शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

गिव एंड टेक



राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार के 19 अगस्त अंक में प्रकाशित

हाजिर नाजिर

इंट्रो : चांद मोहम्मद उर्फ चंद्रमोहन और फिजा की दास्तान-ए-मोहब्बत का दुखद अंत, और एयरहोस्टेस गीतिका शर्मा की आत्महत्या ने एक बार फिर इतिहास के पन्नों में दफन नेताओं के प्रेम प्रसंगों और विवाहेतर संबंधों की परत दर परत उधेड़ कर रख दी है
 
एक बड़ा पुराना फिल्मी गीत है 'इस प्यार को क्या नाम दें। जी हां, कुछ इसी तरह के विभ्रम का शिकार मैं भी हूं कि आखिरकार फिजा और चांद की इस दुखद प्रेमकथा को क्या नाम दूं। यह प्रेम है। वासना है।  सेक्स, सियासत और रसूख का घालमेल है। या सीधा सीधा 'दो और लो या फिर 'यूज एंड थ्रो फार्मूला है। दरअसल, जल्द से जल्द आकाश की बुलंदियों को छू लेने की महत्वाकांक्षा ही मुख्य रूप से ऐसी प्रेमकथाओं को जन्म देती है। साफ शब्दों में कहा जाए तो गिव एंड टेक का फार्मूला अपनाया जाता है। स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने वाले पुरुषों को जहां उनका उपभोग करने की ललक होती है वहीं औरतों को सत्ता के साये में आसमान की ऊंचाइयां छू लेने की जल्दबाजी। बात जब हद पार करने लगती है तो अक्सर फिजा जैसी माशुकाओं को मरना पड़ता है।
हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चंद्रमोहन के इश्क में गिरफ्तार अनुराधा बाली का ऐसा अंत होगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। मोहाली स्थित अपने आवास पर उसका सड़ा गला शव मिला। हरियाणा की महाधिवक्ता रही अनुराधा बाली जन्म से ब्राह्मण थी। उसने व चंद्रमोहन ने मुस्लिम धर्म अपनाकर शादी कर ली। नया नाम था चांद मोहम्मद और फिजा। इस विवाह ने सियासी फिजा को इतना बदरंग कर दिया कि यह चौक चौराहे की बहस का पसंदीदा विषय बन गया। हालांकि बाद में पारिवारिक दबाव के चलते चांद मोहम्मद फिर चंद्रमोहन बन गए। और फिजा के मोबाइल पर उनका तलाक-तलाक-तलाक का एसएमएस पहुंच गया। चंद्रमोहन की इस बेवफाई से फिजा बुरी तरह टूट गई। विषादग्रस्त फिजा जमकर शराब पीने लगी। इसकी तस्दीक उसके शव के पास से बरामद गिलास व शराब की बोतल से भी होती है। खैर, उसकी मौत कैसे हुई यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा पर इतना तो तय है कि उसकी प्रेमकथा के पीछे कहीं न कहीं जल्द से जल्द आकाश की बुलंदियों को छू लेने की चाहत ही रही।
वैसे यह कहानी एक अकेले फिजा की नहीं है। ऐसी सैकड़ों सियासी फिजाएं हैं। यह फेहरिश्त इतनी लंबी है कि इस पर पूरी की पूरी किताब लिखी जा सकती है। हरियाणा के गृहमंत्री गोपाल कांडा और एयर होस्टेस गीतिका शर्मा, राजस्थान में भंवरी देवी और मदेरणा, उत्तर प्रदेश में मधुमिता शुक्ला और अमरमणि त्रिपाठी। इन सभी सियासी प्रेमकथाओं का अंत खूनी ही हुआ। राजनीति की ये सारी अपराधकथाओं ने अपने समय में पूरे देश को मथ दिया था। फिजा के बाद ताजा मामला गीतिका शर्मा का है। उसने अपने सुसाइड नोट में अपनी मौत का जिम्मेदार हरियाणा के गृहमंत्री गोपाल कांडा को ठहराया। उसने सुसाइड नोट में कांडा पर शारीरिक व मानसिक उत्पीडऩ का आरोप लगाया। बहरहाल, इस 23 वर्षीय एयरहोस्टेस की आत्महत्या में नाम आने के बाद कांडा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। खैर, फिजा और गीतिका से लेकर नैना शाहनी तक सैकड़ों नाम हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसे यूज एण्ड थ्रो नाम देना ठीक रहेगा? शायद हां, क्योंकि इसके लिए इससे बेहतर कोई संबोधन हो ही नहीं सकता। इसमें सिर्फ सियासतदानों को गुनहगार ठहराना जायज नहीं होगा। दरअसल, यह प्रेम नहीं बल्कि गिव एंड टेक के तहत महत्वाकांक्षाओं की ऊंची उड़ान थी। एक सौदा था। प्यार के नाम पर एक तरफ जहां सिर्फ और सिर्फ वासना थी वहीं दूसरी तरफ सत्ता से नजदीकी की चाहत।
्र्र राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा और नर्स भंवरी देवी का मामला भी सेक्स और महत्वाकांक्षा का घालमेल है। अब यह बात खुलकर सामने आ गई है कि लोकगायिका भंवरी देवी मदेरणा को ब्लैकमेल कर रही थी। जब पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा तो उसकी इहलीला समाप्त कर दी गई। गौरतलब है कि भंवरी की मदेरणा के साथ एक सीडी सार्वजनिक हो चुकी है जिसमें मदेरणा और भंवरी देवी की नजदीकियां साफ देखी जा सकती हैं। सीडी तैयार करने में भंवरी की भी भूमिका थी। सीडी आने के बाद से वह लापता हो गई। बाद में उसकी हत्या की पुष्टि भी हो गई।
 ऐसी ही मुहब्बत की एक और खूनी दास्तां युवा कवयित्री मधुमिता शुक्ला और उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी की भी है। इस प्रेमकथा की कीमत भी मधु को अपनी जान गवां कर चुकानी पड़ी थी। एक नेता से प्रेम करने का कर्ज चुकाना पड़ा। एक नवोदित कवयित्री और एक सियासतदां की यह प्रेम कहानी बदस्तूर चलती रहती बशर्ते मधुमिता, अमरमणि पर विवाह करने का जोर न डालती। नौ साल पहले अचानक मधुमिता की उसके लखनऊ स्थित पेपर मिल कालोनी के घर में हत्या कर दी गई। जांच पड़ताल के बाद अदालत ने मंत्री अमरमणि त्रिपाठी, उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उनके चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी और उनके सहयोगी संतोष राय को मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में दोषी पाया। अमरमणि मधुमिता की हत्या के जूर्म में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे हैं।
एक और सियासी प्रेम त्रिकोण की चर्चा किए बिना यह राजनीतिक अपराधकथा अधूरी ही होगी। दरअसल, हम बात राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन सैयद मोदी, उनकी पत्नी अमिता और कांग्रेसी नेता संजय सिंह की कर रहे हैं। जुलाई 1988 में लखनऊ के केडी बाबू स्टेडियम से अभ्यास के बाद बाहर आते समय उनकी हत्या कर दी गई। अंगुली संजय सिंह और मोदी की पत्नी अमिता की ओर उठी क्योंकि उन दोनों के प्रेम संबंध की खबरें काफी समय से सुनाई पड़ रही थीं। बाद में सीबीआई ने एक डायरी बरामद की जिसमें संजय और अनिता के प्रेम का खुलासा था। आज अमिता संजय सिंह की पत्नी के रूप में राज परिवार की बहू कहलाती हैं। इसके अतिरिक्त भी कुछ ऐसी प्रेमकथाएं हैं जो समय समय पर चर्चित रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो खुले आम यह स्वीकार कर चुके हैं कि वह अविवाहित जरूर हैं पर ब्रम्हचारी नहीं। अटलजी का एक पंजाबी महिला से संबंध था। कल्याण सिंह व कुसुम राय का प्रेम संबंध भी एक जमाने में खूब चर्चित हुआ था। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री रहते हुए कुसुम राय सुपर सीएम मानी जाती थीं। उनका जलवा ये था कि वह एक काली लालबत्ती वाली गाड़ी में चला करती थीं और उनके पीछे मुख्यमंत्री के कोबरा बल के वाहन हुआ करते थे। हालांकि आधिकारिक तौर पर कुसुम राय भाजपा की सिर्फ एक पार्षद थीं। असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत व संघमित्रा घराली का प्रेम संबंध भी खूब चर्चित हुआ।
 यहां एक बात विशेष रूप से उल्लेख करना जरूरी है कि कई राजनीतिज्ञों ने अपनी मुहब्बत को एक मुकाम दिया और जिससे प्यार किया उसके साथ जीवन भर के लिए जुड़ गए। पर अधिकतर ऐसेे हुए जिन्होंने अपने प्यार को सिवाय बदनामी के कुछ नहीं दिया। यह अलग बात है कि किसी की खबरें मीडिया की सुर्खिया बन जाती हैं और कोई ताउम्र दोहरा जीवन जी लेता है और किसी को पता भी नहीं चलता। इसके लिए यही कहा जा सकता है कि वासना के आवेग में लोग प्रेम का नाम देते हुए संबंध तो बना लेते हैं पर भांडा फूटने के डर से अक्सर ये प्रेम कहानियां खूनी दास्तां में तब्दील हो जाती हैं।
                                                                                           बद्रीनाथ वर्मा

क्या यह बसपा का गेमप्लान है


बद्रीनाथ वर्मा 9718389836

 हाजिर- नाजिर
राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- सपा के दिग्गज जानते हैं कि मूर्तियों के टूटने की आवाज बसपा को जिंदा कर सकती है। ऐसे में मूर्तिभंजन के पीछे खुद बसपा के हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता। 

हाईलाईटर- मूर्ति ध्वंसक अमित जानी के सूत्र सपा के साथ-साथ बसपा के भी कई नेताओं से बताए जा रहे हैं

मायावती की मूर्ति क्या टूटी बसपा को मानो संजीवनी ही मिल गई। विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार से हताश बसपा कार्यकर्ताओं में इस घटना ने नया ओज भर दिया। मुद्दाविहीन कार्यकर्ताओं को बहनजी की मूर्ति पर हुए प्रहार ने अपना दमखम दिखाने का एक अवसर प्रदान कर दिया। दूसरे शब्दों में उन्हें एकजुट होने का सुनहरा मौका दे दिया। ऐसे में राजनीतिक गलियारे में कुछ सवाल उठने लगे हैं। कहीं यह बसपा का ही  तो किया धरा नहीं है? इस तरह की आशंका व्यक्त करने वालों का तर्क है कि सपा को यह भलीभांति पता है कि मूर्तियों से छेड़छाड़ बसपा कार्यकर्ता बर्दाश्त नहीं करेंगे। ऐसे में भला सपा ऐसा क्यों करेगी कि आ बैल मुझे मार?
अगर कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि सपा की शह पर ही मूर्तियां तोड़ी गई हैं, तो सवाल उठता है कि राजनीतिक अखाड़े के मंझे हुए पहलवान मुलायम सिंह यादव क्या इतने नासमझ हैं कि उन्हें इसके नफे-नुकसान का अंदाजा नहीं था? तो क्या मायावती की मूर्ति का तोड़ा जाना खुद बसपा का ही गेमप्लान था? इस आशंका को सहज ही खारिज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि इस प्रकरण से अगर किसी को फायदा पहुंच रहा है, तो वह है बसपा। एक तो इससे बैकफुट पर चली गई बसपा को फ्रंटफुट पर आने का मौका मिल गया और इसी बहाने अखिलेश सरकार को चेतावनी भी दे दी गई। कहा जा रहा है कि मूर्ति तोड़े जाने के सूत्रधार अमित जानी का सपा नेताओं से गहरा ताल्लुकात रहा है। वह समाजवादी पार्टी का कार्यकर्ता भी रहा है। हालांकि सूत्र बताते हैं कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों से भी उसके अच्छे संबंध रहे हैं। इस लिहाज से इस कांड में बसपा की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता। सूत्रों का तो दावा है कि विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार से अभी भी बसपा कार्यकर्ता उबर नहीं पाए हैं। ऐसे में आनेवाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बसपा को मुद्दा बनाने के लिहाज से इस घटना को अंजाम दिलवाया गया है। इस आशंका को बल इस बात से भी मिलता है कि मूर्ति तोड़े जाने की घटना मोबाइल के जरिए चंद मिनटों में ही पूरे प्रदेश में फैल गई। फिर क्या था, हड़कंप मचना ही था। मचा भी। इसे दलित अस्मिता पर हमला मानते हुए अदना बसपा कार्यकर्ताओं से लेकर बड़े नेता तक उद्वेलित हो गए। जगह-जगह बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए। उन्हें काबू करने में अफसरों के पसीने छूट गए। हालांकि राज्य सरकार ने आननफानन में नई मूर्ति लगवाकर मामले को बिगडऩे से बचाने की भरपूर कोशिश की। किंतु इस बीच बसपा को जो फायदा मिलने वाला था वह तो मिल ही गया।  राज्य सरकार को झुका देने का गर्वबोध लिए बसपाई अब नए सिरे से उठ खड़े हुए हैं। लब्बोलुआब यह कि एक ही झटके में बसपा लाइमलाइट में आ गई।
मूर्ति तोड़े जाने को खुद बसपा का गेमप्लान बताने वालों का तर्क है कि सपा मुखिया नेताजी व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस बात का भली भांति एहसास है कि मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ का मतलब अचेत पड़ी बसपा को संजीवनी देना होगा। हालांकि दोनों पिता-पुत्र विधानसभा चुनाव के दौरान हाथी पार्कों में अस्पताल व स्कूल खोलने के  चुनावी गुब्बारे उड़ाते रहे थे। परंतु मुख्यमंत्री बनते ही अखिलेश यादव इस बात को भूल गए। जनता की तालियों की गडग़ड़ाहट में भले ही मुर्तियों पर बुलडोजर चलवाने की बड़ी-बड़ी डींगे हांकते रहे परंतु वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ कदापि नहीं रहे। उन्हें पता था कि मूर्तियों से छेड़छाड़ को दलित अस्मिता पर हमला करार देकर बहनजी इसका राजनीतिक फायदा बटोर ले जाएंगी। जबकि उल्टे सपा को इसका नुकसान ही होगा। ऐसे में भला सपा अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगी?
 खुद की मूर्ति स्थापित करने को लेकर मीडिया में भले ही मायावती की जितनी भी आलोचना हुई हो पर इसका उनके समर्थकों पर रंचमात्र भी असर नहीं पड़ा। उल्टे इसे मनुवादी मीडिया की भड़ास कहकर खारिज कर दिया गया। ऐसे में मूर्तियों से छेड़छाड़ करने से हाथ जल जाने का शत प्रतिशत खतरा था। फिर क्योंकर सपा की तरफ से ऐसी गुस्ताखी की जाती। इससे तो खामखां बैठे बिठाए बसपा को फायदा ही पहुंचने वाला था। जाहिर है यह सपा या उसके इशारे पर तो कम से कम नहीं ही किया गया है। फिर सवाल उठता है कि यह काम किसने और किस मंशा से किया? मूर्तिं टूटने से आखिर फायदा किसको मिला? जाहिर है बसपा को। तो भला मुलायम सिंह यादव या उनके रणनीतिकार बहनजी को फायदा पहुंचाने वाला काम क्यों करेंगे? यह ऐसा सवाल है जो राजनीतिक पंडितों को परेशान कर रहा है। घूम फिरकर बात बसपा पर पहुंच जाती है। स्थितियां भी बसपा की ओर ही इशारा कर रही हैं। दरअसल, बसपा का मूल वोट बैंक दलित जो बिदक रहा था, इस प्रकरण से वह एकबार फिर एकजुट हो गया है। सूत्रों की अगर मानें तो यह सारा कुछ खुद बहनजी व उनके कुछ विश्वस्त सहयोगियों की योजना का परिणाम है। इसे बसपा की कारस्तानी मानने वालों का एक तर्क और भी है। उनका कहना है कि मूर्ति तोडऩे की जिम्मेदारी लेने वाले उत्तर प्रदेश नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष अमित जानी व उसके सहयोगियों को प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मूर्ति तोडऩे के लिए उकसाया गया। हाथी पार्कों में अस्पताल या स्कूल खोले जाने के मुख्यमंत्री अखिलेश के वादे की याद दिलाने के लिए आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में जब अमित जानी ने कहा कि यदि सरकार ने पार्कों से मूर्तियां नहीं हटाईं तो नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता मूर्तियों को तोड़ देंगे। तब उन्हें उकसाने के मकसद से बार-बार कहा गया कि मूर्तियां तोड़ कर दिखाओ। वहां मौजूद पत्रकारों का कहना है कि ऐसा कई बार कहा गया। एक तरह से उन्हें ऐसा करने के लिए बार-बार प्रेरित किया गया। आखिरकार जोश में आकर उन्होंने घटना को अंजाम दे डाला। बाकायदा टीवी कैमरों के सामने हथौड़े से मायावती की मूर्ति के सिर व हाथों को तोड़ दिया गया। उसके बाद जो होना था, वह हुआ। मिनटों में मोबाइल व टीवी के जरिए यह खबर राज्य के हर छोटे-बड़े शहर-गांव तक पहुंच गई। फिर क्या था घटना की खबर लगते ही सुस्त पड़े बसपा कार्यकर्ताओं में नई जान आ गई। तुरंत सड़कों पर जाम लगा दिया गया। कई जगह तो उग्र कार्यकर्ताओं को तितर बितर करने के लिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। बहरहाल, बसपा कार्यकर्ताओं को शांत करने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तत्काल क्षतिग्रस्त मूर्ति को ठीक करने का आदेश दे दिया। मूर्तियां फिर से स्थापित भी कर दी गईं। खैर, जो भी हो मूर्ति टूटी, विरोध हुआ, फिर मूर्ति लग भी गई। पर, यहां सवाल उठता है कि  मायावती ने यह मूर्तियां इसीलिए तो नहीं लगवाईं कि मूर्तियों के रहने से तो फायदा मिले ही उनके टूटने से भी फायदा बसपा को ही मिले। मूर्तिमोह की इस राजनीति में उत्तर प्रदेश की जनता कब तक फंसी रहेगी देखना यह भी है।

दामन दागदार नहीं करेंगे दादा


स्लग- प्रसंगवश
राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो : भले ही प्रणव मुखर्जी यूपीए उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति चुने गए हैं। पर, उन्होंने इशारों ही इशारों में साफ जता दिया है कि कांग्रेस उनसे किसी अनैतिक फायदे की उम्मीद न पाले

