रविवार, 28 अक्तूबर 2012

स्त्री अस्मिता से खिलवाड़


स्त्री अस्मिता से  खिलवाड़


बलात्कार की बढ़ती घटनाओं पर जिस तरह देश में सतही बयानबाजी हो रही है वह तथाकथित रहनुमाओं के दिमागी दिवालियेपन को ही उजागर करती है। बलात्कार जैसे घृणित व संगीन अपराध पर ऊलजुलूल व संवेदनहीन बयान देकर आखिर क्या संदेश देने की कोशिश हो रही है। क्या ऐसे बेहूदे बयानों से अपरोक्ष रूप से बलात्कारियों को ही बढ़ावा नहीं मिल रहा?

लगता है देश में स्त्री अस्मिता से खिलवाड़ करना कुछ लोगों का शगल बन गया है। बलात्कार की बढ़ती घटनाओं पर सभी अपने अपने हिसाब से बयान देने में लगे हुए हैं। सबके अपने-अपने तर्क हैं। एक से बढ़कर एक अजीबोगरीब कारण बताये जाने का मानो सिलसिला ही चल पड़ा है। ऐसे-ऐसे तर्क या कह सकते हैं कुतर्क दिये जा रहे हैं, जिसे पढ़-सुनकर सिर पीट लेने को जी करता है। कोई बलात्कार के लिए फॉस्टफूड को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कोई इसे आजादी का परिणाम बता रहा है। लड़कियों की छोटी उम्र में ही शादी कर देने की हिमायत करने वाले तो घुमा फिराकर बलात्कार के लिए पीडि़ता को ही कसूरवार ठहरा रहे हैं। एक तरह से बलात्कारियों की पैरवी करते इन पैरोकारों के बयान खुद बलात्कार पीडि़ता को ही कठघरे में खड़े करने जैसा है। मानो बलात्कार के लिए बलात्कारी से ज्यादा खुद बलात्कार पीडि़ता ही जिम्मेदार है।
अभी तक अपने अजीबोगरीब फरमानों के लिए कुख्यात रही खाप पंचायतों के नक्शेकदम पर चलते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता मनर्जी ने भी इस मुद्दे पर एक विवादित बयान दिया है। बनर्जी ने कहा है कि आजादी के कारण ही बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं। उनके इस बयान ने तो मानों आग में घी ही डाल दिया। सोशल साइटों पर उनके बयान को लेकर उनकी खूब थुक्का फजीहत की गयी। किसी ने उन्हें खाप पंचायतों की खोई हुई बहन कहा तो किसी ने उन्हें खाप पंचायतों का ब्रांड एंबेस्डर करार दिया। दरअसल बलात्कार के मसले पर ममता ने कहा था कि महिलाओं और पुरु षों को एक-दूसरे से बात करने की खुली छूट मिली है। इस वजह से रेप की घटनाएं बढ़ी हैं। वे यहीं नहीं रुकीं बल्कि इसका सारा दोष मीडिया पर मढ़ते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि हर दिन रेप की घटनाओं को मीडिया में बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे कि पूरा प्रदेश बलात्कारियों से भरा है। इसे जनता के बीच बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। उन्होंने मीडिया को एक तरह से नसीहत देते हुए कहा कि इस तरह की पत्रकारिता से सिर्फ विनाश ही होता है। ममता ने कहा कि दुष्प्रचार और नकारात्मक समाचारों के जरिये उनकी सरकार को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे समाचारों से हमारे शासन-प्रशासन की गलत छवि पेश की जा रही है। इसी तरह कटवा में हुए सामूहिक बलात्कारकांड को भी उन्होंने माकपा व मीडिया की साजिश करार दिया था। उन्होंने मीडिया पर अपनी सरकार की छवि खराब करने का आरोप लगाते हुए कहा था कि सनसनीखेज खबरें परोसने के लिए मीडिया इस तरह के कारनामों को अंजाम दे रहा है। इसी तरह अपने विभिन्न कारनामों से सुर्खियों में रहने वाली खाप पंचायत
ने हरियाणा में तेजी से बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं के लिए फॉस्ट फूड कल्चर को दोषी ठहराया है। इससे पहले खाप ने हरियाणा में तेजी से बढ़ते दुष्कर्म के मामलों को रोकने के लिए लड़कियों की शादी की उम्र कम करने की वकालत की थी।
 खाप नेता जितेंद्र छत्तर का मानना है कि दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के लिए चाउमिन, बर्गर पिज्जा और हॉट डॉग जैसे फॉस्ट फूड जिम्मेदार हैं। छत्तर ने विशेषज्ञों की तरह तर्क देते हुए कहा कि फॉस्ट फूड शरीर पर बुरा प्रभाव डालता है, क्योंकि जब लोग फास्ट फूड खाते हैं, तो गर्मी पैदा होती है जिससे शरीर में सेक्स हारमोन तेजी से बनने लगता है और खाने वाला बेकाबू हो जाता है। बकौल छत्तर, लोगों को फास्ट फूड खाने के बाद कुछ ठंडी चीजें खानी चाहिए। बलात्कार जैसी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए छत्तर ने भारतीय खाना और जीवन-शैली अपनाने की वकालत की है। उनके अनुसार सादा जीवन अपनाकर ही इस प्रकार की घटनाओं में कमी लायी जा सकती है।
गौरतलब है कि इससे पहले दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए खाप नेताओं द्वारा लड़कियों की शादी कम उम्र में करने की वकालत की गयी थी। दिलचस्प तथ्य यह है कि इस पर इनेलो अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटाला ने भी सहमति जतायी थी। चौटाला ने कहा कि बलात्कार की घटनाओं के बढ़ने का कारण लड़कियों को अधिक उम्र तक घर में बैठाना है, हमें चाहिए कि इस तरह के अपराध को कम करने के लिए बेटियों की शादी जल्द कर दी जाए। उनसे पहले खाप पंचायतों ने भी 15 साल की उम्र में लड़कियों की शादी करने की बात कही थी। बलात्कार सिर्फ किशोरियों से नहीं बल्कि शादीशुदा महिलाओं के साथ भी होते हैं। ऐसे में इन लोगों ने यह नहीं बताया कि शादीशुदा महिलाओं के साथ होने वाली इस तरह ही हरकतों का क्या निदान उन्होंने खोजा है। इन रहनुमाओं को कम से कम इतनी जानकारी तो होनी ही चाहिए कि  इस तरह के अपराध सिर्फ कुंवारी लड़कियों के साथ ही नहीं बल्कि विवाहित महिलाओं के साथ भी हो रहे हैं। वैसे हरियाणा में बढ़ती इन घटनाओं का कारण कहीं ना कहीं असंतुलित लिंग अनुपात भी है। प्रदेश में लड़कियों की कम संख्या भी इस तरह की घटनाओं की एक बड़ी वजह है। गौरतलब है कि स्त्री-पुरुष अनुपात हरियाणा में सबसे कम है। प्रति एक हजार लड़कों पर यहां लड़कियों की संख्या मात्र 744 ही है। बहरहाल, जब बलात्कार से बचने के एक से एक नायाब तरीके बताये जा रहे हों तो फिर भला कांग्रेस क्यों पीछे रहती। लगे हाथों हरियाणा कांग्रेस के प्रवक्ता धर्मवीर गोयल ने बलात्कार जैसे शब्द को ही नकार दिया। उन्होंने अपने अजीबोगरीब बयान में कहा था कि 90 फीसदी मामलों में बलात्कार नहीं, बल्कि लड़कियां सहमति से संबंध बनाती हैं।

ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री पश्चिम बंगाल : लड़के-लड़कियों को माता-पिता द्वारा दी गयी आजादी से ही बलात्कार जैसी घटनाएं हो रही हैं।

ओमप्रकाश चौटाला, पूर्व मु्ख्यमंत्री हरियाणा : बलात्कार जैसी घटनाओं से बचने के लिए कम उम्र में ही लड़कियों की शादी कर देनी चाहिए।

धर्मवीर गोयल, प्रवक्ता, हरियाणा प्रदेश कांग्रेस पार्टी : नब्बे फीसदी मामलों में बलात्कार नहीं, बल्कि लड़कियां सहमति से संबंध बनाती हैं।

जीतेन्द्र छत्तर, खाप नेता : चाउमिन, बर्गर पिज्जा और हॉट डॉग जैसे फॉस्ट फूड खाने से गर्मी पैदा होती है जिससे शरीर में सेक्स हारमोन तेजी से बनने लगता है और खाने वाला बेकाबू होकर बलात्कार कर बैठता है ।

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

भारी भतीजे


Add caption


इंट्रो : सियासत में रिश्तों का बनना बिगड़ना कोई नयी बात नहीं है लेकिन बात जब सत्ता में हिस्सेदारी की आती है तो खून के रिश्तों में भी दरार पड़ते देर नहीं लगती। इतिहास गवाह है कि जिनकी उंगली पकड़कर सियासतदानों ने अपनी पहचान बनायी वक्त आने पर उन्हीं आकाओं को आईना दिखाने से गुरेज नहीं किया। ताजा मामला अजित पवार का है। वैसे फेहरिश्त लंबी है। राज ठाकरे भी इसके उम्दा उदाहरण हैं कि भारतीय राजनीति में अक्सर भतीजे भारी पड़ते रहे हैं। इसी को रेखांकित करती ह्यलोकस्वामीह्ण की कवर स्टोरी। 
सिंचाई घोटाले में नाम आने पर महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार से काका शरद पवार ने इस्तीफा ले तो लिया किंतु इस दौरान उन्हें नाकों चने भी चबाने पड़ गये। उपमुख्यमंत्री पद से अजित के इस्तीफा देने के साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस में मानो हड़कंप ही मच गया। तमाम मंत्रियों-विधायकों ने भी इस्तीफे देने की घोषणा कर दी। इससे मराठा छत्रप शरद पवार के हाथ-पांव फूल गये। बड़ी मुश्किल से उन्होंने भतीजे को मनाया तब जाकर मामला कुछ शांत हुआ। खैर, जो भी हो पर इस घटना क्रम ने यह साफ साबित कर दिया कि महाराष्ट्र की राजनीति में भतीजे अजित पवार का कद अपने काका शरद पवार से भी काफी ऊंचा हो गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अजित पवार इस्तीफे के जरिए शरद पवार को साधना चाहते हैं? या इस बहाने मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्वाण से सौदेबाजी करना चाहते हैं। दरअसल, अजित एक तीर से दो निशाने साध रहे हंै। पहला यह कि शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को जिस तरह यशवंतराव चव्हाण संस्थान का सर्वेसर्वा बनाया उससे कयास लगाये जाने लगे कि शरद पवार की सियासी विरासत की असली वारिस सुप्रिया ही हैं। ऐसे में अजित का यह शक्ति प्रदर्शन मराठा छत्रप को संदेश है कि उन्हें हल्के में लेना खतरे से खाली नहीं होगा। दरअसल, सिंचाई घोटाले में अपनी गर्दन फंसती देखकर अपने साथ 19 मंत्रियों का त्यागपत्र दिलाकर जहां उन्होंने महाराष्ट्र में खुद को एनसीपी का सबसे बड़ा नेता साबित करने में कामयाब रहे वहीं कांग्रेस को भी चेता दिया कि अगला कदम सरकार के लिए जोखिम भरा हो सकता है। यही कारण है कि अजित पवार के इस्तीफे  में बगावती तेवरों की गंध आ रही है। साफ लफ्जों में कहंे तो महाराष्ट्र सत्ता का यह संघर्ष चाचा-भतीजे के आपसी संघर्ष का नतीजा है। वैसे राजनीति में सत्ता के लिए चाचा-भतीजे के बीच आपसी संघर्ष कोई नयी बात नहीं है।
शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति में जिस तरह का सियासी दांव पेंच खेलते रहे हैं, कुछ उसी तरह की चाल उनके भतीजे अजित पवार भी चल रहे हैं। चाचा शरद पवार की बनायी शुगर को-ऑपरेटिव लॉबी और जिला सहकारी बैंक से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले अजित पवार पूरी तरह अपने चाचा शरद पवार के नक्शे कदम पर चलते दिख रहे हैं। शरद पवार ने 1978 में इंदिरा गांधी की ताकत को चुनौती देते हुए महाराष्ट्र कांग्रेस में दो फाड़ कर प्रोग्रेसिव डेमोक्र ेटिक फ्रंट नाम से अपना एक अलग दल बना लिया, और बाद में विपक्ष से मिलकर मुख्यमंत्री बन बैठे। कहीं ऐसा तो नहीं कि अजित पवार भी कुछ इसी तर्ज पर महाराष्ट्र की राजनीति को डगमगाकर एनसीपी की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ साबित करना चाहते है। 
 अजित न सिर्फ राज्य के उप मुख्यमंत्री थे बल्कि वे राज्य विधानसभा में राकांपा विधायक दल के नेता भी हैं। यह वही अजित पवार हंै जिन्होंने अपने काका की खातिर एक बार बारामती लोकसभा सीट खाली कर दी थी। बहरहाल, उप मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद सहयोगी पार्टी कांग्रेस पर परोक्ष रूप से हमला करते हुए राकांपा नेता अजित पवार ने कहा कि उनके खिलाफ उठाये गये अनियमतिता के मामलों का उद्देश्य कोयला ब्लॉक घोटाले से लोगों का ध्यान भटकाना था। पवार ने कहा कि कोयला से हमारे चेहरे को काला करने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि उन्होंने कांग्रेस का नाम नहीं लिया लेकिन तथ्यों से साफ था कि उनका गुस्सा अपने गठबंधन की सहयोगी पार्टी पर ही था। पवार अहमदनगर जिले के अकोले में एक सभा में बोल रहे थे। इस्तीफा के बाद यह उनकी पहली सार्वजनिक सभा थी। उन्होंने कहा कि उनकी छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र चल रहा है।
वैसे देखा जाए तो काका-भतीजों के संबंधों में उतार-चढ़ाव चलते ही रहे हंै। मजे की बात यह है कि  भारतीय राजनीति में ये भतीजे अक्सर भारी पडे़ हैं। इसके कई उदाहरण हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके किस्से आज भी राजनीतिक गलियारों में चटखारे लेकर सुने जाते हैं। बाल ठाकरे और राज ठाकरे के बीच के संबंध सभी जानते हैं। बाल ठाकरे ने जैसे ही अपने बेटे उद्धव ठाकरे को महत्व देना शुरू किया, वैसे ही काका के सामने राज ने मोर्चा खोल दिया। इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह भी राज ठाकरे के पदचिन्हों पर चलते हुए अपनी अलग पार्टी बना ली। उनकी पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार भी उतारे। हालांकि कोई सफलता नहीं मिली। उधर तमिलनाडु में करु णानिधि के भतीजे मुरासोली मारन के बेटे दयानिधि मारन को टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में इस्तीफा देना पड़ा था। इसी क्रम में स्व. राजीव गांधी के भतीजे वरु ण गांधी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ मजबूती के साथ खड़ी भाजपा के टिकट पर पीलीभीत लोकसभा सीट पर जीत दर्ज कर सांसद हैं। भाजपा की तेज तर्रार नेत्री और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमाभारती के भतीजे सिद्धार्थ सिंह (लोधी) भी अपनी बुआ की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं। जब बात भतीजों की हो रही है तो उत्तर प्रदेश भी इस मामले में पीछे नहीं है। अगर भतीजों की शृंखला में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के भतीजे धर्मेंद्र यादव का जिक्र न हो तो यह उनके साथ घोर नाइंसाफी होगी। नेताजी के इस भतीजे का जलवा सरकार व पार्टी में देखने लायक है। मजाल क्या कि कोई इनकी अनदेखी कर सके। नेताजी के लिए भतीजे धर्मेंद्र कितनी अहमियत रखते हैं। यह इसी से जाना जा सकता है कि धर्मेंद्र को संसद में भेजने के लिए नेताजी ने अपने एक ऐसे साथी की बलि ले ली जो लगातार बदायूं से पांच बार जीत दर्ज कर चुके थे। ये साथी थे समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता सलीम शेरवानी। समाजवादी पार्टी को खड़ा करने में शेरवानी का जो योगदान था उसे भी भतीजे के प्रेम में नेताजी ने भुला दिया था। इससे नाराज शेरवानी ने सदा सदा के लिए सपा को अलविदा कह दिया। हालांकि उन्हें सपा ने राज्यसभा में जाने का प्रस्ताव दिया किंतु अपनी जिद्द पर अटल शेरवानी ने इसे नामंजूर कर दिया।   
शेरवानी को कांग्रेस ने हाथोंहाथ लपक लिया नतीजा हुआ कि बंदायूं के आसपास की चार पांच सीटों पर समाजवादी पार्टी को जबरदश्त नुकसान उठाना पड़ा था। हालांकि मुलायम सिंह के साथ ही खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आज भी चाहते हैं कि शेरवानी सारे गिले शिकवे भूल कर पार्टी में वापस आ जायें पर अपनी सीट काटे जाने से नाराज शेरवानी किसी भी कीमत पर पार्टी में वापस नहीं लौटना चाहते।
राजनीति के बारे में हमेशा कहा जाता रहा है कि यहां रिश्ते नाते मायने नहीं रखते हैं। लेकिन चूंकि यहां चर्चा काका-भतीजे की चल रही है, तो भारतीय राजनीति में अक्सर भतीजे भारी पड़ते नजर आये हैं।
बहरहाल, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री पद से अजित पवार ने इस्तीफा देकर अपने काका शरद पवार की हालत पतली कर दी है। ऊपरी तौर पर भले ही शरद पवार यह कहते फिरे कि अजित ने इस्तीफा देकर बहुत हिम्मत का काम किया है, परंतु अजित ने जिस तरह पार्टी में अपने समर्थकों की फौज तैयार कर ली है उसने शरद पवार को हिला कर रख दिया है। दरअसल, अजित पवार के समर्थन में जिस ढंग से राकंापा के कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों ने सामूहिक इस्तीफा देने की बात कही, उसने शरद पवार को बेचैन कर दिया। जैसे-तैसे इन सभी को मनाया गया। पवार ने उन्हें अपनी राजनीतिक मजबूरी बतायी कि उनके पास अजित से  इस्तीफा देने को कहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उनके इस अनुनय विनय से यह भी झलकता है कि वे भतीजे के बढ़ते कद से डरे हुए हैं। एक समय था कि काका के हर कदम का समर्थन करने वाले अजित पवार ने लोकसभा सीट तक खाली कर दी थी। पर अब अजित की पहचान सिर्फ शरद पवार के भतीजे की नहीं रह गयी है। खुद राकांपा में उनके समर्थकों की संख्या शरद पवार से कहीं अधिक है।


