शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

समाजवाद के चोले में परिवारवाद का पोषण


(मेरा यह आलेख देश के कई नामी गिरामी अखबारों में प्रकाशित हुआ है। )
कांग्रेस के वंशवाद को लेकर कोसने वाली लगभग सभी पार्टियां आज पूरी तरह से वंशवाद, परिवारवाद और भाई भतीजावाद के शिकंजे में कसी हुई हैं। क्षेत्रीय पार्टियों का तो हाल और भी बुरा है। समाजवाद व सामाजिक न्याय जैसे भारी भरकम शब्दों का सहारा लेकर तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तर्ज पर चल रहे हैं। समाज के वंचित वर्गो व दबे कुचलों के हक के लिए गला फाड़कर चिल्लाने वाले इन तथाकथित सामाजिक न्याय के पुरोधाओं के सामने जब अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का सवाल आता है तो अपने परिवार से आगे इन्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता। अपने परिवार व बेटों बेटियों को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपकर उन्हें सियासत में स्थापित करने के लिए ये किसी भी हद तक चले जाते हैं। समाजवादी पार्टी से लेकर राष्ट्रीय जनता दल तक या फिर लोकजनशक्ति पार्टी तक सभी दलों का एकमात्र एजेंडा परिवारवाद का पोषण करने से इतर कुछ भी नहीं है। लोहिया को अपना आदर्श मानने वाली समाजवादी पार्टी जहां मुलायम सिंह की जागीर बन गई है तो जयप्रकाश नारायण का चेला कहलाने में गर्व महसूस करने वाले लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल लालू पति-पत्नी, बेटी एंड संस। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के बेटे, बहु तथा भाइयों भतीजों को लेकर कुल 14 लोग समाजवाद को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं।  तेरह लोग पहले से थे, चौदहवें का प्रादुर्भाव पंचायत चुनावों के जरिए हो रहा है। उधर, राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव अदालत द्वारा चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराए जाने के बाद अपने दोनों बेटों तेज प्रताप व तेजस्वी यादव को बिहार की राजनीति में स्थापित करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। एक बेटे को राघोपुर से तो दूसरे को महुआ से चुनावी मैदान में उतार कर साफ संकेत दे दिया है कि राजद उनकी पारिवारिक पार्टी है। राजद लालू की पारिवारिक पार्टी है वे इससे पहले भी साबित कर चुके हैं। याद होगा चारा घोटाले में जेल जाने से पूर्व उन्होंने तमाम वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर अपनी अंगूठाछाप पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद पर सुशोभित कर दिया था। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब लालू प्रसाद ने अपनी बेटी मीसा भारती को राजनीति में स्थापित करने के चक्कर में अपने सबसे विश्वस्त साथी रामकृपाल यादव को खो दिया। रामकृपाल यादव की ख्याति लालू के हनुमान के रूप में रही है। लोकसभा चुनाव में टिकट काटे जाने से नाराज रामकृपाल यादव ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया और मोदी लहर पर सवार होकर बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़कर बिहार में यादवों का एकमात्र नेता होने का लालू प्रसाद का भ्रम तोड़ दिया। यादव बहुल सीट पटना साहिब से उन्होंने लालू को उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसी पटखनी दी कि वे बगले झांकने पर मजबूर हो गये। हालांकि इससे लालू ने कोई सबक नहीं लिया। लालू की राजनीतिक विरासत पर दावेदारी करने के अपराध में राजद मुखिया ने मधेपुरा से सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव को पार्टी से चलता कर दिया। लालू के पारिवारिक न्याय में बाधा बने रामकृपाल व पप्पू का आरोप है कि लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय की आड़ में पारिवारिक न्याय करने में व्यस्त हैं। बहरहाल, लालू को खुश करने के लिए नीतीश कुमार को राघोपुर से जदयू के सीटिंग एमएलए सतीश कुमार का टिकट काटना पड़ा। इससे आहत सतीश कुमार बीजेपी में शामिल हो गये और अब केसरिया झंडे के तले लालू को चुनौती दे रहे हैं। बहरहाल, दलितों के खैरख्वाह रामविलास पासवान जिन्हें लालू प्रसाद मौसम वैज्ञानिक करार दे चुके हैं के कुनबे का हर सदस्य लोक जनशक्ति पार्टी के किसी न किसी पद पर काबिज है। रही बात चुनाव लड़ने की तो उनके दोनों भाई पशुपति कुमार पारस व रामचंद्र पासवान तो चुनाव लड़ ही रहे हैं उनके भतीजे व रामचंद्र पासवान के बेटे भी लोक जनशक्ति पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में ताल ठोंक रहे हैं। अलबत्ता इस बीच पासवान की पहली बीवी से पैदा बेटी उषा पासवान के पति अनिल कुमार साधु ने टिकट नहीं मिलने पर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। साधु ने अपने ससुर की पोल खोलने की धमकी देते हुए पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार पार्टी का रुख कर लिया है। अब बात जीतनराम मांझी की। उनके बेटे संतोष मांझी भी हम के टिकट पर चुनाव मैदान में उतर चुके हैं इससे नाराज मांझी के दामाद देवेंद्र मांझी ने भी पप्पू की पार्टी ज्वाइन कर ली है। उनका आरोप है कि जीतनराम उनकी कीमत पर अपने पुत्र को आगे बढ़ा रहे हैं।
उधर, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के कुनबे का 14वां सदस्य पंचायत चुनाव के जरिए सक्रिय राजनीति में शामिल हो गये हैं। सपा मुखिया के छोटे भाई राजपाल यादव के बेटे अभिषेक उर्फ अंशुल इटावा के जसवंतनगर विधानसभा क्षेत्र के तकहा विकास खण्ड से जिला पंचायत सदस्य पद के उम्मीदवार हैं। राजपाल यादव की पत्नी प्रेमलता जिला पंचायत की अध्यक्ष हैं। इटावा के एक वरिष्ठ सपा नेता का दावा है कि अंशुल यदि चुनाव जीतते हैं तो वह जिला पंचायत अध्यक्ष के दावेदार हो सकते हैं। सपा के कद्दावर नेता और मुलायम सिंह यादव के भाई राम गोपाल यादव भी इटावा के जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुके हैं।
सपाध्यक्ष के कुनबे से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनकी सांसद पत्नी डिम्पल यादव उत्तर प्रदेश के लोक निर्माण विभाग मंत्री शिवपाल सिंह यादव, उनकी पत्नी सरला और पुत्र आदित्य, राज्यसभा सदस्य राम गोपाल यादव और उनके पुत्र लोकसभा सदस्य अक्षय यादव, दिवंगत रणवीर यादव और उनके सांसद पुत्र तेज प्रताप, सांसद धर्मेन्द्र यादव और उनके छोटे भाई अनुराग, प्रेमलता और अब उनके पुत्र अभिषेक राजनीति में हैं। 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

