रविवार, 16 नवंबर 2014

ब्रांड मोदी के नये उत्पाद

आजकल एक ब्रांड जो देश-दुनिया में छाया हुआ है वह है ‘ब्रांड मोदी’। यह ब्रांड ऐसा है जिस पर लोग आंख मूंदकर भरोसा कर रहे हैं। ‘ब्रांड मोदी’ लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री और अब वैश्विक नेता का रूप ले चुके नरेंद्र मोदी का सिक्का देश की सरहद को लांघ कर विदेशों तक में धड़ल्ले से चल रहा है। हर कोई उनसे मिलना चाहता है उन्हें देखना चाहता है। अभी एक ब्रिटिश अखबार ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आस्ट्रेलिया में चल रहे जी-20 शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे मशहूर नेता हैं। वह ऐसे नेता हैं जिनसे प्रत्येक आदमी मिलना चाहता है, उन्हें सुनना चाहता है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी ‘मैन इन एक्शन’(काम करने वाला आदमी) कहकर मोदी की तारीफ की है।
अपनी सक्रियता व लीक से हटकर काम करने की उनकी शैली लगातार उनकी लोकप्रियता में इजाफा कर रही है। लेकिन इसी के साथ एक बात जो लोगों को खटक रही है वह है उनके अन्य साथियों की निष्क्रियता या फिर उन पर एक के बाद एक लगते आरोप। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह व रेलमंत्री सदानंद गौड़ा के बेटों की कारस्तानी से अखबारों के पन्ने रंगे पड़े थे। स्मृति ईरानी की शैक्षिक योग्यता को लेकर भी खासा विवाद मच चुका है। एक मंत्री तो रेप के भी आरोपी हैं। विवादों की श्रृंखला में ताजातरीन मामला मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री बाबूलाल कठारिया का है। उन पर आरोप लगा है मार्कशीट में फर्जीवाड़ा करने का।
 बहरहाल, बात अगर मोदी की महत्वाकांक्षी योजना स्वच्छ भारत अभियान की की जाए तो इसमें भी उनके आसपास के लोग फिसड्डी ही साबित हो रहे हैं। मोदी जहां वास्तविक रूप से श्रमदान कर जगह-जगह सफाई अभियान को प्रोत्साहित कर रहे हैं वहीं उनके चेले चपाटों के लिए यह सिर्फ फोटो खिंचाने भर का कार्यक्रम बन कर रह गया है। दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष सतीश उपाध्याय के सफाई अभियान का एक फोटो भाजपा व मोदी की काफी छीछालेदर कर चुका है। इसी तरह एक जमाने में फिल्मी पर्दे की स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी की वजह से भी इस अभियान की भद्द पिट चुकी है। मथुरा में स्वच्छता अभियान की शुरुआत करते हुए हेमा मालिनी के हाथ में झाड़ू तो दिखा पर वह जमीन से 6 इंच ऊपर ही रहा। ये सब ऐसी बातें हैं जो मोदी की नेकनीयती पर बदनुमा दाग लगाते हैं।
बहरहाल, बात ब्रांड मोदी की हो रही थी। यह ब्रांड लगातार अपना जलवा दिखा रहा है। लोकसभा चुनाव में अपने अकेले दम पर कच्छ से कामरूप व कश्मीर से कन्याकुमारी तक भाजपा का परचम लहरा देने वाले नरेंद्र मोदी का जादू अभी भी कम नहीं हुआ है। इस बात का सबूत हरियाणा व महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में दिख गया है। हरियाणा में पहली बार अपनी दम पर व महाराष्ट्र में सहयोगी दलों के समर्थन से भाजपा की सरकार बन गई है। इन चुनावों में ब्रांड मोदी ने जमकर अपना जौहर दिखाया। इसी ब्रांड मोदी के नये उत्पाद के रूप में सामने आये हैं हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर व महाराष्ट्र के युवा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस। दोनों की ही मोदी में अटूट आस्था है। इसी के साथ दोनों में एक और साम्य है कि इसके पूर्व दोनों में से कोई भी किसी मंत्री पद पर नहीं रहा है।
सादा जीवन और साफ-सुथरी छवि वाले आरएसएस के प्रचारक रहे मनोहर लाल खट्टर की ख्याति बीजेपी में एक ऐसे व्यक्ति की है, जो हर काम पूरी शिद्दत से करते हैं और उतनी ही कुशलता से करवाते भी हैं। इधर-उधर के मुद्दों में उलझे बिना पर्दे के पीछे से पार्टी की मजबूती के लिए लगातार काम करते रहने वाले खट्टर बीजेपी में अहम पदों पर रहे और अक्सर अपने संगठन कौशल का लोहा मनवाया। बावजूद इसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी करीबी व मोदी के प्रति उनकी निष्ठा ने उन्हें हरियाणा में सत्ता के शिखर पर पहुंचाया है। इसी तरह कॉरपोरेटर से मात्र 27 साल की उम्र में नागपुर के सबसे युवा मेयर बने देवेन्द्र फड़नवीस ने महाराष्ट्र में भाजपा के प्रथम मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया है। मराठा राजनीति और मराठा नेताओं के वर्चस्व वाले इस राज्य में 44 वर्षीय फड़नवीस की आरएसएस में गहरी जड़ें तो हैं ही मोदी में भी उनकी गहरी निष्ठा है। ब्रांड मोदी के ये नये उत्पादों ने भी जता दिया है कि वे मोदी के नक्शेकदम पर चलकर अपने अपने राज्यों को बुलंदी तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखेंगे। अब वे इसमें कितना कामयाब होते हैं यह तो भविष्य के गर्भ में है परंतु एक बात तो बिल्कुल ही साफ है कि विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद ब्रांड मोदी अपनी चमक खोने की बजाय और ज्यादा चटख होता जा रहा है।