चाचा शरद पवार की छत्रछाया में अजित पवार ने शुगर को-आपरेटिव मंडली से अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत की थी। इसके बाद वह पूना जिला को-आपरेटिव बैंक का चेयरमैन बन गये। बारामती लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर अजित वहां के सांसद भी रह चुके हैं। नरसिंह राव के प्रधानमंत्रीत्व काल में शरद पवार को राज्य से केंद्र में बुलाकर रक्षामंत्री बनाया गया था। ऐसे में पवार के लिए संसद सदस्य बनना  बेहद जरूरी था। तब अजित ने इस्तीफा देकर अपने काका के लिए सीट खाली की थी, जिससे शरद पवार बारामती सीट जीत कर संसद में पहुंचे। बारामती विधानसभा सीट पर अजित पवार ने चुनाव लड़ा और वे विधायक बन गये। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए वे महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये। इस बीच शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले ने राजनीति में प्रवेश किया। ऐसी परिस्थिति में मराठा छत्रप शरद पवार भतीजे की अपेक्षा अपनी बेटी का राजनीतिक कैरियर बनाने पर ज्यादा ध्यान देने लगे। यह बात भतीजे को खटक गयी। अजित का कैरियर सरपट दौड़ लगा रहा था परंतु तभी इस घोटाले ने जैसे ब्रेक लगा दिया। यहां एक बात विशेष रूप से गौर करने वाली है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अलावा महाराष्ट्र की राजनीति में अजित पवार का कद काफी ऊंचा है। वह अकेले ऐसे नेता हैं जिन्हें महाराष्ट्र में एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार से भी बड़ा नेता माना जाता है। अगर यह कहें कि महाराष्ट्र में एनसीपी की राजनीति अजित पवार  की बदौलत चलती है तो यह गलत नहीं होगा। जिस तरह से पहले बाल ठाकरे की पार्टी शिव सेना में राज ठाकरे का दबदबा था, वही दबदबा आज एनसीपी में अजित पवार का है।
बहरहाल जनवरी से अगस्त 2009 के बीच अजित पवार महाराष्ट्र के सिंचाई मंत्री थे। इस दौरान जून से अगस्त 2009 अर्थात मात्र तीन महीने के अंदर ही उन्होंने 20 हजार करोड़ रु पये वाले 32 प्रोजेक्टों को अंधाधुंध पास कर दिया। इस आपाधापी में जमकर जरूरी कानूनी प्रक्रि या का उल्लंघन किया गया।  इस योजना के तहत महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में एक हजार से भी अधिक सिंचाई परियोजनाओं का काम शुरू हुआ। इसमें से 930 योजनाओं का काम तो पूरा हो गया, लेकिन 340 परियोजनाओं पर काम अभी भी चल रहा है। इस मद में अब तक 39490 करोड़ रु पये खर्च हो चुके हैं। मूलरूप से घोटाला यह हुआ है कि जहां दो पाइप लाइनों की जरूरत थी वहां तीन-तीन पाइप लाइनों के जरिये नदियों पर अलग-अलग बांध बना दिये गये। मसलन अजित पवार ने कांक्ट्रेक्टरों को फायदा पहुंचाने के लिए 2006 से 2009 के दौरान 13,500  करोड़ रु पये के टेंडरों को आसमानी रेट पर पास कर दिया। इस गैरकानूनी तरीके के कारण अजित पवार को इस्तीफा देना पड़ा। महाराष्ट्र के इस कद्दावर नेता ने सिंचाई के सबसे बड़े घोटालों को जिस समय अंजाम दिया उसी समय महाराष्ट्र के विदर्भ में सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की।
भतीजे अजित पवार का यह कारनामा काका शरद पवार के लिए आगामी चुनाव में मुश्किलें खड़ी कर सकता है। भतीजे की हरकत काका के लिए टेंशन बन गयी है। काका-भतीजे के इस विवाद ने दुनिया में अब तक हुए कई काका-भतीजों की जंग की याद ताजा कर दी है। महाराष्ट्र का ही सबसे बड़ा मामला शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे और उनके भतीजे राज ठाकरे को लेकर है। एक समय था जब शिवसेना ही नहीं बल्कि आम लोगों का भी मानना था कि भतीजा राज ठाकरे ही बाल ठाकरे का उत्तराधिकारी है, लेकिन जैसे ही बाल ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव ठाकरे को आगे बढ़ाया वैसे ही राज ठाकरे ने काका से किनारा कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर लिया। राज की नवगठित पार्टी ने न सिर्फ बाल ठाकरे को बल्कि शिवसेना को भी जबरदस्त नुकसान पहुंचाया।
पंजाब में भी एक काका भतीजे का दंगल चल रहा है। प्रकाश सिंह बादल पंजाब के मुख्यमंत्री हैं और उनके बेटे सुखवीर सिंह बादल उपमुख्यमंत्री होने के साथ ही साथ शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष भी हैं। एक समय था जब मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल काका के बहुत करीबी हुआ करते थे। परंतु जैसे ही प्रकाश सिंह बादल ने अपने बेटे सुखबीर को आगे बढ़ाना शुरू किया भतीजे का मन खट्टा होने लगा। मनप्रीत को यह बात हजम नहीं हुई और उन्होंने शिरोमणि आकाली दल छोड़कर नयी पार्टी पीपीपी अर्थात पिपल्स पार्टी ऑफ पंजाब बना ली। इस तरह मनप्रीत ने काका के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। हालांकि सुखवीर सिंह ने मनप्रीत से शिरोमणी अकाली दल में वापस लौट आने की अपील की लेकिन अपनी उपेक्षा से आहत मनप्रीत किसी भी हालत में वापसी के लिए तैयार नहीं हुए।
तमिलनाडु में डीएमके पार्टी के सर्वेसर्वा करु णानिधि का सितारा फिलहाल गर्दिश में है। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने करु णानिधि को मुश्किल में डाल दिया है। करु णानिधि की बेटी कनीमोझी जेल का सफर कर आयीं। यह वह घोटाला है जिसके कारण ए राजा को मंत्री पद छोड़ना पड़ा तथा दयानिधि मारन को भी सत्ता गंवानी पड़ी। दयानिधि मारन करु णानिधि के भतीजे नहीं हैं लेकिन भतीजे के पुत्र जरूर हैं। करुणानिधि के भतीजे थे स्व. मुरासोली मारन जो वी.पी. सिंह, देवेगौड़ा, आई. के. गुजराल और वाजपेयी सरकार में केंद्रीयमंत्री रह चुके हैं। करु णानिधि के भतीजे के बेटे दयानिधि और कलानिधि हमेशा साथ रहे हैं। कलानिधि सन टी.वी. के 20 चैनल तथा 45 एफ.एम. रेडियो स्टेशन चलाते हैं। जाहिर है दयानिधि मारन की राजनीतिक सक्रि यता में ये टी.वी. चैनल तथा रेडियो स्टेशन काफी मददगार हैं। संबंध भले ही अच्छे रहे हों लेकिन दयानिधि मारन के कारण करु णानिधि को काफी जिल्लत झेलनी पड़ी है। यहां भी वही कहानी है करु णानिधि अपनी बेटी कनीमोझी को दयानिधि से ज्यादा महत्व दे रहे हैं, जो विवाद का कारण बनता जा रहा है। 

यदि बात गांधी परिवार की की जाये तो वरु ण गांधी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। भाजपा का यह तेज तर्रार नेता स्व. राजीव गांधी का भतीजा है। पिता संजय गांधी का जब विमान दुर्घटना में निधन हो गया था उस वक्त वरु ण मात्र तीन महीने के थे। संजय गांधी की मृत्यु के बाद गांधी परिवार में फूट पड़ गयी। परिणाम हुआ मेनका गांधी अपने बेटे वरु ण को लेकर अलग हो गयीं। जिस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या हुई,उस वक्त वरु ण गांधी मात्र चार साल के थे। जैसे-जैसे वरुण बड़े होते गये काका परिवार से दूरियां भी उतनी ही बढ़ती चली गयी। भाजपा के टिकट पर वरु ण ने पीलीभीत लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीता भी। बहरहाल वरु ण भाजपा में अपने तीखे तेवरों व उग्र भाषणों के लिए जाने जाते हैं।
भतीजों की चर्चा के बीच एक और भतीजे के बारे में यहां बताना समीचीन होगा। यह है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भतीजा आकाश बनर्जी।  पिछले दिनों अपने मित्रो के साथ कार में जा रहा था। खिदिरपुर क्रासिंग पर तैनात एक ट्रैफिक पुलिस का जवान ट्रैफिक नियमों को भंग करने पर कार रोककर जब पूछताछ करने लगा तो आकाश को यह बात नागवार गुजरी। चूंकि बुआ राज्य की मुख्यमंत्री बन चुकी थी सो सत्ता के नशे में उसने खुद को मुख्यमंत्री का भतीजा बताते हुए पुलिस वाले को  जोरदार तमाचा जड़ दिया। किसी तरह इस मामले की खबर मीडिया को लग गयी। बस क्या था खबर मीडिया में प्रसारित होते ही मामले ने तूल पकड़ लिया। अंत में खुद ममता बनर्जी को अपने इस भतीजे की गिरफ्तारी का आदेश देकर अपनी इज्जत बचानी पड़ी।
इसी तरह भाजपा की तेज-तर्रार नेत्री, मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और फिलहाल गंगा बचाओ अभियान की प्रभारी साध्वी उमा भारती के भतीजे सिद्धार्थ सिंह (लोधी) भले ही कोई बड़ा नाम नहीं हों लेकिन भतीजे होने का रौब तो वे गालिब करते ही रहे है। भाजपा छोड़कर उमा भारती ने जब भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया था तभी से भतीजे सिद्धार्थ का राजनैतिक हस्तक्षेप इतना बढ़ता चला गया कि कई बार खुद साध्वी भी मुश्किल में पड़ती नजर आयीं।

  अजित पवार : राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की राजनीति में अजित पवार का कद कितना बड़ा है,यह इसी से समझा जा सकता है कि सिंचाई घोटाले के आरोप में उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद उनकी पार्टी के तमाम विधायकों व मंत्रियों ने सामूहिक इस्तीफा देने का निर्णय कर लिया था। वह अकेले ऐसे नेता हैं जिन्हें महाराष्ट्र में एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार से भी बड़ा नेता माना जाता है। अगर यह कहें कि महाराष्ट्र में एनसीपी की राजनीति अजित पवार  की बदौलत चलती है तो यह गलत नहीं होगा। महाराष्ट्र के सिंचाई मंत्री रहते हुए उन्होंने जून से अगस्त 2009 अर्थात मात्र तीन महीने के अंदर ही 20 हजार करोड़ रु पये वाले 32 प्रोजेक्टों को अंधाधुंध पास कर दिया। इस आपाधापी में जमकर जरूरी कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ। सबसे दुखद तो यह है कि महाराष्ट्र के इस कद्दावर नेता ने सिंचाई के सबसे बड़े घोटालों को जिस समय अंजाम दिया उसी समय महाराष्ट्र के विदर्भ में सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की।

 राज ठाकरे : सामान्यतया बाल ठाकरे का स्वाभाविक उत्तराधिकारी भतीजे राज ठाकरे को माना जाता था, पर जैसे ही शिवसेना सुप्रीमो ने अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को तरजीह देनी शुरू की राज ठाकरे ने बगावती तेवर अपना लिए। शिवसेना से अलग होकर उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर लिया। चाचा बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों का विरोध कर अपनी राजनीति चमकायी थी, तो राज ठाकरे के निशाने पर उत्तर भारतीय हैं। आये दिन मनसे के कार्यकर्ता उत्तर भारतीयों पर कहर बरपाते रहते हैं। दरअसल, राज ठाकरे घृणा की इस राजनीति की बदौलत मराठी वोटों पर अपना दावा पेश करते हुए शिवसेना की जड़ों में मट्ठा डालने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।


आकाश बनर्जी : सत्ता का नशा जब सिर चढ़कर बोलता है, तो कोई किसी को नहीं गुनता फिर, भला पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं? कार चला रहे आकाश को ट्रैफिक नियम भंग करने पर ट्रैफिक पुलिस द्वारा रोका जाना नागवार गुजरा और उसने जड़ दिया ट्रैफिक कर्मी को तमाचा। चूंकि बुआ राज्य की मुख्यमंत्री बन चुकी थी सो बेचारा ट्रैफिक कर्मी मन मसोस कर रह गया, पर किसी तरह इस मामले की खबर मीडिया को लग गयी। बस क्या था मामले ने तूल पकड़ लिया। अंत में खुद ममता बनर्जी को अपने इस भतीजे की गिरफ्तारी का आदेश देकर अपनी इज्जत बचानी पड़ी।  


धर्मेंद्र यादव : भतीजों की शृंखला में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के भतीजे धर्मेंद्र यादव का जिक्र न हो, तो यह उनके साथ घोर नाइंसाफी होगी। नेताजी के इस भतीजे का जलवा सरकार व पार्टी में देखने लायक है। मजाल क्या कि कोई इनके सामने चूं कर सके। नेताजी के लिए भतीजे धर्मेंद्र कितनी अहमियत रखते हैं। यह इसी से जाना जा सकता है कि धर्मेंद्र को बदायूं लोकसभा सीट से संसद में भेजने के लिए नेताजी ने अपने एक ऐसे साथी की बलि ले ली जो लगातार यहां से पांच बार जीत दर्ज कर चुके थे। ये साथी थे समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता सलीम शेरवानी। समाजवादी पार्टी को खड़ा करने में शेरवानी का जो योगदान था उसे भी भतीजे के प्रेम में पड़े नेताजी ने भुला दिया था। इससे नाराज शेरवानी ने सदा सदा के लिए सपा को अलविदा कह दिया। 


वरुण गांधी : पीलीभीत लोकसभा सीट से चुने गये भाजपाई गांधी स्व. प्रधानमंत्री राजीव गांधी के भतीजे हैं। उग्र हिंदुत्व के हिमायती वरुण गांधी अपने तीखे तेवरों व भाषणों के लिए जाने जाते हैं। अपने इन्हीं तेवरों की वजह से वे युवाओं में खासा लोकप्रिय हैं। हालांकि एक समुदाय विशेष के खिलाफ दिये गये उनके उग्र भाषण ने उन्हें जेल तक पहुंचा दिया था। पिता संजय गांधी की प्लेन दुर्घटना में जिस वक्त मौत हुई थी उस समय वरुण महज तीन महीने के थे और दादी की हत्या के समय उनकी उम्र चार साल थी। बहरहाल, अपने चचेरे भाई राहुल गांधी की बनिस्बत संसद में भी उन्होंने कई मुद्दों पर खुलकर अपने विचार व्यक्त किये हैं।