हाईलाईटर- देश के शीर्ष राजनीतिक आसन पर विराजमान होने वाले प्रणव मुखर्जी 43 वर्षों की भारतीय राजनीति के गवाह हैं

'राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से ऊपर होता है। अवसर मिलने पर मैं इस पद की गरिमा और मूल्यों की हिफाजत करने का पूरा प्रयास करूंगा। ऐसा कोई भी काम नहीं करूंगा जिससे राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस लगे। मैं संविधान की शूचिता का पूरा ख्याल रखते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करूंगा।Ó देश के चौदहवें राष्ट्रपति चुने जाने के बाद दिया गया प्रणव मुखर्जी का यह बयान साफ इशारा करता है कि वह सिर्फ रबर स्टांप की तरह काम नहीं करेंगे। उनके इस बयान को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उनका बयान कांग्रेस को यह बतलाने के लिए है कि पार्टी उनसे किसी विशेष लाभ की उम्मीद न करे। वह गैर संविधान सम्मत कोई भी कार्य नहीं करेंगे। इसके पीछे वजह बताई जा रही है कि लगभग डेढ़ साल बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। जिस तरह से कांग्रेस के भीतर से राहुल गांधी को बड़ी भूमिका देने की बात उठ रही है। उससे साफ लग रहा है कि अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन सिंह के बजाय राहुल के नेतृत्व में लड़ेगी। चूंकि ताजा हालात को देखते हुए कांग्रेस की हालत पतली ही नजर आ रही है। ऐसे में रायसीना हिल्स की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। पर मुखर्जी ने भले ही इशारों में ही सही पर साफ जता दिया है कि वह दलीय आधार या कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाला कोई अनैतिक निर्णय नहीं लेने वाले। बहरहाल मुखर्जी का यह बयान राष्ट्रपति के पद की गरिमा के अनुरूप तो है ही। साथ ही उनके इस बयान ने उनके कद को और भी ऊंचा कर दिया है। गौरतलब है कि मुखर्जी देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर 13वें व्यक्ति और 14वें राष्ट्रपति होंगे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद दो बार इस पद के लिए चुने गए थे। यूपीए से बाहर के राजनीतिक दलों का भी समर्थन मिलने से संतुष्ट और खुश मुखर्जी ने कहा कि उनकी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। वह सभी के राष्ट्रपति होंगे। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा कि वह इस बात से खासतौर पर खुश हैं कि यूपीए से बाहर के भी जिन दलों ने उनका समर्थन करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, वे अपने वादे पर खरे उतरे। इसी के साथ उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही कि मैं सबका राष्ट्रपति रहूंगा। अपने समक्ष मौजूद चुनौतियों से भलीभांति वाकिफ मुखर्जी ने कहा कि राजनीतिक दलों के बीच मौजूदा द्वेष से वह चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है।
देशभर से मिले जबर्दस्त समर्थन के लिए सभी का आभार व्यक्त करते हुए नए नवेले राष्ट्रपति ने कहा कि मेरे पांच दशक के राजनीतिक जीवन में जितने लोगों ने मुझे सहयोग और समर्थन किया है उन सभी को मैं धन्यवाद देता हूं। उन्होंने यह बात जोर देकर कही कि राष्ट्रपति के रूप में संविधान का संरक्षण और उसे बचाना उनकी जिम्मेदारी होगी। वह संविधान की गरिमा का ख्याल रखेंगे व संविधान प्रदत्त अधिकारों का पूरी पारदर्शिता से निर्वहन करेंगे।
गौरतलब है कि राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले मुखर्जी की हार्दिक इच्छा प्रधानमंत्री बनने की रही है। गाहे बगाहे यह दर्द उनकी बातों में झलक भी जाता था। अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर दी थी। बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए। अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड़ रखने वाले 77 वर्षीय प्रणव दा सियासत की हर करवट को बखूबी समझते हैं। यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा यूपीए सरकार पर किसी भी तरह की मुसीबत आई तो वह सबसे आगे नजर आए। कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा सिर्फ और सिर्फ प्रणव मुखर्जी हैं। भले ही प्रणव दा के खिलाफ पी ए संगमा आदिवासी कार्ड के साथ मैदान में ताल ठोंक रहे थे, पर यह सिर्फ खानापूर्ति ही थी। मुखर्जी की जीत तो पहले से ही तय मानी जा रही थी। इसका आभास स्वयं उन्हें भी था। इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके मुखर्जी पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए। लगभग पैंतीस वर्षों तक वह राज्यसभा के लिए ही चुने जाते रहे। सियासी जिंदगी में पहली बार उन्होंने साल 2004 में लोकसभा का रुख किया। वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए। इसके बाद 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे। खैर, वह प्रधानमंत्री तो नहीं बन सके पर हां, देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद तक पहुंचने में जरूर कामयाब हो गए। मुखर्जी अगर देश के इस सर्वोच्च पद पर आसीन हुए हैं तो इसमें सिर्फ कांग्रेस की या यूपीए की ही भूमिका नहीं है बल्कि खुद मुखर्जी की सर्वस्वीकार्यता के फैक्टर ने भी काम किया है। यूपीए के संकटमोचक के तौर पर अपनी काबीलियत दिखा चुके मुखर्जी भारतीय राजनीति के ताने बाने को गहराई से समझने की कूव्वत रखते हैं। कांग्रेस व यूपीए के बाहर भी उनकी छवि एक अच्छे व सुलझे हुए राजनेता की रही है। यही कारण है कि दलीय सीमाओं से परे उनकी स्वीकार्यता ने ही विपक्षी गठबंधन राजग में विभेद पैदा कर दिए। यहां तक कि जदयू और शिवसेना जैसे दो विरोधी ध्रुव उनके समर्थन में खुलकर सामने आ गए। और तो और भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली जैसे प्रखर विरोधी भी उनकी तुलना क्रिकेट के योद्धा सर डॉन ब्रैडमैन से करने लगे। इससे यह विश्वास पैदा होता है कि देश का शीर्ष संवैधानिक पद वाकई सक्षम और सुधि हाथों में है।
उनका यह कहना काफी मायने रखता है कि देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले किसी भी व्यक्ति को आधुनिक भारत के संस्थापकों द्वारा स्थापित परंपराओं को बनाए रखना होगा। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉक्टर जाकिर हुसैन और इनके बाद राष्ट्रपति बने लोगों की ओर से स्थापित मानकों और परंपराओं के मुताबिक रहना उनका प्रयास रहेगा। मुखर्जी के इस बयान के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उन्होंने इस बहाने कांग्रेस व खासकर सोनिया को यह जता दिया है कि कांग्रेस उनसे किसी विशेष रियायत की उम्मीद न पाले। वह सिर्फ और सिर्फ संविधान के अनुरूप ही काम करेंगे। अब आगे देखना दिलचस्प होगा कि वाकई प्रणव दा अपनी अलग छवि गढ़ पाते हैं या उनकी यह कथन सिर्फ कर्णप्रिय बातें ही साबित होती हैं।

क्या सपा व बसपा के बीच साठगांठ है


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

स्लग- हाजिर-नाजिर

इंट्रो- अक्सर एक दूसरे को पानी पी पीकर कोसते रहते हैं बहनजी और नेताजी। पर जैसे ही सरकार बनती है। एक-दूसरे के घपलों घोटालों पर कार्रवाई करने से बचते हैं। आखिर क्यों? क्या दोनों के बीच कोई सांठगांठ है

हाईलाईटर-  बसपा सरकार के दौरान हुए घोटालों की जांच कराने से कतरा रही है सपा सरकार


राज्य में इन दिनों सपा-बसपा में साठगांठ को लेकर फुसफुसाहट तेज हो रही है। दावा किया जा रहा है कि दोनों दल जनता के सामने चाहे जितना गाल बजाएं, पर अंदरखाने एक-दूसरे के घपलों-घोटालों पर पर्दा डालने के लिए अंडरस्टैंडिंग बनी हुई है। आपस में गुत्थमगुत्था दिखने वाले दोनों सियासी दलों की वास्तव में यह नूराकुश्ती है। विधानसभा चुनाव के दौरान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मायावती को कोसने का एक भी मौका नहीं चूकते थे। अपनी हर चुनावी सभा में उनके भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए उनके जेल जाने की भविष्यवाणी करते फिरते थे। दावा था कि सत्ता में आने पर बसपा शासन के भ्रष्टाचार की जांच कराई जाएगी और भ्रष्टाचार की गंगोत्री मायावती को जेल भेजा जाएगा। इसी के साथ जगह-जगह बने पार्कों में अस्पताल और स्कूल खोले जाएंगे। नेताजी तो जिले के अफसरों की ओर उंगली उठाते हुए यहां तक कहते थे कि मायावती का साथ देने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लच्छेदार भाषणों ने अपना असर दिखाया, और मायावती शासन से त्रस्त जनता ने सपा को प्रचंड बहुमत के साथ यूपी की गद्दी सौंप दी। पर, सत्तासीन होते ही सपा चुनावी सभा में दिए गए लच्छेदार भाषणों को भूल गई। हालत यह है कि बसपा शासन के घपले घोटालों के तथ्य होने के बावजूद सपा सरकार मायावती के खिलाफ जांच कराने तक से कतरा रही है। आखिर क्यों? कहीं इस हृदयपरिवर्तन के पीछे आपसी मिलीभगत तो नहीं? क्या यह समझा जाय कि दोनों के बीच अंदरखाने कोई खिचड़ी पक रही है। यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि चुनावों में मायावती सरकार को पानी पी पीकर कोसने वाले समाजवादी पिता-पुत्र ने सभी मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है जो उन्हें बहनजी के खिलाफ कार्रवाई करने से रोकती है। क्या इसमें भी कांग्रेस का दबाव काम कर रहा है। या फिर आपसी रजामंदी से ही मामलों को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या वजह है कि चार महीने बाद भी एक भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकी अखिलेश सरकार। इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह ैहै कि राज्य सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले शिवपाल सिंह यादव ने पूरे तामझाम से आरटीआई के जरिए मायावती के सरकारी निवास पर खर्च हुए 86 करोड़ रुपये का ब्यौरा निकलवाया। विधानसभा में सवाल भी उठा। पर सब टांय-टांय फिस्स। अब जांच कराने से ही इंकार। क्या मायने हैं इसके। क्या इससे नहीं साबित होता कि सपा-बसपा के बीच जरूर कोई जुगलबंदी है। तथ्य भी इसी ओर इशारे कर रहे हैं। इसे समझने के लिए एक और मामले का जिक्र करना समीचीन होगा। मायावती सरकार के दौरान 21 चीनी मिलें बेची गईं। कैग की रिपोर्ट में 808 करोड़ रुपये के घपले का खुलासा हुआ। चुनाव के दौरान समाजवादी पिता-पुत्र ने मामले को जोर-शोर से उठाया। पर सरकार बनने के बाद खामोशी का लबादा ओढ़ लिया। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिससे आम आदमी को बसपा व सपा के बीच मिलीभगत की आशंका हो रही है।
ऐसा मानने वालों की दलील है कि मायावती और मुलायम सिंह अपने भाषणों या बयानों में चाहे जितनी एक दूसरे की बखिया उधेड़ते हों पर, दोनों ही एकदूसरे के घोटालों पर अपने कार्यकाल के दौरान पर्दा डालते रहे हैं। मायावती जब सत्ता में आती हैं तो सपा सरकार के दौरान हुए घपलों-घोटालों पर चुप्पी साध जाती हैं और जब सपा की बारी आती है तो वह बसपा शासनकाल के भ्रष्टाचार की फाइलों पर अजगर बन कर बैठ जाती है। इसके प्रमाण में मुलायम काल में हुए पुलिस भर्ती घोटाले समेत तमाम मुद्दों को गिनाते हैं जिन पर मायावती ने कुछ भी नहीं किया। वह पूरे पांच साल तक सपा शासनकाल के विवादित फैसलों पर कार्रवाई करने से बचती ही रहीं। वही हाल आज सपा सरकार का है। वह भी मायावती को मुश्किल में डालने वाले मामलों पर पालथी मार कर बैठ गई है। ऐसे में यदि दोनों के बीच किसी साठगांठ की आशंका व्यक्त की जा रही है तो, कहीं न कहीं लोगों को इसमें सच्चाई नजर आ रही है। दरअसल, उत्तर प्रदेश का राजनीतिक मिजाज भी तमिलनाडु की तरह ही हो गया है। मायावती और मुलायम दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि। मान लिया गया है कि हर पांच वर्ष बाद सत्ता का बंटवारा सपा व बसपा के बीच ही होना है। होता भी यही है। एक बार मायावती की सरकार बनती है तो दूसरी बार मुलायम सिंह की। राष्ट्रीय पार्टियां कही जाने वाली कांग्रेस व भाजपा का वजूद दिनोंदिन सिमटता जा रहा है। जनता एक की खीझ दूसरे को विजयी बनाकर उतारती है। बावजूद इसके कि मायावती की माया और मुलायम की माया में ज्यादा कुछ फर्क नहीं है। दोनों ही जातीय गोलबंदी के माहिर व मंझे हुए खिलाड़ी हैं। मायावी हैं। अपने तईं एक-दूसरे को बचाने की पुरजोर कोशिश की जाती है। बहरहाल, सत्ता शीर्ष की अदला बदली जनता इस भरोसे के साथ करती है कि अब उसकी तकदीर बदल जाएगी। हालांकि हर बार वह ठगी ही जाती है। दरअसल, तकदीर नहीं केवल तस्वीर बदलती है।
धूमिल ने उत्तर प्रदेश के बारे में लिखा था कि भाषा में भदेस हूं/ इतना कायर हूं कि/ उत्तर प्रदेश हूं। दुर्भाग्य से धू््मिल अब नहीं हैं। अगर आज होते तो नि:संदेह यही लिखते कि कभी मायावती, कभी अखिलेश हूं /सच तो यह है कि/ कभी नहीं सुधरूंगा/ उत्तर प्रदेश हूं।
बहरहाल जनता ने बड़ी उम्मीदों से युवा अखिलेश को राज्य की बागडोर सौंपी थी। पर चार महीने बीतते न बीतते वह मोहभंग के कगार पर पहुंच गई है। यूपी की जनता आजकल रामचरितमानस का एक दोहा मन ही मन दुहरा रही है- कोऊ नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ नहीं होउब रानी।







राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने के मामले पर अलग-थलग पड़ीं ममता दीदी के साथ प्रदेश कांग्रेस अपना रही उन्हीं का पैंतरा। विधानसभा में अपनी ही गठबंधन सरकार के फैसलों के  खिलाफ। सवाल है कि क्या इससे ममता दीदी पर लगाम लगा पाएगी प्रदेश कांग्रेस या केंद्र की शह पर हो रही दबाव की राजनीति

हाईलाईटर- बंगाल पर 205368.13 करोड़ का कर्ज है जिसके ब्याज के रूप में रिजर्व बैंक 25000 करोड़ रूपये काटता है



उल्टी पड़ी दीदी की छड़ी

एक बड़ी पुरानी कहावत है, 'जैसी करनी, वैसी भरनीÓ। इन दिनों यह कहावत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर बिल्कुल फिट बैठ रही है। कल तक जो धौंस वह केंद्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर जमाती रहती थीं, अब उसका सामना खुद उन्हें करना पड़ रहा है। प्रदेश कांग्रेस अब उन्हीं का तरीका उन्हीं पर पूरे दमखम से आजमा रही है। वह उनकी परवाह किए बिना नहले पर दहला दिए जा रही हैं। यही नहीं, प्रदेश कांग्रेस का एक गुट तो ममता बनर्जी के खुल्लमखुल्ला विरोध पर उतारू है। यह गुट बहरमपुर के रॉबिनहुड छवि वाले सांसद अधीररंजन चौधरी व गीता दासमुंशी का है। गीता दासमुंशी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे प्रियरंजन दासमुंशी की पत्नी हैं। प्रिय दा के नाम से ख्यात प्रियरंजन दास मुंशी पिछले कई वर्षों से कोमा में हैं। इस गुट को शंकर सिंह आदि जैसे प्रदेश के अन्य वरिष्ठ नेताओं का भी समर्थन हासिल है। पिछले दिनों अधीररंजन चौधरी ने तो साफ-साफ कह दिया था कि यदि ममता को यूपीए से इतनी ही परेशानी है तो क्यों वह यूपीए में बनी हुई हैं। क्यों नहीं वह यूपीए से बाहर चली आती हैं। दरअसल, राष्ट्रपति चुनाव को लेकर शुरू हुई खटास दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। प्रदेश कांग्रेस ममता के विरोध का एक भी मौका चूकना नहीं चाहती। हालत यह है कि राज्य का हित भी राजनीति पर भारी पडऩे लगा है। इसी का नमूना दिखा पिछले दिनों राज्य विधानसभा में। केंद्र से आर्थिक मदद व आगामी तीन वर्षों के लिए ऋण स्थगन की मांग के लिए एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजे जाने के लिए पेश प्रस्ताव को मुख्य विपक्षी दल के साथ ही कांग्रेस ने भी नकार दिया। जबकि कांग्रेस राज्य मंत्रिमंडल में शामिल है। कांग्रेस के इस कदम को उसकी राजनीतिक खुंदक के रूप में देखा जा रहा है। गौरतलब है कि प्रणव मुखर्जी के बदले राष्ट्रपति पद के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आजाद व पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का नाम प्रस्तावित कर अलग-थलग पड़ीं ममता बनर्जी को प्रदेश कांग्रेस भी आंख तरेरने लगी है। हालांकि यह प्रस्ताव उन्होंने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर रखा था। पर नेताजी ने उन्हें गच्चा दे दिया। वह खुद तो कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते हुए प्रणव मुखर्जी के पक्ष में आ डटे। पर ममता बनर्जी अकेली पड़ गईं। राज्य विधानसभा में पेश प्रस्ताव के लिए प्रणव मुखर्जी का समर्थन न करना ममता बनर्जी के लिए भारी पडऩे लगा है। जो काम पहले केंद्र सरकार के साथ दीदी करती थीं, वही अब प्रदेश कांग्रेस उनके साथ करने लगी है। राज्य सरकार में शामिल कांग्रेस अब उनको आंखें तरेरने लगी है। केंद्र से आर्थिक मदद व तीन वर्षों के लिए ऋण स्थगन की मांग पर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के दिल्ली जाने के प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पाई। इसमें सबसे पहला फच्चर फंसाया कांग्रेस ने।
सरकार में शामिल कांग्रेस के विधायकों ने नियम 169 के तहत संसदीय मंत्री पार्थ चटर्जी द्वारा पेश प्रस्ताव में संशोधन की मांग अस्वीकार किए जाने पर विधानसभा की कार्यवाही से वॉकआउट कर दिया। विपक्षी सदस्य भी सदन के नियम का उल्लंघन कर प्रस्ताव पेश करने व बिना पूर्व सूचना का आरोप लगाते हुए बाहर चले गए। ममता के साथ इस मुद्दे पर एसयूसीआइ का एकमात्र सदस्य ही है। कांग्रेस के साथ ही पूरे विपक्ष के वाकआउट कर जाने के बावजूद 5 जुलाई को विधानसभा में बिना विपक्ष व कांग्रेस की सहमति के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली भेजने का प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हो गया।