शनिवार, 17 मई 2014

नमो नम:, बाकी सब स्वाहा


न भूतो न भविष्यति। कुछ ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है नरेंद्र मोदी ने। देश की सियासत में नरेंद्र मोदी एक ऐसा नाम बनकर उभरे हैं जिनसे कइयों को रश्क हो सकता है। चंद महीनों में ही कश्मीर से कन्या कुमारी व कच्छ से कुमायूं तक जनता के दिलो दिमाग पर जिस तरह मोदी छा गए थे, वह अभूतपूर्व थी। इस दौरान उन्होंने पूरे देश में लगभग तीन लाख किलोमीटर की यात्रा की। अपनी लगभग पांच सौ रैलियों, च...ाय पे चर्चा व अन्य कार्यक्रमों की बदौलत उन्होंने ‘अब की बार मोदी सरकार’ को एक तरह से जनांदोलन ही बना दिया। मोदी लहर कब सुनामी में बदल गई, विरोधियों को पता ही नहीं चला। मोदी विरोधी कभी सपने में भी यह नहीं सोच पाए कि देश में ‘नमो नम:, बाकी सब स्वाहा’ का अंडरकरंट बह रहा है। चुनाव परिणाम ने मोदी के दावे को सत्य साबित कर दिया है कि कांग्रेस किसी भी राज्य में दहाई का आंकड़ा नहीं पार कर पाएगी। इसी के साथ कई राज्यों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुलेगा। हूबहू वैसा ही परिदृश्य दिखाई दे रहा है जैसा मोदी ने दावा किया था। इस चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक का भ्रम तो टूटा ही, जाति-उपजाति का बंधन भी ढीला पड़ा। ‘नमो नम: बाकी सब स्वाहा’ की अनुगूंज में जातिवाद की राजनीति के लिए कुख्यात उत्तर प्रदेश व बिहार में मुलायम सिंह यादव, मायावती व लालू प्रसाद यादव जैसे क्षत्रप कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह गए हैं। लालू के वह दावे सिर्फ ‘गाल बजाने’ जैसा साबित हुए, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी ने बिहार में मोदी लहर को रोक दिया है। मोदी की सुनामी में उनकी पत्नी राबड़ी देवी व बेटी मीसा भारती दोनों हार गईं। सबसे बुरी गत हुई नीतीश कुमार की। मुस्लिम वोटों की चाहत में एनडीए से अलग होने का उन्हें जबर्दश्त खामियाजा भुगतना पड़ा है। बिहार की जनता ने उन्हें महज दो सीटों पर निपटा दिया है। मोदी समर्थकों द्वारा चुनाव के दौरान अति उत्साह में दिए गए नारे ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ की सार्थकता इससे भी साबित हो रही है कि कई राज्यों से कांग्रेस पूरी तरह साफ हो गई। ‘मोदी-मोदी’ की गूंज में कांग्रेस का इन राज्यों में खाता तक नहीं खुला। बड़े-बड़े नाम धराशायी हो गए। चुनावी इतिहास में कांग्रेस की इतनी बुरी गत इससे पहले कभी नहीं हुई थी। वह पूरे देश में कुल मिलाकर 50 का आंकड़ा भी नहीं छू पाई। मोदी को मिला जनसमर्थन पहले लहर में बदला और देखते ही देखते कब सुनामी में बदल गया इसका आकलन खुद भाजपा भी नहीं कर पाई। उसे भी इतनी जबर्दश्त जीत की उम्मीद नहीं थी। ऐसी लहर सिर्फ 1984 में दिखी थी। उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर में देश ने राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत दिया था। तीस साल बाद एक बार फिर देश ने मोदी में वैसी ही आस्था दिखाई है। विरोधियों द्वारा लगातार खलनायक के रूप में प्रस्तुत किए जाते रहे मोदी को देश की जनता ने रातोंरात महानायक बना दिया है। नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने देश की जनता के मन में ढेर सारी उम्मीदें जगाई हैं, अब उन्हें पूरा करने की चुनौती उनके सामने है।

