बद्रीनाथ वर्मा
न भूतो न भविष्यति की तर्ज पर दिल्ली विधानसभा
चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़ने वाली छवि तार-तार हो चुकी है। नतीजा, 70 में से 67 सीटें जीतने वाली
केजरीवाल की पार्टी उसी दिल्ली में कांग्रेस से भी पिछड़ गई है। आखिर क्यों? क्या इसे अन्ना आंदोलन की भ्रुण हत्या के रूप में
देखा जा सकता है?
लोकसभा चुनाव में मत प्रतिशत के लिहाज से दिल्ली में तीसरे
नंबर पर खिसक जाने के बाद पूरी आम आदमी पार्टी अंदर से हिली हुई है। तेजी से घटती
लोकप्रियता को थामने के लिए हाथ पैर मार रही पार्टी इसके कारणों को तलाशने के बजाय
महिलाओं को मेट्रो में मुफ्त यात्रा की सुविधा देने जैसे लॉलीपॉप का सहारा ले रही
है। जाहिर है यह पार्टी से दूर होती जा रही, आम जनता को पार्टी के प्रति विश्वास
बनाये रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। सोचने
वाली बात है कि जिस पार्टी को दिल्ली की जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली की
सत्ता सौंपी थी उससे आखिरकार जनता के मोहभंग का क्या कारण है। दरअसल, भ्रष्टाचार
के खिलाफ बिगुल फूंककर सत्ता के शीर्ष तक पहुंची पार्टी ने न केवल भ्रष्टाचार में
खूब नाम कमाया है। बल्कि चुनाव पूर्व किये गये नई राजनीति के वादों को बिसारकर उसी
कांग्रेस से गठबंधन करने को बेताब दिखे, जो उनकी नजर में महाभ्रष्ट थी।
भ्रष्टाचार के पुख्ता सबूत होने का दावा करते हुए तब अरविंद
केजरीवाल सत्ता में आने पर शीला दीक्षित को जेल भेजने की बात कहते थे। अपने बच्चों
की कसम खाते थे कि वह कभी भी कांग्रेस से हाथ नहीं मिलायेंगे लेकिन बदलते वक्त में
उनका एकमात्र एजेंडा सत्ता में बने रहने तक सीमित हो गया। अन्ना आंदोलन की कोख से
उपजी ‘आप’ का यह बदला स्वरूप दिल्ली की जनता को नहीं भा रहा। इसका
उदाहरण चुनाव नतीजे हैं। अरविन्द केजरीवाल केंद्रित बन चुकी पार्टी के नेता हर उस आरोप
में फंसे हैं जो आम आदमी पार्टी के संस्थापक सिद्धांतों के खिलाफ हैं। सैक्स स्कैंडल से
लेकर भ्रष्टाचार तक। एक भी ऐसी गंदगी बाकी नहीं बची जिसका दाग इस पार्टी पर न लगा
हो। ऐसे में इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि जनता का उससे मोहभंग उसकी कथनी और
करनी में फर्क का नतीजा है।
आम आदमी पार्टी आम जनता की कसौटी पर पूरी तरह से फिसड्डी
साबित हुई है। इसे साबित करने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। नगर निगम
चुनावों व विधानसभा के उपचुनावों में मिली हार के बाद हालिया लोकसभा चुनाव के
नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं। ‘आएगा तो मोदी ही’ की तर्ज पर लोकसभा
चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद आप की ओर से नया नारा गढ़ा गया है ‘दिल्ली में तो
केजरीवाल’। यह नारा दिल्लीवासियों को कितना भायेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन
आज की हकीकत तो यही है कि दिल्ली में अब आम आदमी पार्टी तीसरे नंबर पर खिसक चुकी
है। कुछ महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में भी अगर लोकसभा चुनाव का ही
ट्रेंड जारी रहता है तो यह केजरीवाल की पार्टी के साथ खुद उनके सियासी वजूद पर भी
गंभीर खतरा है। फिलहाल पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के साथ नंबर दो की लड़ाई लड़ती हुई
ही प्रतीत हो रही है।
अन्ना आंदोलन की कोख से उपजी आम आदमी पार्टी को मिली यह शानदार जीत दिल्लीवासियों के इस भरोसे का प्रतिबिंब थी कि यह पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से अलग हटकर काम करेगी। लेकिन ऐसा हो न सका। जैसे जैसे वक्त बीता यह पार्टी भी आम से खास होकर उसी राजनीतिक सड़ांध का शिकार हो गई, जिसके खिलाफ वह लड़ने का दावा करती थी।