बाद में संसदीय मामलों के मंत्री पार्थ चटर्जी ने संवाददाताओं से कहा कि उन्होंने नियम 169 के तहत विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया था। प्रस्ताव में बताया गया था कि 20 फरवरी, 2012 तक बंगाल पर 205368.13 करोड़ रुपये का कर्ज है। प्रत्येक वर्ष रिजर्व बैंक इसके ब्याज पर 25,000 करोड़ रुपये काट लेता है। चटर्जी ने कहा कि केंद्र से बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड के तहत 2011-12 के दौरान दिए गए 8750 करोड़ की मदद फिर से मांगी जाएगी। इसके अलावा बंगाल को कोयले की रॉयल्टी राशि भी दिए जाने की मांग की गई है। विपक्ष पर तुच्छ राजनीति करने का आरोप लगाते हुए
पार्थ चटर्जी ने कहा कि विपक्ष नियमों का हवाला देकर जानबूझ कर प्रस्ताव में शामिल नहीं हुआ। उन्होंने कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को ही राज्य विरोधी करार दिया। उन्होंने कांग्रेस व विपक्ष से आह्वान किया कि वे क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर बंगाल के हित में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल हों, क्योंकि राज्य का हित सर्वोपरि है। उन्होंने विपक्ष के उस बयान को भी खारिज कर दिया कि धारा 355 या 356 लगाए जाने के बाद ही ऋण स्थगन की मांग की जा सकती है। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री के प्रस्ताव पर वह चाहते थे कि सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी छोड़ कर केंद्र पर राज्य को आर्थिक मदद देने का दबाव बनाएं। पर विपक्ष राज्य के किसानों की तरफ से हृदयहीन हो घटिया राजनीति कर रहा है।
दूसरी तरफ वाम मोर्चा ने भी सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया है। विपक्ष के नेता डॉ सूर्यकांत मिश्र ने इस मुद्दे पर पार्टी लाइन साफ करते हुए कहा कि वाम मोर्चा के विधायक सर्वदलीय प्रधिनिधिमंडल में शामिल नहीं होंगे। कांग्रेस के विधायक दल के नेता मोहम्मद सोहराब ने कहा कि उन्होंने प्रस्ताव के पैरा छ: में संशोधन करने का प्रस्ताव दिया था। संशोधन प्रस्ताव में कहा गया था कि आर्थिक मदद के मुद्दे पर केंद्र सरकार से बातचीत जारी है, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वे विधानसभा की कार्यवाही से वॉकआउट कर गए। उन्होंने कहा कि विधानसभा में जो प्रस्ताव पारित हुआ है, उसमें संशोधन के बिना वे सरकार के प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली नहीं जाएंगे। यदि उसमें संशोधन किया जाता है, तभी दिल्ली जाने पर विचार करेंगे।
फिलहाल विपक्ष के इस रवैये से दीदी मुसीबत में घीरी नजर आ रही हैं। प्रदेश में कांग्रेस का तृणमूल से इस प्रकार खुंदक निकाले जाने को लेकर चर्चा गर्म है और माना जा रहा है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो प्रदेश में यह गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएगा। दूसरी तरफ विपक्ष और प्रदेश कांग्रेस पर भी सवाल उठने लगे हैं कि क्या दीदी द्वारा जनता के पक्ष में किए जाने वाले कार्यों का भी विरोध वे यूं ही करते रहेंगे? प्रदेश कांग्रेस को इसके लिए केंद्र से निर्देश मिल रहे हैं या स्थानीय नेता स्वयं ऐसे निर्णय ले रहे हैं?

पहाड़ के नए नायक


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- पश्चिम बंगाल के सुदूर उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र दार्जिलिंग से अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले विमल गुरुंग बने जीटीए अध्यक्ष। पहाड़ी लोगों में जगी आस

हाईलाईटर- गुरुंग की पार्टी गोजमुमो ने जीटीए के चुनाव में सभी सीटों पर जीत दर्ज की

जिनकी एक हुंकार से पहाड़ जल उठता था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हुए समझौते के बाद पहाड़ पर खुशहाली लाने के वायदे के साथ संवैधानिक तौर पर जीटीए की बागडोर संभालने वाले विमल गुरुंग पहाड़ के नए नायक बन गए हैं। गोरखालैंड के अलग राज्य न बनने की दशा में खुद को गोली मार लेने का दावा करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग पर पहाड़ की जनता अपार विश्वास करती है। इसका नजारा उनके शपथ ग्रहण के दौरान दिखा। अपने इस नायक के नए अवतार के स्वागत के लिए पहाड़ की जनता पूरे जोश-खरोश के साथ उपस्थित थी। जीटीए प्रमुख का पदभार संभालने वाले गुरुंग भी अपनी नई भूमिका को लेकर खासे उत्साहित हैं।
गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन(जीटीए) के लिए पिछले महीने हुए चुनाव में सभी 45 सीटों पर गोजमुमो प्रत्याशियों की जीत हुई थी। बहरहाल, राज्यपाल एमके नारायणन ने विमल गुरुंग को जीटीए के मुख्य कार्यपालक पद की शपथ दिलाई। इस अवसर पर केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने विकास कार्यों के लिए अगले तीन वर्षों तक प्रत्येक वर्ष जीटीए को 200 करोड़ रुपये देने का वादा किया।  मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी दार्जिलिंग में एक यूनिवर्सिटी खोलने का एलान किया। उन्होंने रेलमंत्री मुकुल राय की मौजूदगी में कहा कि जल्द ही यहां एक यूनिवर्सिटी, दो पोलिटेक्नीक कॉलेज व तीन आइआइटी कॉलेज खोले जाएंगे।
नवगठित गोरखालैंड टेरिटोरिएल एडमिनिस्ट्रेशन के चीफ विमल गुरुंग ने वादा किया कि जीटीए के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य व पर्यटन उन लोगों की प्राथमिकता होगी। इसके पूर्व गोजमुमो के महासचिव व विधायक हरक बहादुर छेत्री ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने वृहत्तर उद्देश्य के लिए अपने सभी उम्मीदवारों का नाम वापस ले लिया था। इस चुनाव परिणाम से साबित हो गया है कि पहाड़ की जनता विमल गुरुंग को पसंद करती है। जीटीए का चेयरमैन प्रदीप उर्फ भूपेंद्र प्रधान को बनाया गया है। पांदाम समष्टि से निर्विरोध निर्वाचित होने वाले प्रदीप केंद्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। इसके अतिरिक्त लोपसांग यल्मो को वाइस चेयरमैन बनाया गया है। वह कालिंपोंग के रोंगो-तोदे-जलडका समष्टि से निर्वाचित हुए हैं। नवगठित जीटीए में पांच निर्वाचित सदस्य भी रखे गए हैं। इसमें गोजमुमो के विर्खू भूसाल व सावित्री राई के अलावा तृणमूल कांग्रेस के मिलन डुक्पा, सतीश थिंग व दुर्गा खरेल शामिल हैं। दूसरी तरफ गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का विरोध भी होने लगा है। बांग्ला व बांग्ला भाषा बचाओ कमेटी के अध्यक्ष डॉ. मुकुंद मजुमदार ने इसे बंगाल के विभाजन की ओर बढ़ाया गया कदम करार देते हुए कहा कि यह शपथ ग्रहण समारोह बंगाल के इतिहास में काले दिवस के रूप में याद किया जाएगा।
अरसे बाद दार्जिलिंग में लौटी शांति से लोगों ने राहत की सांस ली है। पहाड़ के साथ ही राज्य के मैदानी इलाकों में भी आंदोलन की राह छोड़ कर राजनीति की मुख्यधारा में लौटने को अच्छी पहल के रूप में देखा जा रहा है। बावजूद इसके कुछ लोग गुरुंग के बयानों को लेकर उनकी खिल्ली भी उड़ा रहे हैं। दबी जुबान से ही सही पर लोग उनके इस बयान की याद दिलाते हुए पूछ रहे हैं कि क्या हुआ गोरखालैंड के प्रति लोगों से किया गया उनका वादा। सुभाष घीसिंग की बखिया उधेड़ते हुए उन्होंने कहा था कि घीसिंग ने गोरखालैंड का सौदा कर लिया। इसी के साथ वह कहते फिरते थे कि यदि गोरखालैंड अलग राज्य नहीं बनवा सके तो खुद को गोली मार लेंगे। पर, ममता बनर्जी का जादू कुछ ऐसा चला कि गोरखालैंड की मांग भूलकर जीटीए पर उन्हें राजी होना पड़ा।
कुछ ऐसा ही बयान सुभाष घीषिंग ने भी दिया था। उन्होंने कहा था कि 'मेरी पहचान गोरखालैंड हैÓ। गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट बनाकर सुभाष घीसिंग ने भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा धमाका किया था। पहाड़ी इलाकों में निवास करने वाले गोरखाओं में गोरखालैंड के नाम पर घीसींग ने ऐसी आग भर दी कि लगता ही नहीं था कि यह आग कभी थमेगी। लगभग 1200 लोग अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले आंदोलन की भेंट चढ़ गए। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ हुए समझौते में घीसिंग माने। दार्जिलिंग पर्वतीय विकास परिषद बनाकर उन्हें उसकी कमान सौंप दी गई। दार्जिलिंग पर्वतीय विकास परिषद 20 वर्षों तक ठीकठाक काम करता रहा। इस दौरान पृथक गोरखालैंड का मुद्दा राजनीतिक हाशिए पर धकेल दिया गया। जनता को लगने लगा कि सत्ता लोभ के कारण ही घीसिंग ने गोरखालैंड की मांग छोड़ दी। इसके बाद पहाड़ की जनता विमल गुरुंग के नेतृत्व में एक बार फिर गोरखालैंड की मांग में घीसिंग के खिलाफ उठ खड़ी हुई। विमल गुरुंग का आरोप था कि सत्ता के लोभ में घीसिंग गोरखालैंड की मांग ही भुला बैठा। दूसरी तरफ 2005 में इस इलाके को छठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने पर अपनी मुहर लगाकर घीसिंग विवादों में घिर गए थे। घीसिंग के साथी रहे विमल गुरुंग ने उनके खिलाफ बगावती झंडा लहराते हुए गोजमुमो का गठन किया। उसके बाद तो जैसे गोरखालैंड आंदोलन में भूचाल ही आ गया। इसी के साथ सुभाष घीसिंग का दौर खत्म होने लगा। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इतना प्रभावशाली साबित हुआ कि उसके समर्थन से भाजपा टिकट पर राजस्थान के जसवंत सिंह दार्जिलिंग से लोकसभा चुनाव जीतने में सफल हुए।
बहरहाल, पहाड़ की जनता को गोरखालैंड का सपना दिखाकर एकाएक धूमकेतु की तरह चमके सुभाष घीसिंग अब पूरी तरह से अदृश्य हो चुके हैं। लोग उनकी खिल्ली उड़ाने से भी बाज नहीं आते। बदले हालात में उनके नए नायक गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष और अब जीटीए प्रमुख विमल गुरुंग हैं। लोगों ने अपने इस नए नायक को पलकों पर बिठा कर रखा है। दार्जिलिंग के पहाडिय़ों की सारी उम्मीदें अब गुरुंग पर टिकी हुई हैं।

राज्यसभा के अगले स्टार: मिथुन चक्रवर्ती


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- ममता बनर्जी बनाएंगी मिथुन दा को अगला राज्यसभा स्टार। प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने के लिए मिथुन ने ही किया था ममता को राजी

हाईलाईटर- राष्ट्रपति शपथ समारोह में ममता और मिथुन एक ही प्लेन से दिल्ली आए थे

राजनीति को संभावनाओं का खेल यूं ही नहीं कहा जाता। सत्ता के गलियारों में कब, कौन, किसका दोस्त बन जाए, कहा नहीं जा सकता। ताजा मामला है बॉलिवुड एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की नई-नई दोस्ती का। दरअसल, राष्ट्रपति के लिए प्रणव मुखर्जी को तृणमूल चीफ ममता बनर्जी से मिला समर्थन मिथुन की ही सिफारिश का नतीजा बताया जा रहा है। सूत्रों के मुताबिक ममता बनर्जी और प्रणव मुखर्जी के बीच मध्यस्थता करने वाले मिथुन चक्रवर्ती के बारे में दावा किया जा रहा है कि वह तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा सांसद बनने की तैयारी कर रहे हैं।

गौरतलब है कि हाल ही में ममता ने कोलकाता में मिथुन दा को महानायक सम्मान से भी सम्मानित किया है। राजनीतिक विश्लेषकों का दावा है कि अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो मिथुन चक्रवर्ती जल्द ही राज्यसभा की शोभा बढ़ाते दिखेंगे। वैसे भी दीदी के फिल्मी कलाकारों के प्रति प्रेम को सभी जानते हैं। बंगला फिल्मों के कई अभिनेता,अभिनेत्रियां उनकी पार्टी से सांसद व विधायक हैं। दरअसल, इस बात को हवा इससे मिली कि हाल ही में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव के पक्ष में ममता बनर्जी को मतदान करने के लिए मनाने में मिथुन चक्रवर्ती ने अहम भूमिका निभाई। मिथुन के मनाने पर ही अग्निकन्या का दिल पसीजा और उन्होंने प्रणव दा के पक्ष में मतदान करने की हामी भरी। ममता के संबंध में कहा जाता है कि वह दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही पूरे दम से निभाती हैं। शाहरुख खान का प्रकरण गवाह है कि आलोचनाओं को दरकिनार कर कोलकाता नाइट राइडर्स की जीत पर दोस्ती निभाने के लिए वह पानी की तरह पैसा बहाने से भी नहीं चूकीं। बावजूद इसके कि वह हर समय राज्य के कर्ज में डूबे होने का रोना रोती रहती हैं। यहां तक कि राज्य को कर्जे से उबारने के लिए विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर वह केंद्र की यूपीए सरकार का गाहे बगाहे कान भी मरोड़ती रही हैं। बहरहाल, प्रणव के पक्ष में मतदान करने के लिए राजी होने के बाद ममता दीदी व मिथुन दा एक ही विमान से दिल्ली गए। कहा जा रहा है कि यह विमान प्रणव दा ने ही भिजवाया था।
बताते चलें कि मिथुन चक्रवर्ती के कई बंगाली नेताओं से काफी पुराने और प्रगाढ़ रिश्ते रहे हैं। चाहे वह दिग्गज ज्योति बसु रहे हों, या बुद्धदेव भट्टाचार्य अथवा वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी। प्रणव मुखर्जी जब यूपीए सरकार में रक्षा मंत्री थे तो उन्होंने ही मिथुन का नाम पद्मश्री पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया था। मिथुन ने भी उनके इस एहसान का बदला चुकाने के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में जंगीपुर सीट पर प्रणव मुखर्जी के लिए स्टार प्रचारक की भूमिका निभाई थी। उन्होंने इलाके में घूम-घूम कर प्रणव दा को विजयी बनाने की अपील की थी। प्रणव दा जीते भी।
बहरहाल, ममता से हुई नई-नई दोस्ती का इनाम तो मिथुन को मिलना ही था। सो राज्यसभा में भेजने से पूर्व बंगला फिल्मों के महानायक उत्तम कुमार की पुण्यतिथि पर मुख्यमंत्री ने मिथुन चक्रवर्ती को महानायक सम्मान से नवाजा। इस अवसर पर ममता बनर्जी ने मिथुन समेत 44 फिल्मी हस्तियों को सम्मानित किया। कार्यक्रम में तृणमूल सुप्रीमो ने कहा कि फिल्म जगत की हस्तियों को सम्मानित कर वह खुद को कृतज्ञ महसूस कर रही हैं। इसी के साथ बनर्जी ने अनल चट्टोपाध्याय, कार्तिक बसु, दीप्ति राय, कन्हाई डे आदि जैसे कलाकारों की आर्थिक बदहाली को देखते हुए राज्य सरकार की ओर से प्रत्येक माह पांच-पांच हजार रुपये बतौर मासिक पेंशन देने की भी घोषणा की।
मिथुन चक्रवर्ती को राज्यसभा सांसद बनाए जाने की अटकलों को इस बात से भी हवा मिल रही है कि अभी हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में ममता बनर्जी के कृपापात्र तीन पत्रकार राज्यसभा सांसद चुने गए। कृपा पाने वाले पत्रकारों में एक बंगला दैनिक के सीईओ कुणाल घोष, एक उर्दू दैनिक के संपादक तथा कोलकाता के प्रमुख हिंदी दैनिक सन्मार्ग के निदेशक विवेक गुप्ता हैं। पश्चिम बंगाल में तो यह चर्चा आम है कि चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का पुरजोर विरोध करने वालीं ममता बनर्जी को मनाने का काम एक्टर मिथुन चक्रवर्ती ने किया था। उन्हीं के समझाने बुझाने पर दीदी प्रणव दा के पक्ष में मतदान करने को राजी हुई थीं। सूत्रों के मुताबिक मिथुन ने ममता बनर्जी को बंगाली अस्मिता की दुहाई देते हुए प्रणव मुखर्जी का समर्थन करने की अपील की। इस पर ममता मान गईं। बदले में उन्होंने मिथुन को अपनी पार्टी की ओर से राज्यसभा सांसद बनने का प्रस्ताव दिया, जिसे मिथुन ने भी खुशी-खुशी कुबूल कर लिया। राजनीतिक पंडितों का दावा है कि राज्यसभा के लिए अगली बार जब भी चुनाव होगा, मिथुन चक्रवर्ती तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा का चुनाव लड़ेंगे। राज्य में तृणमूल विधायकों की संख्या को देखते हुए इतना तो तय है कि ममता जिसे चाहें उसे राज्यसभा का चुनाव लड़ा और जिता सकती हैं।
बहरहाल, मिथुन की राजनीतिक पारी को लेकर राज्य में गरमागरम बहस जारी है। कुछ लोग मिथुन की आलोचना भी कर रहे हैं। आलोचना करने वालों का मानना है कि मिथुन हमेशा से ही सत्ताधारी दल के साथ जुड़े रहे हैं। राज्य में जब वाममोर्चा की सरकार थी, उस वक्त वामपंथी नेताओं के साथ मिथुन दा के निकट के संबंध थे। अब, जबकि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं तो, उन्होंने प्रणव दा के बहाने ममता बनर्जी के साथ अपनी गोटियां फिट कर ली हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के शपथ ग्रहण समारोह में मिथुन चक्रवर्ती को कांग्रेस की तरफ से व्यक्तिगत तौर पर निमंत्रण भेजा गया था और राष्ट्रपति के शपथ समारोह में भाग लेने वालों में मिथुन दा एकमात्र फिल्मी सितारे थे। समारोह में भाग लेने के लिए ममता बनर्जी और मिथुन चक्रवर्ती कोलकाता से एक ही प्लेन में दिल्ली गए थे। अब इसे कयासबाजी कहें या कुछ और लेकिन अचानक मिथुन दा के ममता दीदी से बने मधुर संबंधों के पीछे कोई न कोई कहानी है तो जरूर।