ए सखि साजन? ना सखि नेता


( मासिक पत्रिका कैमूर टाइम्स में प्रकाशित
जब जब अपनी लय मे आवे 
चांद सितारों से ललचावे
मुझको सबसे प्रिय बतलाता
का सखि साजन? ना सखि नेता। ‘कह मुकरी’ की ये पंक्तियां बिहार विधानसभा चुनाव का मिजाज पढ़े जाने के लिहाज से बिल्कुल उपयुक्त हैं। लोक काव्य की सबसे अधिक चर्चित विधाओं में से एक है ‘कह मुकरी’। इसका सीधा सा अर्थ है कुछ कहकर उससे मुकर जाना। ‘कह मुकरी’ मूलत: दो सखियों के बीच एक ऐसा संवाद है, जिसमें पहले तीन पदों में एक सखी अपने प्रिय को याद करती जान पड़ती है। जब चौथे पद में उसकी सखी उसके कथनों से 'साजन' अभिप्राय लगाती है, तब पहली सखी अपनी बात से मुकर जाती है और पहले तीन पदों में कही अपनी बातों का कुछ और ही अर्थ बता देती है। बिहार विधानसभा चुनाव के संदर्भ में देखें तो मतदाताओं की झोली में चांद सितारे तक डाल देने की बातें हो रही हैं। इसके लिए एक से बढ़कर एक नारे गढ़े गये हैं। चुनावी घोषणाओं की झमाझम बारिश हो रही है। जनता को लुभाने के लिए हर बार की तरह इस बार भी घोषणापत्र या यह भी कह सकते हैं कि वादों का पुलिंदा जारी करने की परंपरा का बखूबी निर्वहन किया गया है। इन घोषणापत्रों या वचन पत्रों अथवा विजन पत्रों में वादों की लंबी फेहरिश्त है। घोषणापत्र जारी करने की परंपरा राजनीति की उस पीढ़ी ने शुरू किया था जो आजादी के आंदोलन से निकली थी। आजादी के आंदोलन से निकले इन तपे तपाये नेताओं के मन में देश को बदलने की हसरत थी। तब घोषणापत्र में कही गई हर बात को पूरा करना  उनका मकसद होता था। मगर आज घोषणापत्र जारी करना राजनीतिज्ञों के लिए एक रस्म भर बन कर रह गई है। हो भी क्यों न, इसे जनता चुनाव के पहले नहीं पढ़ती और नेता चुनाव के बाद। कुल मिलाकर माजरा ‘कह मुकरी’ से तनिक भी अधिक नहीं है। यहां पैकेज को भुनाने से लेकर भावनाएं उभारकर वोटों की फसल काटने की तरकीबें आजमाई जा रही हैं। सच यह भी है कि अक्सर भावनाएं मुद्दों पर भारी पड़ जाती हैं। इन सबके बावजूद जातिवाद, परिवारवाद और वंशवाद बिहार की राजनीति का वास्तविक यथार्थ है। बिहार में जातियता किस कदर गहरा जड़ जमाए बैठी है इसकी बानगी इसी से जानी जा सकती है कि कुशवाहा मतों को अपनी ओर खींचने के लिए नीतीश कुमार ने अपने तत्कालीन सहयोगी उपेंद्र सिंह को बाकायदा एफिडेविट के जरिए उपेंद्र कुशवाहा बना दिया। बिहार दौरे के दौरान कैमूर टाइम्स की टीम ने साफ महसूस किया कि पढ़े लिखे लोग भी जातियता के फंदे से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। चाहे वह मुगलसराय में पदस्थ दानापुर निवासी रेलवे में ड्राइवर राजेंद्र सिंह हों या मेरठ छावनी में तैनात आरा निवासी फौजी अरुण यादव। स्वजातीय होने की लिहाज से लालू यादव के प्रति इनका झुकाव स्पष्ट दिखा। वहीं युवाओं व अन्य लोगों को मोदी का विकास लुभा रहा है। इससे इतर राजनीतिक रूप से जागरूक बिहार के हर गली कूचे में चुनावी गणित सुलझाने के साथ ही राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की जीत-हार पर चर्चा चरम पर है। सभी के अपने-अपने तर्क होते है। चुनावी बहस का मुख्य मुद्दा है कि अगली सरकार किसकी बनेगी, कौन बड़ा नेता चुनाव हार जायेगा या फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोबारा सत्ता में वापसी करेंगे या नहीं। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी के सवा लाख करोड़ रुपये के विशेष पैकेज का एनडीए को कितना लाभ मिलेगा। बहस के दौरान ही कोई राजग की जीत तय मान रहा होता है तो कोई महागठबंधन की ही दोबारा सरकार बनाने की बात करता है। सभी को लगता है कि उसके दावे में दम है। 
खैर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए लगातार नीतीश कुमार पर लगातार आक्रामक वार करता जा रहा है। नीतीश अपनी कमजोरी को ताकत बनाने की कोशिश में हैं। एनडीए जितना अटैक कर रहा है नीतीश अपने आप को उतना ही कमजोर व असहाय पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। तमाम मुद्दों को किनारे कर नीतीश ने बड़ी चालाकी से डीएनए शब्द को मुद्दा बनाने की कोशिश की। नीतीश शायद इस अहसास तले काम कर रहे हैं कि पीएम मोदी की छवि को तोड़ने के लिए बिहार में विकास को नहीं, भावना को मुद्दा बनाना होगा। डीएनए का मुद्दा फ्लाप होने के बाद पीएम द्वारा उन्हें याचक कहे जाने को मुद्दा  बनाने लगे। दरअसल नीतीश कुमार की पूरी कोशिश इस छवि को पेश करने की है कि वे असहाय हैं और बीजेपी केंद्र से ताकत लेकर उन पर हमले कर रही है। दरअसल, यह सब करने के पीछे नीतीश कुमार की सोची समझी गहरी रणनीति है। इसी तरह की रणनीति को अभी हाल ही में दिल्ली में जबरदस्त सफलता मिली है। एड़ा बनकर पेड़ा खाने वाली इसी राजनीति को अपनाकर अरविंद केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गये। केजरीवाल ने पूरी शिद्दत के साथ अपनी छवि ताकतवर विरोधियों के सामने एक लाचार संघर्षशील नेता वाली पेश की। राजनीति में असली मालिक जनता होती है। ताकत भी जनता के पास ही होती है। मालिक के पास अगर कोई शौक से भी असहाय शोक मनाए तो मालिक सहानुभूति का मत प्रदान कर देता है। शायद इसीलिए नीतीश कुमार शौक से शोक मना रहे हैं।

नाक की लड़ाई बन चुके बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे बताएंगे कि कौन हाफ हुआ और कौन साफ हो गया। हाफ और साफ इसलिए क्योंकि अगर भाजपा हारी तो मोदी हाफ और महागठबंधन की पराजय हुई तो नीतीश कुमार पूरी तरह से साफ। दरअसल, इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रतिष्ठा पूरी तरह से दांव पर लगी हुई है। अगर भाजपा या एनडीए की हार हुई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की सेहत पर भले ही तात्कालिक रूप से कोई खास असर नहीं पड़ेगा पर हां, एक बात जरूर है कि उनका आभामंडल जरूर छीजेगा। साथ ही बिहार कोटे से केंद्र में मंत्री बनाए गये कई नेताओं की कुर्सी भी खतरे में पड़ जाएगी। दिल्ली चुनाव को अगर अपवाद मान लें तो लोकसभा चुनाव के बाद अब तक हरियाणा, महाराष्ट्र से लेकर जम्मू-कश्मीर व झारखंड विधानसभा के चुनाव में ब्रांड मोदी का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला है। इसी प्रकार यदि महागठबंधन की पराजय होती  है तो नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी पूरी के पूरी तरह से खत्म हो जाने की संभावना अधिक है। यही कारण है कि दोनों ओर से कोई भी कोर कसर बाकी नहीं रखी जा रही है।
बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव का अखाड़ा पूरी तरह से सज गया है। ताल ठोंक रहे पहलवान बाजी मारने के लिए हर दांव-पेंच आजमा रहे हैं। कुछ पहलवान पिछले चुनाव की तरह अपनी पार्टी से चुनाव मैदान में हैं तो कई ऐसे हैं जिन्होने अपने दलों से नाता तोड़कर नई पार्टी के साथ अपनी बिसात बिछा ली है। इस बार कई ऐसे चेहरे हैं जो बिहार के लिए भले ही जाने-पहचाने हो, लेकिन वे पहली बार अपनी पार्टी को अखाड़े में लड़वाने निकले है। इन नये कप्तानों की विधान सभा चुनाव में अग्निपरीक्षा होने वाली है। चुनाव में कई छोटे-बड़े नाम ऊंची उड़ान भरने को आतुर है। अब इन कप्तानों के लिए ‘सपने कितने सुहाने होते हैं’। यह चुनाव परिणाम ही तय करेंगे। जिन नये कप्तानों पर खासकर नजरें टिकी हंै उनमें राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के अध्यक्ष और केन्द्रीय राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा, हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, जन अधिकार पार्टी के अध्यक्ष एवं सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, समरस समाज पार्टी के अध्यक्ष एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री नागमणि, गरीब जनता दल सेक्यूलर के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद तथा लालू प्रसाद यादव के साले अनिरुद्ध प्रसाद उर्फ साधु यादव और समाजवादी जनता दल के अध्यक्ष एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेन्द्र यादव की पार्टी शामिल है। इन कप्तानों की व्यथा और कथा एक जैसी ही है। पहली बार कप्तान के रूप में ताल ठोंक रहे इन नेताओं में एक समानता है कि ये सभी जिन दलों के खिलाफ पहलवानों को उतारने की तैयारी में लगे है वहां के वह पहले योद्धा थे। 
उधर, चुनावी समर जीतने के लिए सभी दलों और गठबंधनों का खासा जोर लोकलुभावन नारे देकर जनता को हरसंभव अपनी तरफ आकर्षित करने की है। चुनावी नारों की इस बरसात से कोई भी दल अछूता नहीं है। इन नारों में पार्टियों का दृष्टिकोण तो झलकता ही है साथ ही साथ इनमें विरोधियों के लिए भरपूर व्यंग्य वाणों का भी समावेश किया गया है। वैसे नारों और स्लोगनों के आधार पर जनता को जगाने और लुभाने का चलन कोई नया नहीं है। हाईटेक प्रचार और स्लोगन के जरिए लोकसभा चुनाव में सभी पूवार्नुमानों को झुठलाते हुए प्रचंड बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा ने प्रधानमंत्री के सवा लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा के बाद से राज्य के लोगों को यह बताने में लगी है कि ‘बिहार के विकास में अब नहीं बाधा ,मोदीजी ने दिया है वादे से ज्यादा’। इसके अलावा राज्य में जंगलराज की वापसी को लेकर महागठबंधन पर तंज कसता हुआ नारा ‘बीजेपी करेगी पहला काम, जंगलराज पर पूर्णविराम’। वहीं राजग में शामिल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने नारा दिया है नया बिहार बनायेंगे लालू-नीतीश को भगायेंगे। उधर, लालू की पार्टी ने नारा दिया है ‘युवा रूठा नरेन्द्र मोदी झूठा’ एक अन्य नारे में राजद ने लिखा ‘न जुमलो वाली न जुल्मी सरकार गरीबों को चाहिये अपनी सरकार’ तथा ‘गरीबों की आवाज है लालू हम सब की परवाज है लालू’।
इसी तरह सतारूढ़ जदयू का पैकेज पर पलटवार खासा दिलचस्प है। ‘झांसे में न आयेंगे नीतीश को जितायेंगे’, सबको सम्मान और अधिकार फिर एक बार नीतीश कुमार, बहुत हुआ जुमलों का वार फिर एक बार नीतीश कुमार। आदि आदि। वैसे, बिहार की चुनावी पिच पर विभिन्न पार्टियों के दिग्गज बल्लेबाजों द्वारा ताबड़तोड़ जड़े जा रहे चुनावी नारों के ये छक्के जनता की दीर्घा (स्टैंड) तक का सफर तय करने में कितने कामयाब हो पाते हैं, इसका पता आठ नवंम्बर को ही चल सकेगा जब लोगों का मत ईवीएम से बाहर निकलेगा। हां, एक बात तो तय है कि मुकाबला कांटे का है।