मनप्रीत सिंह बादल : प्रकाश सिंह बादल पंजाब के मुख्यमंत्री हैं और उनके बेटे सुखवीर सिंह बादल उपमुख्यमंत्री होने के साथ ही साथ शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष भी हैं। एक समय था जब मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल अपने काका के बहुत करीबी हुआ करते थे, परंतु जैसे ही प्रकाश सिंह बादल ने अपने बेटे सुखबीर को आगे बढ़ाना शुरू किया भतीजे का मन खट्टा होने लगा। मनप्रीत को यह बात हजम नहीं हुई और उन्होंने शिरोमणि अकाली दल छोड़कर नयी पार्टी पीपीपी अर्थात पिपल्स पार्टी ऑफ पंजाब बना ली और काका के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। हालांकि सुखवीर सिंह ने मनप्रीत से शिरोमणि अकाली दल में वापस लौट आने की अपील की लेकिन अपनी उपेक्षा से आहत मनप्रीत किसी भी हालत में वापसी के लिए तैयार नहीं हुए। बहरहाल, गत विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपना उम्मीदवार भी उतारा पर कुछ खास कमाल नहीं कर पाये। बावजूद इसके कि कांग्रेस का भी उन्हें अपरोक्ष समर्थन हासिल था।

दयानिधि मारन : टू जी घोटाले में नाम आने के बाद तत्कालीन कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन को पिछले साल जुलाई में मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। उन पर आरोप था कि टेलिकॉम मंत्री रहते हुए उन्होंने एयरसेल के सी शिवशंकरन पर मलेशिया के मैक्सिम ग्रुप को कंपनी का हिस्सा बेचने के लिए दबाव बनाया। इसी के साथ मारन ने एयरसेल की कई सर्कलों का लाइसेंस देने का फैसला लटका रखा था।
दयानिधि मारन करु णानिधि के भतीजे नहीं हैं लेकिन भतीजे के पुत्र जरूर हैं। करुणानिधि के भतीजे थे स्व. मुरासोली मारन जो वी.पी. सिंह, देवेगौड़ा, आई. के. गुजराल और वाजपेयी सरकार में केंद्रीयमंत्री रह चुके हैं। उन्हीं मरासोली के बेटे दयानिधि और कलानिधि हैं। कलानिधि सन टी.वी. के 20 चैनल तथा 45 एफ.एम. रेडियो स्टेशन चलाते हैं। जाहिर है दयानिधि मारन की राजनीतिक सक्रि यता में ये टी.वी. चैनल तथा रेडियो स्टेशन काफी मददगार हैं। करु णानिधि का अपनी बेटी कनीमोझी को दयानिधि से ज्यादा महत्व दिया जाना पारिवारिक फूट का कारण बनता जा रहा है

 सिद्धार्थ सिंह (लोधी) : मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और फिलहाल गंगा बचाओ अभियान की प्रभारी साध्वी उमा भारती के भतीजे सिद्धार्थ सिंह (लोधी) भले ही कोई बड़ा नाम नहीं हों लेकिन भतीजे होने का रौब तो वे गालिब करते ही रहे हैं। वे उमा भारती के दूसरे भाई हर्बल सिंह के बेटे हैं। भारती के केंद्रीय खेलमंत्री रहते समय बनी एक संस्था को केंद्रीय अनुदान मिला। उस वक्त आरोप लगा कि सिद्धार्थ ने संस्था के करीब 45 लाख रुपये गलत ढंग से निकाल लिए। इस संबंध में एक व्यक्ति की गिरफ्तारी भी हुई हालांकि सिद्धार्थ के खिलाफ मामला दर्ज नहीं हुआ। इस मामले की गूंज मध्य प्रदेश विधानसभा में भी सुनायी दी थी। भाजपा छोड़कर उमा भारती ने जब भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया उस समय भतीजे सिद्धार्थ का राजनैतिक हस्तक्षेप इतना बढ़ता चला गया कि कई बार खुद साध्वी भी मुश्किल में पड़ती नजर आयीं। एक बार तो खुद उमा भारती के बड़े भाई स्वामी प्रसाद लोधी ने सिद्धार्थ पर आरोप लगाया था कि वह अपने पिता को टिकट देने के लिए उमा पर बेजा दबाव बढ़ा रहे हैं। 

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

गिव एंड टेक



राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार के 19 अगस्त अंक में प्रकाशित

हाजिर नाजिर

इंट्रो : चांद मोहम्मद उर्फ चंद्रमोहन और फिजा की दास्तान-ए-मोहब्बत का दुखद अंत, और एयरहोस्टेस गीतिका शर्मा की आत्महत्या ने एक बार फिर इतिहास के पन्नों में दफन नेताओं के प्रेम प्रसंगों और विवाहेतर संबंधों की परत दर परत उधेड़ कर रख दी है
 
एक बड़ा पुराना फिल्मी गीत है 'इस प्यार को क्या नाम दें। जी हां, कुछ इसी तरह के विभ्रम का शिकार मैं भी हूं कि आखिरकार फिजा और चांद की इस दुखद प्रेमकथा को क्या नाम दूं। यह प्रेम है। वासना है।  सेक्स, सियासत और रसूख का घालमेल है। या सीधा सीधा 'दो और लो या फिर 'यूज एंड थ्रो फार्मूला है। दरअसल, जल्द से जल्द आकाश की बुलंदियों को छू लेने की महत्वाकांक्षा ही मुख्य रूप से ऐसी प्रेमकथाओं को जन्म देती है। साफ शब्दों में कहा जाए तो गिव एंड टेक का फार्मूला अपनाया जाता है। स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने वाले पुरुषों को जहां उनका उपभोग करने की ललक होती है वहीं औरतों को सत्ता के साये में आसमान की ऊंचाइयां छू लेने की जल्दबाजी। बात जब हद पार करने लगती है तो अक्सर फिजा जैसी माशुकाओं को मरना पड़ता है।
हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चंद्रमोहन के इश्क में गिरफ्तार अनुराधा बाली का ऐसा अंत होगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। मोहाली स्थित अपने आवास पर उसका सड़ा गला शव मिला। हरियाणा की महाधिवक्ता रही अनुराधा बाली जन्म से ब्राह्मण थी। उसने व चंद्रमोहन ने मुस्लिम धर्म अपनाकर शादी कर ली। नया नाम था चांद मोहम्मद और फिजा। इस विवाह ने सियासी फिजा को इतना बदरंग कर दिया कि यह चौक चौराहे की बहस का पसंदीदा विषय बन गया। हालांकि बाद में पारिवारिक दबाव के चलते चांद मोहम्मद फिर चंद्रमोहन बन गए। और फिजा के मोबाइल पर उनका तलाक-तलाक-तलाक का एसएमएस पहुंच गया। चंद्रमोहन की इस बेवफाई से फिजा बुरी तरह टूट गई। विषादग्रस्त फिजा जमकर शराब पीने लगी। इसकी तस्दीक उसके शव के पास से बरामद गिलास व शराब की बोतल से भी होती है। खैर, उसकी मौत कैसे हुई यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा पर इतना तो तय है कि उसकी प्रेमकथा के पीछे कहीं न कहीं जल्द से जल्द आकाश की बुलंदियों को छू लेने की चाहत ही रही।
वैसे यह कहानी एक अकेले फिजा की नहीं है। ऐसी सैकड़ों सियासी फिजाएं हैं। यह फेहरिश्त इतनी लंबी है कि इस पर पूरी की पूरी किताब लिखी जा सकती है। हरियाणा के गृहमंत्री गोपाल कांडा और एयर होस्टेस गीतिका शर्मा, राजस्थान में भंवरी देवी और मदेरणा, उत्तर प्रदेश में मधुमिता शुक्ला और अमरमणि त्रिपाठी। इन सभी सियासी प्रेमकथाओं का अंत खूनी ही हुआ। राजनीति की ये सारी अपराधकथाओं ने अपने समय में पूरे देश को मथ दिया था। फिजा के बाद ताजा मामला गीतिका शर्मा का है। उसने अपने सुसाइड नोट में अपनी मौत का जिम्मेदार हरियाणा के गृहमंत्री गोपाल कांडा को ठहराया। उसने सुसाइड नोट में कांडा पर शारीरिक व मानसिक उत्पीडऩ का आरोप लगाया। बहरहाल, इस 23 वर्षीय एयरहोस्टेस की आत्महत्या में नाम आने के बाद कांडा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। खैर, फिजा और गीतिका से लेकर नैना शाहनी तक सैकड़ों नाम हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसे यूज एण्ड थ्रो नाम देना ठीक रहेगा? शायद हां, क्योंकि इसके लिए इससे बेहतर कोई संबोधन हो ही नहीं सकता। इसमें सिर्फ सियासतदानों को गुनहगार ठहराना जायज नहीं होगा। दरअसल, यह प्रेम नहीं बल्कि गिव एंड टेक के तहत महत्वाकांक्षाओं की ऊंची उड़ान थी। एक सौदा था। प्यार के नाम पर एक तरफ जहां सिर्फ और सिर्फ वासना थी वहीं दूसरी तरफ सत्ता से नजदीकी की चाहत।
्र्र राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा और नर्स भंवरी देवी का मामला भी सेक्स और महत्वाकांक्षा का घालमेल है। अब यह बात खुलकर सामने आ गई है कि लोकगायिका भंवरी देवी मदेरणा को ब्लैकमेल कर रही थी। जब पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा तो उसकी इहलीला समाप्त कर दी गई। गौरतलब है कि भंवरी की मदेरणा के साथ एक सीडी सार्वजनिक हो चुकी है जिसमें मदेरणा और भंवरी देवी की नजदीकियां साफ देखी जा सकती हैं। सीडी तैयार करने में भंवरी की भी भूमिका थी। सीडी आने के बाद से वह लापता हो गई। बाद में उसकी हत्या की पुष्टि भी हो गई।
 ऐसी ही मुहब्बत की एक और खूनी दास्तां युवा कवयित्री मधुमिता शुक्ला और उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी की भी है। इस प्रेमकथा की कीमत भी मधु को अपनी जान गवां कर चुकानी पड़ी थी। एक नेता से प्रेम करने का कर्ज चुकाना पड़ा। एक नवोदित कवयित्री और एक सियासतदां की यह प्रेम कहानी बदस्तूर चलती रहती बशर्ते मधुमिता, अमरमणि पर विवाह करने का जोर न डालती। नौ साल पहले अचानक मधुमिता की उसके लखनऊ स्थित पेपर मिल कालोनी के घर में हत्या कर दी गई। जांच पड़ताल के बाद अदालत ने मंत्री अमरमणि त्रिपाठी, उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उनके चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी और उनके सहयोगी संतोष राय को मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में दोषी पाया। अमरमणि मधुमिता की हत्या के जूर्म में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे हैं।
एक और सियासी प्रेम त्रिकोण की चर्चा किए बिना यह राजनीतिक अपराधकथा अधूरी ही होगी। दरअसल, हम बात राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन सैयद मोदी, उनकी पत्नी अमिता और कांग्रेसी नेता संजय सिंह की कर रहे हैं। जुलाई 1988 में लखनऊ के केडी बाबू स्टेडियम से अभ्यास के बाद बाहर आते समय उनकी हत्या कर दी गई। अंगुली संजय सिंह और मोदी की पत्नी अमिता की ओर उठी क्योंकि उन दोनों के प्रेम संबंध की खबरें काफी समय से सुनाई पड़ रही थीं। बाद में सीबीआई ने एक डायरी बरामद की जिसमें संजय और अनिता के प्रेम का खुलासा था। आज अमिता संजय सिंह की पत्नी के रूप में राज परिवार की बहू कहलाती हैं। इसके अतिरिक्त भी कुछ ऐसी प्रेमकथाएं हैं जो समय समय पर चर्चित रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो खुले आम यह स्वीकार कर चुके हैं कि वह अविवाहित जरूर हैं पर ब्रम्हचारी नहीं। अटलजी का एक पंजाबी महिला से संबंध था। कल्याण सिंह व कुसुम राय का प्रेम संबंध भी एक जमाने में खूब चर्चित हुआ था। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री रहते हुए कुसुम राय सुपर सीएम मानी जाती थीं। उनका जलवा ये था कि वह एक काली लालबत्ती वाली गाड़ी में चला करती थीं और उनके पीछे मुख्यमंत्री के कोबरा बल के वाहन हुआ करते थे। हालांकि आधिकारिक तौर पर कुसुम राय भाजपा की सिर्फ एक पार्षद थीं। असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत व संघमित्रा घराली का प्रेम संबंध भी खूब चर्चित हुआ।
 यहां एक बात विशेष रूप से उल्लेख करना जरूरी है कि कई राजनीतिज्ञों ने अपनी मुहब्बत को एक मुकाम दिया और जिससे प्यार किया उसके साथ जीवन भर के लिए जुड़ गए। पर अधिकतर ऐसेे हुए जिन्होंने अपने प्यार को सिवाय बदनामी के कुछ नहीं दिया। यह अलग बात है कि किसी की खबरें मीडिया की सुर्खिया बन जाती हैं और कोई ताउम्र दोहरा जीवन जी लेता है और किसी को पता भी नहीं चलता। इसके लिए यही कहा जा सकता है कि वासना के आवेग में लोग प्रेम का नाम देते हुए संबंध तो बना लेते हैं पर भांडा फूटने के डर से अक्सर ये प्रेम कहानियां खूनी दास्तां में तब्दील हो जाती हैं।
                                                                                           बद्रीनाथ वर्मा

क्या यह बसपा का गेमप्लान है


बद्रीनाथ वर्मा 9718389836

 हाजिर- नाजिर
राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- सपा के दिग्गज जानते हैं कि मूर्तियों के टूटने की आवाज बसपा को जिंदा कर सकती है। ऐसे में मूर्तिभंजन के पीछे खुद बसपा के हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता। 

हाईलाईटर- मूर्ति ध्वंसक अमित जानी के सूत्र सपा के साथ-साथ बसपा के भी कई नेताओं से बताए जा रहे हैं