एकला चलो की राह पर दीदी


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- अंतिम समय में प्रणव को समर्थन देने वाली दीदी ने चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस को दी पटखनी। पश्चिम बंगाल में आगामी पंचायत चुनावों में ममता का अकेले दम चुनाव लडऩे का एलान

हाईलाईटर- हाल ही में संपन्न नगर निकाय चुनावों में छ: में से चार पर तृड़मूल ने जीत दर्ज की थी

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भले ही अंतिम समय में प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर दिया। पर इस दौरान उनके व कांग्रेस के बीच जो खटास पैदा हुई वह दूर नहीं हो पाई है। सूत्रों के अनुसार राज्य में वह जल्द ही कांग्रेस का हाथ झटककर एकला चलो की तैयारी कर रही हैं। राज्य कांग्रेस के नेताओं ने जिस तरह उनके खिलाफ बयानबाजी की उससे वह काफी आहत हैं। उन्होंने तय कर लिया है कि राज्य में अब और कांग्रेस का हाथ नहीं पकड़ेंगी। ममता बनर्जी इस तथ्य से भलीभांति वाकिफ हैं कि राज्य में उन्हें कांग्रेस के सहारे की जरूरत नहीं है। बल्कि स्वयं कांग्रेस को उनकी जरूरत है। उनके समर्थन के बिना कांग्रेस दर्जन भर सीट जीत पाने की भी ताकत नहीं रखती। गत दिनों संपन्न नगर निकाय के चुनाव परिणाम भी इसी तथ्य की ओर इशारा करते हैं। कुल छ: नगर निकायों में से अकेले तृणमूल ने चार पर कब्जा कर बता दिया कि राज्य में तृणमूल प्रमुख का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। प्रदेश कांग्रेस के साथ ही केंद्रीय नेतृत्व को औकात दिखाने के लिए तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि आगामी पंचायत चुनाव में उनकी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं रहेगा। उन्होंने कहा कि तृणमूल राज्य में अकेले ही सरकार चलाने में सक्षम है क्योंकि उसके पास पर्याप्त बहुमत है।
शहीद दिवस पर आयोजित रैली को संबोधित करते हुए   ममता बनर्जी ने कहा कि हम राज्य में अकेले सरकार चलाने में सक्षम हैं। हमारे पास पर्याप्त बहुमत है। हम किसी पर निर्भर नहीं हैं। हम बंगाल में अकेले ही चुनाव लड़ेंगे। हम किसी की दया पर टिके हुए नहीं हैं। यह हमारा अपना संघर्ष है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि केंद्र में हालांकि उनकी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन कायम रहेगा, बशर्ते उनके साथ आदर और गरिमापूर्ण व्यवहार हो। गौरतलब है कि कांग्रेस और तृणमूल का राज्य और केंद्र में गठबंधन है, फिर भी विभिन्न मुद्दों पर दोनों में तकरार होती रही है। चाहे वह राष्ट्रपति चुनाव हो या लोकपाल विधेयक अथवा खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफडीआई) का मुद्दा हो। दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस तृणमूल प्रमुख पर विभिन्न मुद्दों को लेकर हमले करता रहा है। तृणमूल मुखिया की घोर विरोधी मानी जाने वाली दीपा दासमुंशी व अधीररंजन चौधरी तो उन पर हमला करने का एक भी मौका नहीं चूके। बहरहाल, ममता ने रैली में कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा कि राज्य के कुछ कांग्रेस नेता माकपा समर्थित टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में बैठते हैं और हमारी सरकार की आलोचना करते हुए व्याख्यान देते हैं, जैसे हम उनकी दया पर सरकार चला रहे हों। उन्हें पता होना चाहिए कि हम उनकी वजह से नहीं बल्कि वे हमारी वजह से यहां हैं। उनका(राज्य कांग्रेस) काम केवल हमें गाली देना है। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को पंचायत चुनावों के लिए तैयार रहने की हिदायत देते हुए कहा कि पार्टी अकेले दम पर ही पंचायत चुनाव लड़ेगी।
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव दुर्गापूजा के बाद होने हैं। इससे पहले कई मौकों पर तृणमूल नेतृत्व राज्य कांग्रेस को विपक्षी माकपा की टीम-बी बताता रहा है और आरोप लगाता रहा है कि कांग्रेस, माक्र्सवादियों के साथ मिलकर राज्य में चल रहे विभिन्न विकास कार्यों में अड़ंगा लगाती रही है।
दुर्गा पूजा के बाद पंचायत चुनाव कराने की घोषणा के साथ ही राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। मुख्य विपक्षी पार्टी माकपा समेत भाजपा ने ममता के इस निर्णय को घोर आपत्तिजनक करार दिया। गौरतलब है कि पंचायत चुनाव अगले साल मई में होना प्रस्तावित था। समय पूर्व चुनाव कराने को लेकर ममता के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए माकपा ने कहा कि ममता का यह तानाशाही फरमान है। दूसरी तरफ राज्य के पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी की मानें तो पंचायत चुनाव दिसंबर में होंगे। उन्होंने विरोधी दलों के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि समय से पूर्व पंचायत चुनाव कराने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है। कांग्रेस से अलग पंचायत चुनाव लडऩे के सवाल पर तृणमूल नेता मदन मित्रा ने कहा कि कांग्रेस हमारी मोहताज है, हम नहीं। विधानसभा चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस लोकप्रियता के पहले बड़े परीक्षण पूरे अंकों के साथ पास हो चुकी है। गौरतलब है कि अकेले चुनाव लड़कर तृणमूल कांग्रेस ने विरोधियों को करारा जवाब देते हुए छ: स्थानीय निकायों के चुनाव में से चार स्थानों पर जीत हासिल की।
तृणमूल ने उत्तर में जलपाईगुड़ी जिले की धूपगुड़ी नगरपालिका में वामपंथी पार्टियों को हराकर जीत हासिल की थी। इसे तृणमूल की बड़ी जीत के रूप में देखा गया था, क्योंकि पिछले साल राज्य विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद वाम दल यहां अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे थे। तृणमूल ने दुर्गापुर नगर निगम पर भी अपना परचम लहराया। यहां वाममोर्चे की पिछले 15 साल में पहली बार हार हुई। तृणमूल पूर्वी मिदनापुर जिले में पांसकुड़ा नगरपालिका भी बचाने में कामयाब रही। लेकिन उसकी सबसे महत्वपूर्ण जीत बीरभूम जिले में नालहटी नगरपालिका में रही, जहां केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के बेटे और नालहटी से कांग्रेस के विधायक अभिजीत स्वयं पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार की कमान संभाले हुए थे। वाममोर्चा हालांकि हल्दिया नगरपालिका पर अपना कब्जा बरकरार रखने में सफल रहा। नंदीग्राम से सटे इस इलाके से तृणमूल ने विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त सफलता पाई थी। कांग्रेस के लिए एकमात्र सांत्वना की बात यह रही कि वह नदिया जिले में कूपर्स कैंप नगरपालिका में अपना कब्जा बरकरार रखने में सफल रही। विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस की सहायता के बिना अकेले दम पर चार निकायों पर कब्जा जमा कर तृणमूल ने जता दिया है कि वह राज्य में कांग्रेस की मुखापेक्षी नहीं है।

फतवे : हंसी भी कोफ्त भी


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

दिल्ली के आसपास के इलाके पश्चिमी उत्तर प्रदेश व हरियाणा तथा राजस्थान में खाप पंचायतें अक्सर सरकार के समानांतर अपनी सत्ता का एहसास कराती रहती हैं। कभी किसी को मौत की सजा सुनाकर तो कभी पति पत्नी को भाई बहन बताकर। इस पर हो हल्ला भी मचता है पर वह अपनी मदमस्त चाल चलती रहती हैं। इन दिनों इन पंचायतों के दो फैसले या फतवे जो भी कह लें चर्चा में हैं। एक समाज को अंधी सुरंग की ओर ले जाने वाला है तो दूसरा है समाज को सही दिशा देने वाला। बागपत जिले में जहां 40 वर्ष तक की महिलाओं के बाजार जाने व मोबाइल के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, वहीं अक्सर तालिबानी फैसलों के लिए बदनाम रही खाप पंचायतों का एक निर्णय भोर की पहली किरण सी सुखद प्रतीत हो रही है। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ खाप पंचायतों का सामूहिक निर्णय सचमुच समाज को सही दिशा में ले जाने वाला साबित हो सकता है। बशर्ते इस पर अमल हो।
हममें से अधिकतर लोगों ने 'फतवा शब्द पहली बार लगभग बीस साल पहले सुना होगा। तब बहुतों को इसका मतलब भी नहीं पता था कि आखिर फतवा होता क्या है। दरअसल, यह फतवा जारी हुआ था 'द सैटेनिक वर्सेस के लेखक सलमान रुश्दी के खिलाफ। जारी किया था ईरान के अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ने। 14 फरवरी 1989 को जारी फतवे के अनुसार रुश्दी की हत्या करने वाले को इनाम देने की घोषणा की गई थी। बहरहाल उस फतवे के खिलाफ उठी विरोध की आंधी अब पूरी तरह से थम चुकी है, पर अफसोस कि दुनिया को आज भी इस शब्द से जूझना पड़ रहा है।
जब खुमैनी ने फतवा जारी किया था तो आम भारतीय को यह तक नहीं पता था कि फतवा लिखित रूप से जारी होता है या मौखिक होता है। यहां तक कि उस वक्त तक डिक्शनरी तक में इस शब्द का उल्लेख नहीं था। हालांकि आज की आक्सफोर्ड डिक्शनरी में फतवा शब्द को इस्लामी कानून के मुताबिक एक अधिकारिक आदेश के रूप में परिभाषित किया गया है।
जिस तरह से यह व्याख्या चुस्त दिखाई देती है, उस हिसाब से हर किसी मुद्दे पर फतवा जारी करने की प्रकिया चुस्त नहीं लगती। मौलानाओं द्वारा जारी किए जाने वाले कुछ फतवे जहां समाज का मार्गदर्शन करते हैं वहीं कुछ बेहद हास्यास्पद व उलजुलूल होते हैं। अभी हाल ही में देवबंद ने एक फतवा जारी किया कि नशे में भी फोन पर तीन बार तलाक कहने से तलाक मुकम्मल माना जाएगा और उस हालात में शौहर के लिये उसकी बीवी हराम हो जाती है। ऐसे में यदि पति पत्नी दोबारा एक साथ रहना चाहें तो पत्नी को इद्दत के दिन पूरे करने के बाद किसी दूसरे मर्द से शादी करनी होगी और फिर उससे तलाक लेकर दोबारा इद्दत पूरी करने के बाद ही वह अपने पहले शौहर से निकाह कर सकती है। दारुल उलूम देवबंद के इस फतवे के बाद मुस्लिम समुदाय में हड़कंप मच गया। कुछ संगठनों ने इसे गलत करार दिया लेकिन देवबंद के प्रमुख इसे सही मानते हैं। फतवे के अनुसार यहां तक तो फिर भी ठीक है लेकिन कुछ ऐसे भी फतवे जारी हुए। जिन्हें पढ़ सुनकर फतवा जारी करने वालों की सोच पर या तो हंसी आती है या फिर कोफ्त होती है।
हमारे ही देश में नहीं बल्कि दुनिया के अन्य मुल्कों में भी आए दिन कोई न कोई फतवा जारी होता रहता है। इनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो शरीर में सिहरन पैदा कर देते हैं तो कुछ ऐसे जिन पर हंसी आती है या फिर कोफ्त होता है। फतवे जारी करने का अपना एक नियम है। इसे कौन जारी कर सकता है इसका बाकायदा दिशा निर्देश है। बावजूद इसके अजीबोगरीब फतवे देने का सिलसिला चलता रहता है। इन फतवों को पढ़ सुनकर सर पीट लेने को जी करता है। अभी हाल ही में मिश्र में एक मौलवी ने फतवा जारी किया कि जो मुस्लिम महिलाएं नौकरी पेशा हैं वे अपने युवा सहकर्मियों को अपना स्तनपान कराए। उक्त मौलवी का तर्क था कि ऐसा करने से व्यभिचार पर रोक लगेगा। स्तनपान कराने से पुरुष सहकर्मी व महिला में मां-बेटे का भाव पैदा होगा। शारीरिक आकर्षण में कमी आएगी और अवैध रिश्ते नहीं पनपेंगे। जबकि सच तो यह है कि ऐसे फतवे व्यभिचार को ही बढ़ाएंगे।
जब एक औरत गैर मर्द को अपने स्तन का स्पर्श कराएगी तो उसमें केवल कामुक भावनाएं ही पनपेगी। इसे महिला अस्मिता पर चोट ही माना गया। इस फतवे पर सवालों की बौछार होने लगी कि क्या मुस्लिम महिलाएं अन्य धर्मों के सहकर्मियों को भी अपना दूध पिलायेंगी? इसी तरह का एक उलजूलूल फतवा ब्रिटेन के एक मौलवी ने भी जारी कर दिया। इस फतवे के अनुसार मुस्लिम महिलाओं को केले व खीरे, मूली, गाजर तथा अन्य इस तरह के फलों व सब्जियों का सेवन करने से बचने को कहा गया। फतवे में कहा गया कि महिलाएं न तो इसे खरीदें और ना ही इनका सेवन करें। यदि खाना ही हो तो घर का कोई पुरुष सदस्य इन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर औरतों को दे। इसके पीछे वजह यह बताई गई कि ये सारे फल व सब्जियां पुरुष जननांग की तरह दिखते हैं। इनको देखने से स्त्रियों में कामुक भावनाएं उत्पन्न होगी। जबकि हकीकत तो यह है कि किसी भी फल या सब्जी को खरीदते समय मनुष्य का ध्यान उसके स्वाद पर जाता है न कि उनका आकार कैसा है इस पर। इसे लेकर भी खूब बावेला मचा।
यहां एक और ऐसे ही हास्यास्पद फतवे का जिक्र करना समीचीन होगा। इस फतवे में कहा गया कि महिलाएं ब्रा व पैंटी न पहनें। तर्क था कि ब्रा पहनने से जहां स्तन के विकास में बाधा पहुंचती है वहीं पैंटी पहनने से स्त्रियां खुद को कामुक अनुभव करती हैं। सोमालिया में तो कुछ मुस्लिम चरमपंथी संगठन इस फतवे को लागू कराने के लिए सड़क पर भी उतर आए। ऐसे संगठनों के कार्यकर्ताओं ने सरेराह कुछ महिलाओं के बुर्के उतरवाकर जांचा कि कहीं वह ब्रा और पैंटी तो नहीं पहने हुए हैं। जो महिलाएं ब्रा और पैंटी पहने इन धर्म के ठेकेदारों के हाथ लगी उनके साथ बेहद अमानवीय व्यवहार किया गया। यहां तक कि उनको कोड़े भी लगाए गए।
आज सारी दुनिया जहां योग के माध्यम से स्वास्थ्य लाभ कर रही है, वहीं पिछले दिनों इंडोनेशिया में योग के खिलाफ फतवा जारी किया गया। कहा गया कि मुस्लिम धर्मावलंबी योग न करें क्योंकि इसमें हिंदू धर्म की कुछ पूजा पद्धति का समावेश है। हालांकि लोगों ने इसे नकार दिया। इसी तरह वर्ष 2002 में नाइजीरिया में एक पत्रकार के खिलाफ फतवा जारी किया गया। उसके बाद भड़की हिंसा में 200 से भी अधिक लोग मारे गए थे।

बद्रीनाथ वर्मा 9718389836



ठंडी हवा का झोंका


हाजिर- नाजिर

 इंट्रो : म्हारी जात को मिटण कोनी द्यां के उद्घोष के साथ महिलाओं की पहल पर महाखाप पंचायत की मुहर एक सुखद अहसास कराती है। आम तौर पर तालिबानी फैसलों के लिए बदनाम रहीं खाप पंचायतों का कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ लिया गया निर्णय समाज को सही दिशा देने वाला है