बुधवार, 30 सितंबर 2015

इंटरव्यूः नीरज कुमार, प्रवक्ता-जदयू

छह लोगों को तो नौकरी दे नहीं सके, लाखों को कैसे देंगे

चुनावी खुमार में डूबने लगा है बिहार। आपके मुद्दे क्या हैं।
हमारा मुद्दा है, बदलता बिहार, बढ़ता बिहार और कानून का राज, सांप्रदायिक सौहार्द्र और सबके साथ न्याय।
कानून का राज या जंगलराज। विरोधी तो यही कह रहे हैं?
स्वाभाविक है कि भाजपा ने जो वादे किये और जो उनकी उपलब्धियां हैं उस पर सार्थक बहस कर नहीं सकते। इसलिए बार-बार इस जुमले को माननीय मोदीजी अपनी हर सभा में रिपीट कर रहे हैं। चूंकि उपलब्धियों के नाम पर बताने को कुछ है नहीं और नीतीश कुमार पर सीधा हमला कर नहीं सकते, विकास के मुद्दे पर फंस जाएंगे इसलिए नकारात्मक राजनीति की जा रही है। वहां तो सिर्फ एक ही ब्रह्मास्त्र हैं नरेंद्र मोदी, सिपाही भी और सेनापति भी। लेकिन इस बार जबर्दस्त हार मिलने वाली है। 
लेकिन जंगलराज का तमगा भी तो खुद नीतीश कुमार ने ही दिया था?
नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक शब्दावली में कभी भी इस शब्द का प्रयोग नहीं किया। सबसे पहले यह शब्द पटना हाईकोर्ट के एक न्यायायिक आॅब्जर्वेशन में आया था। कानून का राज नेतृत्वकर्ता पर तय होता है। हमारे यहां नेतृत्वकर्ता नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने कानून का राज स्थापित कर दिखाया है। उनके यहां नेतृत्व कौन करेगा? लालू प्रसाद बहुत खराब और रामकृपाल यादव बहुत अच्छे। पप्पू यादव प्रेरणा स्रोत बने हैं। उन्हें वाई श्रेणी की सुरक्षा दी जा रही है। जिनके नाम से बिहार की जनता दहशत खाती रही है उन तमाम आपराधिक छवि के फ्रीडम फाइटरों की सहायता से कानून का राज स्थापित करेगी भाजपा?
भाजपा के मुताबिक मुख्यमंत्री बनने लायक उसके पास दर्जनों नेता हैं?
दर्जनों नेता हैं तो किसी एक का नाम बता क्यों नहीं देते? भाजपा कह रही है कि सरकार उसी की बनेगी तो नाम घोषित कर देने में परेशानी क्या है। सर्वनाम की बजाय संज्ञा में नाम घोषित कर बिहार की जनता को आश्वस्त कर दें ताकि पता तो चले कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा।
गठबंधन के बिखराव व उठ रहे विरोधी स्वरों से कैसे निपटेंगे?
कहीं कोई बिखराव नहीं है। एनसीपी हमारी सहयोगी पार्टी है। उसे मना लिया जाएगा। हमारा प्राथमिक उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी को हराना है और इसके लिए सबको एकजुट रहना होगा और कुर्बानी भी देनी होगी। रही बात रघुवंश बाबू की तो वे हमारे वरिष्ठ नेता हैं। किसी भी परिवार में चलती तो मुखिया की ही है और राजद के मुखिया लालू प्रसाद हैं। इसलिए चिंता करने की बात नहीं है।
पहले आप 115 थे लेकिन अब सौ सीटों पर ही चुनाव लड़ रहे हैं। यह आपका प्रमोशन है, डिमोशन है या मोदी का भय?
न यह प्रमोशन है न डिमोशन है और न ही मोदी का भय है। नीतीश कुमार के भय से तो पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल पिछले कई महीनों से पटना में डेरा डाले हुए है। जहां तक कम सीटों पर लड़ने का प्रश्न है तो सीटें तो सीमित हैं, उसी में सबको लड़ना है इसलिए त्याग तो करना पड़ेगा। हमने बड़े लक्ष्य के लिए यह त्याग किया है। बड़े उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सीटों की संख्या मायने नहीं रखती। और हमारी तारिक अनवर से भी यही अपील है कि वे सीटों की संख्या को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर भाजपा को हराना अपना प्राथमिक लक्ष्य बनायें। 

इन दिनों सभी पार्टिया बिहार को बदलने में लगी हैं। आखिर कौन बदलेगा बिहार?
जनता जानती है कि कौन बदलेगा बिहार। 15 महीनों में बिहार के संदर्भ में किये गये लंबे चौड़े वायदों की ओर नहीं जा रहा। बस भाजपा यही बता दे कि पटना के गांधी मैदान में जो दुखद आतंकी ब्लास्ट हुआ उसमें मारे गये छह लोगों के परिजनों को माननीय मोदीजी ने नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन आज तक उन छह लोगों को भी नौकरी नहीं दे पाये, ऐसे में भला वह कैसे लाखों नौजवानों को रोजगार देंगे। जबकि बिहार में जहां संसाधन सीमित है वहां नीतीश कुमार ने प्रत्येक ग्राम पंचायत में 25-30 युवाओं को औसतन रोजगार दिया है। सीमित संसाधनों के बीच ऐसा करने वाला बिहार पहला राज्य है। मैं भाजपा को चुनौती देता हूं कि इसे गलत साबित कर बताए। भाजपा की तरफ से जो भी वायदे किये गये उनमें से कोई भी वादे सरजमीं पर नहीं उतरें जबकि नीतीश कुमार ने जो कहा उसे पूरा कर दिखाया।