बुधवार, 14 मई 2014

कई मायनों में याद रखा जाएगा यह चुनाव


16वीं लोकसभा के लिए पांच सप्ताह से अधिक समय तक चले मैराथन मतदान का सिलसिला समाप्त हो चुका है। कल परिणाम भी आ जाएगा। संयोग से 16वीं लोकसभा के लिए संपन्न हुए चुनाव की मतगणना 16 मई को होने जा रही है। फिलहाल, एग्जिट पोल का दौर जारी है। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की सुगबुगाहट के बीच बाजार आसमान में कुलांचे भर रहा है। खैर, इसकी भी असलियत कल सामने आ ही जाएगी। वैसे यह चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा। इस चुनाव को इसलिए भी याद रखा जाएगा कि पहली बार इतने लंबे समय तक मतदान प्रक्रिया चली। पूरे देश में नौ चरणों में संपन्न हुए मतदान के दौरान कोई बड़ी दुखद घटना नहीं घटित हुई। निश्चय ही इसका श्रेय चुनाव आयोग को दिया जाना चाहिए। देखा जाय तो यह चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव रहा है। एक अनुमान के मुताबिक केवल चुनाव प्रचार में ही 30 हजार करोड़ रु पए खर्च हो गए। भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने पहली बार 3डी रैली की तकनीक का उपयोग किया। इसके जवाब में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने तमाम न्यूज चैनलों पर एक ही समय विज्ञापन का स्लॉट लेकर देश को संबोधित किया। इस मैराथन प्रचार में सबसे अधिक मोदी ने 25 राज्यों में तीन लाख किलोमीटर घूम कर 500 से अधिक रैलियों को संबोधित किया। मोदी 1390 3डी रैलियां, 4827 पब्लिक प्रोग्राम और लगभग चार हजार चाय पर चर्चा में शामिल हुए। 1984 के बाद पहली बार वोटरों ने बंपर वोटिंग कर लोकतंत्र में अपनी भरपूर आस्था जताई। हालांकि यदाकदा राजनीतिक दल लोकतंत्र के इस महायज्ञ को कलंकित करते भी देखे-सुने गए। सत्ता को बरकरार रखने व पाने को लेकर राजनीतिक जुनून चरम पर रहा। कई वाकये ऐसे हुए जिसने लोकतंत्र को मजबूती देने के बजाय शर्मसार ज्यादा किया। कभी न भूलने वाली घटनाओं के लिए भी यह चुनाव याद रखा जाएगा। इस पर जमकर विवादों की छाया भी पड़ी। यह जुनूनी सफर पांच मार्च से शुरू हुआ था जो 12 मई तक अनवरत चलता रहा। चुनाव प्रचार का गिरता स्तर इस बार चिंता छोड़ गया। राजनीति में मर्यादा की सारी सीमाएं टूटीं और निजी जिंदगी सार्वजनिक तौर पर चुनावी मुद्दे बनी। मोदी की पत्नी से लेकर राहुल, प्रियंका तक के निजी मामले उठे, दिग्विजय सिंह की निजी जिंदगी भी पब्लिक डोमेन में आ गई। कोई मोदी की बोटी-बोटी काट रहा था, तो कोई मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेज रहा था। कोई कह रहा था कि राहुल गांधी दलितों के घर जाकर हनीमून मनाते हैं तो कोई करगिल फतह को मुस्लिम सैनिकों की देन बता रहा था। एक नया आयाम इस चुनाव में जो देखने को मिला वह था सोशल मीडिया। आम चुनाव में फेसबुक, ट्विटर और गूगल ने भी अहम भूमिका निभाई। राजनीतिक दल इन सोशल साइट्स पर एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में लगे रहे। इस चुनाव में एक और परंपरा यह टूटी कि अब तक अमूमन बड़े नेता एक-दूसरे के खिलाफ न बड़े उम्मीदवार उतारते थे, न ही उनके गढ़ में गहन चुनाव प्रचार करने जाते थे। लेकिन इस बार राजनीतिक रण में यह अनकहा कोड भी टूट गया। राहुल के गढ़ में मोदी ने रैली की तो जवाब में राहुल बनारस में रोड शो करने पहुंच गए।