मायावती की मूर्ति क्या टूटी बसपा को मानो संजीवनी ही मिल गई। विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार से हताश बसपा कार्यकर्ताओं में इस घटना ने नया ओज भर दिया। मुद्दाविहीन कार्यकर्ताओं को बहनजी की मूर्ति पर हुए प्रहार ने अपना दमखम दिखाने का एक अवसर प्रदान कर दिया। दूसरे शब्दों में उन्हें एकजुट होने का सुनहरा मौका दे दिया। ऐसे में राजनीतिक गलियारे में कुछ सवाल उठने लगे हैं। कहीं यह बसपा का ही  तो किया धरा नहीं है? इस तरह की आशंका व्यक्त करने वालों का तर्क है कि सपा को यह भलीभांति पता है कि मूर्तियों से छेड़छाड़ बसपा कार्यकर्ता बर्दाश्त नहीं करेंगे। ऐसे में भला सपा ऐसा क्यों करेगी कि आ बैल मुझे मार?
अगर कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि सपा की शह पर ही मूर्तियां तोड़ी गई हैं, तो सवाल उठता है कि राजनीतिक अखाड़े के मंझे हुए पहलवान मुलायम सिंह यादव क्या इतने नासमझ हैं कि उन्हें इसके नफे-नुकसान का अंदाजा नहीं था? तो क्या मायावती की मूर्ति का तोड़ा जाना खुद बसपा का ही गेमप्लान था? इस आशंका को सहज ही खारिज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि इस प्रकरण से अगर किसी को फायदा पहुंच रहा है, तो वह है बसपा। एक तो इससे बैकफुट पर चली गई बसपा को फ्रंटफुट पर आने का मौका मिल गया और इसी बहाने अखिलेश सरकार को चेतावनी भी दे दी गई। कहा जा रहा है कि मूर्ति तोड़े जाने के सूत्रधार अमित जानी का सपा नेताओं से गहरा ताल्लुकात रहा है। वह समाजवादी पार्टी का कार्यकर्ता भी रहा है। हालांकि सूत्र बताते हैं कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों से भी उसके अच्छे संबंध रहे हैं। इस लिहाज से इस कांड में बसपा की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता। सूत्रों का तो दावा है कि विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार से अभी भी बसपा कार्यकर्ता उबर नहीं पाए हैं। ऐसे में आनेवाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बसपा को मुद्दा बनाने के लिहाज से इस घटना को अंजाम दिलवाया गया है। इस आशंका को बल इस बात से भी मिलता है कि मूर्ति तोड़े जाने की घटना मोबाइल के जरिए चंद मिनटों में ही पूरे प्रदेश में फैल गई। फिर क्या था, हड़कंप मचना ही था। मचा भी। इसे दलित अस्मिता पर हमला मानते हुए अदना बसपा कार्यकर्ताओं से लेकर बड़े नेता तक उद्वेलित हो गए। जगह-जगह बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए। उन्हें काबू करने में अफसरों के पसीने छूट गए। हालांकि राज्य सरकार ने आननफानन में नई मूर्ति लगवाकर मामले को बिगडऩे से बचाने की भरपूर कोशिश की। किंतु इस बीच बसपा को जो फायदा मिलने वाला था वह तो मिल ही गया।  राज्य सरकार को झुका देने का गर्वबोध लिए बसपाई अब नए सिरे से उठ खड़े हुए हैं। लब्बोलुआब यह कि एक ही झटके में बसपा लाइमलाइट में आ गई।
मूर्ति तोड़े जाने को खुद बसपा का गेमप्लान बताने वालों का तर्क है कि सपा मुखिया नेताजी व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस बात का भली भांति एहसास है कि मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ का मतलब अचेत पड़ी बसपा को संजीवनी देना होगा। हालांकि दोनों पिता-पुत्र विधानसभा चुनाव के दौरान हाथी पार्कों में अस्पताल व स्कूल खोलने के  चुनावी गुब्बारे उड़ाते रहे थे। परंतु मुख्यमंत्री बनते ही अखिलेश यादव इस बात को भूल गए। जनता की तालियों की गडग़ड़ाहट में भले ही मुर्तियों पर बुलडोजर चलवाने की बड़ी-बड़ी डींगे हांकते रहे परंतु वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ कदापि नहीं रहे। उन्हें पता था कि मूर्तियों से छेड़छाड़ को दलित अस्मिता पर हमला करार देकर बहनजी इसका राजनीतिक फायदा बटोर ले जाएंगी। जबकि उल्टे सपा को इसका नुकसान ही होगा। ऐसे में भला सपा अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगी?
 खुद की मूर्ति स्थापित करने को लेकर मीडिया में भले ही मायावती की जितनी भी आलोचना हुई हो पर इसका उनके समर्थकों पर रंचमात्र भी असर नहीं पड़ा। उल्टे इसे मनुवादी मीडिया की भड़ास कहकर खारिज कर दिया गया। ऐसे में मूर्तियों से छेड़छाड़ करने से हाथ जल जाने का शत प्रतिशत खतरा था। फिर क्योंकर सपा की तरफ से ऐसी गुस्ताखी की जाती। इससे तो खामखां बैठे बिठाए बसपा को फायदा ही पहुंचने वाला था। जाहिर है यह सपा या उसके इशारे पर तो कम से कम नहीं ही किया गया है। फिर सवाल उठता है कि यह काम किसने और किस मंशा से किया? मूर्तिं टूटने से आखिर फायदा किसको मिला? जाहिर है बसपा को। तो भला मुलायम सिंह यादव या उनके रणनीतिकार बहनजी को फायदा पहुंचाने वाला काम क्यों करेंगे? यह ऐसा सवाल है जो राजनीतिक पंडितों को परेशान कर रहा है। घूम फिरकर बात बसपा पर पहुंच जाती है। स्थितियां भी बसपा की ओर ही इशारा कर रही हैं। दरअसल, बसपा का मूल वोट बैंक दलित जो बिदक रहा था, इस प्रकरण से वह एकबार फिर एकजुट हो गया है। सूत्रों की अगर मानें तो यह सारा कुछ खुद बहनजी व उनके कुछ विश्वस्त सहयोगियों की योजना का परिणाम है। इसे बसपा की कारस्तानी मानने वालों का एक तर्क और भी है। उनका कहना है कि मूर्ति तोडऩे की जिम्मेदारी लेने वाले उत्तर प्रदेश नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष अमित जानी व उसके सहयोगियों को प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मूर्ति तोडऩे के लिए उकसाया गया। हाथी पार्कों में अस्पताल या स्कूल खोले जाने के मुख्यमंत्री अखिलेश के वादे की याद दिलाने के लिए आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में जब अमित जानी ने कहा कि यदि सरकार ने पार्कों से मूर्तियां नहीं हटाईं तो नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता मूर्तियों को तोड़ देंगे। तब उन्हें उकसाने के मकसद से बार-बार कहा गया कि मूर्तियां तोड़ कर दिखाओ। वहां मौजूद पत्रकारों का कहना है कि ऐसा कई बार कहा गया। एक तरह से उन्हें ऐसा करने के लिए बार-बार प्रेरित किया गया। आखिरकार जोश में आकर उन्होंने घटना को अंजाम दे डाला। बाकायदा टीवी कैमरों के सामने हथौड़े से मायावती की मूर्ति के सिर व हाथों को तोड़ दिया गया। उसके बाद जो होना था, वह हुआ। मिनटों में मोबाइल व टीवी के जरिए यह खबर राज्य के हर छोटे-बड़े शहर-गांव तक पहुंच गई। फिर क्या था घटना की खबर लगते ही सुस्त पड़े बसपा कार्यकर्ताओं में नई जान आ गई। तुरंत सड़कों पर जाम लगा दिया गया। कई जगह तो उग्र कार्यकर्ताओं को तितर बितर करने के लिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। बहरहाल, बसपा कार्यकर्ताओं को शांत करने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तत्काल क्षतिग्रस्त मूर्ति को ठीक करने का आदेश दे दिया। मूर्तियां फिर से स्थापित भी कर दी गईं। खैर, जो भी हो मूर्ति टूटी, विरोध हुआ, फिर मूर्ति लग भी गई। पर, यहां सवाल उठता है कि  मायावती ने यह मूर्तियां इसीलिए तो नहीं लगवाईं कि मूर्तियों के रहने से तो फायदा मिले ही उनके टूटने से भी फायदा बसपा को ही मिले। मूर्तिमोह की इस राजनीति में उत्तर प्रदेश की जनता कब तक फंसी रहेगी देखना यह भी है।

दामन दागदार नहीं करेंगे दादा


स्लग- प्रसंगवश
राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो : भले ही प्रणव मुखर्जी यूपीए उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति चुने गए हैं। पर, उन्होंने इशारों ही इशारों में साफ जता दिया है कि कांग्रेस उनसे किसी अनैतिक फायदे की उम्मीद न पाले

हाईलाईटर- देश के शीर्ष राजनीतिक आसन पर विराजमान होने वाले प्रणव मुखर्जी 43 वर्षों की भारतीय राजनीति के गवाह हैं

'राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से ऊपर होता है। अवसर मिलने पर मैं इस पद की गरिमा और मूल्यों की हिफाजत करने का पूरा प्रयास करूंगा। ऐसा कोई भी काम नहीं करूंगा जिससे राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस लगे। मैं संविधान की शूचिता का पूरा ख्याल रखते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करूंगा।Ó देश के चौदहवें राष्ट्रपति चुने जाने के बाद दिया गया प्रणव मुखर्जी का यह बयान साफ इशारा करता है कि वह सिर्फ रबर स्टांप की तरह काम नहीं करेंगे। उनके इस बयान को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उनका बयान कांग्रेस को यह बतलाने के लिए है कि पार्टी उनसे किसी विशेष लाभ की उम्मीद न करे। वह गैर संविधान सम्मत कोई भी कार्य नहीं करेंगे। इसके पीछे वजह बताई जा रही है कि लगभग डेढ़ साल बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। जिस तरह से कांग्रेस के भीतर से राहुल गांधी को बड़ी भूमिका देने की बात उठ रही है। उससे साफ लग रहा है कि अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन सिंह के बजाय राहुल के नेतृत्व में लड़ेगी। चूंकि ताजा हालात को देखते हुए कांग्रेस की हालत पतली ही नजर आ रही है। ऐसे में रायसीना हिल्स की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। पर मुखर्जी ने भले ही इशारों में ही सही पर साफ जता दिया है कि वह दलीय आधार या कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाला कोई अनैतिक निर्णय नहीं लेने वाले। बहरहाल मुखर्जी का यह बयान राष्ट्रपति के पद की गरिमा के अनुरूप तो है ही। साथ ही उनके इस बयान ने उनके कद को और भी ऊंचा कर दिया है। गौरतलब है कि मुखर्जी देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर 13वें व्यक्ति और 14वें राष्ट्रपति होंगे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद दो बार इस पद के लिए चुने गए थे। यूपीए से बाहर के राजनीतिक दलों का भी समर्थन मिलने से संतुष्ट और खुश मुखर्जी ने कहा कि उनकी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। वह सभी के राष्ट्रपति होंगे। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा कि वह इस बात से खासतौर पर खुश हैं कि यूपीए से बाहर के भी जिन दलों ने उनका समर्थन करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, वे अपने वादे पर खरे उतरे। इसी के साथ उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही कि मैं सबका राष्ट्रपति रहूंगा। अपने समक्ष मौजूद चुनौतियों से भलीभांति वाकिफ मुखर्जी ने कहा कि राजनीतिक दलों के बीच मौजूदा द्वेष से वह चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है।
देशभर से मिले जबर्दस्त समर्थन के लिए सभी का आभार व्यक्त करते हुए नए नवेले राष्ट्रपति ने कहा कि मेरे पांच दशक के राजनीतिक जीवन में जितने लोगों ने मुझे सहयोग और समर्थन किया है उन सभी को मैं धन्यवाद देता हूं। उन्होंने यह बात जोर देकर कही कि राष्ट्रपति के रूप में संविधान का संरक्षण और उसे बचाना उनकी जिम्मेदारी होगी। वह संविधान की गरिमा का ख्याल रखेंगे व संविधान प्रदत्त अधिकारों का पूरी पारदर्शिता से निर्वहन करेंगे।
गौरतलब है कि राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले मुखर्जी की हार्दिक इच्छा प्रधानमंत्री बनने की रही है। गाहे बगाहे यह दर्द उनकी बातों में झलक भी जाता था। अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर दी थी। बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए। अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड़ रखने वाले 77 वर्षीय प्रणव दा सियासत की हर करवट को बखूबी समझते हैं। यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा यूपीए सरकार पर किसी भी तरह की मुसीबत आई तो वह सबसे आगे नजर आए। कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा सिर्फ और सिर्फ प्रणव मुखर्जी हैं। भले ही प्रणव दा के खिलाफ पी ए संगमा आदिवासी कार्ड के साथ मैदान में ताल ठोंक रहे थे, पर यह सिर्फ खानापूर्ति ही थी। मुखर्जी की जीत तो पहले से ही तय मानी जा रही थी। इसका आभास स्वयं उन्हें भी था। इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके मुखर्जी पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए। लगभग पैंतीस वर्षों तक वह राज्यसभा के लिए ही चुने जाते रहे। सियासी जिंदगी में पहली बार उन्होंने साल 2004 में लोकसभा का रुख किया। वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए। इसके बाद 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे। खैर, वह प्रधानमंत्री तो नहीं बन सके पर हां, देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद तक पहुंचने में जरूर कामयाब हो गए। मुखर्जी अगर देश के इस सर्वोच्च पद पर आसीन हुए हैं तो इसमें सिर्फ कांग्रेस की या यूपीए की ही भूमिका नहीं है बल्कि खुद मुखर्जी की सर्वस्वीकार्यता के फैक्टर ने भी काम किया है। यूपीए के संकटमोचक के तौर पर अपनी काबीलियत दिखा चुके मुखर्जी भारतीय राजनीति के ताने बाने को गहराई से समझने की कूव्वत रखते हैं। कांग्रेस व यूपीए के बाहर भी उनकी छवि एक अच्छे व सुलझे हुए राजनेता की रही है। यही कारण है कि दलीय सीमाओं से परे उनकी स्वीकार्यता ने ही विपक्षी गठबंधन राजग में विभेद पैदा कर दिए। यहां तक कि जदयू और शिवसेना जैसे दो विरोधी ध्रुव उनके समर्थन में खुलकर सामने आ गए। और तो और भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली जैसे प्रखर विरोधी भी उनकी तुलना क्रिकेट के योद्धा सर डॉन ब्रैडमैन से करने लगे। इससे यह विश्वास पैदा होता है कि देश का शीर्ष संवैधानिक पद वाकई सक्षम और सुधि हाथों में है।
उनका यह कहना काफी मायने रखता है कि देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले किसी भी व्यक्ति को आधुनिक भारत के संस्थापकों द्वारा स्थापित परंपराओं को बनाए रखना होगा। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉक्टर जाकिर हुसैन और इनके बाद राष्ट्रपति बने लोगों की ओर से स्थापित मानकों और परंपराओं के मुताबिक रहना उनका प्रयास रहेगा। मुखर्जी के इस बयान के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उन्होंने इस बहाने कांग्रेस व खासकर सोनिया को यह जता दिया है कि कांग्रेस उनसे किसी विशेष रियायत की उम्मीद न पाले। वह सिर्फ और सिर्फ संविधान के अनुरूप ही काम करेंगे। अब आगे देखना दिलचस्प होगा कि वाकई प्रणव दा अपनी अलग छवि गढ़ पाते हैं या उनकी यह कथन सिर्फ कर्णप्रिय बातें ही साबित होती हैं।

क्या सपा व बसपा के बीच साठगांठ है


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

स्लग- हाजिर-नाजिर

इंट्रो- अक्सर एक दूसरे को पानी पी पीकर कोसते रहते हैं बहनजी और नेताजी। पर जैसे ही सरकार बनती है। एक-दूसरे के घपलों घोटालों पर कार्रवाई करने से बचते हैं। आखिर क्यों? क्या दोनों के बीच कोई सांठगांठ है

हाईलाईटर-  बसपा सरकार के दौरान हुए घोटालों की जांच कराने से कतरा रही है सपा सरकार