आम जनता के इस मोहभंग के कारणों को रेखांकित करते हुए देश
के मूर्धन्य पत्रकार रामबहादुर राय का कहना है कि दिल्लीवासियों ने जिस उम्मीद के
साथ केजरीवाल को समर्थन दिया था वह उस पर खरे नहीं उतर पाये। भ्रष्टाचार के खिलाफ लंबी
चौड़ी बातें सत्ता में आते ही रफूचक्कर हो गईं। लोकतंत्र व पारदर्शिता की वकालत भी
कब की पीछे छूट चुकी हैं। केजरीवाल की न तो पार्टी में लोकतंत्र व पारदर्शिता की
कोई जगह है और न ही उनकी सरकार में। नई तरह की
साफ सुथरी राजनीति करने आये केजरीवाल ने जिस तेजी से रंग बदला उससे जनता निराश
हुई। जिस कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार का झंडा बुलंद किये हुए थी, उसी के साथ
लोकसभा चुनावों में गठबंधन बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। जनता को
उनका यह नया रूप बिल्कुल ही पसंद नहीं आया। कथनी करनी का यही फर्क उनके व उनकी
पार्टी के पतन का कारण है।
बर्खास्त किए गए नेताओं की लिस्ट
योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, कपिल मिश्रा और संदीप कुमार
उल्लेखनीय है कि लगभग साढ़े चार साल पहले अरविंद केजरीवाल
की आम आदमी पार्टी ने ‘न भूतो न भविष्यति’ की तर्ज पर ऐसी ऐतिहासिक
जीत दर्ज की थी जिसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं की गई थी। वह भी तब, जब पीएम नरेंद्र
मोदी ‘ब्रांड मोदी’ के रूप में अपनी पूरी चमक के साथ सियासी फलक पर धूम मचाये
हुए थे। एक के बाद एक लगातार राज्यों में विजय पताका फहराते जा रहे मोदी के रथ को
केजरीवाल की नई नवेली पार्टी ने दिल्ली में रोक दिया था। न केवल रोका बल्कि दिल्ली
विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर देश-दुनिया को चौंका दिया था। अन्ना आंदोलन
की कोख से उपजी आम आदमी पार्टी को मिली यह शानदार जीत दिल्लीवासियों के इस भरोसे
का प्रतिबिंब थी कि यह पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से अलग हटकर काम करेगी। लेकिन
ऐसा हो न सका। जैसे जैसे वक्त बीता यह पार्टी भी आम से खास होकर उसी राजनीतिक
सड़ांध का शिकार हो गई, जिसके खिलाफ वह लड़ने का दावा करती थी।
पार्टी छोड़ने वाले नेताओं की लिस्ट
आशुतोष, आशीष खेतान, मयंक गांधी, विशाल डडलानी, मेधा पाटकर, जीआर गोपीनाथ, अंजलि दमानिया, अलका लांबा, देवेंद्र सहरावत, अनिल वाजपेयी, गुरप्रीत सिंह
दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद पार्टी लगातार ढलान पर है।
चाहे नगर निगम के चुनाव हों या विधानसभा के उपचुनाव। लगातार हार ही मिली। रही सही
कसर लोकसभा के चुनाव ने पूरी कर दी। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली की
सात में से एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुई है। वैसे 2014 के आम चुनाव में भी आप
को दिल्ली में कोई सफलता हाथ नहीं लगी थी। हालांकि वह कांग्रेस को तीसरे नंबर पर
धकेलने में कामयाब हुई थी। लेकिन इस बार मामला बिल्कुल उलट गया। दिल्ली की सातों
की सातों सीटों में से किसी भी सीट पर पार्टी दूसरे नंबर पर भी नहीं आई। मतदान
प्रतिशत के लिहाज से भी पार्टी तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। पार्टी को लगभग 18
फीसदी वोट मिले हैं। दूसरे नंबर पर कांग्रेस और पहले नंबर पर बीजेपी मौजूद है। इस
नतीजे ने पूरी पार्टी को हिलाकर रख दिया है। कुछ ही महीनों बाद होने वाले विधानसभा
चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए पार्टी हाथ पांव मार तो रही है लेकिन वह ऐसे