हरियाणा के जींद जिले के बीबीपुर गांव से कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जो लौ जली है उसकी रौशनी निश्चय ही अन्य जगहों को भी रौशन करेगी।
अजन्मी बेटियों को गर्भ में ही मार देने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए  सर्वखाप का यह सकारात्मक फैसला भोर की पहली किरण की मानिंद सुखद अनुभूति कराता है। इस फैसले के साथ ही खौफ का पर्याय बन चुकी या बना दी गई खाप पंचायतों का एक नया चेहरा देश दुनिया के सामने आया है। इसके पहले खाप पंचायतें नकारात्मक कारणों से चर्चित होती रही हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले उनके पूर्व के फैसलों ने उनकी छवि खुर्राट जालिम जैसी बना रखी थी। पर समाज को सही दिशा देने वाला उनका एक निर्णय ठंडी हवा के झोंके जैसा रहा। इस निर्णय के तहत कन्या भ्रूण हत्या को घिनौनी हरकत व महापाप करार देते हुए ऐसा करने वालों के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाने की मांग सरकार से की गई। निश्चय ही महाखाप पंचायत का यह निर्णय गर्भ में मारी जा रही बेटियों की जीवन रक्षा में सहायक होगा। महाखाप पंचायत के इस निर्णय की जितनी भी प्रशंसा की जाय। कम ही है।
म्हारो जात को मिटण कोनी द्यां (अपनी स्त्री जाति को मिटने नहीं देंगी)के उद्घोष के साथ बीबीपुर गांव की महिलाओं ने जो पहल की उस पर महाखाप पंचायत ने भी अपनी स्वीकृति की मुहर लगाकर अपनी सकारात्मक छवि पेश की है। इस पहल को मंजिल तक पहुंचाने में बीबीपुर गांव के सरपंच सुनील जागलान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खाप महापंचायत में मौजूद 150 खापों के प्रतिनिधियों ने एक स्वर से केंद्र सरकार से ऐसा कानून बनाने की मांग की ताकि कन्या भ्रूण हत्या के आरोपियों के खिलाफ कत्ल का मुकदमा चलाया जा सके। खाप पंचायत ने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या महापाप है और आगे से यह बर्दाश्त नहीं होगा।
यूं तो खाप पंचायते ऑनर किलिंग को लेकर कुख्यात रही हैं। कभी सगोत्री विवाह के नाम पर पति पत्नी को भाई बहन बना देती रही हैं तो कभी दूसरे जाति में विवाह करने की सजा मौत के रूप में सुनाती रही हैं। ऐसे एक के बाद एक खाप पंचायतों के निर्णय ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। खाप पंचायतों का नाम सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। शरीर में सिहरन दौड़ जाती थी। पर कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ लिए गए सख्त निर्णय ने खाप पंचायतों की छवि ही बदल दी है। निश्चय ही यह फैसला सुकून देने वाला है। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अजन्मी बेटियों के हक में सकारात्मक आवाज उठाने वाले बीबीपुर गांव के विकास के लिए एक करोड़ रुपये का ऐलान किया है।
हुड्डा ने जींद जिले के बीबीपुर गांव के लिए इस राशि का ऐलान इसलिए किया है क्योंकि इसके निवासियों, विशेषकर महिलाओं ने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज उठाने की पहल की। हुड्डा के मुताबिक, गांव वालों की इस पहल से न सिर्फ हरियाणा, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाने में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कदम उठाकर खाप पंचायत देश में सकारात्मक बदलाव लाने में सामाजिक संस्थाओं की अहमियत को दिखा सकती हैं। बीबीपुर में संपन्न खाप महापंचायत में पहली बार महिलाओं की बड़ी संख्या में भागीदारी देखी गई। तय हुआ कि इस व्यापक सामाजिक बुराई के खिलाफ अभियान छेड़ा जाएगा।
दरअसल, भ्रूणहत्या के लिए हमारा सामाजिक ताना बाना भी कम जिम्मेदार नहीं है। यह बात भले ही सुनने में भली लगती हो कि बेटे-बेटी में कोई फर्क नहीं होता। दोनों बराबर हैं। पर वास्तविकता तो यह है कि हर किसी को बेटा ही चाहिए। इसके पीछे हमारी रूढ़ीवादी मानसिकता ही है। कहा जाता है कि बेटे के हाथों अग्निदाह होने से मुुक्ति मिल जाती है। ऐसे में सबके मन में एक बेटे की इच्छा होती है, जबकि बेटियों को पालना घाटे के सौदे की तरह देखा जाता है। इसकी प्रमुख वजह दहेज प्रथा है। दहेज को समाज में प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाने लगा है। समाज का कैंसर बन चुकी दहेज प्रथा बेटियों को जन्म देने से रोकती है। आज भी लोगों में यह गलत धारणा विद्यमान है कि बेटे ही कुल को तारते हैं। परिवार का नाम उनसे रौशन होता है। जबकि हकीकत यह है कि आज लड़कियां लड़कों से किसी भी मामले में कमतर नहीं हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बेटियां पैदा होने के बाद भी पुरुष प्रधान समाज इनके पालन-पोषण में फर्क करता है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक़ पैदा होने से एक साल की उम्र तक, बेटों के मुक़ाबले बेटियों के मर जाने की दर 40 फ़ीसदी ज़्यादा है। वहीं पहले और पांचवे वर्ष की उम्र में तो ये और भी ज़्यादा, 61 फीसदी है।
 यह चौंकाने वाला है कि हरियाणा में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है। जहां देश में प्रति 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या औसतन 911 है वहीं हरियाणा में ये आंकड़ा 877 है।  जनगणना-2011 के मुताबिक झज्जर जिले में लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों का अनुपात देश में सबसे कम है। यहां एक हजार लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या महज 774 ही हैं। इसकी मुख्य वजह गर्भ में ही बेटियों को मार दिया जाना है। महापंचायत के अनुसार, पूरे देश में बेटियों को बचाने के लिए मुहिम चलाई जाएगी और यह संदेश पूरे देश में फैलाया जाएगा। करीब 150 खापों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। आमतौर पर खाप पंचायतें अपने नकारात्मक फैसलों की वजह से बदनाम होती आई हैं। ऐसे में यह फैसला उसकी छवि के एकदम विपरीत है। अंत में किसी कवि की ये चार पंक्तियां
मिट्टी की खुशबू-सी होती हैं बेटियां।
घर की राज़दार होती हैं बेटियां।
रोशन करेगा बेटा तो बस एक कुल को।
दो-दो कुलों की लाज होती हैं बेटियां।।
सूरज की तपन होती हैं बेटियां।
चंदा की शीतल मुस्कुराहट होती हैं बेटियां।।                    बद्रीनाथ वर्मा 9716389836


पढऩे से नहीं, डर स्कूल से लगता है




दबंग फिल्म का एक डॉयलाग बहुत मशहूर हुआ था। डॉयलाग था- थप्पड़ से नहीं प्यार से डर लगता है साहब। अब उसी तर्ज पर पश्चिम बंगाल में बच्चे कह रहे हैं कि पढऩे से नहीं, स्कूल से डर लगता है। इसकी वाजिब वजहें भी हैं। स्कूलों में छोटी मोटी गल्तियों पर जिस तरह की सजा देने का चलन शुरू हुआ है, उसे सुनकर ही पसीने आ जाते हैं। शिक्षकों द्वार दी जा रही अजीबोगरीब सजा से बाल मन पर कितना बुरा असर पड़ता होगा, इस तरफ किसी की भी निगाह नहीं है। बार बार कोर्ट के आदेश के बावजूद बच्चों को शारीरिक व मानसिक दंड देने का सिलसिला रुक ही नहीं रहा है। अभी पिछले दिनों लगातार एक के बाद एक घटी इस तरह की कई घटनाओं ने पूरे राज्य को मथ दिया है।
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के सपनों का शांतिनिकेतन इन दिनों अपनी कलाप्रियता व पढ़ाई लिखाई को लेकर नहीं बल्कि दूसरे कारणों से चर्चित है। इस बार जिस मामले को लेकर शांतिनिकेतन चर्चा में है, वह है पांचवी क्लास की एक छात्रा को अपना ही पेशाब चाटने को विवश करने को लेकर।  स्कूल के छात्रावास की वॉर्डन उमा पोद्दार ने 5वीं क्लास की एक छात्रा को बिस्तर गीला करने पर सजा के तौर पर अपना पेशाब चाटने को विवश किया था। बावेला मचने पर उमा को गिरफ्तार कर लिया गया था।.  फिलहाल वह जमानत पर है। उसे स्कूल से निलंबित भी कर दिया गया है।
दरअसल विश्वभारती विश्वविद्यालय के तहत संचालित पाथा भवन स्कूल की पांचवीं की छात्रा ने सोते समय बिस्तर गीला कर दिया था। इससे नाराज स्कूल के छात्रावास की वार्डन उमा पोद्दार ने उसे दंड स्वरूप उसी का पेशाब चाटने को विवश किया। आरोप है कि उन्होंने पेशाब पर नमक छिड़क दिया और सजा के तौर पर उसे चाटने के लिए कहा।
लड़की ने यह बात अपनी मां को बताई, जिसके बाद उसके अभिभावक तथा कई अन्य लोगों ने छात्रावास के परिसर में पहुंचकर हंगामा करना शुरू कर दिया। पहले तो वार्डन को बचाने की भरपूर कोशिश की गई पर जब मामला तूल पकड़ गया तो अंतत: पुलिस को उसे गिरफ्तार करना पड़ा। फिलहाल वह जमानत पर है। पहले स्कूल प्रशासन की ओर से उसका बचाव करते हुए कहा गया कि उक्त वार्डन ने गांवों में प्रचलित धारणा के तहत ऐसा किया। ऐसा माना जाता है कि जो बच्चे बिस्तर गीला करते हैं यदि उन्हें उन्ही का पेशाब चटा दिया जाये तो उनकी बिस्तर गीला करने की आदतें छूट जाती हैं। पर ये थोथी दलीलें लोगों के गले नहीं उतरी। यह मामले को तूल पकड़ता देख विश्वविद्यालय प्रशासन ने पूर्व छात्र कल्याण संकायाध्यक्ष अरुणा मुखर्जी की अध्यक्षता में मामले की जांच के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया। रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए विश्वविद्यालय ने पोद्दार को वार्डन के पद से हटा दिया।
घटना की चौतरफा निंदा हुई। यहां तक कि इसकी आंच प्रधानमंत्री कार्यालय तक जा पहुंची। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी विश्वविद्यालय तथा राज्य सरकार से इस पर विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। गौरतलब है कि विश्व भारती की स्थापना नोबल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी।
कलकत्ता हाई कोर्ट ने  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा विश्वविद्यालय के अन्य अधिकारियों के खिलाफ अवमानना का नोटिस भी जारी कर दिया है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री विश्वभारती विवि के चांसलर भी हैं। नोटिस में कहा गया है कि विश्व भारती ने शारीरिक दंड देकर इस तरह के दंड पर रोक लगाने के न्यायालय के पूर्ववर्ती आदेश का उल्लंघन किया है।
मुख्य न्यायाधीश जेएन पटेल तथा न्यायमूर्ति संबुध चक्रवर्ती की पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह नोटिस जारी किया है। याचिका में दावा किया गया था कि विश्वभारती ने कोर्ट के पूर्व निर्देशों की अवहेलना करते हुए उक्त छात्रा को शारीरिक दंड दिया है। जनहित याचिका दाखिल करने वाले तापस भंज के अनुसार कोर्ट ने उन्हें विवि के चांसलर प्रधानमंत्री, कुलपति सुशांत दत्ता गुप्ता, कुलसचिव मणि मुकुट मित्रा, हॉस्टल वार्डन उमा पोद्दार तथा पश्चिम बंगाल के शिक्षा सचिव बिक्रम सेन को नोटिस देने को कहा है।
गौरतलब है कि कलकत्ता हाई कोर्ट ने 2004 में ही स्कूलों में किसी भी प्रकार के शारीरिक दंड देने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बाद कोर्ट ने 2009 में समुचित दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा था कि छात्रों को शारीरिक दंड देने के बजाय उन्हें समझाया बुझाया जाना चाहिए। कोर्ट ने राज्य सरकार से भी कहा था कि वह शारीरिक दंड के खिलाफ व्यापक प्रचार करे। साथ ही दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया था।
बहरहाल अभी यह मामला शांत भी नहीं हुआ था कि एक और शिक्षिका के कारनामे ने राज्य को शर्मसार कर दिया। उक्त शिक्षिका ने उत्तर 24 परगना जिले के गोपालनगर में आठवीं की एक छात्रा के कपड़े भरी क्लास में उतरवा दिए। इस छात्रा पर सहपाठी के पैसे चुराने का आरोप था।
लड़की के पिता पवित्र मंडल ने गोपालनगर विद्यालय की शिक्षिका रूपाली के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है। उन्होंने शिकायत में कहा कि रूपाली ने उनकी बेटी पर सहपाठी के पैसे चुराने का आरोप लगाया। सभी छात्राओं के सामने कपड़े उतारे और तलाशी ली।
 दरअसल उस छात्रा पर उसकी सहपाठी ने पचास रुपये चुराने का आरोप लगाया था। इससे भड़की शिक्षिका रूपाली ने लड़की के सारे कपड़े भरी क्लास में उतरवा दिए। एसडीओपी के अनुसार धारा 354, 509 के तहत गोपालनगर गिरिबाला उच्च बालिका विद्यालय की टीचर रूपाली डे को गिरफ्तार कर लिया गया। यह घटना कोलकाता से करीब 75 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना जिले के गोपालनगर में हुई थी।
एक ऐसी ही घटना पूर्वी मिदनापुर जिले में हल्दिया कस्बे के डेरा कृष्णा बाणी तीर्थ बालिका विद्यालय की 8वीं क्लास की एक छात्रा के साथ भी हुई। यहां एक छात्रा से फर्श पर पानी गिर गया। जिस पर स्कूल की प्रिंसिपल संध्या ने उसे कपड़े उतारने का आदेश दिया और पिटाई भी की। स्कूल से घर लौटने पर छात्रा बीमार हो गई। उसके माता-पिता ने स्कूल की मैनेजिंग कमिटी में शिकायत दर्ज करवाई। हालांकि, प्रिंसिपल संध्या ने आरोप का खंडन किया है। इस बीच, शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु ने सभी घटनाओं की जांच के आदेश दे दिए हैं।

                                                                                                         बद्रीनाथ वर्मा

यार! क्या है पिंकी


इंट्रो- पूर्व महिला एथलीट पिंकी प्रमाणिक पर एक शादीशुदा महिला ने लगाए बालात्कार के आरोप। कहा पिंकी स्त्री नहीं पुरुष है। लिंग निर्धारण के लिए हिरासत में पिंकी

हाईलाईटर- लगभग एक महीने के बाद भी नहीं निर्धारण हो सका पिंकी पुरुष है या स्त्री

इन दिनों पूरे राज्य में एथलीट पिंकी के पुरुष या महिला होने की चर्चाएं गरम हैं। कुछ लोग उसे पुरुष बताते हैं तो कुछ उसे महिला ही मानते हैं। बहरहाल अब पिंकी पुरुष है या महिला यह तो चिकित्सक ही तय कर पाएंगे। मामला फिलहाल अदालत में है और पिंकी न्यायिक हिरासत में। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि पिंकी की गिरफ्तारी के बीस दिनों बाद तक भी यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि वास्तव में वह स्त्री है या पुरुष।
2006 एशियाई खेलों की स्वर्ण पदकधारी पिंकी प्रमाणिक को रेलवे की नौकरी से भी निलंबित किया जा चुका है। पिंकी को गलत आरोप में फंसाए जाने का मामला उठाते हुए देश की उडऩपरी पीटी उषा ने भी उसके पक्ष में आवाज बुलंद की है। उषा का कहना है कि पिंकी के खिलाफ किसी कार्रवाई से पहले एथलेटिक्स फेडरेशन आफ इंडिया(एएफआई) के  नियमों का पालन करना चाहिए। ऊषा ने कहा कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट से पहले और तुरंत बाद जरूरी टेस्ट लेने की जिम्मेदारी इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन(आईएएएफ) की होती है। इसलिए एएफआई को सबसे पहले यह पता करना चाहिए पिंकी के मामले में सभी जरूरी टेस्ट हुए थे या नहीं और उनमें पिंकी पास हुई थी या नहीं।
इस बीच परगना की बारासात अदालत ने पिंकी के लिंग निर्धारण के लिए क्रोमोसोम पैटर्न की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है और पिंकी की जमानत की अपील खारिज करते हुए इस एथलीट की न्यायिक हिरासत बढ़ा दी है। इस संबंध में एसएसकेएम अस्पताल के एक वरिष्ठ चिकित्सक ने बताया कि इस जांच के द्वारा परिणाम हासिल करने में सात से दस दिन का समय लग सकता है। उन्होंने कहा कि इस अस्पताल में पिंकी के लिंग निर्धारण का परीक्षण हुआ था, लेकिन क्रोमोसोम पैटर्न परीक्षण नहीं हो पाया था। अपनी तरह का यह पहला मामला है कि एक एथलीट को जेंडर टेस्ट के लिए चिकित्सा परीक्षण से गुजरना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि चिकित्सा बोर्ड की रिपोर्ट बंद लिफाफे में संबद्ध अदालत में पेश की जाएगी। पिंकी न्यायिक हिरासत के तहत दमदम जिला जेल में बंद है। हालांकि इससे पहले एक प्रायवेट नर्सिंग होम में पिंकी का जेंडर चेक हुआ था जिससे पता चला था कि वह पुरुष है।
गौरतलब है कि अदालत के आदेश पर पिंकी 15 जून से न्यायिक हिरासत में है। पिंकी के वकील तुहिन रॉय के अनुसार एथलीट पिंकी को दो बार अलग-अलग सरकारी अस्पतालों में लिंग निर्धारण परीक्षण से गुजरना पड़ा है, लेकिन दोनों ही मौकों पर परिणाम अनिर्णायक रहे हैं। रॉय ने कहा कि लिंग निर्धारण परीक्षण के नाम पर पिंकी का मानसिक उत्पीडऩ किया जा रहा है। हम अब अदालत से अनुरोध करेंगे कि वह एक विशेष अस्पताल तय करे जहां पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हों। उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा संचालित एसएसकेएम अस्पताल के चिकित्सकों का एक 11 सदस्यीय दल गठित किया गया था, जिसने 25 जून को पिंकी के कई परीक्षण किए थे। लेकिन सुविधाओं के अभाव के कारण क्रोमोसोम परीक्षण, कैरयोटाइपिंग, नहीं हो सका था। इसके पूर्व उत्तरी 24 परगना के मुख्य चिकित्सा अधिकारी सुकांत सिल ने 26 वर्षीय पूर्व महिला एथलीट पिंकी के जेंडर टेस्ट के लिए सात सदस्यीय चिकित्सा बोर्ड का गठन किया था। किंतु यह टीम भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई। पिंकी ने 2006 के दोहा एशियाई खेलों में चार गुणा 400 मीटर रिले में स्वर्ण पदक जीता था।