बिहार के लिए विशेष पैकेज की मांग की जा रही थी। अब प्रधानमंत्री ने मांग से भी अधिक देकर आपसे वह मुद्दा भी छीन लिया?
जो मंत्रिपरिषद से स्वीकृत नहीं, कैबिनेट का निर्णय नहीं। संसद द्वारा पारित नहीं वह पैकेज नहीं छलावा है। संविधान के अनुच्छेद 275 में स्पष्ट वर्णित है कि राज्य को कोई अनुदान दिया जाएगा वह विधि के अनुसार होगा। अगर मंशा साफ थी तो क्यों नहीं मानसून सत्र में इसकी घोषणा की गई। मोदीजी को तो पैकेज व अनुदान तक का अंतर नहीं पता। कैसे बोल दिया कि वाजपेयीजी ने बिहार बंटवारे के वक्त पैकेज दिया था। वह पैकेज नहीं अनुदान था। भगवान भरोसे ही चल रहा है देश।
एक सीधे सवाल का सीधा जवाब दीजिए। आप चुनाव लड़ रहे हैं गठबंधन में लेकिन बढ़ता बिहार के पोस्टरों में एक भी घटक दल के नेता की तस्वीर नहीं?
पहली बात तो यह कि ‘बढ़ता बिहार, बदलता बिहार’ किसी राजनीतिक दल ने नहीं राज्य सरकार के सूचना विभाग द्वारा जारी किया गया है। जनता दल यू राजनीतिक दल है जब पार्टी अपना बैनर, पोस्टर जारी करेगी उसमें गठबंधन शामिल सभी दलों के नेताओं की तस्वीर होगी।

इंटरव्यूः नवल किशोर यादव (भाजपा)

सौ सियार मिलकर भी एक शेर का शिकार नहीं कर सकते

लगातार चौथी बार विधान परिषद का चुनाव जीतने वाले वरिष्ठ भाजपा नेता प्रो. नवल किशोर यादव से कैमूर टाइम्स की बातचीत के प्रमुख अंश:
महागठबंधन ने सीएम उम्मीदवार के साथ ही अब सीटों का बंटवारा भी कर लिया, जबकि आप इस मामले में काफी पीछे हैं। कैसे कर पाएंगे मुकाबला?
अगर सियार जंगल की घेराबंदी कर ले तो क्या वह किसी शेर का शिकार कर लेगा? सौ सियार मिलकर भी एक शेर को परास्त नहीं कर सकते। कमजोर आदमी हमेशा आत्मरक्षा की मुद्रा में रहता है। वहां अजीब स्थिति है। न नीतीश को लालू स्वीकार करते थे और न ही लालू को नीतीश। रही बात सीट बंटवारे व सीएम उम्मीदवार घोषित करने की तो वहां एक-दूसरे को औकात बताने के लिए ऐसा किया गया है। हमारे यहां तो किसी को हैसियत बताने की जरूरत ही नहीं है।  
अच्छा चलिए यह बता दीजिए कि बिहार में एनडीए का मुख्यमंत्री कौन होगा?
समय आने दीजिए, सब पता चल जाएगा। सीटों का बंटवारा भी होगा, हम जीतेंगे भी और मुख्यमंत्री भी हमारी पार्टी का विधायक बनेगा। चुनाव हो जाने के बाद विधायक दल की बैठक में मुख्यमंत्री का चुनाव होगा।
सीट बंटवारे में कहीं इसलिए तो देर नहीं की जा रही कि इससे एनडीए में भगदड़ मच जाएगी?
हमारे यहां भगदड़ मचने का सवाल ही नहीं है। सच्चाई तो यह है कि अगर हम अपना फाटक खोल दें तो उनके यहां जो हैं वे सारे के सारे इधर आ जाएंगे। और किसी भगदड़ से हमारी पार्टी डरती नहीं है क्योंकि बिहार ने तय कर लिया है कि किसकी सरकार बनवानी है। इसलिए भगदड़ का सवाल ही नहीं उठता।
कहा जा रहा है कि पप्पू यादव की पीठ पर बीजेपी का हाथ है। उन्हें फंडिंग भी आपकी पार्टी ही कर रही है?
पप्पू यादव शुरू से ही लालू के पोष्य पुत्र रहे हैं। अब लालू के पोष्य पुत्र को हम क्यों मदद करेंगे। पप्पू यादव हैं क्या जो भाजपा उन्हें फंडिंग करेगी। उनके बारे में तो लालू यादव से सवाल होना चाहिए कि कल तक नीतीश को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने पप्पू का इस्तेमाल किया। शरद यादव को हराने के लिए उन्होंने पप्पू यादव का सहारा लिया। 
मांझी जी के कुछ विधायकों को लेकर रामविलास पासवान को आपत्ति है। इसका समाधान कैसे करेंगे?
जब लालू व नीतीश एक साथ हो सकते हैं, तो जीतन राम मांझी को लेकर अपच होने का सवाल कहां है। सवाल बिहार का विकास है और सबको इसी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। वैसे मांझी जी व पासवानजी के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन हमारे लिए सभी सम्मानित हैं। सभी बराबर हैं। और अगर कहीं कोई कटुता है तो उसे मिल बैठकर सुलझा लिया जाएगा।
पीएम के मेगा पैकेज पर भी अलग अलग सुर सुनाई दे रहे हैं? 
भारत की आजादी के बाद से खासकर 2002 में बिहार के बंटवारे के बाद लगातार पैकेज की मांग होती रही लेकिन किसी भी केंद्र सरकार ने इस मांग को नहीं माना। सोनिया माता के दरबार में लगातार मत्था टेकने के बावजूद न तो लालू प्रसाद और न ही नीतीश कुमार कुछ हासिल कर सके। लेकिन प्रधानमंत्री ने जब बिहार को इतना कुछ दे दिया तो इसका स्वागत करने के बजाय इस पर राजनीति हो रही है। लोकतंत्र है, राजनीति करें लेकिन बिहार के विकास को लेकर तो कम से कम राजनीति न करें। बिहार को जंगलराज की ओर ले जाने को अग्रसर इन नेताओं को विकास से मतलब नहीं है, इन्हें बस राजनीति करनी है। 
बगैर मंत्रिपरिषद की स्वीकृति या बजटीय प्रावधान के पैकेज को छलावा बताया जा रहा है?
अगर यह बात नीतीश कुमार या लालू प्रसाद की तरफ से कहा जा रहा है तो बहुत ही दुखद है। या तो वे जनता को बरगलाने के लिए पाखंड रच रहे हैं या बहुत बड़े अज्ञानी हैं। लेकिन अज्ञानी उन्हें कहा नहीं जा सकता क्योंकि दोनों ही लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं। मान लीजिए अगर कोई भूकंप या दैवीय आपदा आ जाती है तो आपदाग्रस्त लोगों की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद की स्वीकृति का इंतजार किया जाएगा या एक लाख करोड़ की जरूरत है उसे पूरा किया जाएगा। नीतीश कुमार जरा बताएं कि पटना म्यूजियम बनाने के लिए 750 करोड़ किस बजट में उपबंध किये थे। यह बिहार की गरीब जनता के आंखों में धूल झोंकने के लिए सारा प्रोपेगैंडा तैयार किया जा रहा है।