मंगलवार, 13 मई 2014

बनारस का ‘विरोध रस’


मोदी बनाम तमाम बनती जा रही बनारस की लड़ाई
ब्राह्मणों की नाराजगी बढ़ा रही मोदी की मुश्किलें
मोदी को रोकने के लिए दुश्मनों ने भी मिला लिया है हाथ

भाजपा के लिए नाक का सवाल बन चुकी वाराणसी में उसकी मुश्किलें भी कम नहीं हैं। वाराणसी के बहाने पूर्वांचल की 19 सीटों को फतह करने का सपना कब दिवास्वप्न में तब्दील हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोधियों की ओर से जिस तरह के चक्रव्यूह का तानाबाना बुना गया है उससे पार पाना नामुमकिन न सही पर कठिन जरूर है। वाराणसी की लड़ाई अब ‘मोदी बनाम तमाम’ का रूप ले चुकी है। मोदी को हराने के लिए धुर विरोधी भी एकजुट हो गये हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में वाराणसी में मुरली मनोहर जोशी को जबरदस्त टक्कर देने वाले पूर्वांचल के माफिया डॉन मुख्तार अंसारी ने इस बार कांग्रेस के अजय राय को अपना समर्थन दे दिया है। मजे की बात यह है अजय राय व मुख्तार अंसारी एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाते हैं। मुख्तार अंसारी पर अजय राय के बड़े भाई की हत्या का आरोप है जिसके गवाह खुद अजय राय हैं। पिछले चुनाव में जोशी महज 19 हजार वोटों के अंतर से मुख्तार अंसारी से जीत पाये थे। मोदी के खिलाफ लामबंद विपक्ष की ऐसी जबरदस्त घेराबंदी से निपटने में अपनी सारी ऊर्जा खपा रही भाजपा को ब्राह्मणों की नाराजगी से भी जूझना पड़ रहा है। उसकी मुश्किलों में इजाफा करती दिख रही ब्राह्मणों की नाराजगी मुरली मनोहर जोशी को बनारस बदर करने को लेकर है। परंपरागत तौर पर भाजपा समर्थक माने जाने वाले ब्राह्मणों को मुरली मनोहर जोशी को वाराणसी से टिकट न देना रास नहीं आया। इस मुद्दे को धीरे-धीरे ब्राह्मण सम्मान से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। इसे हवा देने में जुटे जोशी समर्थकों को अन्य दलों के ब्राह्मण नेताओं का भी समर्थन मिल रहा है। मोदी के खुले विरोध में आए एक स्थानीय ब्राह्मण नेता के अनुसार ‘यह हमारा अपमान है’। बहरहाल, ब्राह्मणों का यह विरोध क्या गुल खिलाएगा या चुनाव में इसका कितना असर पड़ेगा, यह तो 16 मई के बाद ही पता चलेगा, पर इतना तय है कि ब्राह्मणों की नाराजगी ने भाजपा की पेशानी पर बल जरूर ला दिया है। भाजपा नेता नाराज ब्राह्मणों को मनाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। बावजूद इसके आलम यह है कि लाख कोशिशों के बाद भी मोदी समर्थक जोशी के समर्थकों को मनाने में अब तक विफल साबित हुए हैं। भाजपा से ब्राह्मणों की नाराजगी से वाकिफ कांग्रेस की स्थानीय इकाई भी इसे हवा देने में जुटी है। जोशी की इच्छा के विरुद्ध उन्हें वाराणसी से कानपुर भेज देने के निर्णय को ब्राह्मण सम्मान से जोड़कर कांग्रेस मोदी की राह में कांटें बिछाने की पुरजोर कोशिशों में जुटी हुई है। कुछ हद तक कांग्रेस की इस रणनीति को सफलता मिलती भी दिख रही है। अंदर ही अंदर यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि भाजपा ने जोशी को यहां से कानपुर भेजकर ब्राह्मणों का अपमान किया है। अगर समय रहते भाजपा इस असंतोष पर काबू नहीं कर पाई तो उसके सारे किए-कराए पर पानी फिरते देर नहीं लगेगी। वैसे भी पिछले लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं ने भाजपा को सबक सिखाने के लिए  हाथी पर सवार हो गये थे। इससे यूपी में बसपा को जबरदस्त फायदा हुआ था।

आपरेशन मोदी


मोदी रोको प्लान पर कांग्रेस में मंथन
दे सकती है तीसरे मोर्चे को समर्थन
मुलायम, मायावती, जयललिता व ममता बनर्जी समेत दर्जन भर दावेदार