राज्य में इन दिनों सपा-बसपा में साठगांठ को लेकर फुसफुसाहट तेज हो रही है। दावा किया जा रहा है कि दोनों दल जनता के सामने चाहे जितना गाल बजाएं, पर अंदरखाने एक-दूसरे के घपलों-घोटालों पर पर्दा डालने के लिए अंडरस्टैंडिंग बनी हुई है। आपस में गुत्थमगुत्था दिखने वाले दोनों सियासी दलों की वास्तव में यह नूराकुश्ती है। विधानसभा चुनाव के दौरान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मायावती को कोसने का एक भी मौका नहीं चूकते थे। अपनी हर चुनावी सभा में उनके भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए उनके जेल जाने की भविष्यवाणी करते फिरते थे। दावा था कि सत्ता में आने पर बसपा शासन के भ्रष्टाचार की जांच कराई जाएगी और भ्रष्टाचार की गंगोत्री मायावती को जेल भेजा जाएगा। इसी के साथ जगह-जगह बने पार्कों में अस्पताल और स्कूल खोले जाएंगे। नेताजी तो जिले के अफसरों की ओर उंगली उठाते हुए यहां तक कहते थे कि मायावती का साथ देने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लच्छेदार भाषणों ने अपना असर दिखाया, और मायावती शासन से त्रस्त जनता ने सपा को प्रचंड बहुमत के साथ यूपी की गद्दी सौंप दी। पर, सत्तासीन होते ही सपा चुनावी सभा में दिए गए लच्छेदार भाषणों को भूल गई। हालत यह है कि बसपा शासन के घपले घोटालों के तथ्य होने के बावजूद सपा सरकार मायावती के खिलाफ जांच कराने तक से कतरा रही है। आखिर क्यों? कहीं इस हृदयपरिवर्तन के पीछे आपसी मिलीभगत तो नहीं? क्या यह समझा जाय कि दोनों के बीच अंदरखाने कोई खिचड़ी पक रही है। यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि चुनावों में मायावती सरकार को पानी पी पीकर कोसने वाले समाजवादी पिता-पुत्र ने सभी मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है जो उन्हें बहनजी के खिलाफ कार्रवाई करने से रोकती है। क्या इसमें भी कांग्रेस का दबाव काम कर रहा है। या फिर आपसी रजामंदी से ही मामलों को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या वजह है कि चार महीने बाद भी एक भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकी अखिलेश सरकार। इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह ैहै कि राज्य सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले शिवपाल सिंह यादव ने पूरे तामझाम से आरटीआई के जरिए मायावती के सरकारी निवास पर खर्च हुए 86 करोड़ रुपये का ब्यौरा निकलवाया। विधानसभा में सवाल भी उठा। पर सब टांय-टांय फिस्स। अब जांच कराने से ही इंकार। क्या मायने हैं इसके। क्या इससे नहीं साबित होता कि सपा-बसपा के बीच जरूर कोई जुगलबंदी है। तथ्य भी इसी ओर इशारे कर रहे हैं। इसे समझने के लिए एक और मामले का जिक्र करना समीचीन होगा। मायावती सरकार के दौरान 21 चीनी मिलें बेची गईं। कैग की रिपोर्ट में 808 करोड़ रुपये के घपले का खुलासा हुआ। चुनाव के दौरान समाजवादी पिता-पुत्र ने मामले को जोर-शोर से उठाया। पर सरकार बनने के बाद खामोशी का लबादा ओढ़ लिया। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिससे आम आदमी को बसपा व सपा के बीच मिलीभगत की आशंका हो रही है।
ऐसा मानने वालों की दलील है कि मायावती और मुलायम सिंह अपने भाषणों या बयानों में चाहे जितनी एक दूसरे की बखिया उधेड़ते हों पर, दोनों ही एकदूसरे के घोटालों पर अपने कार्यकाल के दौरान पर्दा डालते रहे हैं। मायावती जब सत्ता में आती हैं तो सपा सरकार के दौरान हुए घपलों-घोटालों पर चुप्पी साध जाती हैं और जब सपा की बारी आती है तो वह बसपा शासनकाल के भ्रष्टाचार की फाइलों पर अजगर बन कर बैठ जाती है। इसके प्रमाण में मुलायम काल में हुए पुलिस भर्ती घोटाले समेत तमाम मुद्दों को गिनाते हैं जिन पर मायावती ने कुछ भी नहीं किया। वह पूरे पांच साल तक सपा शासनकाल के विवादित फैसलों पर कार्रवाई करने से बचती ही रहीं। वही हाल आज सपा सरकार का है। वह भी मायावती को मुश्किल में डालने वाले मामलों पर पालथी मार कर बैठ गई है। ऐसे में यदि दोनों के बीच किसी साठगांठ की आशंका व्यक्त की जा रही है तो, कहीं न कहीं लोगों को इसमें सच्चाई नजर आ रही है। दरअसल, उत्तर प्रदेश का राजनीतिक मिजाज भी तमिलनाडु की तरह ही हो गया है। मायावती और मुलायम दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि। मान लिया गया है कि हर पांच वर्ष बाद सत्ता का बंटवारा सपा व बसपा के बीच ही होना है। होता भी यही है। एक बार मायावती की सरकार बनती है तो दूसरी बार मुलायम सिंह की। राष्ट्रीय पार्टियां कही जाने वाली कांग्रेस व भाजपा का वजूद दिनोंदिन सिमटता जा रहा है। जनता एक की खीझ दूसरे को विजयी बनाकर उतारती है। बावजूद इसके कि मायावती की माया और मुलायम की माया में ज्यादा कुछ फर्क नहीं है। दोनों ही जातीय गोलबंदी के माहिर व मंझे हुए खिलाड़ी हैं। मायावी हैं। अपने तईं एक-दूसरे को बचाने की पुरजोर कोशिश की जाती है। बहरहाल, सत्ता शीर्ष की अदला बदली जनता इस भरोसे के साथ करती है कि अब उसकी तकदीर बदल जाएगी। हालांकि हर बार वह ठगी ही जाती है। दरअसल, तकदीर नहीं केवल तस्वीर बदलती है।
धूमिल ने उत्तर प्रदेश के बारे में लिखा था कि भाषा में भदेस हूं/ इतना कायर हूं कि/ उत्तर प्रदेश हूं। दुर्भाग्य से धू््मिल अब नहीं हैं। अगर आज होते तो नि:संदेह यही लिखते कि कभी मायावती, कभी अखिलेश हूं /सच तो यह है कि/ कभी नहीं सुधरूंगा/ उत्तर प्रदेश हूं।
बहरहाल जनता ने बड़ी उम्मीदों से युवा अखिलेश को राज्य की बागडोर सौंपी थी। पर चार महीने बीतते न बीतते वह मोहभंग के कगार पर पहुंच गई है। यूपी की जनता आजकल रामचरितमानस का एक दोहा मन ही मन दुहरा रही है- कोऊ नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ नहीं होउब रानी।







राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने के मामले पर अलग-थलग पड़ीं ममता दीदी के साथ प्रदेश कांग्रेस अपना रही उन्हीं का पैंतरा। विधानसभा में अपनी ही गठबंधन सरकार के फैसलों के  खिलाफ। सवाल है कि क्या इससे ममता दीदी पर लगाम लगा पाएगी प्रदेश कांग्रेस या केंद्र की शह पर हो रही दबाव की राजनीति

हाईलाईटर- बंगाल पर 205368.13 करोड़ का कर्ज है जिसके ब्याज के रूप में रिजर्व बैंक 25000 करोड़ रूपये काटता है



उल्टी पड़ी दीदी की छड़ी

एक बड़ी पुरानी कहावत है, 'जैसी करनी, वैसी भरनीÓ। इन दिनों यह कहावत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर बिल्कुल फिट बैठ रही है। कल तक जो धौंस वह केंद्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर जमाती रहती थीं, अब उसका सामना खुद उन्हें करना पड़ रहा है। प्रदेश कांग्रेस अब उन्हीं का तरीका उन्हीं पर पूरे दमखम से आजमा रही है। वह उनकी परवाह किए बिना नहले पर दहला दिए जा रही हैं। यही नहीं, प्रदेश कांग्रेस का एक गुट तो ममता बनर्जी के खुल्लमखुल्ला विरोध पर उतारू है। यह गुट बहरमपुर के रॉबिनहुड छवि वाले सांसद अधीररंजन चौधरी व गीता दासमुंशी का है। गीता दासमुंशी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे प्रियरंजन दासमुंशी की पत्नी हैं। प्रिय दा के नाम से ख्यात प्रियरंजन दास मुंशी पिछले कई वर्षों से कोमा में हैं। इस गुट को शंकर सिंह आदि जैसे प्रदेश के अन्य वरिष्ठ नेताओं का भी समर्थन हासिल है। पिछले दिनों अधीररंजन चौधरी ने तो साफ-साफ कह दिया था कि यदि ममता को यूपीए से इतनी ही परेशानी है तो क्यों वह यूपीए में बनी हुई हैं। क्यों नहीं वह यूपीए से बाहर चली आती हैं। दरअसल, राष्ट्रपति चुनाव को लेकर शुरू हुई खटास दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। प्रदेश कांग्रेस ममता के विरोध का एक भी मौका चूकना नहीं चाहती। हालत यह है कि राज्य का हित भी राजनीति पर भारी पडऩे लगा है। इसी का नमूना दिखा पिछले दिनों राज्य विधानसभा में। केंद्र से आर्थिक मदद व आगामी तीन वर्षों के लिए ऋण स्थगन की मांग के लिए एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजे जाने के लिए पेश प्रस्ताव को मुख्य विपक्षी दल के साथ ही कांग्रेस ने भी नकार दिया। जबकि कांग्रेस राज्य मंत्रिमंडल में शामिल है। कांग्रेस के इस कदम को उसकी राजनीतिक खुंदक के रूप में देखा जा रहा है। गौरतलब है कि प्रणव मुखर्जी के बदले राष्ट्रपति पद के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आजाद व पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का नाम प्रस्तावित कर अलग-थलग पड़ीं ममता बनर्जी को प्रदेश कांग्रेस भी आंख तरेरने लगी है। हालांकि यह प्रस्ताव उन्होंने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर रखा था। पर नेताजी ने उन्हें गच्चा दे दिया। वह खुद तो कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते हुए प्रणव मुखर्जी के पक्ष में आ डटे। पर ममता बनर्जी अकेली पड़ गईं। राज्य विधानसभा में पेश प्रस्ताव के लिए प्रणव मुखर्जी का समर्थन न करना ममता बनर्जी के लिए भारी पडऩे लगा है। जो काम पहले केंद्र सरकार के साथ दीदी करती थीं, वही अब प्रदेश कांग्रेस उनके साथ करने लगी है। राज्य सरकार में शामिल कांग्रेस अब उनको आंखें तरेरने लगी है। केंद्र से आर्थिक मदद व तीन वर्षों के लिए ऋण स्थगन की मांग पर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के दिल्ली जाने के प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पाई। इसमें सबसे पहला फच्चर फंसाया कांग्रेस ने।
सरकार में शामिल कांग्रेस के विधायकों ने नियम 169 के तहत संसदीय मंत्री पार्थ चटर्जी द्वारा पेश प्रस्ताव में संशोधन की मांग अस्वीकार किए जाने पर विधानसभा की कार्यवाही से वॉकआउट कर दिया। विपक्षी सदस्य भी सदन के नियम का उल्लंघन कर प्रस्ताव पेश करने व बिना पूर्व सूचना का आरोप लगाते हुए बाहर चले गए। ममता के साथ इस मुद्दे पर एसयूसीआइ का एकमात्र सदस्य ही है। कांग्रेस के साथ ही पूरे विपक्ष के वाकआउट कर जाने के बावजूद 5 जुलाई को विधानसभा में बिना विपक्ष व कांग्रेस की सहमति के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली भेजने का प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हो गया।

बाद में संसदीय मामलों के मंत्री पार्थ चटर्जी ने संवाददाताओं से कहा कि उन्होंने नियम 169 के तहत विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया था। प्रस्ताव में बताया गया था कि 20 फरवरी, 2012 तक बंगाल पर 205368.13 करोड़ रुपये का कर्ज है। प्रत्येक वर्ष रिजर्व बैंक इसके ब्याज पर 25,000 करोड़ रुपये काट लेता है। चटर्जी ने कहा कि केंद्र से बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड के तहत 2011-12 के दौरान दिए गए 8750 करोड़ की मदद फिर से मांगी जाएगी। इसके अलावा बंगाल को कोयले की रॉयल्टी राशि भी दिए जाने की मांग की गई है। विपक्ष पर तुच्छ राजनीति करने का आरोप लगाते हुए
पार्थ चटर्जी ने कहा कि विपक्ष नियमों का हवाला देकर जानबूझ कर प्रस्ताव में शामिल नहीं हुआ। उन्होंने कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को ही राज्य विरोधी करार दिया। उन्होंने कांग्रेस व विपक्ष से आह्वान किया कि वे क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर बंगाल के हित में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल हों, क्योंकि राज्य का हित सर्वोपरि है। उन्होंने विपक्ष के उस बयान को भी खारिज कर दिया कि धारा 355 या 356 लगाए जाने के बाद ही ऋण स्थगन की मांग की जा सकती है। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री के प्रस्ताव पर वह चाहते थे कि सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी छोड़ कर केंद्र पर राज्य को आर्थिक मदद देने का दबाव बनाएं। पर विपक्ष राज्य के किसानों की तरफ से हृदयहीन हो घटिया राजनीति कर रहा है।
दूसरी तरफ वाम मोर्चा ने भी सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया है। विपक्ष के नेता डॉ सूर्यकांत मिश्र ने इस मुद्दे पर पार्टी लाइन साफ करते हुए कहा कि वाम मोर्चा के विधायक सर्वदलीय प्रधिनिधिमंडल में शामिल नहीं होंगे। कांग्रेस के विधायक दल के नेता मोहम्मद सोहराब ने कहा कि उन्होंने प्रस्ताव के पैरा छ: में संशोधन करने का प्रस्ताव दिया था। संशोधन प्रस्ताव में कहा गया था कि आर्थिक मदद के मुद्दे पर केंद्र सरकार से बातचीत जारी है, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वे विधानसभा की कार्यवाही से वॉकआउट कर गए। उन्होंने कहा कि विधानसभा में जो प्रस्ताव पारित हुआ है, उसमें संशोधन के बिना वे सरकार के प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली नहीं जाएंगे। यदि उसमें संशोधन किया जाता है, तभी दिल्ली जाने पर विचार करेंगे।
फिलहाल विपक्ष के इस रवैये से दीदी मुसीबत में घीरी नजर आ रही हैं। प्रदेश में कांग्रेस का तृणमूल से इस प्रकार खुंदक निकाले जाने को लेकर चर्चा गर्म है और माना जा रहा है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो प्रदेश में यह गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएगा। दूसरी तरफ विपक्ष और प्रदेश कांग्रेस पर भी सवाल उठने लगे हैं कि क्या दीदी द्वारा जनता के पक्ष में किए जाने वाले कार्यों का भी विरोध वे यूं ही करते रहेंगे? प्रदेश कांग्रेस को इसके लिए केंद्र से निर्देश मिल रहे हैं या स्थानीय नेता स्वयं ऐसे निर्णय ले रहे हैं?

पहाड़ के नए नायक


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- पश्चिम बंगाल के सुदूर उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र दार्जिलिंग से अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले विमल गुरुंग बने जीटीए अध्यक्ष। पहाड़ी लोगों में जगी आस

हाईलाईटर- गुरुंग की पार्टी गोजमुमो ने जीटीए के चुनाव में सभी सीटों पर जीत दर्ज की