इंटरव्यूः मुद्रिका यादव, महासचिव राजद

इस बार नहीं गलेगी बीजेपी की दाल: मुंद्रिका यादव
                 महासचिव, राष्ट्रीय जनता दल 
राष्ट्रीय जनता दल के प्रधान महासचिव मुंद्रिका प्रसाद यादव से कैमूर टाइम्स की बातचीत के संपादित अंश:
बिहार चुनावी बुखार में तपने लगा है। आप किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाएंगे? 
हम शुरू से ही सामाजिक न्याय के पैरोकार रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सांप्रदायिक सद्भाव, सामाजिक न्याय व कानून का राज यही हमारा चुनावी मुद्दा है। 
सामाजिक न्याय या पारिवारिक न्याय। रामकृपाल यादव व पप्पू यादव का तो यही कहना है?
रामकृपाल यादव व पप्पू यादव जैसे लोगों ने सामाजिक न्याय की पीठ में छुरा घोंपने का काम किया है। उन्हें इसकी सजा मिलेगी। रामकृपाल तो लालूजी के नाक के बाल रहे। उन्हें जमीन से आसमान पर पहुंचाने का काम किया। वे कभी भी सड़क पर नहीं रहे। हमेशा विधानपरिषद या लोकसभा, राज्यसभा में लालूजी की कृपा से रहे। उस समय उन्हें पारिवारिक न्याय की बात नहीं नजर आई। पप्पू को जब मधेपुरा से सांसद बनाया तब उन्हें भी पारिवारिक न्याय नहीं दिखा।
आप शिक्षा, स्वास्थ्य व कानून के राज की बात कर रहे हैं लेकिन आपके शासनकाल में इन तीनों का ही बुरा हाल था, इसी वजह से जंगलराज कहा गया। क्या कहेंगे?
लालूजी व राबड़ीजी की 15 वर्षों की सरकार ने दलितों वंचितों व दबे कुचलों को जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दी। उनमें स्वाभिमान भरने का काम किया। मगर गरीबों, दलितों व वंचितों के उदय को सामंती सोच के लोग पचा नहीं पाये इसलिए बदनाम करने के लिए जंगलराज का शोर मचाया जा रहा है। लेकिन जनता सब जानती है। लोग बहकावे में नहीं आने वाले। सांप्रदायिकता का जहर फैलाकर देश को बांटने वालों की दाल इस बार नहीं गलेगी। यह लड़ाई मंडल बनाम कमंडल की है।
आपको नहीं लगता कि सांप्रदायिकता के नारे को लोग नकार चुके हैं। आप जिन पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहे हैं उन्हें 32 सीटें मिली जबकि आपको केवल चार।
जनता भाजपा के झूठे वादों के झांसे में आ गई थी, मगर अब उनकी पोल खुल गई है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। चुनाव के दौरान किये गये एक भी वादे पूरे नहीं हुए। न महंगाई कम हुई और न ही युवाओं को रोजगार मिला। और तो और कालाधन लाने का वादा भी पूरा नहीं किया गया। कहां गये हर खाते में 15 लाख देने के वादे। 15 महीनों की सरकार में कोई भी ऐसा काम नहीं हुआ जिससे जनता उन पर दोबारा विश्वास करे। वादाखिलाफियों को इस बार मुंह की खानी पड़ेगी। बिहार में महागठबंधन ही सरकार बनाएगा।  
महागठबंधन के लिए पहले लालूजी जहर पीते हैं फिर सीटों पर रघुवंश प्रसाद 100 के बदले 10 का नोट की बात करते हैं। यह कैसा विरोधाभास?
देखिए, वह हमारी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन यह उनका अपना निजी विचार है। गठबंधन एकजुट है। इसमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं है। हम इस बार पूरी एकजुटता के साथ झूठे सपने दिखाने वाले कमंडल वालों को बिहार से भगाएंगे। 
कल तक साथ रहे पप्पू यादव आज घोर विरोधी हैं। कितना नुकसान पहुंचाएंगे?
पप्पू यादव मुख्यमंत्री बनने की हड़बड़ी में हैं। बीजेपी के पैसे पर हेलिकॉप्टर पर उड़ रहे हैं, लेकिन चुनाव बाद उनकी हैसियत पता चल जाएगी। रही बात नुकसान पहुंचाने की तो उनकी इतनी बड़ी औकात अभी नहीं है। 

टीवी या थियेटर नहीं, फिल्म ही प्राथमिकता: संजय मिश्रा



हिन्दी फिल्मों में हास्य को नया आयाम देने वाले बालीवुड अभिनेता संजय मिश्रा अपनी उपस्थिति से ही दर्शकों को गुदगुदाते हैं। हाल ही में उन्हें आंखों देखी फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला है। रोहित शेट्टी की ‘आॅल द बेस्ट : फन बिगिन्स’ में संजय द्वारा निभाये गये किरदार का डायलॉग ‘ढोंडू जस्ट चिल’ बहुत मशहूर हुआ था। उनके चर्चित धारावाहिकों में सॉरी मेरी लॉरी, आफिस आॅफिस, लापतागंज, व चाणक्य इत्यादि हैं जबकि उनकी कुछ चर्चित फिल्मों में सत्या, दिल से, साथिया, बंटी और बबली, गोलमाल, सन आॅफ सरदार,  जॉली एलएलबी, सिंह साहेब द ग्रेट, फटा पोस्टर निकला हीरो मसान और 'भूतनाथ रिटर्न्स' इत्यादि हैं। संजय मिश्रा ने एक फिल्म प्रणाम वालेकुम का निर्देशन भी किया है। पटना में जन्मे संजय मिश्रा ने 12वीं के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय का प्रशिक्षण लिया और 90 के दशक के आरंभ में उन्होंने फिल्मों से पहले विज्ञापनों और धारावाहिकों के जरिये अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज कराई। फिलहाल कई नामचीन निर्देशकों के साथ काम कर रहे संजय मिश्रा से कैमूर टाइम्स के लिए बद्रीनाथ वर्मा की खास बातचीत:

आपकी पहचान खासकर हास्य अभिनेता के तौर पर है। क्या आप इससे संतुष्ट हैं?
मेरी पहचान सिर्फ हास्य अभिनेता के तौर पर है ऐसा कहना गलत है। मैंने कई सारी फिल्मों में विभिन्न भूमिकाएं अदा की है। अभी हाल ही में मुझे आंखों देखी फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला है।

क्या संजय शर्मा फिर से टीवी सीरियलों में नजर आएंगे?
नहीं, क्योंकि इतनी फिल्मों में काम कर रहा हूं कि टीवी सीरियलों के लिए बिल्कुल ही समय नहीं है। अगले अगस्त महीने तक मैं पूरी तरह से व्यस्त हूं। टीवी या थियेटर के लिए जरा सा भी वक्त नहीं है।

फिल्म, टेलीविजन व थियेटर। इनमें से कौन सी विधा आप की प्राथमिकता सूची में है?
फिल्म ही मेरी प्राथमिकता है क्योंकि इसकी पहुंच ज्यादा दूर तक है। टेलीविजन सीरियलों की भी अपनी एक सीमा है। रही बात नाटकों की तो उसके दर्शकों की संख्या तो और भी कम है। दूसरी बात यह कि हर कलाकार काम करता है जनता के लिए। और अगर वह जनता तक पहुंचे ही नहीं तो फिर काम करने का फायदा ही क्या। इसलिए मैं फिल्म को प्राथमिकता देता हूं।

सुना है आपने किसी फिल्म का निर्देशन भी किया है?
जी हां, मैंने प्रणाम वालेकुम का निर्देशन किया है। यह कोई आम मुंबइया फिल्म नहीं है। सामाजिक मुद्दे पर बनी संदेशपरक इस फिल्म में इरफान खान व विजयदान देथा समेत अन्य कई नामचीन कलाकार हंै। 

आपका पसंदीदा अभिनेता कौन है?
बेशक अमिताभ बच्चन। वह जितने अच्छे अभिनेता है उससे भी ज्यादा नेक इंसान। उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता है। किसी भी अभिनेता को एक बार अमित जी के साथ जरूर काम करना चाहिये।

आपकी आने वाली फिल्में कौन-कौन सी हैं और भविष्य की क्या योजना है?
मंगल हो, बंबू, ग्लोबल बाबा ढेर सारी फिल्में हैं, किन किन का नाम लूं। रही बात भविष्य की तो प्रणाम वालेकुम का सिक्वल वालेकुम प्रणाम बनाने की सोच रहा हूं।