तथाकथित मोदी लहर अब कांग्रेस को भी डराने लगा है। जैसे-जैसे 16 मई नजदीक आती जा रही है वैसे-वैसे कांग्रेस की धड़कनें बढ़ती जा रही हंै। मोदी के बढ़ते काफिले को रोक पाने में खुद को अक्षम पा रही कांग्रेस नये सहयोगियों की तलाश में जुट चुकी है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह केंद्र में एक स्थायी सरकार गठन के लिए तमाम विकल्पों पर गौर करे। इसके लिए व्यापक यूपीए-3 की संभावनाओं को भी टटोला जा रहा है। हालांकि यह सब कांग्रेस व भाजपा द्वारा प्राप्त सीटों के आंकड़े पर निर्भर करता है। अगर भाजपा व उसके सहयोगियों को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिल पाता है तो फिर उसके लिए नये सहयोगी तलाशना टेढ़ी खीर ही साबित होगी। ऐसे में एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर यूपीए-3 का तानाबाना बुना जा सकता है। हालांकि खुद कांग्रेस को भी यह दूर की कौड़ी ही नजर आती है। बावजूद इसके मोदी सरकार न बने इसके लिए कांग्रेस की ओर से तमाम हथकंडे आजमाए जा रहे हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए ‘आॅपरेशन मोदी’ पर काम करना शुरू कर दिया है। अनौपचारिक बातचीत में कांग्रेस नेता भी मानते हैं कि राहुल गांधी के तमाम प्रयासों के बावजूद कांग्रेस की हालत पतली ही है। ऐसे में सरकार बनाने के लिए जरूरी मैजिक फिगर तो दूर यूपीए के लिए उसके आसपास फटकना भी खुली आंखों सपने देखने जैसा है। यही कारण है कि मोदी लहर से घबराए कांग्रेस के रणनीतिकार अब तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देने की बात करते नजर आ रहे हैं। मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस का यह आखिरी दांव है। इसके पहले मोदी को निपटाने के लिए अपनाये गये उसके हर हथकंडे बेकार साबित हुए हैं। पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि यदि एनडीए मैजिक फिगर तक नहीं पहुंच पाती है तो ऐसे में उसे मोदी के नाम पर अन्य दलों से समर्थन मिलना नामुमकिन ही है। ऐसे में तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देना कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहेगा। हालांकि, ऐसी किसी भी संभावना को कांग्रेस उपाध्यक्ष सिरे से ही नकार चुके हैं। उन्होंने अभी हाल ही में कहा था कि यदि सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिलता तो जोड़तोड़ कर सरकार बनाने या तीसरे-चौथे मोर्चे को समर्थन देने के बजाय कांग्रेस विपक्ष में बैठेगी। इस सबके बीच तथाकथित तीसरे मोर्चे का स्वरूप भी अभी स्पष्ट नहीं है। इस मोर्चे के संभावित सभी दलों के नेता खुद को प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार मानते हैं। चाहे वह मुलायम सिंह यादव हों या तीन देवियां जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी। मुलायम सिंह यादव तो प्राय: अपनी हर सभा में खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार बताते घूम रहे हैं, वहीं उनकी धुर विरोधी बसपा सुप्रीमो मायावती भी एकाधिक बार दलित की बेटी के प्रधानमंत्री बनने की बात कर चुकी हैं। इससे इतर ‘ईस्ट आॅर वेस्ट, अम्मा इज द बेस्ट’ के नारे के साथ जयललिता समर्थक देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें देख रहे हैं। अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की नौबत आती है तो फिर नीतीश कुमार से लेकर नवीन पटनायक तक प्रधानमंत्री पद के और भी दर्जन भर दावेदार सामने आ सकते हैं। ऐसे में पीएम पद के दावेदारों को लेकर होने वाली सिरफुटौव्वल देखना दिलचस्प होगा। बहरहाल, यह सब फिलहाल अटकलबाजी ही है। फिर भी कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी के स्पष्ट कर देने के बावजूद तीसरे मोर्चे को समर्थन देने पर गंभीर विचार विमर्श चल रहा है। समर्थन देने को लेकर पार्टी में दो तरह के मत हैं। एक गुट चाहता है कि तीसरे मोर्चे को बाहर से समर्थन दिया जाए जबकि दूसरे गुट की मान्यता है कि किसी बीस सीटों वाली पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनवा कर खुद बाहर रहना घाटे का सौदा होगा। इस गुट का मानना है कि इस परिस्थिति में कांग्रेस को भी मंत्रिमंडल में शामिल होना चाहिए। इससे सरकार पर अंकुश भी रहेगा व स्थायित्व भी हासिल होगा। बहरहाल, मोदी सरकार न बने इसके लिए कांग्रेस को किसी भी हद तक जाने व किसी भी हथकंडे को अपनाने से गुरेज नहीं है। देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस अपने मंसूबे में कितना कामयाब हो पाती है।

