सोमवार, 2 अप्रैल 2012

क्यों नपे दिनेश

क्यों नपे दिनेश
(राष्ट्रीय साप्ताहिक'इतवार'के 8 अप्रैल के अंक में प्रकाशित )
दिनेश त्रिवेदी क्या रेल मंत्रालय से सिर्फ इसलिए बेदखल किये गये कि उन्होंने रेल किराये में वृद्धि कर दी थी। या फिर इसके पीछे कोई अन्य कारण है। यदि रेल किराये में वृद्धि उनके हटाये जाने का कारण है तो बजट की आलोचना तो विपक्ष की तरफ से भी नहीं हुई थी। जबकि सरकार के हर काम में विपक्ष को मीन मेख दिखायी पड़ता है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि तब क्यों नपे दिनेश? दरअसल उनको बेदखल किये जाने की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। जैसा कि स्वयं त्रिवेदी भी मानते हैं कि गत 14 मार्च को एक टीवी डिबेट के दौरान एक पत्रकार ने कहा था कि ममता ने त्रिवेदी को हटाने का मन बना लिया है। रेल बजट के बाद उन्हें हटा दिया जायेगा। रेल बजट तो सिर्फ एक बहाना है। ममता को उन्हें सलटाना था, सो सलटा दिया। इसका रेल बजट से कोई लेना देना नहीं है। रेल बजट में यात्री किराये में वृद्धि को आधार बनाकर मां, माटी, मानुष की पुरोधा ने उनकी बलि ले ली। आम आदमी के नाम पर। नाम भले ही आम आदमी का लिया गया हो किन्तु त्रिवेदी को हटाये जाने की पटकथा कोलकाता में बहुत पहले ही लिखी जा चुकी थी। बस इंतजार था सही मौके का। इस बात की जानकारी ममता के करीबी कुछ खास लोगों को भी थीं। उन्हीं में से एक ने उक्त पत्रकार को त्रिवेदी को हटाये जाने की सूचना दे दी थी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी ममता बनर्जी का रेल मंत्रालय में हस्तक्षेप बराबर बना रहा। यह अक्सर ही पश्चिम बंगाल के राजनीतिक गलियारों में मजाक का विषय बनता रहा है। यह बात त्रिवेदी को पसंद नहीं आ रही थी। त्रिवेदी के रेलमंत्री बनने के बाद भी ममता बनर्जी के रेलवे के कार्यों में हस्तक्षेप को देखते हुए मजाक में उन्हें रेलवे का मुख्यमंत्री कहा जाने लगा था। शुरुआती दौर में तो सब कुछ ठीकठाक रहा किन्तु जब त्रिवेदी रेलवे के फैसले खुद लेने लगे तो दोनों के रिश्तों में खटास आने लगी। इसमें कुछ हद तक हाल की परिस्थितियां भी जिम्मेदार रहीं। त्रिवेदी से ममता की नाराजगी की अटकलें पिछले काफी दिनों से लगायी जा रही थी। इसके पहले जब तब रेलमंत्री को हटाये जाने संबंधी राइटर्स से छन कर आती हुई खबरों को मात्र राजनीतिक शगूफेबाजी ही माना जाता रहा है। बावजूद इसके राजनीतिक पंडित इस बात को पिछले काफी अर्से से ताल ठोंककर कह रहे थे कि दिनेश का जाना तय है। उनके जाने को लेकर पटकथा लिखी जा चुकी हैं। हालांकि उन्हें इस तरह रवाना किया जायेगा इसका आभास किसी को भी नहीं था। खैर, ममता की हुक्मउदूली कर उनके सामने चार दिनों तक डटकर खड़ा रहने की हिमाकत करने वाले त्रिवेदी और ममता का साथ कितने दिनों तक रहता है, इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं।