यह नेताजी की पुरानी अदा है


बद्रीनाथ वर्मा
अपने जवानी के दिनों में पहलवानी के शौकीन रहे सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का सबसे  प्रिय दांव रहा है धोबियापाट। इस दांव से विपक्षी पहलवान पल भर में ही चारों खाने चित्त हो जाता है। हालांकि अब उन्होंने पहलवानी छोड़ दी है, लेकिन कहा जाता है न कि ‘चोर चोरी से जाये, हेराफेरी से नहीं’ सो यदाकदा वे अपने इस दांव को सियासी मैदान में भी आजमाते रहते हैं। ताजा वाकया है महागठबंधन को धोबियापाट से धूल चटाने का। महागठबंधन को मूर्त रूप देने में खास भूमिका निभाने वाले नेताजी ने आश्चर्यजनक रूप से इससे खुद को अलग करने का ऐलान कर दिया। अभी चार दिन पहले ही पटना में आयोजित स्वाभिमान रैली में उनके प्रतिनिधि के तौर पर उनके छोटे भाई व यूपी मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य शिवपाल सिंह यादव महागठबंधन के नेताओं के साथ मंच साझा करते हुए गरजे बरसे थे। उस वक्त तक लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार को सपने में भी गुमान नहीं था कि बस चार दिन बाद ही उन्हें ऐसा झटका लगने वाला है जिसके बाद उन्हें मुंह चुराने को मजबूर होना पड़ेगा। नेताजी के उपनाम से मशहूर सपा मुखिया ने ऐसा धोबियापाट लगाया कि महागठबंधन में शामिल सारे के सारे घटक दल भौंचक्के रह गये। कुनबा बिखरने से डरे शरद, लालू, से लेकर नीतीश तक मुलायम की मनुहार करते दिखे। वैसे मुलायम सिंह के लिए गच्चा देना कोई नया नहीं है। याद करिए राष्ट्रपति चुनाव। पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को ममता के साथ मिलकर राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने पर अडिग मुलायम सिंह ने दीदी को गच्चा देने में क्षण भर का भी विलंब नहीं किया। पहले तो उन्होंने ‘चढ़ जा बेटा शूली पर’ की तर्ज पर ममता की खूब पीठ थपथपाई लेकिन जब ममता काफी आगे बढ़ गईं तो उन्होंने अचानक पाला बदल लिया। बहरहाल, अपने हिसाब से गोटी फिट करने में माहिर खिलाड़ी मुलायम सिंह के इस यू टर्न को लेकर सियासी गलियारों में जबरदस्त चर्चा है। आम धारणा है कि उस वक्त भी सीबीआई का डर था और इस वक्त भी सीबीआई के डर ने ही पाला बदलने को मजबूर किया है। इस बार यादव सिंह प्रकरण उनके गले की फांस बना हुआ है। राष्ट्रीय लोकदल के महासचिव जयंत चौधरी इस पलटी के पीछे सीबीआई का भय मानते हैं। जयंत के मुताबिक मुलायम सिंह यादव का यह अंदाज कोई नया नहीं है। उनके राजनीतिक चरित्र और परम्पराओं का हिस्सा हमेशा से ही ऐसा रहा है। यादव एकदम से अपना मन बदलते है मूड बदलते हंै और मिजाज बदलते हैं। 
गठबंधन से अलग होने की घोषणा करने से ठीक दो दिन पहले ही रामगोपाल यादव भाजपा अध्यक्ष से मिले थे। तभी से सियासी गलियारों में कुछ खिचड़ी पकने की चर्चा ने जोर पकड़ा था। ध्यान से देखें तो भाजपा के नेताओं का सुर मुलायम के प्रति कुछ बदला-बदला सा है। राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही दुश्मन यह एक बार फिर से साबित हो रहा है। वैसे इस महागठबंधन को लेकर सपा में कोई खास उत्साह नहीं था। अखिलेश से लेकर रामगोपाल यादव तक सभी इसके खिलाफ थे। वे नहीं चाहते थे कि सपा ने जो फसल तैयार की है उसे काटने दूसरे लोग भी आ जाएं। यूपी में न तो जदयू का जनाधार है और न ही लालू प्रसाद के राजद की जबकि गठबंधन का सहयोगी होने के चलते विधानसभा चुनाव के वक्त सपा को उन्हें सीटें देनी पड़ती। जबकि बिहार में सपा को कोई खास फायदा नहीं होने वाला था। रही सही कसर लालू व नीतीश द्वारा सीटों के बंदरबांट ने पूरी कर दी। सीटों के बंटवारे के समय सपा मुखिया से उन्होंने सलाह लेना भी गंवारा नहीं किया। 
ध्यान रहे परिवार और पार्टी के शीर्ष नेताओं के विरोध के बावजूद मुलायम ने जनता परिवार को एक करने की भूमिका निभाई। मगर जनता परिवार के ही कुछ घटकों के विलय के खिलाफ होने की वजह से विलय नहीं हो पाया और एक मोर्चा बन गया। पर इस मोर्चे में भी अध्यक्ष भले मुलायम रहे हो पर उनकी चली कभी नहीं। अति तो तब हुई जब उन्हें बिना भरोसे में लिये समाजवादी पार्टी को पांच सीट और कांग्रेस को चालीस सीट दी गई। वह भी तब हुआ जब राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ने से इनकार करते हुए महागठबंधन से नाता तोड़ लिया। साफ था बिहार से जो राजनैतिक संदेश जाता उसका सारा श्रेय लालू नीतीश के साथ सोनिया को ज्यादा जाता मुलायम को नहीं। उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल बाद विधान सभा का चुनाव है ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर जाकर वे देश के सबसे बड़े सूबे में कैसे मुकाबला करते। दूसरा पहलू यह है कि अखिलेश सरकार को अपने विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र का सहयोग आवश्यक है। वे केंद्र से संबंध खराब करना नहीं चाहते क्योंकि डेढ़ साल बाद ही यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं। दूसरी तरफ मोदी की तो बिहार में प्रतिष्ठा ही दांव पर लगी हुई है। इसलिए इसे लेनदेन का मामला मानने वालों की कमी नहीं है। सियासी पंडितों का मानना है कि नेताजी अगर बिहार में नाता तोड़ रहे हैं तो यूपी में कोई राजनीतिक फायदा जरूर देख रहे हैं। 
बहरहाल, कुछ हो या न हो मुलायम सिंह यादव एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में तो आ ही गये हैं। कल तक उन्हें जिस जनता परिवार ने हाशिये पर रखा था वह उनके धोबियापाट से चारों खाने चित्त होकर उनकी चौखट पर सिजदा कर रहा है। हालांकि अभी तक वे अपने फैसले पर अटल हैं। गठबंधन से नाता तोड़ने के पीछे लालू नीतीश की कांग्रेस से बढ़ती नजदीकियों को जिम्मेदार ठहराते हुए बिहार प्रदेश सपा अध्यक्ष रामचंद्र यादव का कहना है कि जब तक नीतीश कुमार गठबंधन के नेता नहीं बने थे, तब तक मुलायम चलीसा पढ़ रहे थे, लेकिन बाद में सोनिया-राहुल चलीसा पढ़ने लगे। दरअसल, मानसून सत्र के दौरान ही मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के तल्ख संबंध सामने आ चुके थे। लोकसभा सत्र में विपक्ष का चेहरा कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का था जबकि एक बड़े गठबंधन के बावजूद मुलायम सिंह हाशिये पर थे। अंतत: मुलायम ने बीच सत्र में यह भी कह दिया कि वे संसद में गतिरोध तोड़ने के पक्ष में हैं और वे कांग्रेस से अलग भी जा सकते हंै। खैर, मौजूदा हालात में मुलायम के सामने और कोई चारा भी नहीं बचा था। बे बिहार में हाशिए पर पहुंचा दिये गये थे। सपा को महज पांच सीटें दी गई वह भी एनसीपी के इनकार के बाद।