एक बार फिर यूपी देगा देश को प्रधानमंत्री


  1. पीएम पद के तीनों प्रमुख दावेदार नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी व मुलायम सिंह यादव यूपी से ही लड़ रहे हैं चुनाव
अक्सर कहा जाता है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी से होकर जाता है। इसके पीछे वाजिब तर्क भी है। अगर अपवादों को छोड़ दें तो देश के अधिकतर प्रधानमंत्री इसी राज्य से जीतकर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए हैं। यूपी में लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं। यूपी में जिस पार्टी ने अपना झंडा बुलंद कर लिया उसकी सरकार बनना लगभग तय माना जाता है। यही कारण है कि तमाम राजनीतिक दलों की चाहत उत्तर प्रदेश की अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा करने की रहती है। अब यूपी किसको ताज पहनाएगा यह तो 16 मई के बाद ही पता चलेगा पर जो भी हो एक बार फिर यूपी देश को प्रधानमंत्री देने जा रहा है। नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी व मुलायम सिंह के रूप में प्रधानमंत्री पद के तीनों प्रमुख दावेदार इस बार यूपी की क्रमश: वाराणसी, अमेठी व आजमगढ़ से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। वाराणसी से भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी, अमेठी से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी व अपने गृह जनपद के अतिरिक्त आजमगढ़ से मुलायम सिंह यादव चुनावी रण में हैं। मोदी लहर पर सवार भाजपा को लगता है कि वह अपना पिछला रिकार्ड एक बार फिर दोहरा पाएगी। हालांकि वह पिछले हर लोकसभा चुनाव में पिछड़ती गई है। कभी लोकसभा की 57 सीटें जीतकर केंद्र में सरकार बनाने वाली भाजपा की हालत दिनोंदिन खस्ता होती गई। इस बार उसको उम्मीद है कि यूपी में उसके ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’। वहीं प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर टकटकी लगाए समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को भी लगता है कि यदि वे यूपी से ठीकठाक सीटें निकाल लेंगे तो उनके भाग्य से छींका टूट सकता है। यानि कि वे भी तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। हालांकि यह तभी संभव है जब भाजपा व उसके सहयोगी सरकार बनाने लायक बहुमत से काफी पीछे रह जाएं। साथ ही कांग्रेस की सीटें भी काफी कम हो जाए। मसलन कांग्रेस 50-60 सीटों तक सिमट जाए। ऐसे में तीसरे मोर्चे के रूप में भानुमति का कुनबा जुड़ सकता है और मुलायम सिंह पीएम बन सकते हैं। बावजूद इसके यह दूर की कौड़ी ही नजर आती है। क्योंकि जिस तीसरे मोर्चे की बात जोरशोर से की जा रही है, उसमें शामिल होने वाले संभावित दलों के बीच भी कम खींचतान नहीं है। एक-दूसरे के धुर विरोधी मुलायम-मायावती या फिर टीएमसी मुखिया ममता बनर्जी और वामदलों के बीच की गहरी खाई को कैसे पाटा जाएगा। हालांकि भाकपा नेता जयवर्द्धन कह चुके हैं कि ममता बनर्जी से वामदलों को कोई गुरेज नहीं है। रही बात मुलायम व मायावती की तो दोनों ही यूपीए 2 की सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे। उसी तरह मायावती बाहर से तीसरे मोर्चे को समर्थन देंगी। तीसरे मोर्चे के रणनीतिकारों का मानना है कि मुस्लिम वोटबैंक को सुरक्षित रखने के लिए व भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के नाम पर वे राजी हो जाएंगी। इससे इतर अगर कांग्रेस की सीटें सौ से अधिक हो जाती है तो एक बार फिर व्यापक यूपीए 3 की संभावनाएं टटोली जा सकती हैं। ऐसी सूरत में सरकार का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी करेगी। जैसी की संभावना है तब राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे। बहरहाल, इससे एक बात तो स्पष्ट है कि यदि विशेष कुछ परिवर्तन नहीं हुआ तो इस बार देश का प्रधानमंत्री यूपी से ही होगा। 

अच्छे दिन आने वाले हैं!