जिनकी एक हुंकार से पहाड़ जल उठता था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हुए समझौते के बाद पहाड़ पर खुशहाली लाने के वायदे के साथ संवैधानिक तौर पर जीटीए की बागडोर संभालने वाले विमल गुरुंग पहाड़ के नए नायक बन गए हैं। गोरखालैंड के अलग राज्य न बनने की दशा में खुद को गोली मार लेने का दावा करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग पर पहाड़ की जनता अपार विश्वास करती है। इसका नजारा उनके शपथ ग्रहण के दौरान दिखा। अपने इस नायक के नए अवतार के स्वागत के लिए पहाड़ की जनता पूरे जोश-खरोश के साथ उपस्थित थी। जीटीए प्रमुख का पदभार संभालने वाले गुरुंग भी अपनी नई भूमिका को लेकर खासे उत्साहित हैं।
गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन(जीटीए) के लिए पिछले महीने हुए चुनाव में सभी 45 सीटों पर गोजमुमो प्रत्याशियों की जीत हुई थी। बहरहाल, राज्यपाल एमके नारायणन ने विमल गुरुंग को जीटीए के मुख्य कार्यपालक पद की शपथ दिलाई। इस अवसर पर केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने विकास कार्यों के लिए अगले तीन वर्षों तक प्रत्येक वर्ष जीटीए को 200 करोड़ रुपये देने का वादा किया।  मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी दार्जिलिंग में एक यूनिवर्सिटी खोलने का एलान किया। उन्होंने रेलमंत्री मुकुल राय की मौजूदगी में कहा कि जल्द ही यहां एक यूनिवर्सिटी, दो पोलिटेक्नीक कॉलेज व तीन आइआइटी कॉलेज खोले जाएंगे।
नवगठित गोरखालैंड टेरिटोरिएल एडमिनिस्ट्रेशन के चीफ विमल गुरुंग ने वादा किया कि जीटीए के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य व पर्यटन उन लोगों की प्राथमिकता होगी। इसके पूर्व गोजमुमो के महासचिव व विधायक हरक बहादुर छेत्री ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने वृहत्तर उद्देश्य के लिए अपने सभी उम्मीदवारों का नाम वापस ले लिया था। इस चुनाव परिणाम से साबित हो गया है कि पहाड़ की जनता विमल गुरुंग को पसंद करती है। जीटीए का चेयरमैन प्रदीप उर्फ भूपेंद्र प्रधान को बनाया गया है। पांदाम समष्टि से निर्विरोध निर्वाचित होने वाले प्रदीप केंद्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। इसके अतिरिक्त लोपसांग यल्मो को वाइस चेयरमैन बनाया गया है। वह कालिंपोंग के रोंगो-तोदे-जलडका समष्टि से निर्वाचित हुए हैं। नवगठित जीटीए में पांच निर्वाचित सदस्य भी रखे गए हैं। इसमें गोजमुमो के विर्खू भूसाल व सावित्री राई के अलावा तृणमूल कांग्रेस के मिलन डुक्पा, सतीश थिंग व दुर्गा खरेल शामिल हैं। दूसरी तरफ गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का विरोध भी होने लगा है। बांग्ला व बांग्ला भाषा बचाओ कमेटी के अध्यक्ष डॉ. मुकुंद मजुमदार ने इसे बंगाल के विभाजन की ओर बढ़ाया गया कदम करार देते हुए कहा कि यह शपथ ग्रहण समारोह बंगाल के इतिहास में काले दिवस के रूप में याद किया जाएगा।
अरसे बाद दार्जिलिंग में लौटी शांति से लोगों ने राहत की सांस ली है। पहाड़ के साथ ही राज्य के मैदानी इलाकों में भी आंदोलन की राह छोड़ कर राजनीति की मुख्यधारा में लौटने को अच्छी पहल के रूप में देखा जा रहा है। बावजूद इसके कुछ लोग गुरुंग के बयानों को लेकर उनकी खिल्ली भी उड़ा रहे हैं। दबी जुबान से ही सही पर लोग उनके इस बयान की याद दिलाते हुए पूछ रहे हैं कि क्या हुआ गोरखालैंड के प्रति लोगों से किया गया उनका वादा। सुभाष घीसिंग की बखिया उधेड़ते हुए उन्होंने कहा था कि घीसिंग ने गोरखालैंड का सौदा कर लिया। इसी के साथ वह कहते फिरते थे कि यदि गोरखालैंड अलग राज्य नहीं बनवा सके तो खुद को गोली मार लेंगे। पर, ममता बनर्जी का जादू कुछ ऐसा चला कि गोरखालैंड की मांग भूलकर जीटीए पर उन्हें राजी होना पड़ा।
कुछ ऐसा ही बयान सुभाष घीषिंग ने भी दिया था। उन्होंने कहा था कि 'मेरी पहचान गोरखालैंड हैÓ। गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट बनाकर सुभाष घीसिंग ने भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा धमाका किया था। पहाड़ी इलाकों में निवास करने वाले गोरखाओं में गोरखालैंड के नाम पर घीसींग ने ऐसी आग भर दी कि लगता ही नहीं था कि यह आग कभी थमेगी। लगभग 1200 लोग अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले आंदोलन की भेंट चढ़ गए। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ हुए समझौते में घीसिंग माने। दार्जिलिंग पर्वतीय विकास परिषद बनाकर उन्हें उसकी कमान सौंप दी गई। दार्जिलिंग पर्वतीय विकास परिषद 20 वर्षों तक ठीकठाक काम करता रहा। इस दौरान पृथक गोरखालैंड का मुद्दा राजनीतिक हाशिए पर धकेल दिया गया। जनता को लगने लगा कि सत्ता लोभ के कारण ही घीसिंग ने गोरखालैंड की मांग छोड़ दी। इसके बाद पहाड़ की जनता विमल गुरुंग के नेतृत्व में एक बार फिर गोरखालैंड की मांग में घीसिंग के खिलाफ उठ खड़ी हुई। विमल गुरुंग का आरोप था कि सत्ता के लोभ में घीसिंग गोरखालैंड की मांग ही भुला बैठा। दूसरी तरफ 2005 में इस इलाके को छठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने पर अपनी मुहर लगाकर घीसिंग विवादों में घिर गए थे। घीसिंग के साथी रहे विमल गुरुंग ने उनके खिलाफ बगावती झंडा लहराते हुए गोजमुमो का गठन किया। उसके बाद तो जैसे गोरखालैंड आंदोलन में भूचाल ही आ गया। इसी के साथ सुभाष घीसिंग का दौर खत्म होने लगा। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इतना प्रभावशाली साबित हुआ कि उसके समर्थन से भाजपा टिकट पर राजस्थान के जसवंत सिंह दार्जिलिंग से लोकसभा चुनाव जीतने में सफल हुए।
बहरहाल, पहाड़ की जनता को गोरखालैंड का सपना दिखाकर एकाएक धूमकेतु की तरह चमके सुभाष घीसिंग अब पूरी तरह से अदृश्य हो चुके हैं। लोग उनकी खिल्ली उड़ाने से भी बाज नहीं आते। बदले हालात में उनके नए नायक गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष और अब जीटीए प्रमुख विमल गुरुंग हैं। लोगों ने अपने इस नए नायक को पलकों पर बिठा कर रखा है। दार्जिलिंग के पहाडिय़ों की सारी उम्मीदें अब गुरुंग पर टिकी हुई हैं।

राज्यसभा के अगले स्टार: मिथुन चक्रवर्ती


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- ममता बनर्जी बनाएंगी मिथुन दा को अगला राज्यसभा स्टार। प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने के लिए मिथुन ने ही किया था ममता को राजी

हाईलाईटर- राष्ट्रपति शपथ समारोह में ममता और मिथुन एक ही प्लेन से दिल्ली आए थे

राजनीति को संभावनाओं का खेल यूं ही नहीं कहा जाता। सत्ता के गलियारों में कब, कौन, किसका दोस्त बन जाए, कहा नहीं जा सकता। ताजा मामला है बॉलिवुड एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की नई-नई दोस्ती का। दरअसल, राष्ट्रपति के लिए प्रणव मुखर्जी को तृणमूल चीफ ममता बनर्जी से मिला समर्थन मिथुन की ही सिफारिश का नतीजा बताया जा रहा है। सूत्रों के मुताबिक ममता बनर्जी और प्रणव मुखर्जी के बीच मध्यस्थता करने वाले मिथुन चक्रवर्ती के बारे में दावा किया जा रहा है कि वह तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा सांसद बनने की तैयारी कर रहे हैं।

गौरतलब है कि हाल ही में ममता ने कोलकाता में मिथुन दा को महानायक सम्मान से भी सम्मानित किया है। राजनीतिक विश्लेषकों का दावा है कि अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो मिथुन चक्रवर्ती जल्द ही राज्यसभा की शोभा बढ़ाते दिखेंगे। वैसे भी दीदी के फिल्मी कलाकारों के प्रति प्रेम को सभी जानते हैं। बंगला फिल्मों के कई अभिनेता,अभिनेत्रियां उनकी पार्टी से सांसद व विधायक हैं। दरअसल, इस बात को हवा इससे मिली कि हाल ही में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव के पक्ष में ममता बनर्जी को मतदान करने के लिए मनाने में मिथुन चक्रवर्ती ने अहम भूमिका निभाई। मिथुन के मनाने पर ही अग्निकन्या का दिल पसीजा और उन्होंने प्रणव दा के पक्ष में मतदान करने की हामी भरी। ममता के संबंध में कहा जाता है कि वह दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही पूरे दम से निभाती हैं। शाहरुख खान का प्रकरण गवाह है कि आलोचनाओं को दरकिनार कर कोलकाता नाइट राइडर्स की जीत पर दोस्ती निभाने के लिए वह पानी की तरह पैसा बहाने से भी नहीं चूकीं। बावजूद इसके कि वह हर समय राज्य के कर्ज में डूबे होने का रोना रोती रहती हैं। यहां तक कि राज्य को कर्जे से उबारने के लिए विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर वह केंद्र की यूपीए सरकार का गाहे बगाहे कान भी मरोड़ती रही हैं। बहरहाल, प्रणव के पक्ष में मतदान करने के लिए राजी होने के बाद ममता दीदी व मिथुन दा एक ही विमान से दिल्ली गए। कहा जा रहा है कि यह विमान प्रणव दा ने ही भिजवाया था।
बताते चलें कि मिथुन चक्रवर्ती के कई बंगाली नेताओं से काफी पुराने और प्रगाढ़ रिश्ते रहे हैं। चाहे वह दिग्गज ज्योति बसु रहे हों, या बुद्धदेव भट्टाचार्य अथवा वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी। प्रणव मुखर्जी जब यूपीए सरकार में रक्षा मंत्री थे तो उन्होंने ही मिथुन का नाम पद्मश्री पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया था। मिथुन ने भी उनके इस एहसान का बदला चुकाने के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में जंगीपुर सीट पर प्रणव मुखर्जी के लिए स्टार प्रचारक की भूमिका निभाई थी। उन्होंने इलाके में घूम-घूम कर प्रणव दा को विजयी बनाने की अपील की थी। प्रणव दा जीते भी।
बहरहाल, ममता से हुई नई-नई दोस्ती का इनाम तो मिथुन को मिलना ही था। सो राज्यसभा में भेजने से पूर्व बंगला फिल्मों के महानायक उत्तम कुमार की पुण्यतिथि पर मुख्यमंत्री ने मिथुन चक्रवर्ती को महानायक सम्मान से नवाजा। इस अवसर पर ममता बनर्जी ने मिथुन समेत 44 फिल्मी हस्तियों को सम्मानित किया। कार्यक्रम में तृणमूल सुप्रीमो ने कहा कि फिल्म जगत की हस्तियों को सम्मानित कर वह खुद को कृतज्ञ महसूस कर रही हैं। इसी के साथ बनर्जी ने अनल चट्टोपाध्याय, कार्तिक बसु, दीप्ति राय, कन्हाई डे आदि जैसे कलाकारों की आर्थिक बदहाली को देखते हुए राज्य सरकार की ओर से प्रत्येक माह पांच-पांच हजार रुपये बतौर मासिक पेंशन देने की भी घोषणा की।
मिथुन चक्रवर्ती को राज्यसभा सांसद बनाए जाने की अटकलों को इस बात से भी हवा मिल रही है कि अभी हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में ममता बनर्जी के कृपापात्र तीन पत्रकार राज्यसभा सांसद चुने गए। कृपा पाने वाले पत्रकारों में एक बंगला दैनिक के सीईओ कुणाल घोष, एक उर्दू दैनिक के संपादक तथा कोलकाता के प्रमुख हिंदी दैनिक सन्मार्ग के निदेशक विवेक गुप्ता हैं। पश्चिम बंगाल में तो यह चर्चा आम है कि चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का पुरजोर विरोध करने वालीं ममता बनर्जी को मनाने का काम एक्टर मिथुन चक्रवर्ती ने किया था। उन्हीं के समझाने बुझाने पर दीदी प्रणव दा के पक्ष में मतदान करने को राजी हुई थीं। सूत्रों के मुताबिक मिथुन ने ममता बनर्जी को बंगाली अस्मिता की दुहाई देते हुए प्रणव मुखर्जी का समर्थन करने की अपील की। इस पर ममता मान गईं। बदले में उन्होंने मिथुन को अपनी पार्टी की ओर से राज्यसभा सांसद बनने का प्रस्ताव दिया, जिसे मिथुन ने भी खुशी-खुशी कुबूल कर लिया। राजनीतिक पंडितों का दावा है कि राज्यसभा के लिए अगली बार जब भी चुनाव होगा, मिथुन चक्रवर्ती तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा का चुनाव लड़ेंगे। राज्य में तृणमूल विधायकों की संख्या को देखते हुए इतना तो तय है कि ममता जिसे चाहें उसे राज्यसभा का चुनाव लड़ा और जिता सकती हैं।
बहरहाल, मिथुन की राजनीतिक पारी को लेकर राज्य में गरमागरम बहस जारी है। कुछ लोग मिथुन की आलोचना भी कर रहे हैं। आलोचना करने वालों का मानना है कि मिथुन हमेशा से ही सत्ताधारी दल के साथ जुड़े रहे हैं। राज्य में जब वाममोर्चा की सरकार थी, उस वक्त वामपंथी नेताओं के साथ मिथुन दा के निकट के संबंध थे। अब, जबकि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं तो, उन्होंने प्रणव दा के बहाने ममता बनर्जी के साथ अपनी गोटियां फिट कर ली हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के शपथ ग्रहण समारोह में मिथुन चक्रवर्ती को कांग्रेस की तरफ से व्यक्तिगत तौर पर निमंत्रण भेजा गया था और राष्ट्रपति के शपथ समारोह में भाग लेने वालों में मिथुन दा एकमात्र फिल्मी सितारे थे। समारोह में भाग लेने के लिए ममता बनर्जी और मिथुन चक्रवर्ती कोलकाता से एक ही प्लेन में दिल्ली गए थे। अब इसे कयासबाजी कहें या कुछ और लेकिन अचानक मिथुन दा के ममता दीदी से बने मधुर संबंधों के पीछे कोई न कोई कहानी है तो जरूर।

एकला चलो की राह पर दीदी


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

इंट्रो- अंतिम समय में प्रणव को समर्थन देने वाली दीदी ने चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस को दी पटखनी। पश्चिम बंगाल में आगामी पंचायत चुनावों में ममता का अकेले दम चुनाव लडऩे का एलान

हाईलाईटर- हाल ही में संपन्न नगर निकाय चुनावों में छ: में से चार पर तृड़मूल ने जीत दर्ज की थी

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भले ही अंतिम समय में प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर दिया। पर इस दौरान उनके व कांग्रेस के बीच जो खटास पैदा हुई वह दूर नहीं हो पाई है। सूत्रों के अनुसार राज्य में वह जल्द ही कांग्रेस का हाथ झटककर एकला चलो की तैयारी कर रही हैं। राज्य कांग्रेस के नेताओं ने जिस तरह उनके खिलाफ बयानबाजी की उससे वह काफी आहत हैं। उन्होंने तय कर लिया है कि राज्य में अब और कांग्रेस का हाथ नहीं पकड़ेंगी। ममता बनर्जी इस तथ्य से भलीभांति वाकिफ हैं कि राज्य में उन्हें कांग्रेस के सहारे की जरूरत नहीं है। बल्कि स्वयं कांग्रेस को उनकी जरूरत है। उनके समर्थन के बिना कांग्रेस दर्जन भर सीट जीत पाने की भी ताकत नहीं रखती। गत दिनों संपन्न नगर निकाय के चुनाव परिणाम भी इसी तथ्य की ओर इशारा करते हैं। कुल छ: नगर निकायों में से अकेले तृणमूल ने चार पर कब्जा कर बता दिया कि राज्य में तृणमूल प्रमुख का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। प्रदेश कांग्रेस के साथ ही केंद्रीय नेतृत्व को औकात दिखाने के लिए तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि आगामी पंचायत चुनाव में उनकी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं रहेगा। उन्होंने कहा कि तृणमूल राज्य में अकेले ही सरकार चलाने में सक्षम है क्योंकि उसके पास पर्याप्त बहुमत है।
शहीद दिवस पर आयोजित रैली को संबोधित करते हुए   ममता बनर्जी ने कहा कि हम राज्य में अकेले सरकार चलाने में सक्षम हैं। हमारे पास पर्याप्त बहुमत है। हम किसी पर निर्भर नहीं हैं। हम बंगाल में अकेले ही चुनाव लड़ेंगे। हम किसी की दया पर टिके हुए नहीं हैं। यह हमारा अपना संघर्ष है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि केंद्र में हालांकि उनकी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन कायम रहेगा, बशर्ते उनके साथ आदर और गरिमापूर्ण व्यवहार हो। गौरतलब है कि कांग्रेस और तृणमूल का राज्य और केंद्र में गठबंधन है, फिर भी विभिन्न मुद्दों पर दोनों में तकरार होती रही है। चाहे वह राष्ट्रपति चुनाव हो या लोकपाल विधेयक अथवा खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफडीआई) का मुद्दा हो। दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस तृणमूल प्रमुख पर विभिन्न मुद्दों को लेकर हमले करता रहा है। तृणमूल मुखिया की घोर विरोधी मानी जाने वाली दीपा दासमुंशी व अधीररंजन चौधरी तो उन पर हमला करने का एक भी मौका नहीं चूके। बहरहाल, ममता ने रैली में कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा कि राज्य के कुछ कांग्रेस नेता माकपा समर्थित टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में बैठते हैं और हमारी सरकार की आलोचना करते हुए व्याख्यान देते हैं, जैसे हम उनकी दया पर सरकार चला रहे हों। उन्हें पता होना चाहिए कि हम उनकी वजह से नहीं बल्कि वे हमारी वजह से यहां हैं। उनका(राज्य कांग्रेस) काम केवल हमें गाली देना है। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को पंचायत चुनावों के लिए तैयार रहने की हिदायत देते हुए कहा कि पार्टी अकेले दम पर ही पंचायत चुनाव लड़ेगी।
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव दुर्गापूजा के बाद होने हैं। इससे पहले कई मौकों पर तृणमूल नेतृत्व राज्य कांग्रेस को विपक्षी माकपा की टीम-बी बताता रहा है और आरोप लगाता रहा है कि कांग्रेस, माक्र्सवादियों के साथ मिलकर राज्य में चल रहे विभिन्न विकास कार्यों में अड़ंगा लगाती रही है।
दुर्गा पूजा के बाद पंचायत चुनाव कराने की घोषणा के साथ ही राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। मुख्य विपक्षी पार्टी माकपा समेत भाजपा ने ममता के इस निर्णय को घोर आपत्तिजनक करार दिया। गौरतलब है कि पंचायत चुनाव अगले साल मई में होना प्रस्तावित था। समय पूर्व चुनाव कराने को लेकर ममता के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए माकपा ने कहा कि ममता का यह तानाशाही फरमान है। दूसरी तरफ राज्य के पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी की मानें तो पंचायत चुनाव दिसंबर में होंगे। उन्होंने विरोधी दलों के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि समय से पूर्व पंचायत चुनाव कराने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है। कांग्रेस से अलग पंचायत चुनाव लडऩे के सवाल पर तृणमूल नेता मदन मित्रा ने कहा कि कांग्रेस हमारी मोहताज है, हम नहीं। विधानसभा चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस लोकप्रियता के पहले बड़े परीक्षण पूरे अंकों के साथ पास हो चुकी है। गौरतलब है कि अकेले चुनाव लड़कर तृणमूल कांग्रेस ने विरोधियों को करारा जवाब देते हुए छ: स्थानीय निकायों के चुनाव में से चार स्थानों पर जीत हासिल की।
तृणमूल ने उत्तर में जलपाईगुड़ी जिले की धूपगुड़ी नगरपालिका में वामपंथी पार्टियों को हराकर जीत हासिल की थी। इसे तृणमूल की बड़ी जीत के रूप में देखा गया था, क्योंकि पिछले साल राज्य विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद वाम दल यहां अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे थे। तृणमूल ने दुर्गापुर नगर निगम पर भी अपना परचम लहराया। यहां वाममोर्चे की पिछले 15 साल में पहली बार हार हुई। तृणमूल पूर्वी मिदनापुर जिले में पांसकुड़ा नगरपालिका भी बचाने में कामयाब रही। लेकिन उसकी सबसे महत्वपूर्ण जीत बीरभूम जिले में नालहटी नगरपालिका में रही, जहां केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के बेटे और नालहटी से कांग्रेस के विधायक अभिजीत स्वयं पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार की कमान संभाले हुए थे। वाममोर्चा हालांकि हल्दिया नगरपालिका पर अपना कब्जा बरकरार रखने में सफल रहा। नंदीग्राम से सटे इस इलाके से तृणमूल ने विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त सफलता पाई थी। कांग्रेस के लिए एकमात्र सांत्वना की बात यह रही कि वह नदिया जिले में कूपर्स कैंप नगरपालिका में अपना कब्जा बरकरार रखने में सफल रही। विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस की सहायता के बिना अकेले दम पर चार निकायों पर कब्जा जमा कर तृणमूल ने जता दिया है कि वह राज्य में कांग्रेस की मुखापेक्षी नहीं है।