प्रसंगवश यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिस रेल बजट को आधार बनाकर त्रिवेदी को सलटाया गया पहले तृणमूल की ओर से उसकी प्रशंसा हुई थी। त्रिवेदी द्वारा बजट पेश किये जाने के तुरंत बाद तृणमूल कोटे से केन्द्रीय पर्यटन राज्य मंत्री बने सुल्तान अहमद ने कहा था कि इस परिस्थिति में इससे अच्छा बजट हो ही नहीं सकता था। हालांकि जैसे ही ममता की नाराजगी की खबर लगी अहमद की बोलती बंद हो गयी। महज घंटे भर बाद ही वे अपने बयान से ठीक 180 डिग्री पलट गये और कह दिया कि मैं पार्टी लाइन के साथ हूं। 14 मार्च को जिस समय त्रिवेदी संसद में रेल बजट प्रस्तुत कर रहे थे तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी नंदीग्राम में आयोजित एक सभा को संबोधित कर रही थीं। यह सभा भूमि अधिग्रहण आंदोलन के दौरान मारे गये लोगों की याद में आयोजित थी। रेल यात्री किराये में बढ़ोतरी को त्रिवेदी को निपटाने का अच्छा अवसर उन्होंने माना। उन्होंने वहीं से प्रधानमंत्री को त्रिवेदी को हटाने का फरमान जारी कर दिया। उन्हें लगा कि मां, माटी, मानुष के नाम पर हुई इस कार्रवाई से सांप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। साथ में बोनस के तौर पर मिलेगी वाहवाही। हालांकि हुआ इसके ठीक विपरीत। यह मामला उनके गले की हड्‍डी साबित हुआ। न निगलते बन रहा था और न ही उगलते। कांग्रेस के पीठ थपथपा देने से त्रिवेदी भी अड़ गये। उन्होंने इस्तीफा देने से साफ इन्कार कर दिया। उन्होंने पार्टी को अपनी तीसरी प्राथमिकता बताते हुए साफ कह दिया कि उनके लिए देश पहले है। देश के लिए काम करना अगर बगावत है तो यही सही। और वे लगातार चार दिनों तक पूरी पार्टी की छिछालेदर करते रहे।
यूं तो दिनेश त्रिवेदी की विदाई की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी किन्तु 14 मार्च को रेल बजट के दौरान कही गयी त्रिवेदी की कई बातें ममता को गहरे साल गयी। जैसे कि रेल मंत्रालय को आईसीयू से बाहर निकालने के लिए इस बजट की नितांत आवश्यकता है। या फिर देश पहले है पार्टी बाद में अथवा रेल मंत्रालय रेल भवन से चलता है राइटर्स से नहीं। यह ममता पर सीधा आक्षेप था। यह एक कटु सत्य है कि अपने कार्यकाल के दौरान चुनावी लाभ के लिए ममता बनर्जी लोक लुभावन वायदों को पूरा करने के लिए रेलवे को दूहकर कंगाल बना चुकी हैं। किन्तु रेलवे के आईसीयू में होने की स्वीकारोक्ति करते हुए त्रिवेदी यह भूल गये थे कि रेलमंत्रालय भले ही राइटर्स से नहीं चलता हो लेकिन उन जैसे नेताओं की तकदीर का फैसला जरूर वहां से होता है। जब तक ममता राइटर्स में हैं हर फैसला वहीं से होगा। चाहे वह राज्य का कोई विभाग हो या उनके कोटे का रेलमंत्रालय। हालांकि रेल बजट पेश करने के लिए अपने घर से निकलते समय पता नहीं रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने खुद सोचा था या नहीं कि पिछले एक दशक से उन्होंने ममता बनर्जी का जो विश्वास हासिल किया है वह महज दो घंटे में ध्वस्त हो जायेगा। मगर हुआ ऐसा ही। बजट एपिसोड के दौरान लगातार चार दिनों तक मीडिया की सुर्खियों में बने रहे त्रिवेदी का कद इसके पूर्व पार्टी में औसत दर्जे के एक सामान्य नेता की तरह ही रहा है। उन्हें केन्द्र में ममता का खड़ाऊं मंत्री ही माना जाता रहा है। हालांकि अब हालात बिल्कुल ही बदल गये हैं। रेल बजट प्रस्तुत करने के बाद जहां देश भर में उनकी राजनीतिक हैसियत में जबरदस्त इजाफा हुआ वहीं तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो की जमकर थुक्का फजीहत हुई।