यह मामला तब प्रकाश में आया जब पिंकी पर एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया। इसी आरोप में पिंकी को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। पिंकी के साथ रहने वाली इस शिकायतकर्ता विवाहित महिला के अनुसार पिंकी महिला के वेश में पुरुष है। वह उससे लगातार बलात्कार करता रहा है। पिंकी की लिव-इन पार्टनर ने आरोप लगाया था कि वह पुरुष है और उसने उसके साथ बलात्कार किया है। इस तलाकशुदा के मुताबिक पिंकी ने उसे शारीरिक यातना भी दी है। कांता का आरोप है कि पिंकी ने उससे शादी का वादा किया था, लेकिन बाद में मुकर गया। भारतीय दंड संहिता आईपीसी की धारा 417 और 376 के तहत गिरफ्तार किए जाने के बाद उसे बारासात की एक अदालत में पेश किया गया जहां उसके लिंग परीक्षण के आदेश दिए गए। लेकिन अस्पताल में कई घंटों की मशक्कत के बाद आरोपी महिला एथलीट ने मेडिकल बोर्ड के समक्ष परीक्षण कराने से इंकार कर दिया था। वर्ष 2006 एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक और उसी वर्ष के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक जीतने के बाद रेलवे ने उसे नौकरी दी थी। ईस्ट रेलवे में टिकट कलेक्टर के पद पर कार्यरत पिंकी को न्यायिक हिरासत में भेज दिए जाने के बाद उसे पद से निलंबित किया जा चुका है। ज्ञातव्य है कि पिंकी ने तीन वर्ष पहले सड़क दुर्घटना में घायल होने के बाद खेलों से संन्यास ले लिया था।
भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के एक अधिकारी ने कहा कि अगर साबित हो जाता है कि यह एथलीट पिंकी पुरुष है, तो उससे सारे पदक छीन लिए जाएंगे। बंगाल एथलेटिक्स संघ के एक अधिकारी ने कहा कि मेलबोर्न राष्ट्रमंडल खेलों की उपलब्धि के बाद पिंकी प्रमाणिक की जांच में पुरुष हार्माेन का स्तर काफी अधिक पाया गया था इसके बावजूद उसे दोहा एशियाई खेलों में हिस्सा लेने की अनुमति मिल गई। इस बाबत पिंकी के परिजनों ने उसका बचाव करते हुए किसी षडयंत्र की आशंका जताई है। पिंकी के पिता दुर्गाचरण ने कहा कि जिस महिला ने आरोप लगाया है, उसके पति ने मेरी बेटी से पैसे उधार लिए थे। उसने पैसे वापस देने से इंकार कर दिया और अब मेरी बेटी की छवि धूमिल करने के लिए यह षडयंत्र रचा है। वहीं एथलीट पिंकी की मां पुष्पा ने कहा कि मैं इन आरोपों को सुनकर स्तब्ध हूं। मैं उसकी मां हूं, मुझसे ज्यादा कोई हकीकत नहीं जान सकता। पिंकी महिला ही है, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है।

खट्टे नहीं थे अंगूर


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

झेंप मिटाने के लिए अक्सर एक मुहावरा प्रयोग किया जाता है कि 'गिर पड़े तो हर गंगेÓ। कुछ ऐसा ही सोनिया गांधी के लिए भाजपा कहती रही है। साल 2004 में प्रधानमंत्री पद को स्वीकार न करने को कांग्रेसी उनका अभूतपूर्व त्याग बताते रहे हैं। वहीं, भाजपा कहती रही है कि विदेशी मूल का होने के कारण तब के राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद ने उन पर फच्चर फंसा दिया था, इसलिए मजबूरी में उन्होंने 'अंगूर खट्टे हैंÓ कहकर मनमोहन सिंह का नाम आगे कर दिया था। पर यह सच नहीं है। सचमुच ही सोनिया गांधी ने त्याग किया था। उन्होंने प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने का निर्णय स्वेच्छा से लिया था।
बहरहाल, अब तक अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलाप रहे दोनों दलों को इसका जवाब मिल गया है। और यह जवाब मिला है पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम की अप्रकाशित पुस्तक 'टर्निंग प्वाइंट्स, ए जर्नी थ्रू चैलेंज्सÓ से। सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की राह में तब के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने रोड़ा अटकाया था। इस आम धारणा के विपरीत डॉ. कलाम ने इस बात को मिथ्या करार देेते हुए कह दिया है कि वह तो उन्हें प्रधानमंत्री बनाने को तैयार थे लेकिन खुद सोनिया गांधी पीछे हट गईं। यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी यदि चाहतीं तो साल 2004 में प्रधानमंत्री बन सकती थीं। उनका इस देश में पैदा न होना इसके आड़े नहीं आता। लेकिन खुद सोनिया गांधी ने ही अपनी जगह मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित कर दिया था। कलाम के इस  रहस्योद्घाटन से जहां कांग्रेस के दावों पर मुहर लगी है, वहीं भाजपा के झूठ का पर्दाफाश भी हुआ है। कलाम ने अपनी पुस्तक में उक्त बात का खुलासा करते हुए कहा है कि मनमोहन सिंह का नाम सामने आने के बाद वह खुद भी आश्चर्यचकित रह गए थे। उनके अनुसार सोनिया के नाम की चिट्ठी भी तैयार कर ली गई थी। पर उनके द्वारा मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किए जाने के बाद दुबारा चिट्ठी तैयार की गई।
खैर, जो भी हो लेकिन इस राजनीतिक रहस्य पर से पर्दा उठाने के समय को लेकर सवालों का बाजार गर्म हो गया है। पूछा जा रहा है कि आठ साल तक चुप रहने के बाद आखिर इसी समय क्यों डा. कलाम ने इसका खुलासा किया। कहीं इसके पीछे खुद को पाक साफ दिखाने की कोशिश या फिर सोनिया गांधी की नाराजगी दूर करने का प्रयास तो नहीं है। यह सवाल इसलिए क्योंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा डॉ. कलाम का नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित किए जाने के बाद अंदरखाने एनडीए का भी उन्हें समर्थन था। बावजूद इसके उन्होंने चुनाव लडऩे से इंकार कर दिया। जाहिर सी बात है कि उन्हें कांग्रेस का समर्थन नहीं मिलने वाला था। क्योंकि माना जाता रहा है कि उन्होंने ही सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था। इसलिए सोनिया उनके नाम पर कभी भी सहमत नहीं होगी। ऐसे में अपनी भद पिटवाने से बेहतर उन्हें चुनाव मैदान से हट जाना ही लगा। हालांकि कांग्रेस पहले से ही सोनिया के प्रधानमंत्री नहीं बनने की वजह उनके त्याग को कहती रही है बावजूद इसके भाजपा यही दावा करती रही है कि विदेशी मूल का होने के कारण राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद ने उनके नाम पर फच्चर फंसा दिया था। इसलिए मजबूरी में उन्होंने मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ाया था। लेकिन अब खुद कलाम की पुस्तक ने इस बात को निराधार ठहरा दिया है। इस तरह दूध का दूध और पानी का पानी हो गया है। कलाम ने उस राजनीतिक रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए कहा है कि वह सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के खिलाफ नहीं थे। उन्होंने इस बात का खुलासा किया है कि अगर सोनिया पीएम बनना चाहतीं तो उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता सिवा उनकी नियुक्ति के।
गौरतलब है कि 13 मई 2004 को आए चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस संसदीय दल व यूपीए गठबंधन का अध्यक्ष बनने के बावजूद सोनिया ने पीएम नहीं बनने का निर्णय किया था। कांग्रेस नीत सरकार का बाहर से समर्थन करने का निर्णय करने वाले वामदलों ने भी सोनिया का नाम पीएम पद के लिए प्रस्तावित किया था लेकिन कई दक्षिणपंथी पार्टियों ने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा उठाकर उनके पीएम बनने का विरोध किया था।
कलाम ने लिखा है कि कई नेता उनसे मिले और किसी तरह के दबाव में न आकर सोनिया को पीएम नियुक्त करने का आग्रह किया था। हालांकि यह निवेदन संवैधानिक रूप से तर्कसंगत नहीं था। अगर सोनिया ने अपने लिए कोई दावा किया होता तो उनके पास उन्हें नियुक्त करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। उन्होंने दावा किया है कि वह उस वक्त हैरान रह गये थे जब 18 मई 2004 को सोनिया गांधी उनसे मिलने आईं और प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव किया। क्योंकि उस वक्त तक सोनिया के नाम की चिट्ठी तैयार हो गई थी।
बहरहाल, कलाम के खुलासे ने राजनीतिक सरगर्मियां तेज कर दी है। खुलासे के समय को लेकर उन पर आरोपों के तीर छोड़े जा रहे हैं। जनता दल अध्यक्ष शरद यादव ने खुलासे के समय पर सवाल उठाते हुए कहा है कि कलाम का जमीर इतने अर्से बाद क्यों जागा। क्यों वह आठ साल तक चुप रहे। दूसरी तरफ जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कलाम के इस दावे को झूठा करार दिया है। उन्होंने मांग की है कि कलाम को 17 मई 2004 की वह चि_ी सार्वजनिक करनी चाहिए, जो उन्होंने सोनिया गांधी को 17 मई 2004 को शाम साढ़े तीन बजे लिखी थी। स्वामी के मुताबिक, कलाम ने ही सोनिया गांधी के पीएम बनने पर ऐतराज जताया था। सुब्रह्मण्यम स्वामी का दावा है कि उस दिन सोनिया शाम पांच बजे सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए उनसे मिलने वाली थीं। जबकि वह कलाम से करीब सवा 12 बजे मिले थे और बताया था कि सोनिया के पीएम बनने में कानूनी अड़चनें हैं। इसके बाद कलाम ने सोनिया को साढ़े तीन बजे चि_ी लिखी, जिसमें शाम पांच बजे की मुलाकात रद्द करने की जानकारी दी गई थी। उन्होंने सोनिया को लिखा था कि वह इस मुद्दे पर चर्चा के लिए अगले दिन उनसे मिल सकती हैं। स्वामी का दावा है कि जब यह चि_ी सोनिया को मिली, तो मनमोहन सिंह और नटवर सिंह वहां मौजूद थे और खुद मनमोहन सिंह ने चि_ी का एक पैरा सबके सामने पढ़ा था। स्वामी ने कहा कि अगर कलाम चि_ी सबके सामने नहीं लाते हैं, तो मैं मानूंगा कि वह इतिहास के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। स्वामी ने कलाम द्वारा देर से मुद्दा उठाने पर भी सवाल किया है। स्वामी पहले भी कई बार यह दावा कर चुके हैं कि सोनिया ने पीएम पद ठुकराया नहीं, बल्कि उनके कहने पर कलाम ने उन्हें पीएम नहीं बनने दिया। स्वामी के मुताबिक, सोनिया से मिलने से पहले वे कलाम से मिले थे और उन्हें उन संवैधानिक उल्लेखों की जानकारी दी थी, जिनके मुताबिक, विदेशी मूल का कोई व्यक्ति देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन नहीं हो सकता। स्वामी के दावों को ही भाजपा सहित अन्य विपक्षी पार्टियों ने प्रचारित किया था।
ज्ञातव्य है कि सोनिया गांधी के मिलने से पहले कलाम-स्वामी की मुलाकात का जिक्र राष्ट्रपति भवन के दस्तावेजों में भी मौजूद है। यह मुलाकात तकरीबन 30 मिनट की थी और समय था करीब सवा 12 बजे का। इसके उलट कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा है कि कलाम की पुस्तक में सच उजागर होने से जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी और भाजपा के नेताओं का झूठ सामने आ गया है।
                                                                                             बद्रीनाथ वर्मा  9718389836

एक और झटका


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

दीदी की हिटलरशाही को एक नया झटका दिया है कलकत्ता हाईकोर्ट ने। इस झटके को राजनीतिक गलियारे में काफी अहम माना जा रहा है। दरअसल सिंगूर भूमि पुनर्वास और विकास अधिनियम को कलकत्ता हाईकोर्ट की ओर से असंवैधानिक करार देने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बचाव की मुद्रा में आ गई हैं। हालांकि उन्होंने दोहराया है कि सरकार किसानों की जमीनें उन्हें लौटाने को प्रतिबद्ध है। मुख्यमंत्री ने पत्रकारों से कहा कि सिंगूर के जो किसान अपनी जमीन नहीं देना चाहते उन्हें उनकी जमीन हरहाल में वापस की जाएगी। सरकार इसके लिए कटिबद्ध है।
सिंगूर की जिस जमीन को लेकर हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुनाया है उसे टाटा कंपनी को नैनो कार बनाने के लिए तत्कालीन वामपंथी सरकार की ओर से ही लीज पर दी गई थी। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ कुछ किसानों ने आंदोलन किया था जिसे ममता बनर्जी का परोक्ष समर्थन हासिल था। विरोध प्रदर्शनों से तंग आखिरकार टाटा की ओर से अपनी इस महत्वाकांक्षी परियोजना को गुजरात ले जाने का फैसला लिया गया था।
इसके बाद सत्ता में आई ममता बनर्जी सरकार ने पिछले वर्ष जून में एक अधिनियम के जरिए सिंगूर में टाटा के साथ हुए समझौते को रद्द करते हुए जमीन किसानों को वापस देने का प्रावधान किया था। लेकिन मामला कोर्ट में चला गया। आखिरकार हाईकोर्ट ने इस अधिनियम को यह कहकर खारिज कर दिया कि इस अधिनियम के लिए राष्ट्रपति से अनुमति नहीं ली गई थी। दूसरी तरफ राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी माकपा ने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले से यह साबित हो गया कि उनकी सरकार का निर्णय सही था।
राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्रा ने कहा कि हम शुरू से कहते रहे हैं कि ममता सरकार का यह तुगलकी अधिनियम असंवैधानिक है। हमने सरकार को कई सुझाव भी दिए थे कि इस मामले से किस तरह से निपटा जाना चाहिए परन्तु सरकार ने हमारी एक नहीं सुनी। बहरहाल कोर्ट के इस फैसले से अनिच्छुक किसानों में हताशा है। उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही उनकी जमीने उन्हें वापस मिल जाएगी। परंतु अब इसकी आशा क्षीण ही नजर आ रही है। हालांकि ममता बनर्जी ने कहा है कि वह किसानों के साथ हैं। और आगे भी रहेंगी। भले ही फिलहाल कोर्ट के फैसले से इसमें थोड़ी देर हो गयी लेकिन आखिर में जीत उनकी ही होगी।
गौरतलब है कि टाटा ने इस मामले में कलकत्ता हाई कोर्ट के ही एक सदस्यीय बेंच के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसने पिछले वर्ष इस अधिनियम को सही ठहराया था। फैसला आने के बाद तृणमूल के सांसद व इस मामले को देख रहे वकील कल्याण बंद्योपाध्याय ने कहा कि फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और सीपीएम के नेता सूर्याकांत मिश्रा ने हाईकोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे उनकी पार्टी की बात सही साबित हुई है। उनका कहना था, हम कहते रहे हैं कि ये अधिनियम असंवैधानिक है और हमने सरकार को कई सुझाव भी दिए थे कि इस मामले से किस तरह से निपटा जाना चाहिए पर सरकार ने हमारी एक न सुनी। फिलहाल सिंगूर की जमीन टाटा के पास ही है और कंपनी ने इसे वापस लौटाने से इनकार कर दिया है। सिंगूर का विकास खंड कार्यालय, जहाँ पिछ्ले कई दिनों से ज़मीन वापस पाने की आस रखे किसान अपने ज़मीन के कागज जमा करा रहे थे वहां हाईकोर्ट का स्थगन आदेश आते ही मायूसी छा गई। कई किसान जो बरसते पानी और कीचड़ के बीच अपने जमीन के कागजों को प्लास्टिक के लिफाफों में संभाल कर लाए थे वो इस आदेश के बाद हतप्रभ खड़े रह गए। यूं तो कार्यालय में किसानों के कागज स्वीकार किया जाना बदस्तूर जारी है, लेकिन किसान परेशान हैं और वो ये जानना चाहते हैं कि अब इस आदेश के बाद उन्हें उनकी जमीन कब वापस मिलेगी। मिलेगी भी या नहीं।

बहरहाल यह तो तय है कि यह आदेश किसानों के खिलाफ गया है। इस पर टिप्पणी करते हुए स्थानीय तृणमूल कांग्रेस नेता महादेव दास ने कहा कि हमें लगा था कि अदालत किसानों की परेशानी ध्यान में रखेगी पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन जमीन हमारी है और हम उसे हर हाल में लेकर रहेंगे।
दास पार्टी की तरफ से अनिच्छुक किसानों को जमीन लौटाने के काम की देख रेख कर रहे हैं।
सिंगूर थाना क्षेत्र में कई गांवों की जमीन टाटा कंपनी के नैनो कार के कारखाने और उसके सहायक कारखानों के लिए अधिग्रहित की गई थी। इस क्षेत्र को बंगाल में धान और आलू उत्पादन के केंद्र के रूप में जाना जाता है। प्रभावित किसानों और ऐसे भूमिहीन मजदूरों जिनकी आजीविका अधिग्रहित जमीन से ही चलती थी, उनकी तादाद हजारों में है।
गोपाल नगर के एक किसान मधुसूदन कोले कहते हैं कि स्थगन ही तो आया है। यह कोई हमारे खिलाफ आदेश थोड़े ही है। जैसे पांच साल इंतजार किया वैसे कुछ दिन और कर लेंगे। लेकिन अपनी जमीन किसी भी कीमत पर टाटा कंपनी को नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें जो भी करना पड़े सब मंजूर है। यूं तो एक हजार एकड़ जमीन अधिग्रहण से करीब तेरह हजार किसानों की जमीनें गई थीं, लेकिन इनमें से अधिकतर ने जमीन का मुआवजा ले लिया था। करीब तीन हजार किसानों ने अपनी जमीन के बदले में कुछ भी लेने से इनकार कर दिया था और ऐसे किसानों ने ही ममता बनर्जी के आंदोलन को जीवित रखा था। इन तीन हजार किसानों में से अब तक 900 किसान अपनी अधिगृहीत जमीन के कागजात लाकर विकास खंड में जमा करा चुके हैं।

त्रिफला चूर्ण : संघ, बीजेपी और जेडीयू


हाजिर नाजिर

इन्ट्रो- गठबंधन के घटक दल सत्ता की नाव में बैठते ही एक दूसरे की तली में छेद करने में लग जाते हैं। तलाश रहती है एक उपयुक्त हथियार की। सेक्युलर नाम के ऐसे ही हथियार का प्रयोग कर रहे हैं नीतीश

हाईलाईटर- देश के दोनों सबसे बड़े गठबंधन टूटने की कगार पर
- हर घटक दल में है प्रधानमंत्री के दावेदार