आजकल प्रचार माध्यमों में एक नारा बहुत जोरशोर से सुनाई दे रहा है। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’। लेकिन ये अच्छे दिन किसके आने वाले हैं, इसपर कोई बहस नही करता। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई अच्छे दिन आने वाले हैं? क्या ‘अबकी बार मोदी सरकार’ से देश में रामराज्य आ जाएगा? रामराज्य की कल्पना बाबा तुलसीदास ने रामचरित मानस में इस प्रकार की है- दैहिक, दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहू नहीं व्यापा। तो क्या यह मान लेना चाहिए कि मोदी सरकार बनते ही महंगाई के बोझ से कराह रही जनता को इससे राहत मिल जाएगी। या फिर भ्रष्टाचार के भंवरजाल में उलझा देश तत्काल इससे बाहर निकल आएगा। अथवा देश की जनता का खून चूसकर अपनी तिजोरियां भरने वाले धनपशु सलाखों के पीछे पहुंचा दिये जाएंगे। या फिर स्वीट्जरलैंड के बैंकों में पैबस्त देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई रातोंरात वापस आ जाएगी? इसका छोटा-सा जवाब है नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है। जैसे पहले था वैसे ही आगे भी चलता रहेगा। हो सकता है कि आम जनता की मुश्किलों में कुछ और इजाफा ही हो जाए। तुलसीदास की ही एक और चौपाई को यहां उद्धृत करना गलत नहीं होगा कि कोऊ नृप होय, हमें का हानि, चेरि छोड़ नहीं होऊब रानी। यानि कुछ लोगों की लाटरी भले ही लग जाए, आम जनता की हालत जस की तस रहने वाली है। अगले कुछ दिनों, महीनों या सालों में कुछ भी बदलने नहीं जा रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि वाकई अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं। ऐसा मान लेना अर्धसत्य होगा। पूरा सच यह है कि हां, अच्छे दिन आने वाले हैं तो जरूर, पर उनके, जिन्होंने इस चुनाव में निवेश किया है। राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देकर आम जनता को बरगलाने के लिए जिन्होंने दौलत की दरिया बहाई है। सरकार बनने के बाद उन्हें एक बार फिर लूट की छूट होगी। अब वे पांच साल बगैर किसी रोकटोक के चंदे के रूप में निवेश की गई अपनी धनराशि को सूद समेत वसूलेंगे। सौ के हजार या लाख के रूप में। ...और यह मुआवजा भरेगी आम जनता। कभी गैस के दामों में बढ़ोत्तरी के रूप में तो कभी डीजल व पेट्रोल के बढ़े दामों के रूप में। ऐसे में शायद तब हम कह सकें कि वाह ! क्या अच्छे दिन आ गए हैं । इन सब परिस्थितियों का गहन अध्ययन करने के बाद एक गंभीर प्रश्न अवश्य उठता है कि ऐसे में अच्छे दिन आने वाले हैं या बुरे? भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी कहते हैं कि देश को संकट से उबारने के लिए जनता उनको केवल साठ महीने ही दे दे तो वे चौकीदार बनकर देश की सेवा करेंगे। इसके    विपरीत कांग्रेस उपाध्यक्ष व पार्टी के प्रधानमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार राहुल गांधी कहते हैं कि देश को एक चौकीदार नही चाहिए बल्कि वे तो सारे 125 करोड़ लोगों को ही चौकीदार की नौकरी देंगे। हालांकि इन 125 करोड़ चौकीदारों को कोई वेतन भी मिलेगा या नहीं, इसका कोई जिक्र नही कर रहे हैं। सवाल है कि राहुल गांधी किस अधिकार से 125 करोड़ नियुक्ति पत्र जारी करेंगे? इससे
इतर आम आदमी के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले अरविंद केजरीवाल हैं। अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन को कैश कर भ्रष्टाचार विरोधी रथ पर सवार होकर पहले तो दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, पर महत्वाकांक्षाओं ने ऐसा जोर मारा कि महज 49 दिनों में ही सरकार से किनारा कर लिया। आम जनता को दिखाए गये उनके सब्जबाग फ्री पानी, बिजली के आधे दाम, भ्रष्टाचार का खात्मा आदि सभी वादे हवा हवाई ही साबित हुए। जिस तरह से आश्चर्यजनक रूप से उन्हें दिल्ली की गद्दी नसीब हुई थी, उससे उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री पद ज्यादा दूर नहीं है, इसी सोच के साथ जनलोकपाल को मुद्दा बनाकर शहीदी मुद्रा बनाते हुए दिल्ली सरकार से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उनका यह दांव उल्टा पड़ गया। उनकी इस जल्दबाजी को खुद दिल्ली की जनता ने भी पसंद नहीं किया। अब वे वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ ताल ठोंक रहे हैं। उनका मुद्दा भी डायवर्ट हो गया है। अब उनके लिए भ्रष्टाचार उतना बड़ा मुद्दा नहीं है जितना बड़ा मुद्दा मोदी को रोकना। दरअसल, आजादी के इन छ: दशकों में नेताओं ने राजनीति को पूरी तरह से एक व्यापार बनाकर रख दिया है। कहीं बाप-बेटे , कहीं मां-बेटे, तो कहीं पति-पत्नी, तो कहीं पूरा का पूरा कुनबा एक साथ मिलकर सत्ता सुख भोग रहा है। ऐसे में कम से कम यह तो पूछा ही जा सकता है कि आने वाले दिन किसके अच्छे और किसके बुरे सिद्ध होंगे ?