सजनी हमहूं राजकुमार


बद्रीनाथ वर्मा
मगध एक्सप्रेस मुगलसराय से खुलकर दिलदारनगर को पीछे छोड़ते हुए जैसे ही कर्मनाशा नदी पार कर बिहार की सीमा में प्रवेश करती है, सियासत की शातिर हवा फिजा में महसूस होने लगती है। बक्सर आते-आते यह हवा अपने पूरे रौ में प्लेटफॉर्म से लेकर ट्रेन की बोगियों तक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगती है। बिहार चुनावी मोड में आ चुका है, इसका आभास यहां भली-भांति होने लगता है। चुनावी चर्चा से ट्रेन की बोगियां भी अछूती नहीं रह जाती हैं। पटना पहुंचते-पहुंचते सियासी धुंध पूरी तरह से छंट जाती है। प्लेटफार्म से बाहर निकलते ही सब कुछ साफ साफ नजर आता है। यहां हर कोई ‘सजनी हमहूं राजकुमार’ की तर्ज पर बिहार को बदलने का दावा कर रहा है। यहां ख्वाबों की मंडी सच चुकी है। राजनीतिक दलों में सपना बेचने की होड़ लगी है। चुनावी मंडी में कौन कितना बड़ा सपना बेच सकता है, इसके लिए बाकायदा एक दूसरे को धकियाकर मतदाताओं को लुभाने की एक से एक तरकीबें आजमाई जा रही हैं। इसके लिए हर सड़क, चौराहा, यहां तक कि नुक्कड़ों व गलियों तक को नहीं बख्शा गया है। राजधानी पटना की सड़कों पर लगे नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स बता रहे हैं कि बिहार बस उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है। ‘आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ के उद्घोष के साथ होर्डिंग्स के मामले में नीतीश कुमार तमाम विपक्षी दलों को मीलों पीछे छोड़ते प्रतीत हो रहे हैं। कोई ऐसी सड़क या गली नहीं बची है जहां नीतीश कुमार के बड़Þे बड़े होर्डिंग्स न लगे हों। होर्डिंग्स हालांकि भाजपा के भी कम नहीं हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटोयुक्त होर्डिंग महागठबंधन पर प्रहार कर रहे हैं। ‘अपराध, अहंकार भ्रष्टाचार, क्या इस गठबंधन से बढ़ेगा बिहार’। होर्डिंग्स की कमी को भाजपा परिवर्तन रथ से पूरी कर रही है। पटना समेत पूरे बिहार में घूम रहे परिवर्तन रथ एक तरफ केंद्र सरकार की उपलब्धियों का बखान कर रहे हैं वहीं कल तक एक दूसरे को गरियाने वाले लालू यादव व नीतीश कुमार द्वारा एक दूसरे की शान में पढ़े गये कसीदों की रिकार्डिंग सुनाकर मतदाताओं को बताया जा रहा है कि यह बेमेल गठबंधन सिर्फ सत्ता हासिल करने भर के लिए बना है। वाकई बड़ी विचित्र स्थिति है। कल तक एक दूसरे के लिए जीने मरने की कसमें खाने वाले आज एक दूसरे के सामने ताल ठोंक रहे हैं। ललकार रहे हैं। चाहे वह पप्पू यादव हों या जीतनराम मांझी। जिस जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनाया वह विरोधी के शामियाने की शोभा बढ़ा रहे हैं और जिनके शामियाने में खुद नीतीश कुमार पालथी मारे बैठे हैं कल तक उन्हें जंगलराज का मसीहा करार देते हुए गाली देते नहीं अघाते थे। लेकिन आज चुनावी मजबूरी ने दोनों को एक ही छत के नीचे ला खड़ा किया है। बिहार की सत्ता उनके हाथों से छीनने को आतुर भाजपा लगातार उनके इसी जुमले ‘जंगलराज’ को हथियार बनाकर वार पर वार किये जा रही है। भाजपा के वार से घायल नीतीश को इसका सटीक जवाब नहीं सूझ रहा। मुश्किल यह है कि सांप्रदायिकता जैसे शब्द बेअसर साबित हो चुके हैं। बिहार में विकास की गंगा बहाने का दावा करने वाले नीतीश की परेशानी वाकई इस बात ने बढ़ा दी है कि चुनाव में उनके रथ का सारथी वह है जिस पर जंगलराज का तोहमत लगाकर कल तक वह उसकी परछाई तक से परहेज करते थे। इसी तरह लालू का खेल बिगाड़ने में लगे पप्पू यादव पर राजद व जदयू दोनों हमलावर हैं। पप्पू यादव के सियासी असर के सवाल पर जदयू प्रवक्ता नीरज उन्हें बिहार की राजनीति का शिखंडी करार देते हैं। जदयू प्रवक्ता ने कैमूर टाइम्स से कहा कि भाजपा पप्पू का इस्तेमाल वोट कटवा के रूप में कर रही है, लेकिन बिहार में ‘पप्पू कांट डांस’ साबित होगा। उधर, राजद प्रवक्ता भगवान सिंह कुशवाहा ने पप्पू को भाजपा के टॉप-अप पर रिचार्ज होकर चलने वाला नेता बताया। वहीं, भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी लालू-नीतीश के गठजोड़ पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि बिहार में सरकार बनाने के लिए नहीं, दूसरा दल सरकार न बना ले, इसके लिए गठजोड़ हुआ है। यही नहीं अपने हर भाषण में नीतीश पर निशाना साधते हुए सुशील मोदी लगातार भाजपा से गठबंधन तोड़ने को लेकर प्रहार करते हुए सवाल उठाते हैं। पूर्व उपमुख्यमंत्री कहते हैं गठबंधन तोड़ने का अधिकार हर किसी को है लेकिन जनादेश तोड़ने का अधिकार किसी के भी पास नहीं। अगर उन्हें गठबंधन तोड़ना ही था तो फिर से चुनाव मैदान में आते। सिर्फ सत्ता के लिए गठबंधन जनता के साथ छलावा है। बहरहाल, बात होर्डिंग्स की हो रही थी। पटना शहर के बिजली के खंबों पर लोकजनशक्ति पार्टी का कब्जा है। चिराग पासवान के ऐलाने जंग जैसी मुद्रा वाली तस्वीरों के साथ छोटे-बड़े होर्डिंग्स व पोस्टर ‘इसी चिराग से होगा बिहार का हर घर रौशन’ छाये हुए हैं। कहीं कहीं लालू प्रसाद यादव के साले व लालू राज में जंगलराज के प्रतीक कहे गये साधु यादव की पार्टी गरीब जनता दल (सेक्युलर) भी बिहार को बदलने का दावा कर रही है। यदा कदा राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के पोस्टर भी नीतीश कुमार सरकार की असफलता गिनाती नमूदार है। इससे इतर बिहार को बदलने के लिए केवल एक साल की मांग कर रहे पप्पू यादव का दावा है कि यदि इस दौरान वे बिहार को नहीं बदल पाये तो राजनीति से संन्यास ले लेंगे। उनके भी बड़े बड़े होर्डिंग्स पटना के मुख्य-मुख्य जगहों पर अपना कब्जा जमाये हुए हैं। पप्पू के सवाल उठाते पोस्टर समाधान भी बताते हैं। मसलन, ‘जब महिलाओं पर हो रहा है अत्याचार तो कैसे बढ़ेगा बिहार, लेकिन बदलेगा बिहार, बढ़ेगा बिहार, मैं बदलूंगा बिहार।’ ऐसे में भला लालू प्रसाद यादव कैसे पीछे रह सकते हैं। लालू व राबड़ी देवी के फोटो से युक्त उनके पोस्टर भी राजधानी पटना में छाये हुए हैं। राजद के पोस्टरों में लालू प्रसाद के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को भी विशेष तवज्जो दी गई है। यह इस बात का भी ईशारा है कि लालू के वारिस तेजस्वी यादव ही होंगे। उनके पोस्टरों में ‘काम कुछ नहीं, प्रचार ज्यादा, क्या यही है तेरा अच्छे दिनों का वादा’ के जरिए सीधा पीएम नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया गया है। इसी तरह राजद के एक और पोस्टर की चर्चा जरूरी है। ‘ठगों की बातों में न आएं, चलो अपना बिहार बनाएं।’ बहरहाल, अभी चुनाव के तारीखों की घोषणा नहीं हुई है लेकिन हरेक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए अभी से अपना एड़ी चोटी का जोर लगा चुका है। लोकसभा चुनाव में महाबली मोदी के हाथों जबरदस्त शिकस्त खा चुके राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बार कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहते। गठबंधन के साझीदारों का मानना है कि भाजपा लगभग 30 फीसदी व सहयोगियों को मिलाकर एनडीए के खाते में महज तकरीबन 38 फीसदी ही मत गये थे। यानी कि 62 प्रतिशत मतदाताओं का रुख एनडीए के खिलाफ था। इसी 62 फीसदी को साधने के लिए लालू को जहर पीकर भी नीतीश का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा है। उधर, बिहार में लगभग 14 फीसद यादव मतदाताओं पर अपना एकाधिकार मानने वाले लालू प्रसाद यादव की हवा निकालने के लिए भाजपा अपने सभी यादव नेताओं को इसमें सेंध लगाने के लिए मैदान में उतार चुकी है। सूत्रों की मानें तो भाजपा इस बार कम से कम 70 सीटों पर यादव उम्मीदवारों को खड़ा करेगी। खास बात यह है कि भाजपा उन्हीं सीटों पर यादव उम्मीदवार खड़ा करेगी, जहां से जदयू अपने उम्मीदवार उतारेगा। इस प्रकार भाजपा की यह रणनीति होगी कि जदयू को राजद के यादव मतदाताओं का वोट न मिले। बिहार में यादवों का असली नेता कौन है हालांकि इस पर विवाद है। लालू जहां खुद को यादवों का एकमात्र नेता मानते हैं वहीं विरोधी इसको सिरे से खारिज करते हैं। विरोधियों का दावा है कि अगर वाकई लालू की पैठ यादवों में होती तो उनकी पत्नी और बेटी लोकसभा चुनाव में यादव बहुल्य सीटों से क्योंकर हार गईं। इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार व विश्व संवाद केंद्र के संपादक संजीव कुमार कहते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं कि लालू  प्रसाद यादवों के बड़े नेता हैं लेकिन एकमात्र नेता नहीं हैं। नब्बे के दशक से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। अब पप्पू यादव से लेकर हुक्मदेव नारायण यादव व रामकृपाल यादव तक तमाम नेताओं की यादव वोटों पर अपनी अपनी दावेदारी है। बहरहाल, अभी की स्थिति यह है कि पोस्टरों के मामले में नीतीश कुमार जहां सबसे आगे चल रहे हैं वहीं 340 परिवर्तन रथ के सहारे भाजपा पूरे बिहार में एक बार फिर मोदी की आंधी को सुनामी में बदलने के लिए दिन रात एक कर चुकी है। वैसे अभी यह भविष्य के गर्भ में है कि कौन किस पर भारी पड़ेगा या किस गठबंधन की सरकार बनेगी। आंकड़े भले ही कुछ भी कहें लेकिन राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होते। इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि मोदी का रथ रोक पाने में यह गठबंधन कितना कारगर साबित होगा।  या कि तमाम किंतु परंतु के बावजूद नीतीश के नेतृत्व में तीसरी बार सरकार बनेगी। फिलहाल तो हम यही कह सकते हैं कि तेल देखो और तेल की धार देखो।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