फतवे : हंसी भी कोफ्त भी


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

दिल्ली के आसपास के इलाके पश्चिमी उत्तर प्रदेश व हरियाणा तथा राजस्थान में खाप पंचायतें अक्सर सरकार के समानांतर अपनी सत्ता का एहसास कराती रहती हैं। कभी किसी को मौत की सजा सुनाकर तो कभी पति पत्नी को भाई बहन बताकर। इस पर हो हल्ला भी मचता है पर वह अपनी मदमस्त चाल चलती रहती हैं। इन दिनों इन पंचायतों के दो फैसले या फतवे जो भी कह लें चर्चा में हैं। एक समाज को अंधी सुरंग की ओर ले जाने वाला है तो दूसरा है समाज को सही दिशा देने वाला। बागपत जिले में जहां 40 वर्ष तक की महिलाओं के बाजार जाने व मोबाइल के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, वहीं अक्सर तालिबानी फैसलों के लिए बदनाम रही खाप पंचायतों का एक निर्णय भोर की पहली किरण सी सुखद प्रतीत हो रही है। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ खाप पंचायतों का सामूहिक निर्णय सचमुच समाज को सही दिशा में ले जाने वाला साबित हो सकता है। बशर्ते इस पर अमल हो।
हममें से अधिकतर लोगों ने 'फतवा शब्द पहली बार लगभग बीस साल पहले सुना होगा। तब बहुतों को इसका मतलब भी नहीं पता था कि आखिर फतवा होता क्या है। दरअसल, यह फतवा जारी हुआ था 'द सैटेनिक वर्सेस के लेखक सलमान रुश्दी के खिलाफ। जारी किया था ईरान के अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ने। 14 फरवरी 1989 को जारी फतवे के अनुसार रुश्दी की हत्या करने वाले को इनाम देने की घोषणा की गई थी। बहरहाल उस फतवे के खिलाफ उठी विरोध की आंधी अब पूरी तरह से थम चुकी है, पर अफसोस कि दुनिया को आज भी इस शब्द से जूझना पड़ रहा है।
जब खुमैनी ने फतवा जारी किया था तो आम भारतीय को यह तक नहीं पता था कि फतवा लिखित रूप से जारी होता है या मौखिक होता है। यहां तक कि उस वक्त तक डिक्शनरी तक में इस शब्द का उल्लेख नहीं था। हालांकि आज की आक्सफोर्ड डिक्शनरी में फतवा शब्द को इस्लामी कानून के मुताबिक एक अधिकारिक आदेश के रूप में परिभाषित किया गया है।
जिस तरह से यह व्याख्या चुस्त दिखाई देती है, उस हिसाब से हर किसी मुद्दे पर फतवा जारी करने की प्रकिया चुस्त नहीं लगती। मौलानाओं द्वारा जारी किए जाने वाले कुछ फतवे जहां समाज का मार्गदर्शन करते हैं वहीं कुछ बेहद हास्यास्पद व उलजुलूल होते हैं। अभी हाल ही में देवबंद ने एक फतवा जारी किया कि नशे में भी फोन पर तीन बार तलाक कहने से तलाक मुकम्मल माना जाएगा और उस हालात में शौहर के लिये उसकी बीवी हराम हो जाती है। ऐसे में यदि पति पत्नी दोबारा एक साथ रहना चाहें तो पत्नी को इद्दत के दिन पूरे करने के बाद किसी दूसरे मर्द से शादी करनी होगी और फिर उससे तलाक लेकर दोबारा इद्दत पूरी करने के बाद ही वह अपने पहले शौहर से निकाह कर सकती है। दारुल उलूम देवबंद के इस फतवे के बाद मुस्लिम समुदाय में हड़कंप मच गया। कुछ संगठनों ने इसे गलत करार दिया लेकिन देवबंद के प्रमुख इसे सही मानते हैं। फतवे के अनुसार यहां तक तो फिर भी ठीक है लेकिन कुछ ऐसे भी फतवे जारी हुए। जिन्हें पढ़ सुनकर फतवा जारी करने वालों की सोच पर या तो हंसी आती है या फिर कोफ्त होती है।
हमारे ही देश में नहीं बल्कि दुनिया के अन्य मुल्कों में भी आए दिन कोई न कोई फतवा जारी होता रहता है। इनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो शरीर में सिहरन पैदा कर देते हैं तो कुछ ऐसे जिन पर हंसी आती है या फिर कोफ्त होता है। फतवे जारी करने का अपना एक नियम है। इसे कौन जारी कर सकता है इसका बाकायदा दिशा निर्देश है। बावजूद इसके अजीबोगरीब फतवे देने का सिलसिला चलता रहता है। इन फतवों को पढ़ सुनकर सर पीट लेने को जी करता है। अभी हाल ही में मिश्र में एक मौलवी ने फतवा जारी किया कि जो मुस्लिम महिलाएं नौकरी पेशा हैं वे अपने युवा सहकर्मियों को अपना स्तनपान कराए। उक्त मौलवी का तर्क था कि ऐसा करने से व्यभिचार पर रोक लगेगा। स्तनपान कराने से पुरुष सहकर्मी व महिला में मां-बेटे का भाव पैदा होगा। शारीरिक आकर्षण में कमी आएगी और अवैध रिश्ते नहीं पनपेंगे। जबकि सच तो यह है कि ऐसे फतवे व्यभिचार को ही बढ़ाएंगे।
जब एक औरत गैर मर्द को अपने स्तन का स्पर्श कराएगी तो उसमें केवल कामुक भावनाएं ही पनपेगी। इसे महिला अस्मिता पर चोट ही माना गया। इस फतवे पर सवालों की बौछार होने लगी कि क्या मुस्लिम महिलाएं अन्य धर्मों के सहकर्मियों को भी अपना दूध पिलायेंगी? इसी तरह का एक उलजूलूल फतवा ब्रिटेन के एक मौलवी ने भी जारी कर दिया। इस फतवे के अनुसार मुस्लिम महिलाओं को केले व खीरे, मूली, गाजर तथा अन्य इस तरह के फलों व सब्जियों का सेवन करने से बचने को कहा गया। फतवे में कहा गया कि महिलाएं न तो इसे खरीदें और ना ही इनका सेवन करें। यदि खाना ही हो तो घर का कोई पुरुष सदस्य इन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर औरतों को दे। इसके पीछे वजह यह बताई गई कि ये सारे फल व सब्जियां पुरुष जननांग की तरह दिखते हैं। इनको देखने से स्त्रियों में कामुक भावनाएं उत्पन्न होगी। जबकि हकीकत तो यह है कि किसी भी फल या सब्जी को खरीदते समय मनुष्य का ध्यान उसके स्वाद पर जाता है न कि उनका आकार कैसा है इस पर। इसे लेकर भी खूब बावेला मचा।
यहां एक और ऐसे ही हास्यास्पद फतवे का जिक्र करना समीचीन होगा। इस फतवे में कहा गया कि महिलाएं ब्रा व पैंटी न पहनें। तर्क था कि ब्रा पहनने से जहां स्तन के विकास में बाधा पहुंचती है वहीं पैंटी पहनने से स्त्रियां खुद को कामुक अनुभव करती हैं। सोमालिया में तो कुछ मुस्लिम चरमपंथी संगठन इस फतवे को लागू कराने के लिए सड़क पर भी उतर आए। ऐसे संगठनों के कार्यकर्ताओं ने सरेराह कुछ महिलाओं के बुर्के उतरवाकर जांचा कि कहीं वह ब्रा और पैंटी तो नहीं पहने हुए हैं। जो महिलाएं ब्रा और पैंटी पहने इन धर्म के ठेकेदारों के हाथ लगी उनके साथ बेहद अमानवीय व्यवहार किया गया। यहां तक कि उनको कोड़े भी लगाए गए।
आज सारी दुनिया जहां योग के माध्यम से स्वास्थ्य लाभ कर रही है, वहीं पिछले दिनों इंडोनेशिया में योग के खिलाफ फतवा जारी किया गया। कहा गया कि मुस्लिम धर्मावलंबी योग न करें क्योंकि इसमें हिंदू धर्म की कुछ पूजा पद्धति का समावेश है। हालांकि लोगों ने इसे नकार दिया। इसी तरह वर्ष 2002 में नाइजीरिया में एक पत्रकार के खिलाफ फतवा जारी किया गया। उसके बाद भड़की हिंसा में 200 से भी अधिक लोग मारे गए थे।

बद्रीनाथ वर्मा 9718389836



ठंडी हवा का झोंका


हाजिर- नाजिर

 इंट्रो : म्हारी जात को मिटण कोनी द्यां के उद्घोष के साथ महिलाओं की पहल पर महाखाप पंचायत की मुहर एक सुखद अहसास कराती है। आम तौर पर तालिबानी फैसलों के लिए बदनाम रहीं खाप पंचायतों का कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ लिया गया निर्णय समाज को सही दिशा देने वाला है

हरियाणा के जींद जिले के बीबीपुर गांव से कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जो लौ जली है उसकी रौशनी निश्चय ही अन्य जगहों को भी रौशन करेगी।
अजन्मी बेटियों को गर्भ में ही मार देने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए  सर्वखाप का यह सकारात्मक फैसला भोर की पहली किरण की मानिंद सुखद अनुभूति कराता है। इस फैसले के साथ ही खौफ का पर्याय बन चुकी या बना दी गई खाप पंचायतों का एक नया चेहरा देश दुनिया के सामने आया है। इसके पहले खाप पंचायतें नकारात्मक कारणों से चर्चित होती रही हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले उनके पूर्व के फैसलों ने उनकी छवि खुर्राट जालिम जैसी बना रखी थी। पर समाज को सही दिशा देने वाला उनका एक निर्णय ठंडी हवा के झोंके जैसा रहा। इस निर्णय के तहत कन्या भ्रूण हत्या को घिनौनी हरकत व महापाप करार देते हुए ऐसा करने वालों के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाने की मांग सरकार से की गई। निश्चय ही महाखाप पंचायत का यह निर्णय गर्भ में मारी जा रही बेटियों की जीवन रक्षा में सहायक होगा। महाखाप पंचायत के इस निर्णय की जितनी भी प्रशंसा की जाय। कम ही है।
म्हारो जात को मिटण कोनी द्यां (अपनी स्त्री जाति को मिटने नहीं देंगी)के उद्घोष के साथ बीबीपुर गांव की महिलाओं ने जो पहल की उस पर महाखाप पंचायत ने भी अपनी स्वीकृति की मुहर लगाकर अपनी सकारात्मक छवि पेश की है। इस पहल को मंजिल तक पहुंचाने में बीबीपुर गांव के सरपंच सुनील जागलान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खाप महापंचायत में मौजूद 150 खापों के प्रतिनिधियों ने एक स्वर से केंद्र सरकार से ऐसा कानून बनाने की मांग की ताकि कन्या भ्रूण हत्या के आरोपियों के खिलाफ कत्ल का मुकदमा चलाया जा सके। खाप पंचायत ने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या महापाप है और आगे से यह बर्दाश्त नहीं होगा।
यूं तो खाप पंचायते ऑनर किलिंग को लेकर कुख्यात रही हैं। कभी सगोत्री विवाह के नाम पर पति पत्नी को भाई बहन बना देती रही हैं तो कभी दूसरे जाति में विवाह करने की सजा मौत के रूप में सुनाती रही हैं। ऐसे एक के बाद एक खाप पंचायतों के निर्णय ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। खाप पंचायतों का नाम सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। शरीर में सिहरन दौड़ जाती थी। पर कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ लिए गए सख्त निर्णय ने खाप पंचायतों की छवि ही बदल दी है। निश्चय ही यह फैसला सुकून देने वाला है। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अजन्मी बेटियों के हक में सकारात्मक आवाज उठाने वाले बीबीपुर गांव के विकास के लिए एक करोड़ रुपये का ऐलान किया है।
हुड्डा ने जींद जिले के बीबीपुर गांव के लिए इस राशि का ऐलान इसलिए किया है क्योंकि इसके निवासियों, विशेषकर महिलाओं ने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज उठाने की पहल की। हुड्डा के मुताबिक, गांव वालों की इस पहल से न सिर्फ हरियाणा, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाने में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कदम उठाकर खाप पंचायत देश में सकारात्मक बदलाव लाने में सामाजिक संस्थाओं की अहमियत को दिखा सकती हैं। बीबीपुर में संपन्न खाप महापंचायत में पहली बार महिलाओं की बड़ी संख्या में भागीदारी देखी गई। तय हुआ कि इस व्यापक सामाजिक बुराई के खिलाफ अभियान छेड़ा जाएगा।
दरअसल, भ्रूणहत्या के लिए हमारा सामाजिक ताना बाना भी कम जिम्मेदार नहीं है। यह बात भले ही सुनने में भली लगती हो कि बेटे-बेटी में कोई फर्क नहीं होता। दोनों बराबर हैं। पर वास्तविकता तो यह है कि हर किसी को बेटा ही चाहिए। इसके पीछे हमारी रूढ़ीवादी मानसिकता ही है। कहा जाता है कि बेटे के हाथों अग्निदाह होने से मुुक्ति मिल जाती है। ऐसे में सबके मन में एक बेटे की इच्छा होती है, जबकि बेटियों को पालना घाटे के सौदे की तरह देखा जाता है। इसकी प्रमुख वजह दहेज प्रथा है। दहेज को समाज में प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाने लगा है। समाज का कैंसर बन चुकी दहेज प्रथा बेटियों को जन्म देने से रोकती है। आज भी लोगों में यह गलत धारणा विद्यमान है कि बेटे ही कुल को तारते हैं। परिवार का नाम उनसे रौशन होता है। जबकि हकीकत यह है कि आज लड़कियां लड़कों से किसी भी मामले में कमतर नहीं हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बेटियां पैदा होने के बाद भी पुरुष प्रधान समाज इनके पालन-पोषण में फर्क करता है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक़ पैदा होने से एक साल की उम्र तक, बेटों के मुक़ाबले बेटियों के मर जाने की दर 40 फ़ीसदी ज़्यादा है। वहीं पहले और पांचवे वर्ष की उम्र में तो ये और भी ज़्यादा, 61 फीसदी है।
 यह चौंकाने वाला है कि हरियाणा में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है। जहां देश में प्रति 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या औसतन 911 है वहीं हरियाणा में ये आंकड़ा 877 है।  जनगणना-2011 के मुताबिक झज्जर जिले में लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों का अनुपात देश में सबसे कम है। यहां एक हजार लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या महज 774 ही हैं। इसकी मुख्य वजह गर्भ में ही बेटियों को मार दिया जाना है। महापंचायत के अनुसार, पूरे देश में बेटियों को बचाने के लिए मुहिम चलाई जाएगी और यह संदेश पूरे देश में फैलाया जाएगा। करीब 150 खापों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। आमतौर पर खाप पंचायतें अपने नकारात्मक फैसलों की वजह से बदनाम होती आई हैं। ऐसे में यह फैसला उसकी छवि के एकदम विपरीत है। अंत में किसी कवि की ये चार पंक्तियां
मिट्टी की खुशबू-सी होती हैं बेटियां।
घर की राज़दार होती हैं बेटियां।
रोशन करेगा बेटा तो बस एक कुल को।
दो-दो कुलों की लाज होती हैं बेटियां।।
सूरज की तपन होती हैं बेटियां।
चंदा की शीतल मुस्कुराहट होती हैं बेटियां।।                    बद्रीनाथ वर्मा 9716389836