आचार्य धर्मेन्द्र की बहकी-बहकी बातें


नेताओं की जुबान पर लगाम नहीं रही, यह इस चुनाव ने साबित कर दिया, लेकिन अब लगता है कि नेताओं की संगत का असर  हमारे धर्मगुरुओं पर भी होने लगा है। चुनाव प्रचार के दौरान  आपत्तिजनक विशेषणों  का जिस धड़ल्ले से प्रयोग हुआ उसने धर्मगुरुओं पर भी गहरा असर डाला है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर तंज कसते-कसते  बाबा रामदेव की जुबान बेलगाम हो गई थी । उन्होंने राहुल गांधी  को लेकर यह कह दिया था कि वे गरीबों के घर हनीमून व पिकनिक मनाने जाते हैं। बेलगाम हुई अपनी जुबान का योगगुरु अब तक खामियाजा भुगत रहे हैं। बहरहाल, अभी यह मामला चल ही रहा है कि एक और धर्मगुरु आचार्य धर्मेंन्द्र ने भी बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को लेकर एक ऐसा विवादित बयान दिया है, जिसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल के सदस्य आचार्य धर्मेंद्र ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अपना उच्च विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि कोई डेढ़ पसलीवाला, बकरी का दूध पीने और सूत कातने वाला व्यक्ति भला भारत का राष्ट्रपिता कैसे हो सकता है। आचार्य धर्मेंद्र ने उक्त बातें अमरकंटक के मृत्युंजय आश्रम में सत्संग के दौरान कही। आचार्य के अनुसार हम भारत को 'मां' मानते हैं। ऐसे में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का संबोधन देना सर्वथा गलत है। गांधीजी भारत मां के बेटे हो सकते हैं, लेकिन राष्ट्रपिता का ओहदा उन्हें नहीं दिया जा सकता।’ आचार्य यहीं नहीं रुके, बल्कि यहां तक कह डाला कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए गांधीजी की तस्वीर वाले  नोट जिम्मेदार हैं। आचार्य ने कहा कि भारत की करंसी में महात्मा गांधी के बजाय भगवान गणेश की तस्वीर छापी जानी चाहिए। इससे भ्रष्टाचार पर स्वयमेव अंकुश लग जाएगा। प्रखर व ओजस्वी वक्ता के रूप में ख्यात आचार्य धर्मेंद्र के अनुसार भारत देवताओं की भूमि है और महज 100 वर्षों के भीतर कोई इस महान देश का पिता कैसे हो सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को लेकर सामने आए आचार्य धर्मेंद्र के इस विचार से एक बात साफ जाहिर हो रही है कि कहीं न कहीं हमारे धर्मगुरुओं में भी भटकाव आ रहा है। यह सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि एक के बाद एक लगातार ऐसे बेसिर पैर के बयान आ रहे हैं जिससे केवल और केवल विवाद का ही सृजन हो रहा है। क्या यह भटकाव का ही नतीजा नहीं है कि बाबा रामदेव कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल को घेरने के चक्कर में पूरे दलित समाज का ही अपमान कर बैठे। भले ही उनकी मंशा यह नहीं रही हो लेकिन आखिरकार उनकी बेलगाम जुबान ने जाने अनजाने ही सही दलितों की अस्मिता पर कुठाराघात तो किया ही। नतीजा, एक योगगुरु के रूप में पूरे देश में सम्मान पाने वाले बाबा के खिलाफ देश के विभिन्न भागों में दर्जनों केस दर्ज हो चुके हैं। हालांकि न्यायालय से उन्हें थोड़ी राहत  मिली है। इसलिए जरूरी है कि बेफिजूल की बचकानी बातों में अपनी ऊर्जा नष्ट करने के बजाय सभी संप्रदायों के धर्मगुरुओं को समाज को सही दिशा की ओर अग्रसर करने को प्रेरित करना चाहिए। इसी से समाज व देश का भला होगा। शब्द को ब्रह्म कहा गया है, इसलिए इसकी महत्ता को समझें। इसे यूं ही जाया न करें। धर्मगुरुओं के प्रति लोगों के मन में एक खास आदर का भाव होता है, उसे अक्षुण्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी आपकी ही है। अपने ओछे बयानों से आम जनता की आस्था को खंडित न होने दें।