कइयों को टीस दे गया 2014


बद्रीनाथ वर्मा
साल 2014 यूं तो पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही नाम रहा क्योंकि जिस तेजी से गुजरात से निकलकर वे विश्व फलक पर छा गये उससे उनके घोर आलोचक भी हैरान रह गये। किसी को भी यह गुमान नहीं था कि नरेंद्र मोदी नाम का यह तूफान देखते ही देखते सुनामी में बदल जाएगा जिसमें बड़े बड़े शुरवीरों की वर्षों की बनाई जमीन तबाह हो जाएगी। मोदी नाम की यह सुनामी लोकसभा चुनाव के दौरान इतनी ताकतवर साबित हुई कि कांग्रेस, सपा से लेकर जदयू और बसपा तक सब डूब गये। 130 साल पुरानी कांग्रेस को अब तक की सबसे बड़ी हार मिली। लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या महज 44 तक सिमट कर रह गई। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस पार्टी सोनिया व राहुल से आगे ही नहीं बढ़ सकी। सोनिया व राहुल ने अपनी परंपरागत सीट जीत तो ली लेकिन यह जीत भी आसान नहीं रही। यही हाल अन्य दलों का भी रहा। प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा पाले मुस्लिम वोटों की चाहत में भाजपा से 17 साल पुराना अपना नाता तोड़ बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस थोथी धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद किया था उसकी भी हवा निकल गई। बिहार की कुल 40 सीटों में से बमुश्किल चार सीटें ही उनके खाते में आई। यही नहीं जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को भी मधेपुरा से मुंह की खानी पड़ी। यही दुर्गति प्रधानमंत्री पद के दो अन्य दावेदारों सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व बसपा मुखिया मायावती का भी हुआ। विधानसभा चुनाव में तीन चौथाई बहुमत से यूपी की सत्ता पर काबिज होने वाली समाजवादी पार्टी लोकसभा चुनाव में परिवार वादी पार्टी बन कर रह गई। इस चुनाव में सपा मुलायम सिंह यादव, उनकी बहू यानी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव व भतीजे धर्मेंन्द्र यादव से आगे बढ़ नहीं पाई। सबसे बुरी गत हुई बसपा मुखिया मायावती की। उनकी पार्टी का तो लोकसभा में खाता ही नहीं खुल सका। वैसे साल 2014 में एक और व्यक्ति जिसने मीडिया की जबर्दस्त सुर्खियां बटोरी वह थे आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल। आम आदमी की ताकत के बल पर दिल्ली के मुख्यमंत्री बन जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने हड़बड़ी में आकर अपनी भद पिटा ली। लोकपाल के नाम पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे को आम जनता ने पसंद नहीं किया और उनके प्रधानमंत्री बनने की चाहत पर पानी फेर दिया। दरअसल, दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के बाद उन्हें लगा कि जनसमर्थन उनके साथ है और संभवत: वे देश के अगले प्रधानमंत्री बन सकते हैं। इसी गलतफहमी में लोकसभा चुनाव में सैकड़ा पार करने की चाहत लिए आनन फानन में नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी में ताल ठोंकने पहुंच गये। लेकिन खुद को महाबली जान चुनावी अखाड़े में कूदे अरविंद केजरीवाल पिलपिले ही साबित हुए। वाराणसी में वे खुद तो हारे ही उनके अन्य कई  स्वनाम धन्य उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। हालांकि थोड़ी सी पंजाब में उनकी लाज बच गई। वहां से उनकी पार्टी के चार उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे। बहरहाल, लोकसभा चुनाव से शुरू हुआ भाजपा का विजय रथ साल की समाप्ति तक लगातार एक के बाद दूसरे राज्यों तक अपनी विजय पताका फहराता रहा। मोदी नाम का ब्रांड दिनों दिन लोकप्रिय होता गया। लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र में जीत का परचम लहराने के बाद झारखंड व ज मू कश्मीर में भी मोदी नाम का सिक्का खूब चला। हरियाणा में जहां अकेले भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई वहीं महाराष्ट्र में अकेले दम पर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। बिन मांगे मिले एनसीपी के समर्थन ने आखिरकार पूर्व सहयोगी शिवसेना को फडणवीस सरकार को समर्थन देने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद हुए चुनाव में झारखंड में भाजपा के रघुबर दास के नेतृत्व में पहली बार पूर्ण बहुमत की स्थाई सरकार बनी तो ज मू कश्मीर में भी पहली बार भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस जीत का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि बगैर उसकी सहायता के घाटी में स्थाई सरकार बन पाना नामुमकिन है। हालांकि घाटी में भाजपा का सबसे बड़ा मुस्लिम चेहरा रहीं हिना भट्ट की जमानत तक जब्त हो गई। बहरहाल, बात हो रही है 2014 के खिलाड़ियों की तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का जिक्र न करना नाइंसाफी होगी। मोदी के बाद अगर यह साल किसी के नाम रहा तो वह हैं अमित शाह। राजनीतिक पंडित भी अमित शाह की रणनीति का लोहा मानने को मजबूर हो गये। अमित शाह की रणनीति का ही कमाल था यूपी में भाजपा की महाविजय। इसी के साथ अपने अनुलोम विलोम से दुनिया भर में छा जाने वाले बाबा रामदेव  ने भी खुद को चाणक्य के रूप में पेश कर पाने में सफल रहे। मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने तथा कांग्रेस के कुशासन से देश को मुक्त कराने का बीड़ा लेकर उन्होंने पूरे देश की लगातार यात्रा की। उनकी मेहनत रंग लाई। रामलीला मैदान में अनशन के दौरान हुए अपने अपमान का बदला उन्होंने कांग्रेस को गर्त में धकेलने के साथ ले लिया। कांग्रेस के खिलाफ देश में माहौल बनाने में उनकी प्रमुख भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मोदी की महाविजय व कांग्रेस के पतन के बाद ही वे हरिद्वार स्थित अपने पतंजलि योगपीठ पहुंचे। साल 2014 ने जिस एक और महाबली को गहरा घाव दिया वह हैं लालू प्रसाद यादव। बिहार में कभी एकछत्र शासन कर चुके लालू प्रसाद को उनके ही एक सिपहसालार ने जबर्दस्त पटखनी दी। लालू के हनुमान कहे जाने वाले रामकृपाल यादव के परिवारवाद के खिलाफ उनसे बगावत कर पाटलिपुत्र सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और यादवों का एकमात्र नेता होने का दंभ पाले लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को धूल चटा दिया। यही हाल बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री व लालू की पत्नी राबड़ी देवी का भी हुआ। वह भी सारण सीट से चुनाव हार गई। कुल मिलाकर देखा जाए तो इस साल ने कईयों को ऐसा घाव दिया जिसकी टीस हमेशा बनी रहेगी। ( समाचार संपादक, अर्ली मॉर्निंग, दिल्ली, मो. 9718389836)