पढऩे से नहीं, डर स्कूल से लगता है




दबंग फिल्म का एक डॉयलाग बहुत मशहूर हुआ था। डॉयलाग था- थप्पड़ से नहीं प्यार से डर लगता है साहब। अब उसी तर्ज पर पश्चिम बंगाल में बच्चे कह रहे हैं कि पढऩे से नहीं, स्कूल से डर लगता है। इसकी वाजिब वजहें भी हैं। स्कूलों में छोटी मोटी गल्तियों पर जिस तरह की सजा देने का चलन शुरू हुआ है, उसे सुनकर ही पसीने आ जाते हैं। शिक्षकों द्वार दी जा रही अजीबोगरीब सजा से बाल मन पर कितना बुरा असर पड़ता होगा, इस तरफ किसी की भी निगाह नहीं है। बार बार कोर्ट के आदेश के बावजूद बच्चों को शारीरिक व मानसिक दंड देने का सिलसिला रुक ही नहीं रहा है। अभी पिछले दिनों लगातार एक के बाद एक घटी इस तरह की कई घटनाओं ने पूरे राज्य को मथ दिया है।
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के सपनों का शांतिनिकेतन इन दिनों अपनी कलाप्रियता व पढ़ाई लिखाई को लेकर नहीं बल्कि दूसरे कारणों से चर्चित है। इस बार जिस मामले को लेकर शांतिनिकेतन चर्चा में है, वह है पांचवी क्लास की एक छात्रा को अपना ही पेशाब चाटने को विवश करने को लेकर।  स्कूल के छात्रावास की वॉर्डन उमा पोद्दार ने 5वीं क्लास की एक छात्रा को बिस्तर गीला करने पर सजा के तौर पर अपना पेशाब चाटने को विवश किया था। बावेला मचने पर उमा को गिरफ्तार कर लिया गया था।.  फिलहाल वह जमानत पर है। उसे स्कूल से निलंबित भी कर दिया गया है।
दरअसल विश्वभारती विश्वविद्यालय के तहत संचालित पाथा भवन स्कूल की पांचवीं की छात्रा ने सोते समय बिस्तर गीला कर दिया था। इससे नाराज स्कूल के छात्रावास की वार्डन उमा पोद्दार ने उसे दंड स्वरूप उसी का पेशाब चाटने को विवश किया। आरोप है कि उन्होंने पेशाब पर नमक छिड़क दिया और सजा के तौर पर उसे चाटने के लिए कहा।
लड़की ने यह बात अपनी मां को बताई, जिसके बाद उसके अभिभावक तथा कई अन्य लोगों ने छात्रावास के परिसर में पहुंचकर हंगामा करना शुरू कर दिया। पहले तो वार्डन को बचाने की भरपूर कोशिश की गई पर जब मामला तूल पकड़ गया तो अंतत: पुलिस को उसे गिरफ्तार करना पड़ा। फिलहाल वह जमानत पर है। पहले स्कूल प्रशासन की ओर से उसका बचाव करते हुए कहा गया कि उक्त वार्डन ने गांवों में प्रचलित धारणा के तहत ऐसा किया। ऐसा माना जाता है कि जो बच्चे बिस्तर गीला करते हैं यदि उन्हें उन्ही का पेशाब चटा दिया जाये तो उनकी बिस्तर गीला करने की आदतें छूट जाती हैं। पर ये थोथी दलीलें लोगों के गले नहीं उतरी। यह मामले को तूल पकड़ता देख विश्वविद्यालय प्रशासन ने पूर्व छात्र कल्याण संकायाध्यक्ष अरुणा मुखर्जी की अध्यक्षता में मामले की जांच के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया। रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए विश्वविद्यालय ने पोद्दार को वार्डन के पद से हटा दिया।
घटना की चौतरफा निंदा हुई। यहां तक कि इसकी आंच प्रधानमंत्री कार्यालय तक जा पहुंची। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी विश्वविद्यालय तथा राज्य सरकार से इस पर विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। गौरतलब है कि विश्व भारती की स्थापना नोबल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी।
कलकत्ता हाई कोर्ट ने  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा विश्वविद्यालय के अन्य अधिकारियों के खिलाफ अवमानना का नोटिस भी जारी कर दिया है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री विश्वभारती विवि के चांसलर भी हैं। नोटिस में कहा गया है कि विश्व भारती ने शारीरिक दंड देकर इस तरह के दंड पर रोक लगाने के न्यायालय के पूर्ववर्ती आदेश का उल्लंघन किया है।
मुख्य न्यायाधीश जेएन पटेल तथा न्यायमूर्ति संबुध चक्रवर्ती की पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह नोटिस जारी किया है। याचिका में दावा किया गया था कि विश्वभारती ने कोर्ट के पूर्व निर्देशों की अवहेलना करते हुए उक्त छात्रा को शारीरिक दंड दिया है। जनहित याचिका दाखिल करने वाले तापस भंज के अनुसार कोर्ट ने उन्हें विवि के चांसलर प्रधानमंत्री, कुलपति सुशांत दत्ता गुप्ता, कुलसचिव मणि मुकुट मित्रा, हॉस्टल वार्डन उमा पोद्दार तथा पश्चिम बंगाल के शिक्षा सचिव बिक्रम सेन को नोटिस देने को कहा है।
गौरतलब है कि कलकत्ता हाई कोर्ट ने 2004 में ही स्कूलों में किसी भी प्रकार के शारीरिक दंड देने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बाद कोर्ट ने 2009 में समुचित दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा था कि छात्रों को शारीरिक दंड देने के बजाय उन्हें समझाया बुझाया जाना चाहिए। कोर्ट ने राज्य सरकार से भी कहा था कि वह शारीरिक दंड के खिलाफ व्यापक प्रचार करे। साथ ही दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया था।
बहरहाल अभी यह मामला शांत भी नहीं हुआ था कि एक और शिक्षिका के कारनामे ने राज्य को शर्मसार कर दिया। उक्त शिक्षिका ने उत्तर 24 परगना जिले के गोपालनगर में आठवीं की एक छात्रा के कपड़े भरी क्लास में उतरवा दिए। इस छात्रा पर सहपाठी के पैसे चुराने का आरोप था।
लड़की के पिता पवित्र मंडल ने गोपालनगर विद्यालय की शिक्षिका रूपाली के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है। उन्होंने शिकायत में कहा कि रूपाली ने उनकी बेटी पर सहपाठी के पैसे चुराने का आरोप लगाया। सभी छात्राओं के सामने कपड़े उतारे और तलाशी ली।
 दरअसल उस छात्रा पर उसकी सहपाठी ने पचास रुपये चुराने का आरोप लगाया था। इससे भड़की शिक्षिका रूपाली ने लड़की के सारे कपड़े भरी क्लास में उतरवा दिए। एसडीओपी के अनुसार धारा 354, 509 के तहत गोपालनगर गिरिबाला उच्च बालिका विद्यालय की टीचर रूपाली डे को गिरफ्तार कर लिया गया। यह घटना कोलकाता से करीब 75 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना जिले के गोपालनगर में हुई थी।
एक ऐसी ही घटना पूर्वी मिदनापुर जिले में हल्दिया कस्बे के डेरा कृष्णा बाणी तीर्थ बालिका विद्यालय की 8वीं क्लास की एक छात्रा के साथ भी हुई। यहां एक छात्रा से फर्श पर पानी गिर गया। जिस पर स्कूल की प्रिंसिपल संध्या ने उसे कपड़े उतारने का आदेश दिया और पिटाई भी की। स्कूल से घर लौटने पर छात्रा बीमार हो गई। उसके माता-पिता ने स्कूल की मैनेजिंग कमिटी में शिकायत दर्ज करवाई। हालांकि, प्रिंसिपल संध्या ने आरोप का खंडन किया है। इस बीच, शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु ने सभी घटनाओं की जांच के आदेश दे दिए हैं।

                                                                                                         बद्रीनाथ वर्मा

यार! क्या है पिंकी


इंट्रो- पूर्व महिला एथलीट पिंकी प्रमाणिक पर एक शादीशुदा महिला ने लगाए बालात्कार के आरोप। कहा पिंकी स्त्री नहीं पुरुष है। लिंग निर्धारण के लिए हिरासत में पिंकी

हाईलाईटर- लगभग एक महीने के बाद भी नहीं निर्धारण हो सका पिंकी पुरुष है या स्त्री

इन दिनों पूरे राज्य में एथलीट पिंकी के पुरुष या महिला होने की चर्चाएं गरम हैं। कुछ लोग उसे पुरुष बताते हैं तो कुछ उसे महिला ही मानते हैं। बहरहाल अब पिंकी पुरुष है या महिला यह तो चिकित्सक ही तय कर पाएंगे। मामला फिलहाल अदालत में है और पिंकी न्यायिक हिरासत में। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि पिंकी की गिरफ्तारी के बीस दिनों बाद तक भी यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि वास्तव में वह स्त्री है या पुरुष।
2006 एशियाई खेलों की स्वर्ण पदकधारी पिंकी प्रमाणिक को रेलवे की नौकरी से भी निलंबित किया जा चुका है। पिंकी को गलत आरोप में फंसाए जाने का मामला उठाते हुए देश की उडऩपरी पीटी उषा ने भी उसके पक्ष में आवाज बुलंद की है। उषा का कहना है कि पिंकी के खिलाफ किसी कार्रवाई से पहले एथलेटिक्स फेडरेशन आफ इंडिया(एएफआई) के  नियमों का पालन करना चाहिए। ऊषा ने कहा कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट से पहले और तुरंत बाद जरूरी टेस्ट लेने की जिम्मेदारी इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन(आईएएएफ) की होती है। इसलिए एएफआई को सबसे पहले यह पता करना चाहिए पिंकी के मामले में सभी जरूरी टेस्ट हुए थे या नहीं और उनमें पिंकी पास हुई थी या नहीं।
इस बीच परगना की बारासात अदालत ने पिंकी के लिंग निर्धारण के लिए क्रोमोसोम पैटर्न की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है और पिंकी की जमानत की अपील खारिज करते हुए इस एथलीट की न्यायिक हिरासत बढ़ा दी है। इस संबंध में एसएसकेएम अस्पताल के एक वरिष्ठ चिकित्सक ने बताया कि इस जांच के द्वारा परिणाम हासिल करने में सात से दस दिन का समय लग सकता है। उन्होंने कहा कि इस अस्पताल में पिंकी के लिंग निर्धारण का परीक्षण हुआ था, लेकिन क्रोमोसोम पैटर्न परीक्षण नहीं हो पाया था। अपनी तरह का यह पहला मामला है कि एक एथलीट को जेंडर टेस्ट के लिए चिकित्सा परीक्षण से गुजरना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि चिकित्सा बोर्ड की रिपोर्ट बंद लिफाफे में संबद्ध अदालत में पेश की जाएगी। पिंकी न्यायिक हिरासत के तहत दमदम जिला जेल में बंद है। हालांकि इससे पहले एक प्रायवेट नर्सिंग होम में पिंकी का जेंडर चेक हुआ था जिससे पता चला था कि वह पुरुष है।
गौरतलब है कि अदालत के आदेश पर पिंकी 15 जून से न्यायिक हिरासत में है। पिंकी के वकील तुहिन रॉय के अनुसार एथलीट पिंकी को दो बार अलग-अलग सरकारी अस्पतालों में लिंग निर्धारण परीक्षण से गुजरना पड़ा है, लेकिन दोनों ही मौकों पर परिणाम अनिर्णायक रहे हैं। रॉय ने कहा कि लिंग निर्धारण परीक्षण के नाम पर पिंकी का मानसिक उत्पीडऩ किया जा रहा है। हम अब अदालत से अनुरोध करेंगे कि वह एक विशेष अस्पताल तय करे जहां पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हों। उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा संचालित एसएसकेएम अस्पताल के चिकित्सकों का एक 11 सदस्यीय दल गठित किया गया था, जिसने 25 जून को पिंकी के कई परीक्षण किए थे। लेकिन सुविधाओं के अभाव के कारण क्रोमोसोम परीक्षण, कैरयोटाइपिंग, नहीं हो सका था। इसके पूर्व उत्तरी 24 परगना के मुख्य चिकित्सा अधिकारी सुकांत सिल ने 26 वर्षीय पूर्व महिला एथलीट पिंकी के जेंडर टेस्ट के लिए सात सदस्यीय चिकित्सा बोर्ड का गठन किया था। किंतु यह टीम भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई। पिंकी ने 2006 के दोहा एशियाई खेलों में चार गुणा 400 मीटर रिले में स्वर्ण पदक जीता था।

यह मामला तब प्रकाश में आया जब पिंकी पर एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया। इसी आरोप में पिंकी को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। पिंकी के साथ रहने वाली इस शिकायतकर्ता विवाहित महिला के अनुसार पिंकी महिला के वेश में पुरुष है। वह उससे लगातार बलात्कार करता रहा है। पिंकी की लिव-इन पार्टनर ने आरोप लगाया था कि वह पुरुष है और उसने उसके साथ बलात्कार किया है। इस तलाकशुदा के मुताबिक पिंकी ने उसे शारीरिक यातना भी दी है। कांता का आरोप है कि पिंकी ने उससे शादी का वादा किया था, लेकिन बाद में मुकर गया। भारतीय दंड संहिता आईपीसी की धारा 417 और 376 के तहत गिरफ्तार किए जाने के बाद उसे बारासात की एक अदालत में पेश किया गया जहां उसके लिंग परीक्षण के आदेश दिए गए। लेकिन अस्पताल में कई घंटों की मशक्कत के बाद आरोपी महिला एथलीट ने मेडिकल बोर्ड के समक्ष परीक्षण कराने से इंकार कर दिया था। वर्ष 2006 एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक और उसी वर्ष के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक जीतने के बाद रेलवे ने उसे नौकरी दी थी। ईस्ट रेलवे में टिकट कलेक्टर के पद पर कार्यरत पिंकी को न्यायिक हिरासत में भेज दिए जाने के बाद उसे पद से निलंबित किया जा चुका है। ज्ञातव्य है कि पिंकी ने तीन वर्ष पहले सड़क दुर्घटना में घायल होने के बाद खेलों से संन्यास ले लिया था।
भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के एक अधिकारी ने कहा कि अगर साबित हो जाता है कि यह एथलीट पिंकी पुरुष है, तो उससे सारे पदक छीन लिए जाएंगे। बंगाल एथलेटिक्स संघ के एक अधिकारी ने कहा कि मेलबोर्न राष्ट्रमंडल खेलों की उपलब्धि के बाद पिंकी प्रमाणिक की जांच में पुरुष हार्माेन का स्तर काफी अधिक पाया गया था इसके बावजूद उसे दोहा एशियाई खेलों में हिस्सा लेने की अनुमति मिल गई। इस बाबत पिंकी के परिजनों ने उसका बचाव करते हुए किसी षडयंत्र की आशंका जताई है। पिंकी के पिता दुर्गाचरण ने कहा कि जिस महिला ने आरोप लगाया है, उसके पति ने मेरी बेटी से पैसे उधार लिए थे। उसने पैसे वापस देने से इंकार कर दिया और अब मेरी बेटी की छवि धूमिल करने के लिए यह षडयंत्र रचा है। वहीं एथलीट पिंकी की मां पुष्पा ने कहा कि मैं इन आरोपों को सुनकर स्तब्ध हूं। मैं उसकी मां हूं, मुझसे ज्यादा कोई हकीकत नहीं जान सकता। पिंकी महिला ही है, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है।