सेक्युलर या धर्मनिरपेक्ष एक ऐसा शब्द बन गया है जिसका हर कोई श्लोक की तरह रट्टा मार रहा है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता एक ऐसी दुधारू गाय बन गई है, जिसे हर नेता अपने फायदे के लिए दुहने की फिराक में लगा रहता है। अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार नेता समय-समय पर इसकी अपने तरीके से व्याख्या करते रहते हैं। यानी यहां भी मामला 'चित भी मेरी पट भी मेरीÓ वाला ही है। बहरहाल, पिछले डेढ़ दशक से भाजपा के साथ सत्ता की मलाई चख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर इस गाय को दुहने की फिराक में जुट गए हैं। इससे एनडीए में एक बार फिर बिखराव का खतरा मंडराने लगा है। वैसे भी एनडीए मुख्यत: चार ही दलों का गठबंधन रह गया है। कई पुराने साथी उससे पहले ही किनारा कर चुके हैं। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि, क्या एनडीए एक बार फिर कमजोर होगा? लगता तो ऐसा ही है।
कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ तो जल्द ही जदयू भी एनडीए को बाय-बाय बोल देगा। यहां एक बात और गौर करने लायक है कि जदयू केराष्ट्रीय अध्यक्ष भले ही शरद यादव हैं पर चलती नीतीश की ही है। ज्यों ही अगले प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के नाम की चर्चा शुरू हुई, सामाजिक इंजीनियरिंग के महारथी नीतीश की महत्वाकांक्षा भी जोर मारने लगी। नीतीश कुमार को भला यह क्यों मंजूर होने लगा कि उनके रहते कोई नरेंद्र मोदी एनडीए का पीएम इन वेटिंग बन जाए। नीतीश ने कह दिया कि देश का अगला प्रधानमंत्री सेक्युलर होना चाहिए। इसी बहाने उन्होंने अपनी दावेदारी पेश कर दी। हालांकि खुलकर उन्होंने नहीं कहा, पर इशारों ही इशारों में जता दिया कि उनके रहते प्रधानमंत्री के लिए नरेंद्र मोदी का कोई नाम ले यह उन्हें मंजूर नहीं। इसी के साथ राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा के खिलाफ जाकर प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर जदयू ने एनडीए छोडऩे की भूमिका भी बना ली। अटकल तो यह भी लगाया जा रहा है कि इसके पीछे भाजपा के भीष्म पितामह, लालकृष्ण आडवाणी, का दिमाग काम कर रहा है। वही नीतीश को हवा दे रहे हैं। वैसे भी नीतीश के साथ उनकी बेहतर ट्यूनिंग है। क्योंकि अपनी पिछली रथयात्रा उन्होंने बिहार से ही शुरू की थी। सबसे मजे की बात यह है कि इस बेमतलब की कवायद को त्रिफला चूर्ण की करामात बताई जा रही है। त्रिफला चूर्ण यानी आरएसएस, बीजेपी और जदयू।
दरअसल, साल 2014 में होने वाला लोकसभा चुनाव ने नीतीश कुमार जैसे आधा दर्जन से अधिक नेताओं की उम्मीदों का पारा चढ़ा दिया है। उन्हें लग रहा है कि अगले चुनाव में जनता यूपीए को नकारने वाली है। ऐसे में न जाने किसके भाग से छींका टूट जाए और प्रधानमंत्री पद उनकी ही झोली में आ गिरे। देश में प्रधानमंत्री का पद तो मात्र एक ही है पर दावेदार आधा दर्जन से अधिक। प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के नाम की चर्चा क्या शुरू हुई सभी अपनी-अपनी गोटियां सेट करने में लग गए। दरअसल जिस तरह से नरेंद्र मोदी की जिद के आगे बेबस भाजपा को संजय जोशी से इस्तीफा लेना पड़ा उससे पार्टी में मोदी की अहमियत उजागर हुई। यहां एक बात साफ-साफ दिखाई दी की मोदी, पार्टी से भी बड़े हो गए हैं। इससे ऐसा माहौल तैयार हुआ मानो मोदी बीजेपी के नए सूर्य हों। इसी बहाने आरएसएस की कमजोरियां भी खुलकर सामने आ गईं। यहीं से एनडीए के राजनीतिक ताने-बाने की कलई खुलने लगती है। दरअसल, आरएसएस की कमजोरियों का असर बीजेपी पर पड़ रहा है और बीजेपी की फूट का असर एनडीए पर। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि संगमा के नाम पर बीजेपी अपने सहयोगियों तक को नहीं मना सकी। यहां तक कि शिवसेना ने भी संगमा के बजाय प्रणव मुखर्जी के पक्ष में खड़ा होना उचित समझा। जदयू तो पहले ही प्रणव मुखर्जी को अपने समर्थन का ऐलान कर चुकी थी। इसे लेकर बीजेपी और जदयू में सिर फुटौव्वल जैसी स्थिति पैदा हो गई। नीतीश के विश्वसनीय माने जाने वाले शिवानंद तिवारी तो बीजेपी पर दाना-पानी लेकर ही पिल पड़े। बार-बार बीजेपी नेताओं को आड़े हाथों ले रहे शिवानंद तिवारी पर आखिरकार जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को लगाम लगाना पड़ा। यादव ने शिवानंद तिवारी समेत सभी प्रवक्ताओं से दो टूक कह दिया कि वह किसी भी तरह का बयान देने से पहले नेतृत्व से राय-विचार कर लें।
दूसरी ओर देश का अगला प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए, कहकर बवाल मचा देने वाले नीतीश कुमार अभी भी अपने बयान पर डटे हुए हैं। उन्होंने एक बार फिर अपनी बात इस रूप में दोहराई कि गोल्डन वड्र्स आर नॉट रिपीटेड (स्वर्णिम शब्द दुहराए नहीं जाते)। बहरहाल, लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, पर एनडीए में प्रधानमंत्री पद को लेकर घमासान अभी से तेज हो गया है। पीएम उम्मीदवार को लेकर शर्तें रखे जाने पर गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी भी कहां चूकने वाले थे। उन्होंने भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर पलटवार किया। मोदी ने ट्वीट किया कि चरित्र से इच्छा का निर्माण होता है और कर्म से चरित्र का। जैसा कर्म होगा, वैसी इच्छा होगी। यहां एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि शिवसेना ने भी एनडीए की तरफ से पीएम उम्मीदवार के नाम का ऐलान एडवांस में किए जाने की नीतीश की मांग का समर्थन किया है। शिवसेना सांसद भरत राउत ने कहा है कि एनडीए में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते बीजेपी को पीएम उम्मीदवार के नाम का ऐलान एडवांस में करना चाहिए।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि 'प्रथम ग्रासे मच्छिकापात।Ó एनडीए में फूट के बीज पड़ चुके हैं। देखना यही है कि फसल पक कर तैयार कब होती है। इसी की अगली कड़ी है, राष्ट्रपति के लिए प्रणव मुखर्जी का समर्थन। ऐसा कर जदयू ने भाजपा से दूरी बनानी शुरू कर दी है। इधर नीतीश, एनडीए से छिटकने की तैयारी में हैं तो उधर यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी घटक, तृणमूल कांग्रेस, भी यूपीए से किनारा करने की कगार पर है। दोनों गठबंधन एक ही नाव पर सवार हैं। बहरहाल, बात अगर प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की की जाए तो उनकी संख्या दर्जनों में पहुंच जाएगी। नरेंद्र मोदी से लेकर नीतीश, मुलायम, लालू प्रसाद यादव तथा रामविलास पासवान तक सभी का लक्ष्य एक ही है, प्रधानमंत्री बनना। अगर इसे थोड़ा और विस्तार दें तो मायावती और ममता बनर्जी भी इस कतार में खड़ी दिखाई देंगी। सीधा सा हिसाब है न जाने किसके भाग्य से छींका टूट जाए। जब देवेगौड़ा, गुजराल और पी वी नरसिंहाराव जैसों के भाग खुल सकते हैं तो फिर इनको कैसे नकारा जा सकता है। हो सकता है कि 2014 की परिस्थितियां ऐसी ही बन जाएं। सभी इसी फेर में हैं। सबका अपना-अपना अंकगणित है। सबके अपने-अपने आंकलन हैं। पर 2014 के चुनाव में सबसे बड़ा खिलाड़ी वही बनेगा जो गणित में पक्का होगा। अब तक नीतीश और मोदी, दोनों इस गणित में माहिर साबित हुए हैं। लेकिन, दोनों की असली परीक्षा अगले आम चुनाव में होगी।

..............................................................बद्रीनाथ वर्मा

सोमवार, 13 अगस्त 2012

नंदीग्राम के रावण

नंदीग्राम के रावण (राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित)

लखन सेठ। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक गलियारे में एक जाना पहचाना नाम। दबंग माकपा नेता। काफी हद तक कुख्यात। खौफ का दूसरा नाम कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक समय इलाके में तूती बोलती थी, किन्तु नंदीग्राम में किसानों के आंदोलन को कुचलने के फेर में ऐसे पड़े कि जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गये। जिस मामले को लेकर लखन सेठ सलाखों के पीछे पहुंचे हैं वह पांच साल पूर्व का है। प्रदेश की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार द्वारा औद्योगीकरण के लिए नंदीग्राम में शुरू किये गये भूमि अधिग्रहण के खिलाफ  शुरू किसानों के आंदोलन को कुचलने में सेठ ने सारी मर्यादायें पार कर ली थीं। नंदीग्राम में प्रस्तावित केमिकल सेज के लिए अधिग्रहण की जाने वाली जमीन को लेकर भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के बैनर तले स्थानीय किसानों ने जोरदार आंदोलन चलाया था। आरोप है कि लखन सेठ के इशारे पर किसानों में दहशत फैलाने के लिए आंदोलन के क्रम में 10 नवंबर, 2007 को निकली एक रैली पर अंधाधुंध फायरिंग की गयी। इसी के साथ रैली में शामिल सात आंदोलनकारियों का अपहरण कर लिया गया था। उन लोगों का आज तक पता नहीं चला। मामले में अब तक 18 गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। लापता ग्रामीणों में नारायण दास, सुबल मांझी, आदित्य बेरा, भागीरथ माईती, सत्येन गोल, बाबू दास व बलराम सिंह का नाम शामिल है। उस भयावह दिन को भले पांच साल बीत गये हों किन्तु नंदीग्राम के घाव अब तक हरे हैं।  
 यह कार्रवाई तमलुक के तत्कालीन सांसद लखन सेठ के इशारे पर हुई थी। उन सात लोगों का आज तक पता नहीं चला। उन्हें जमीन निगल गयी या आसमान खा गया, इसकी सटीक जानकारी किसी के भी पास नहीं है। इसकी सही जानकारी अगर किसी के पास है तो वह हैं लखन सेठ व उनके साथी। सूत्रों के अनुसार सीआईडी के सामने पूर्व सांसद ने इस घटना से पर्दा हटा दिया है। पूछताछ में उनसे सीआईडी अधिकारियों को कई सनसनीखेज जानकारियां मिली। सीआईडी की ओर से इस बात की पुष्टि भी की गयी है कि सेठ ने नंदीग्राम प्रकरण पर अपनी समस्त भूमिका स्वीकार कर ली है। यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि नंदीग्राम में घटी उक्त घटना और उसके बाद एक के बाद एक घटी घटनाएं माकपा सरकार के अवसान का कारण बन गयीं। राज्य में लगातार 34 वर्षों तक एकछत्र शासन करने वाली माकपा की इज्जत विधानसभा चुनाव में तार तार हो गयी। उसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के हाथों मुंह की खानी पड़ी।
बहरहाल नंदीग्राम में वर्ष 2007 में हुई हिंसा के मामले में सीपीएम के पूर्व सांसद लखन सेठ और उनके दो सहयोगी हल्दिया के एडिशनल चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत के आदेश पर जेल में हैं। सूत्रों के अनुसार जांच के क्रम में आरोपियों की निशानदेही पर सीआईडी के अधिकारियों ने खेजुरी स्थित जननी ईंट-भ_े का मुआयना किया जहां आंदोलन के दौरान सीपीएम कार्यकर्ताओं ने कथित रूप से भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद एकत्र कर रखे थे।
कंकाल कांड में फंसे माकपा के धाकड़ नेता सुशांत घोष के बाद लखन सेठ के कानून के लपेटे में आ जाने से माकपा के हाथ पांव फूले हुए हैं। माकपा के इस बहुचर्चित पूर्व सांसद को अपराध जांच विभाग (सीआईडी) ने पिछले दिनों उनके दो अन्य साथियों अशोक गुडिय़ा और अमिय साहू के साथ मुंबई के एक गेस्ट हाउस से गिरफ्तार किया था। साहू पांशकुड़ा के पूर्व विधायक हैं तथा गुडिय़ा पार्टी की पूर्व मेदिनीपुर जिला सचिव मंडली समिति के सदस्य हैं। उनकी गिरफ्तारी नंदीग्राम कांड के मुख्य षड्यंत्रकारी के आरोप में की गयी। लखन सेठ तमलुक संसदीय क्षेत्र से पूर्व सांसद हैं। नंदीग्राम इसी संसदीय क्षेत्र का एक हिस्सा है। नंदीग्राम कांड में उनका नाम आने के बाद से ही वे फरार चल रहे थे। सेठ का प्रताप हल्दिया के बच्चे -बच्चे की जुबान पर है। इलाके में उनकी तूती बोलती थी। वाममोर्चा के शासनकाल में वे वहां के बेताज बादशाह माने जाते थे। दबदबा इतना था कि उनकी इच्छा के विरुद्ध वहां एक पत्ता भी नहीं हिलता था, किन्तु पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद से उनका आभामंडल ध्वस्त होता चला गया। सीआईडी का दावा है कि लखन सेठ की गिरफ्तारी के साथ ही नंदीग्राम कांड का मुख्य मास्टर माइंड जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गया है।

आपरेशन सूर्योदय के पीछे का अंधेरा
सूत्रों के अनुसार किसानों के आंदोलन से घबराई माकपा की स्थानीय इकाई ने आंदोलन को तोडऩे के लिए आपरेशन सूर्योदय शुरू किया था।  इसी आपरेशन के तहत आंदोलनकारियों को निपटाने की योजना बनायी गयी। स्थानीय माकपा कार्यालय में लखन सेठ, अशोक गुडिय़ा व अमिय साहू के नेतृत्व में इसकी रूपरेखा तैयार की गयी। सीआईडी के एक अधिकारी के अनुसार 10 नवम्बर 2007 को भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी की शांति रैली पर माकपा के कथित हथियार बंद लोगों ने तीन तरफ से घेर कर गोलियां चलाई थीं। गोली से दो लोगों की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी थी। दो की रास्ते में मौत हो गयी थी। तीन को पास स्थित र्इंट भट्टा के पास ले जाकर मार दिया गया था। इसके बाद सभी लाशों को समुद्र में बहा दिया गया था। उक्त अधिकारी के अनुसार इस वारदात को अंजाम देने के लिए पश्चिम मिदनापुर और दक्षिण 24 परगना जिले से भी लोग बुलाये गये थे। उस गोलीकांड ने नंदीग्राम को देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सुर्खियों में ला दिया था। कहा जाता है कि समय सबसे बड़ा मरहम है लेकिन उस घटना के पांच साल बीतने के बावजूद इलाके के लोगों के घाव अभी भी नहीं भरे हैं। इलाके में ऊपर से देखने पर तो जीवन सामान्य नजर आता है लेकिन उस दिन की घटना का जिक्र करते ही लोगों की आंखें बहने लगती हैं।
 सब हेडिंग -नरसंहार के बाद भी जस का तस नंदीग्राम
नंदीग्राम यानी पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले का एक छोटा सा कस्बा। विश्व मानचित्र पर आये नंदीग्राम इलाके में इन पांच वर्षों में कुछ भी नहीं बदला है। यहां लगता है समय मानो ठहर-सा गया है। सड़कें वैसी ही टूटी-फूटी हैं। इलाके से शहर तक जाने के पर्याप्त साधन नहीं हैं। बीमारी की हालत में दूरदराज जिला मुख्यालय स्थित अस्पताल तक जाने के लिए अब भी रिक्शा वैन का ही सहारा है। इन पांच वर्षों के दौरान सीपीएम से लेकर तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने वादे तो थोक में किये, लेकिन उनको हकीकत में नहीं बदला। स्थानीय लोगों का आरोप है कि चुनाव के समय तमाम दलों के नेता वोट मांगने आते हैं। बड़े बड़े वादे भी करते हैं, किन्तु जीतने के बाद एक बार भी झांकने नहीं आते हैं। नंदीग्राम से सटे सोनाचूड़ा और आस-पास के गांवों में भी हालात ऐसे ही हैं। लखन सेठ की गिरफ्तारी पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तृणमूल कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष परश दत्त ने कहा कि माकपा की गुंडावाहिनी के कमांडर लखन सेठ जैसे लोगों की असली जगह जेल ही है। जिस निर्मम तरीके से उन्होंने निर्दोष ग्रामीणों का कत्लेआम कराया है उसकी सजा तो उन्हें भुगतनी ही पड़ेगी।