गुजराती परिवार में जन्मे त्रिवेदी ने कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से वाणिज्य में स्नातक की है। उनका राजनीतिक सफर सन 1980 से कांग्रेस के जरिये शुरू हुआ। 1990 में वे जनता दल में चले गये और जब साल 1998 में कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस का गठन किया तो दिनेश त्रिवेदी उनके साथ हो लिए। उन्हें ममता ने नवगठित पार्टी का पहला महासचिव नियुक्त किया। इस दौरान दिनेश त्रिवेदी ने ममता बनर्जी का जबर्दस्त विश्वास हासिल किया। यह वक्त ममता के राजनीतिक जीवन का सबसे बुरा दौर था। सन् 2006 में ममता बनर्जी जब सिंगुर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ 26 दिन लंबी भूख हड़ताल पर बैठी थीं, उस वक्त त्रिवेदी दिल्ली में उनके समर्थन में माहौल बना रहे थे। यह त्रिवेदी की ही कामयाबी थी कि इस मुद्दे पर पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह भी उनके साथ खड़े थे। गत लोकसभा चुनाव में सीपीएम के गढ़ कहे जाने वाले बैरकपुर संसदीय सीट पर माकपा के कद्दावर नेता तड़ितवरण तोपदार को जबर्दस्त पटखनी देकर जीत दर्ज करने के बाद वे ममता के और भी करीब हो गये। दिनेश त्रिवेदी की इस सफलता से गदगद ममता ने इसे त्रिवेदी की जीत करार देते हुए बयान दिया कि यह "दिनेश दा की जीत है।"
दिनेश त्रिवेदी ने ममता बनर्जी के प्रति अपनी वफादारी निभाई तो समय-समय पर ममता ने भी उन्हें इसका इनाम दिया। पिछले साल पश्चिम बंगाल विधान सभा में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद जब ममता बनर्जी ने राज्य का बागडोर संभाला तो रेलवे मंत्रालय की महत्वपूर्ण विरासत त्रिवेदी को सौंपा। हालांकि इसके पूर्व मुकुल राय को रेल मंत्री बनाया गया था किन्तु प्रधानमंत्री की ओर से वीटो लगा दिये जाने के कारण मुकुल को हटाकर त्रिवेदी को रेल मंत्रालय का कार्यभार सौंप दिया गया था। लेकिन धीरे धीरे दोनों के रिश्तों में खटास आने लगी। इसके पीछे कई कारण बताये जाते हैं। पिछले महीनों में राज्य में घटी कुछ घटनाओं व रेलमंत्री की कांग्रेस से बढ़ती नजदीकियों ने इसमें अहम रोल अदा किया। लेकिन जब दिनेश त्रिवेदी ने रेल किराया बढ़ाने, पार्टी नेतृत्व के विरोध के बावजूद इसका बचाव करने और सीधे तौर पर ये कहने की हिम्मत जुटा ली कि रेल मंत्रालय राइटर्स बिल्डिंग से नहीं बल्कि रेल भवन से चलता है तो अग्निकन्या उनके इस बागी व्यवहार को बर्दाश्त नहीं कर पाईं। और उन्हें तत्काल हटाये जाने का फरमान जारी कर दिया।
दरअसल त्रिवेदी को रेलमंत्री बनाये जाने के पीछे ममता का उद्देश्य था कि इससे उद्योग घरानों में सकारात्मक संदेश जायेगा। और टाटा की नैनो परियोजना की खिलाफत करने से उन पर लगा उद्योग विरोधी होने का दाग धुल जायेगा। उनकी लाख चेष्टा के बाद भी उद्योगपतियों ने इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखायी। मुख्यमंत्री की कसौटी पर खरा नहीं उतरने के परिणामस्वरूप उनको रेल मंत्रालय से हटाने की चर्चा अक्सर राज्य के राजनीतिक गलियारों में सुनी जा रही थीं। ममता उन्हें हटाने का मन तो बहुत पहले ही बना चुकी थीं। बस वे सही मौके की तलाश में थीं। ताकि उन पर अंगुली न उठे। लेकिन सच तो यह है कि दिनेश त्रिवेदी की रेल को पटरी से उतारने में उनकी जो छिछालेदर हुई है। ऐसी पहले कभी नहीं हुई थी।
भले ही तृणमूल कांग्रेस के कट्टर समर्थक व दिनेश त्रिवेदी के बढ़ते कद से ईर्ष्या करने वाले इस बात से खुश हो लें कि अंततः ममता बनर्जी ने रेल बजट को बहाना बनाकर दिनेश त्रिवेदी को निपटा दिया। पर सच तो यह है कि जिस तरह से दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्रालय से बाहर का रास्ता दिखाया गया उससे तृणमूल कांग्रेस के भीतर भी नाराजगी देखी जा रही है। इस कार्रवाई को खुद तृणमूल कांग्रेस के एक वर्ग ने भी पसंद नहीं किया।
