला कोई अनैतिक निर्णय नहीं लेने वाले। बहरहाल मुखर्जी का यह बयान राष्ट्रपति के पद की गरिमा के अनुरूप तो है ही। साथ ही उनके इस बयान ने उनके कद को और भी ऊंचा कर दिया है। गौरतलब है कि मुखर्जी देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर 13वें व्यक्ति और 14वें राष्ट्रपति होंगे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद दो बार इस पद के लिए चुने गए थे। यूपीए से बाहर के राजनीतिक दलों का भी समर्थन मिलने से संतुष्ट और खुश मुखर्जी ने कहा कि उनकी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। वह सभी के राष्ट्रपति होंगे। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा कि वह इस बात से खासतौर पर खुश हैं कि यूपीए से बाहर के भी जिन दलों ने उनका समर्थन करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, वे अपने वादे पर खरे उतरे। इसी के साथ उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही कि मैं सबका राष्ट्रपति रहूंगा। अपने समक्ष मौजूद चुनौतियों से भलीभांति वाकिफ मुखर्जी ने कहा कि राजनीतिक दलों के बीच मौजूदा द्वेष से वह चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है।
देशभर से मिले जबर्दस्त समर्थन के लिए सभी का आभार व्यक्त करते हुए नए नवेले राष्ट्रपति ने कहा कि मेरे पांच दशक के राजनीतिक जीवन में जितने लोगों ने मुझे सहयोग और समर्थन किया है उन सभी को मैं धन्यवाद देता हूं। उन्होंने यह बात जोर देकर कही कि राष्ट्रपति के रूप में संविधान का संरक्षण और उसे बचाना उनकी जिम्मेदारी होगी। वह संविधान की गरिमा का ख्याल रखेंगे व संविधान प्रदत्त अधिकारों का पूरी पारदर्शिता से निर्वहन करेंगे।
गौरतलब है कि राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले मुखर्जी की हार्दिक इच्छा प्रधानमंत्री बनने की रही है। गाहे बगाहे यह दर्द उनकी बातों में झलक भी जाता था। अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर दी थी। बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए। अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड़ रखने वाले 77 वर्षीय प्रणव दा सियासत की हर करवट को बखूबी समझते हैं। यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा यूपीए सरकार पर किसी भी तरह की मुसीबत आई तो वह सबसे आगे नजर आए। कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा सिर्फ और सिर्फ प्रणव मुखर्जी हैं। भले ही प्रणव दा के खिलाफ पी ए संगमा आदिवासी कार्ड के साथ मैदान में ताल ठोंक रहे थे, पर यह सिर्फ खानापूर्ति ही थी। मुखर्जी की जीत तो पहले से ही तय मानी जा रही थी। इसका आभास स्वयं उन्हें भी था। इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके मुखर्जी पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए। लगभग पैंतीस वर्षों तक वह राज्यसभा के लिए ही चुने जाते रहे। सियासी जिंदगी में पहली बार उन्होंने साल 2004 में लोकसभा का रुख किया। वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए। इसके बाद 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे। खैर, वह प्रधानमंत्री तो नहीं बन सके पर हां, देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद तक पहुंचने में जरूर कामयाब हो गए। मुखर्जी अगर देश के इस सर्वोच्च पद पर आसीन हुए हैं तो इसमें सिर्फ कांग्रेस की या यूपीए की ही भूमिका नहीं है बल्कि खुद मुखर्जी की सर्वस्वीकार्यता के फैक्टर ने भी काम किया है। यूपीए के संकटमोचक के तौर पर अपनी काबीलियत दिखा चुके मुखर्जी भारतीय राजनीति के ताने बाने को गहराई से समझने की कूव्वत रखते हैं। कांग्रेस व यूपीए के बाहर भी उनकी छवि एक अच्छे व सुलझे हुए राजनेता की रही है। यही कारण है कि दलीय सीमाओं से परे उनकी स्वीकार्यता ने ही विपक्षी गठबंधन राजग में विभेद पैदा कर दिए। यहां तक कि जदयू और शिवसेना जैसे दो विरोधी ध्रुव उनके समर्थन में खुलकर सामने आ गए। और तो और भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली जैसे प्रखर विरोधी भी उनकी तुलना क्रिकेट के योद्धा सर डॉन ब्रैडमैन से करने लगे। इससे यह विश्वास पैदा होता है कि देश का शीर्ष संवैधानिक पद वाकई सक्षम और सुधि हाथों में है।
उनका यह कहना काफी मायने रखता है कि देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले किसी भी व्यक्ति को आधुनिक भारत के संस्थापकों द्वारा स्थापित परंपराओं को बनाए रखना होगा। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉक्टर जाकिर हुसैन और इनके बाद राष्ट्रपति बने लोगों की ओर से स्थापित मानकों और परंपराओं के मुताबिक रहना उनका प्रयास रहेगा। मुखर्जी के इस बयान के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उन्होंने इस बहाने कांग्रेस व खासकर सोनिया को यह जता दिया है कि कांग्रेस उनसे किसी विशेष रियायत की उम्मीद न पाले। वह सिर्फ और सिर्फ संविधान के अनुरूप ही काम करेंगे। अब आगे देखना दिलचस्प होगा कि वाकई प्रणव दा अपनी अलग छवि गढ़ पाते हैं या उनकी यह कथन सिर्फ कर्णप्रिय बातें ही साबित होती हैं।

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