भंवरजाल में फंस गई है जहां से निकल पाना फिलहाल संभव नहीं दिखता।
दिल्ली की सत्ता हासिल करने के तुरंत बाद अरविंद केजरीवाल ने पहला काम किया आंदोलन के साथियों को पार्टी से निकाल बाहर करने का। अरविन्द केजरीवाल ने उन लोगों को पार्टी से बाहर करना या उन्हें हाशिये पर भेजना शुरू किया जो उनकी सत्ता के लिए चुनौती साबित हो सकते थे। फिर चाहे वो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण हों या एडमिरल रामदास से लेकर प्रो. आनंद कुमार। ये सभी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में थे। एडमिरल रामदास तो पार्टी के आंतरिक लोकपाल थे।
उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे को ढाल बनाकर दिल्ली की सत्ता
हासिल करने के तुरंत बाद अरविंद केजरीवाल ने पहला काम किया आंदोलन के साथियों को
पार्टी से निकाल बाहर करने का। अरविन्द केजरीवाल ने उन लोगों को पार्टी से बाहर करना
या उन्हें हाशिये पर भेजना शुरू किया जो उनकी सत्ता के लिए चुनौती साबित हो सकते थे।
फिर चाहे वो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण हों या एडमिरल रामदास से लेकर प्रो.
आनंद कुमार। ये सभी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में थे। एडमिरल रामदास तो पार्टी
के आंतरिक लोकपाल थे। कहना गलत नहीं होगा कि पार्टी पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के
लिए केजरीवाल ने इसकी स्थापना काल से जुड़ने व जीत की व्यूहरचना करने वाले अपने
पुराने साथियों को एक के बाद एक दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिया। बाद के
दिनों में भी जिस किसी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री व आप संयोजक अरविंद केजरीवाल के
खिलाफ आवाज उठाई उसे पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखाने में जरा भी देर नहीं लगाई।
कुछ को पार्टी ने बाहर किया तो कुछ ने खुद ही इस्तीफा देकर पार्टी से किनारा कर
लिया। वैसे पार्टी में एक ऐसे भी नेता हैं, जिन्होंने न तो अभी तक पार्टी से इस्तीफा
दिया है और न ही उन्हें पार्टी से निकाला गया है। लेकिन हां, उनका कद छोटा जरूर
कर दिया गया है। कवि और राजनेता कुमार विश्वास भले ही आम आदमी पार्टी से अभी भी
जुड़े हुए हैं, लेकिन उनका बागी
तेवर बयां करता है कि वह दिल से इस पार्टी से कबके दूर जा चुके हैं। अपने ट्वीट के
जरिए केजरीवाल को एकाधिक बार वह आत्ममुग्ध बौना कह चुके हैं।
ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह
केजरीवाल और उनकी पार्टी के सिपहसालारों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की एक लंबी फेहरिस्त है। हर आरोप को भाजपा की चाल बताकर इससे पल्ला झाड़ने की कला में पारंगत केजरीवाल सरकार पर लगे कुछ गंभीर आरोप
- दिल्ली सरकार में जल मंत्री रहे कपिल मिश्रा ने अरविंद केजरीवाल पर स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन से दो करोड़ रुपये नकद लेने का आरोप लगाया था। मिश्रा का कहना था कि सत्येंद्र जैन ने जमीन सौदे के लिए 50 करोड़ रुपये की डील कराई, जिसमें से ये रकम केजरीवाल को उनके घर पर दिए गए।
- रोड्स एंटी करप्शन ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक राहुल शर्मा ने आरोप लगाया था कि सीएम केजरीवाल के साढ़ू सुरेंद्र बंसल ने कई फर्जी कंपनियों के जरिए सरकारी ठेके लिये। लेकिन बगैर कोई काम किये ही केजरीवाल के दबाव में सभी भुगतान आश्चर्यजनक ढंग से कर दिए गए। इससे सरकारी खजाने को 10 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ। एसीबी ने सुरेंद्र बंसल के बेटे विनय बंसल को भी घोटाले के आरोप में गिरफ्तार किया था।