तृणमूल के गठन के बाद से ही ममता की परछाई की तरह हर मौके पर उनका साथ देने वाले त्रिवेदी को इस तरह हटाये जाने को लेकर खासी नाराजगी देखी जा रही है। कहा जा रहा है कि रेलमंत्री के रूप में त्रिवेदी द्वारा स्वतंत्र रूप से किये जाने वाले फैसले व कांग्रेस से बढ़ती उनकी नजदीकियां ममता को रास नहीं आ रही थी।
पिछले दिनों राज्य में घटी कुछ घटनाओं को आधार बनाकर राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहट तेज थी कि रेलमंत्री त्रिवेदी पार्टी सुप्रीमो की कसौटी पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। इन घटनाओं के मद्देनजर कहा जा रहा था कि त्रिवेदी की भूमिका से ममता संतुष्ट नहीं है। मुख्यमंत्री के निकटस्थ लोगों को भी इस बात की जानकारी थी। दरअसल त्रिवेदी को रेलमंत्री बनाये जाने के पीछे दो उद्देश्य थे। पहला राज्य से टाटा की महत्वाकांक्षी नैनो परियोजना गुजरात चले जाने से ममता बनर्जी पर उद्योग विरोधी होने का लगा ठप्पा हटाना और दूसरा उद्देश्य था राज्य में निवेश आकर्षित करना। बनर्जी का मानना था कि चूंकि त्रिवेदी स्वयं एक उद्योगपति हैं इसलिए उन्हें मंत्री बनाये जाने से उद्योगपतियों में सकारात्मक संदेश जायेगा और वे राज्य की ओर रुख करेंगे। इससे वाममोर्चा सरकार से विरासत में मिले लगभग दो लाख करोड़ रुपये के कर्ज तले दबे राज्य को उबारने में मदद मिलेगी। इसी छटपटाहट के तहत जहां दिनेश त्रिवेदी को केन्द्रीय रेलमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठाया गया वहीं राज्य का वित्तमंत्री अमित मित्र को बनाया गया। मित्र उद्योग संगठन फिक्की से जुड़े रहे हैं। इसी के साथ पार्टी के वरिष्ठ नेता पार्थ चटर्जी को उद्योग मंत्रालय की कमान सौंपी गयी। राजधानी कोलकाता में आयोजित सैकड़ों कार्यक्रमों में उद्योगपतियों को भरोसा दिलाने की कोशिश की गयी कि वे बंगाल में महफूज हैं किन्तु लाख चेष्टाओं के बाद भी उद्योगपतियों ने राज्य में निवेश के लिए वह उत्साह नहीं दिखाया जैसा बनर्जी ने सोचा था। हालांकि इसके लिए ममता सरकार की ढुलमुल नीतियां ही जिम्मेदार रहीं। उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण संबंधी राज्य सरकार की एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली नीति अधिकांश उद्योगपतियों को रास नहीं आयी। इसके पीछे एक और कारण बताया जा रहा है व्यवसायी वर्ग में राज्य सरकार की छवि खराब होना। आमरी अस्पताल अग्निकांड के बाद अस्पताल के संचालकों पर हुई कार्रवाई को मारवाड़ी विरोधी माना गया। चूंकि अधिकतर उद्योगपति मारवाड़ी या गुजराती समुदाय से है ऐसे में सरकार के पक्ष को अपने समुदाय में सही तरीके से पेश न कर पाने से भी ममता रेलमंत्री त्रिवदी से नाराज बतायी जाती रही हैं। बहरहाल जिस सोच के तहत दिनेश त्रिवेदी को रेलमंत्री बनाया गया था वह परवान नहीं चढ़ पाया। इससे ममता की नजरों में फिसड्डी साबित हुए त्रिवेदी की कुर्सी पर खतरे की तलवार लटक रही थी। इसे त्रिवेदी भी बखूबी समझ रहे थे। यही कारण है कि पार्टी की नाराजगी के बावजूद वे लगातार चार दिनों तक पार्टी प्रमुख की छिछालेदर करते रहे।
बद्रीनाथ वर्मा
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