प्रसंगवश यहां यह उल्लेख समीचीन होगा कि नंदीग्राम प्रकरण पर एडीपीआर, पीबीकेएमएस आदि संगठनों की एक जांच टीम ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसमें उल्लेख किया गया था कि नंदीग्राम नरसंहार की पूरी तैयारी पहले से चल रही थी और सरकार में बैठे उच्चाधिकारियों के स्तर पर इसकी पूरी योजना बनायी गयी थी। इस लोमहर्षक घटना के कुछ छींटे तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पर भी पड़े थे। आरोप था कि उनकी भी इसमें मूक सहमति थी। ऐसा इस आधार पर कहा गया कि जब घटना घटित हुई थी उस समय गृह मंत्रालय स्वयं मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के ही अधीन था। रिपोर्ट के अनुसार जिस तरह की घटनाएं घटीं और उसके बाद जो हुआ उसको देखें तो सीपीएम और पुलिस की मिलीभगत साफ दिखती है। जांच टीम ने प्रत्यक्षदर्शियों व लापता लोगों के परिजनों से बातचीत के आधार पर घटना के बारे में विस्तार से  उल्लेख किया था कि किस तरह की कयामत टूट पड़ी थी नंदीग्राम पर। इन संगठनों ने कोलकाता उच्च न्यायालय में इस मामले में एक याचिका भी दाखिल की थी।        
सब हेडिंग- माकपा की बेचैनी
माकपा नेता इस सारे घटनाक्रम पर बयान देने से बचने की कोशिश करते नजर आते हैं। एक के बाद एक माकपा नेताओं के कानून के शिकंजे में फंसते जाने से पार्टी में बेचैनी बढ़ती जा रही है। रक्षात्मक मुद्रा में आई माकपा को समझ नहीं आ रहा है कि वह इस झंझावात से कैसे निकले।  पार्टी के सभी नेता सकते में हंै। माकपा हर बयान नाप तौल कर दे रही है। सूत्रों के अनुसार लखन सेठ मामले पर नेताओं को मीडिया में संभल कर बयान देने को कहा गया है। हालत यह है कि सुशांत घोष के पक्ष में डटकर खड़ी रही माकपा सेठ से दूरी बनाये रखने में ही अपनी भलाई समझ रही है। माकपा नेता रवीनदेव इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई करार देते हुए आरोप लगाते हैं कि सरकार विरोधियों को झूठे मामले में फंसा कर जेल भिजवा रही है। देव ने नंदीग्राम पर पुनर्दखल में पार्टी के पूर्व सांसद लखन सेठ की सक्रिय भूमिका संबंधी सीआईडी के दावे पर भी सवाल खड़ा किया। उन्होंने कहा कि जिस तरह से पूर्व मेदिनीपुर जिले के अतिरिक्त पुलिस सुपर नीलाद्री चक्रवर्ती का तबादला हुआ है, उससे साबित होता है कि सीआईडी निष्पक्ष होकर काम नहीं कर रही है। उल्लेखनीय है कि सेठ को फायदा पहुंचाने के आरोप में राज्य सरकार ने हाल ही में जिले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया था। रवीनदेव ने कहा कि यदि सेठ ने अपनी संलिप्तता कबूल भी कर ली है तो इसकी जानकारी सीआईडी को अदालत को देनी चाहिए न कि मीडिया को।
बहरहाल वाममोर्चा सरकार के दौरान सुशांत घोष व लखन सेठ जैसे नेताओं को माकपा का वरदहस्त हासिल था। दबदबा इतना था कि कोई चूं तक नहीं कर सकता था। लेकिन विगत लोकसभा चुनाव में पासा पलट गया था। सेठ को उन्हीं के गढ़ में तृणमूल कांग्रेस ने पटखनी दे दी थी। इस चुनाव में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था। बाहुबली लखन सेठ को तृणमूल के टिकट पर  कोंताल के विधायक शुभेन्दु अधिकारी ने शिकस्त दी थी। शुभेन्दु के पिता शिशिर अधिकारी भी तृणमूल सांसद व केन्द्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री हैं।
कंकाल कांड में फंसने के बाद महीनों जेल की सलाखों के पीछे गुजारने के बाद सुशांत घोष इन दिनों जमानत पर हैं। वे कंकाल कांड के मुख्य अभियुक्त हैं। अभी हाल ही में इस मामले की गूंज संसद में भी सुनाई दी थी। कहना गलत नहीं होगा कि अपनी व पार्टी की दुर्दशा के लिए सुशांत व लखन सेठ जैसे नेता स्वयं ही जिम्मेदार हैं। मजेदार बात यह है कि कंकाल कांड में सीआईडी के हत्थे चढ़े सुशांत घोष का माकपा ने जबरदस्त बचाव किया था । पार्टी पूरे दमखम के साथ उनके साथ डटी रही। यहां तक कि जिस दिन वे जमानत पर छूटे हीरो की तरह उनका स्वागत किया गया। यही नहीं, जेल से छूटने के बाद उन्हें पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी। इसके विपरीत कभी माकपा के धाकड़ नेता रहे लखन सेठ से पार्टी किनारा करती नजर आ रही है। इसे लेकर माकपा के एक वर्ग में असंतोष भी दिख रहा है।
खैर, जो भी हो अब देखना यह है कि सेठ, गुडिय़ा और साहू को सीआईडी उनके अंजाम तक पहुंचा पाती है या नहीं।
बद्रीनाथ वर्मा


बीता कल : बाबा के साथ अन्ना, आज : अब नहीं, कलः पता नहीं


स्लग : तोड़-तिकड़म
(राष्ट्रीय साप्ताहिक पत्रिका इतवार में प्रकाशित)
बीता कल : बाबा के साथ अन्ना,
आज : अब नहीं, कलः पता नहीं 
इंट्रो : भ्रष्टाचार, कालाधन व जनलोकपाल पर बाबा रामदेव के साथ मिलकर साझा आंदोलन करने की घोषणा के मात्र दो दिनों बाद ही टीम सदस्यों के टांग अड़ा देने से अपनी ही बात से पलट गये हजारे
हाइलाइटर : साख का संकट झेल रहे बाबा रामदेव के साथ नहीं दिखना चाहती है टीम अन्ना
अन्ना हजारे और रामदेव ने बड़े धूम धड़ाके के साथ प्रेस कांफ्रेंस कर घोषणा की थी कि वे अब एक साथ मिलकर कालाधन व भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे। अभी इस बात को जुम्मा जुम्मा चार दिन ही हुए थे कि टीम अन्ना ने इसकी हवा निकालनी शुरू कर दी और परिणाम वही हुआ जिसका डर था। एक बार फिर जोड़ी बनते बनते रह गई। टीम अन्ना की ओर से साफ कर दिया गया कि  कालेधन, भ्रष्टाचार और जन लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना और बाबा रामदेव का साझा आंदोलन नहीं होगा। इस बयान के आने के साथ ही योगगुरु व अन्ना की मिलकर केंद्र सरकार की बखिया उधेडऩे की सोच परवान चढऩे से पहले ही दम तोड़ गई।
दरअसल कुछ दिनों पहले ही अन्ना व रामदेव ने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन कर एक साथ आंदोलन करने की कसमें खाई थीं। किन्तु दो दिन बीतते न बीतते टीम अन्ना के इसमें टांग अड़ा देने से मामला टांय टांय फिस्स हो गया। संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में दोनों ने एक मई से संयुक्त रूप से सिलसिलेवार आंदोलन चलाने पर सहमति जताई थी। इसके बाद तीन जून को दिल्ली के जंतर मंतर पर संयुक्त रूप से अनशन करने की घोषणा भी हुई थी।  यह भी बताया गया था कि एक मई से अन्ना हजारे महाराष्ट्र के शिरडी से आंदोलन की शुरुआत करेंगे और बाबा रामदेव छत्तीसगढ़ के दुर्ग से। इस पर टीम अन्ना ने बाबा की आलोचना करते हुए कहा था कि बाबा संयुक्त आंदोलन के नाम पर एकतरफा फैसले ले रहे हैं। इस मुद्दे को लेकर टीम अन्ना में गहरा मतभेद पैदा हो गया था। गुडग़ांव में हुए उक्त संवाददाता सम्मेलन पर नाखुशी जाहिर करते हुए टीम अन्ना की तरफ से कहा गया कि हजारे की जानकारी के बिना ही बाबा रामदेव ने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन का आयोजन कर डाला था। दरअसल रामदेव के साथ मिलकर साझा आंदोलन करने से टीम अन्ना इसलिए बिदक रही है कि योगगुरु साख का संकट झेल रहे हैं। इसके पीछे प्रमुख कारण बताया जा रहा है कि रामलीला मैदान में कालेधन के मुद्दे को लेकर शुरू किये गये आंदोलन के दौरान जिस तरीके से मंच से कूदकर वह भागे उससे उनकी साख को जबर्दश्त बट्टा लगा। उसकी भरपाई वे आज तक नहीं कर सके हैं। ऊपर से रही सही कसर उन पर लगे आरोपों ने पूरी कर दी। क्योंकि उनके सबसे विश्वसनीय सहयोगी बालकिशन पर लगे कई गंभीर आरोपों के छींटे भी योगगुरु के दामन को दागदार कर गये।
बहरहाल गुडग़ांव में बाबा रामदेव व अन्ना हजारे के संयुक्त रूप से आंदोलन किये जाने की घोषणा के दो दिनों बाद ही अन्ना ने इससे अपना हाथ पीछे खींच लिया। नोएडा में हुई टीम अन्ना की बैठक में यह तय किया गया कि बाबा रामदेव के आंदोलन को भले ही नैतिक समर्थन दिया जाये किन्तु उनके साथ मिलकर साझा आंदोलन कतई न हो।
सूत्रों के अनुसार बाबा रामदेव व अन्ना हजारे के मिलकर आंदोलन करने की घोषणा से टीम अन्ना खुद को असहज महसूस कर रही थी। जिस दिन गुडग़ांव में बाबा रामदेव और अन्ना ने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी मंशा उजागर की। उसी दिन से ही टीम अन्ना में इसके विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। उसकी तरफ से कहा गया कि बगैर हजारे की जानकारी के यह संयुक्त संवाददाता सम्मेलन बाबा रामदेव ने की। नोएडा में हुई टीम अन्ना की बैठक में लिए गये फैसले ने अप्रत्यक्ष रूप से इसी बात पर मुहर लगाई। बैठक में हुए फैसले के अनुसार कालेधन, भ्रष्टाचार और जन लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना और बाबा रामदेव संयुक्त रूप से आंदोलन नहीं करेंगे। हालांकि इसमें स्पष्ट किया गया कि साझा आंदोलन भले ही न हो किन्तु जहां जरूरत पड़ेगी वहां एक दूसरे का समर्थन किया जायेगा। सूत्रों के मुताबिक टीम अन्ना में साझा आंदोलन को लेकर गंभीर मतभेद सामने आने के बाद हुई कोर कमेटी की बैठक में ये मुद्दा जोर-शोर से उठा। कोर कमेटी की बैठक में योगगुरु बाबा रामदेव के साथ देशव्यापी साझा आंदोलन के मुद्दे पर टीम अन्ना की खुलकर चर्चा हुई। कुछ सदस्यों ने इस पर अपनी गहरी आपत्ति व्यक्त की। कालेधन के मुद्दे पर रामदेव के आंदोलन को नैतिक समर्थन देने पर तो सहमति बन गई, लेकिन उनके आंदोलन में शामिल होने पर मतभेद बरकरार रहा। अंत में तय हुआ कि रामदेव के आन्दोलन को केवल नैतिक समर्थन दिया जाएगा। हालांकि दोनों का मकसद एक ही है बावजूद इसके साझा आंदोलन की बात को सिरे से ही नकार दिया गया। हजारे की मौजूदगी में हुई इस बैठक में अन्ना के सभी प्रमुख सहयोगी मौजूद थे। मसलन अरविंद केजरीवाल, शांति भूषण, प्रशांत भूषण तथा किरण बेदी। बैठक के दौरान मौजूद सूत्रों के अनुसार अन्ना और रामदेव के साझा आंदोलन को लेकर कोर कमेटी के कुछ सदस्यों के बीच तीखी बहस भी हुई। अंत में तय हुआ कि साझा आंदोलन नहीं किया जायेगा। दोनों के आंदोलन अलग-अलग चलते रहेंगे। हालांकि जहां अन्ना को जरूरत पड़ेगी वहां पर बाबा रामदेव अन्ना के आंदोलन में शामिल होंगे और जहां पर बाबा रामदेव को जरूरत होगी वहां पर अन्ना उनके आंदोलन में हिस्सा लेंगे।
इससे साफ है कि भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर लड़ाई दोनों अलग-अलग बैनर तले ही लड़ेंगे। इस बीच टीम अन्ना में फूट भी साफ दिखाई दे रही है। यह फूट टीम अन्ना के मुस्लिम सदस्य  के निष्कासन को लेकर है। इससे टीम अन्ना में दिखती नई दरार के बीच अन्ना हजारे ने कहा कि सूचना के लीक होने और योग गुरु रामदेव को लेकर टीम में कोई दरार नहीं है। इसी के साथ अपने गांव रालेगण लौटने की तय तिथि से दो दिन पहले ही अन्ना  अपने गांव के लिए रवाना हो गए।
मुफ्ती शमीम काजमी के निष्कासन के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में हजारे ने कहा कि इस मुद्दे से फर्क नहीं पड़ता। काजमी को उत्तर प्रदेश के नोएडा में कोर समिति की बैठक को कथित तौर पर रिकॉर्ड करते पाया गया था जिसके बाद उन्हें टीम से निष्कासित कर दिया गया। काजमी ने दावा किया कि उन्होंने समूह के मुस्लिम विरोधी होने के कारण उसे छोड़ दिया। हजारे ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में रामदेव की भागीदारी को लेकर टीम में कोई मतभेद नहीं है। उन्होंने कहा कि फिलहाल, एक महीने से ज्यादा, मैं महाराष्ट्र की यात्रा करूंगा। उन्हें काले धन के खिलाफ अभियान में हमारा समर्थन है और जन लोकपाल के मुद्दे पर हमें उनका। हम सब भ्रष्टाचार से निपटने के लिए साथ लड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि पूरे देश की यात्रा के दौरान वह और बाबा रामदेव जहां जहां मिलेंगे, मंच साझा करेंगे। हालांकि उन्होंने मानी कि उन दोनों का संयुक्त दौरा नहीं होगा। गौरतलब है कि योगगुरु बाबा रामदेव के खुद को ही सबकुछ समझने के रुख पर टीम अन्ना में बढ़ते तनाव के बीच हजारे का यह बयान आया। योग गुरु के साथ जुडऩे को लेकर टीम अन्ना में पहले भी बहस होती रही है और एक धड़े का मानना है कि रामदेव के खिलाफ आरोप लगे होने के कारण उनके सामने विश्वसनीयता का संकट है। यही कारण है कि कोर कमेटी की बैठक में उनसे दूरी बनाये रखने पर सहमति बनी।  बैठक में यह साफतौर से फैसला किया गया कि रामदेव के साथ संयुक्त अभियान नहीं किया जाएगा, लेकिन दोनों पक्ष एक दूसरे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करेंगे।
दरअसल बाबा और अन्ना के मिलन ने कांग्रेस की भी नींद उड़ा दी थी। एक अकेले अन्ना ने ही उसके नाक में दम कर रखा था। ऊपर से बाबा रामदेव अपने आंदोलन की विफलता से पहले से ही कांग्रेस से खार खाये हुए हैं। दोनों की जोड़ी कांग्रेस की और अधिक फजीहत कर पाती उससे पहले ही दोनों अलग हो गये। इससे निश्चय ही केंद्र सरकार ने राहत की सांस ली। कहा जा रहा है कि बाबा रामदेव के सहयोगी पर लगे कदाचार के आरोपों ने टीम अन्ना को उनसे अलग होने का बहाना दे दिया। हजारे को समझाया गया कि बाबा का साथ लेने पर उनकी छवि को नुकसान पहुंचेगा। बस क्या था अपनी छवि को लेकर सतर्क हजारे योगगुरु से दूरी बनाने पर सहमत हो गये। और इस तरह इस अध्याय का पटाक्षेप हो गया। हालांकि जनलोकपाल, भ्रष्टाचार व कालेधन के मुद्दे पर संयुक्त रूप से आंदोलन करने की पहल खुद अन्ना हजारे ने ही बाबा के हरिद्वार स्थित पतंजलि योगपीठ में आकर की थी। उस वक्त हजारे ने कहा था कि जब दो धुर विरोधी राजनीति में एक साथ आ सकते हैं तो देश हित के लिये दो अच्छे लोग भ्रष्टाचार के खि़लाफ  एक साथ क्यों नहीं आ सकते। उनकी इस घोषणा से कयास लगाया गया था कि बाबा और हजारे दोनों ही साख के संकट से गुजर रहे हैं। इसलिए मिलकर आंदोलन की रणनीति बना रहे हैं। क्योंकि जिस तरह बाबा रामदेव बालकिशन पर लगे आरोपों से बचाव की मुद्रा में ही उसी तरह खुद अन्ना टीम के कई सदस्यों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लग चुके हैं। कभी विवाद अरविंद केजरीवाल पर हुआ तो कभी किरण बेदी पर। प्रशांत भूषण व शांतिभूषण भी भ्रष्टाचार के आरोपों की जद में रहे। ऐसे में कहा गया कि यही कारण है कि दोनों ने मिलकर आंदोलन को आगे बढ़ाने में एक दूसरे की सहायता करने की ठानी है। इस खबर से दोनों के ही समर्थकों में सकारात्मक संदेश गया था। लेकिन यह मृगमरीचिका ही साबित हुआ। क्योंकि टीम अन्ना को यह बात हजम नहीं हुई। उसे लगा कि बाबा रामदेव उनके आंदोलन की पूंजी को डकारना चाहते हैं। बताया जाता है कि बाबा और अन्ना के बीच हुई कई दौर की बैठक के बाद ही संयुक्त आंदोलन का निर्णय लिया गया था। खैर जो हो बाबा रामदेव स्वाभिमान यात्रा के जरिये भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ महीनों पहले से पूरे देश की यात्रा कर रहे हैं।
 यहां एक बात गौर करने वाली है कि साख का संकट सिर्फ रामदेव के सामने ही नहीं है। इसी तरह के संकट से खुद टीम अन्ना भी जूझ रही है। खुद उसके कई वरिष्ठ सहयोगियों पर भी गंभीर आरोप लग चुके हैं। इसका कुपरिणाम भी टीम अन्ना देख चुकी है। टीम अन्ना पर लगे आरोपों की वजह लोगों का इससे मोहभंग होता चला गया। क्योंकि कुछ ही महीने पहले जिस आंदोलन को करोड़ों देशवासियों का जबर्दश्त समर्थन मिला था गुजरते वक्त के साथ आन्दोलन की आग ठंडी पड़ती गयी। यही कारण है कि अन्ना और बाबा ने मिलकर आंदोलन चलाने की हामी भरी थी। अन्ना से पहले बाबा रामदेव ने भी रामलीला मैदान से अपनी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की शुरुआत की थी। हालांकि सरकार की शह पर दिल्ली पुलिस ने उस आंदोलन में शामिल लोगों पर रात के अंधेरे में जमकर लाठियां भांजी। मंच व शामियाने तोड़ दिये गये। वहां से बाबा रामदेव को महिलाओं के कपड़े पहरनकर भागना पड़ा था। इससे हुई बदनामी ने योगगुरु को धुर कांग्रेस विरोधी बना दिया। खैर इस घटना ने उनके साख को जबर्दश्त चोट पहुंचाई।
 बहरहाल बाबा व अन्ना के मिलन के समाचार से केंद्र सरकार सांसत में पड़ गयी थी। उसके हाथ पांव फूले हुए थे। भला हो टीम अन्ना का जिसने अपनी जिद की वजह से सरकार को राहत प्रदान की। एक सच्चाई यह भी है इसके पूर्व अन्ना हजारे और  बाबा रामदेव में एक खास तरह की दूरी बनी रही थी। लेकिन कहा जा रहा है कि लोकपाल को लेकर दूसरे चरण में मुंबई में शुरू हुए आंदोलन की असफलता ने उन्हें बाबा का साथ लेने पर बाध्य किया था। हालांकि यह सफल नहीं हो पाया। और इस तरह संयुक्त आंदोलन करने की अपनी घोषणा के मात्र दो दिनों बाद ही अन्ना अपनी टीम के दबाव में अपनी ही कही बातों से पलट गये।
बद्रीनाथ वर्मा