- सुशील गुप्ता व एनडी गुप्ता को राज्यसभा टिकट दिये जाने को लेकर केजरीवाल पर आरोप लगा कि उन्होंने दोनों से 50-50 करोड़ लेकर टिकट दिया। इनमें से सुशील गुप्ता तो 40 दिन पहले तक कांग्रेस में थे। बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा ने केजरीवाल को खुली चुनौती देते हुए कहा था कि वे अपना नार्को टेस्ट करवा लें। अगर अपने मुंह से खुद ना कहें कि 100 करोड़ में दो टिकट दिए तो मैं परिवार के साथ देश छोड़ कर चला जाऊंगा।
बहरहाल, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर सत्ता हासिल करने
वाली केजरीवाल सरकार पर भ्रष्टाचार व घोटालों के कई गंभीर आरोप लग चुके हैं।
भ्रष्टाचार का सबसे ताजातरीन मामला है दिल्ली के स्कूलों में कमरों के निर्माण में
हुए दो हजार करोड़ रुपये के घोटाले का। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना
के बेटे व दिल्ली भाजपा प्रवक्ता हरीश खुराना की सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई
जानकारी से खुलासा हुआ है कि स्कूलों के जो कमरे 892 करोड़ रुपये में बनाए जा सकते
थे। उनके लिए 2892 करोड़ रुपये खर्च किये गये। यानी 2000 करोड़ की सीधी लूट। यही
नहीं, जिन 34 ठेकेदारों को टेंडर दिये गये उनमें से कुछ मुख्यमंत्री अरविंद
केजरीवाल व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के रिश्तेदार या उनके जानने वाले हैं। इस
खुलासे के बाद स्कूलों को चमका देने की डींग हांकने की हकीकत भी अब बेपर्दा हो
चुकी है।
घोटाले में केजरीवाल व सिसोदिया की संलिप्तता का आरोप लगाते
हुए दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने उनके इस्तीफे की मांग की। तिवारी ने कहा कि
केजरीवाल सरकार कहती है कि उसने शिक्षा में बड़ा काम किया है लेकिन सच ये है कि इन्होंने
शिक्षा के नाम पर 2000 करोड़ रुपये का घोटाला किया है। तिवारी के मुताबिक 300 स्क्वायर
फीट का एक कमरा बनाने में अधिकतम 3 से 5 लाख का खर्च आता है। लेकिन केजरीवाल सरकार
ने एक-एक कमरे के निर्माण के लिए 24 लाख 86 हजार यानी करीब 25 लाख रुपये दिए है।
आरटीआई के खुलासे व मनोज तिवारी के आरोपों के मद्देनजर इसकी
जांच कराने के बजाय मनीष सिसोदिया नौटंकी पर उतारू हो गये। एक कमरे की निर्माण
लागत 25 लाख कैसे हो गई, इसका जवाब देने के बजाय उन्होंने मनोज तिवारी को उन्हें
गिरफ्तार कराने की चुनौती दे दी। हालांकि दिल्ली सरकार के कामकाज पर पैनी नजर रखने
वाले विशेषज्ञों का कहना है कि सिसोदिया चाहे जो कहें लेकिन इससे इनकार नहीं किया
जा सकता कि स्कूलों व मुहल्ला क्लिनिकों में भारी भ्रष्टाचार है।
बहरहाल, साल 2014 के आम चुनाव से पहले आंदोलन से निकली आम
आदमी पार्टी तमाम लोकतांत्रिक सवालों को उठाते हुए सत्ता में आई थी। धनबल, बाहुबल, जातीय कार्ड और सांप्रदायिकता
को धता बताते हुए भ्रष्टाचार से परेशान जनता को नई राजनीति का भरोसा देने वाले अरविंद
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी में उम्मीद दिखी। इतिहास बना और राजनीति के मायने बदल गए।
लेकिन 2019 आते-आते यमुना में बहुत सारा पानी बह चुका है। नई राजनीति का मुलम्मा
उतर चुका है। वोट प्रतिशत के आधार पर तीसरे नंबर पर खिसक चुकी पार्टी का दिल्ली
में भविष्य बहुत अच्छा नजर नहीं आता है। विधानसभा चुनाव में पार्टी सफल नहीं हुई, या सरकार बनाने
में सफल नहीं हुई तो आम आदमी पार्टी के लिए एक बार फिर खुद को मुख्यधारा में लाना
बहुत मुश्किल होगा।