गुरुवार, 27 जून 2013

आगे की राह कठिन है नीतीश के लिए

                               बद्रीनाथ वर्मा
बीजेपी के साथ गठबंधन खत्म करने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में विश्वासमत हासिल कर अभी तो उन्होंने अपनी सरकार बचा ली पर आगे का रास्ता उतना निरापद नहीं होगा। कल तक एक दूसरे की गलबहियां डाले नीतीश व जेडीयू के बीच बिहार बंद के दौरान चली लाठियां इसकी बानगी है। 19 जून को बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार द्वार पेश विश्वासमत के पक्ष में 126 वोट, जबकि विरोध में 24 वोट पड़े। नीतीश पर डोरे डाल रही कांग्रेस ने राज्य में सत्तासीन जेडीयू के पक्ष में मतदान किया हालांकि नीतीश के पक्ष में मतदान करने के लिए चार निर्दलीय विधायक पहले से ही तैयार हो गए थे।
बिहार में बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में विधानसभा का नजारा भी बदल गया है । पिछले सत्र तक सत्तापक्ष के साथ सदन में बैठे भाजपा के विधायक अब मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में है। प्रतिपक्ष के नेता का पद भी अब राष्ट्रीय जनता दल की बजाए भाजपा के पास है।
वहीं विधानसभा में नेता विरोधीदल बने नंदकिशोर यादव के नेतृत्व में नीतीश सरकार के विश्वासमत प्रस्ताव पेश करने के बाद बीजेपी विधायकों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर एनडीए को मिले जनादेश के साथ छल करने का आरोप लगाते हुए सदन से वॉकआउट कर दिया। बीजेपी विधायक दल के नेता नंदकिशोर यादव ने सदन में कहा, हम जानते हैं कि आपने विश्वासमत हासिल करने के लिए बहुमत जुटा लिया है.. हम वॉकआउट कर रहे हैं। नंदकिशोर यादव की घोषणा के बाद बीजेपी विधायक सदन से बाहर चले गए। उस समय नीतीश कुमार सरकार द्वारा पेश किए गए विश्वासमत पर चर्चा हो रही थी।
विधानसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पेश विश्वास मत के प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान भाजपा और प्रतिपक्ष के नेता नंद किशोर यादव ने कहा कि नीतीश सरकार ने कांग्रेस की 'जुगाड़ तकनीक' से बहुमत जुटा लिया है
इसलिए सदन में इस पर मतदान की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने नीतीश कुमार पर दोहरा मापदंड अपनाने और सुविधा की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहा कि श्री कुमार ने जिस तरह की छवि मीडिया के जरिये प्रसारित किया हैं उससे भाजपा और बिहार की जनता को उम्मीद थी कि नीतीश पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते और फिर से जद यू विधायक दल का नेता चुन कर मुख्यमंत्री पद की जिम्मेवारी संभालतें।
सदन की कार्यवाही शुरू होते ही भाजपा के विधायकों ने जय श्री राम और नरेंद्र मोदी जिंदाबाद के नारे लगाए। इससे पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने विपक्ष के नेता के तौर पर भाजपा के नेता नंद किशोर यादव के नाम की घोषणा की। गौरतलब है कि 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में जदयू के 118 विधायक है और उसे बहुमत का जादुई आंकड़ 122 प्राप्त करने के लिए मात्र चार विधायकों की ही जरूरत है। विधानसभा में भाजपा के 91, राष्ट्रीय जनता दल के 22, कांग्रेस के 4 और लोक जनशक्ति पार्टी तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक-एक और 6 निर्दलीय विधायक है।
निर्दलीय विधायकों में से ओबरा के सोमप्रकाश, लौरिया के विनय बिहारी, ढाका के पवन कुमार जायसवाल और बलरामपुर के दुलालचंद गोस्वामी ने नीतीश सरकार के पक्ष में वोट दिया। राजद ने विश्वासमत के खिलाफ वोट दिया। विपक्ष में 24 वोट पड़े। विश्‍वास मत हासिल करने के दौरान नीतीश कुमार ने बीजेपी पर शब्‍दों के तीर चलाते हुए कहा, 'विश्‍वासघात दिवस' मनाने के दौरान जिस तरीके का व्‍यवहार हुआ और जैसी घटनाएं हुईं उससे तो यही लगा चलो अच्‍छा हुआ, हम अलग हो गए। नीतीश कुमार ने बीजेपी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि बिहार की उपलब्धियों पर इनको नाज नहीं था। बिहार के विकास का जो मॉडल है वह समाज को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति है. उन्‍होंने कहा, 'अपने विकास मॉडल में हमने कानून का राज कायम किया. इसमें हमने समाज के वंचित तबके को आगे बढ़ाने का काम किया. हमारा कार्यक्रम समावेशी है. इससे किसी की आलोचना कैसे हो सकती है? इसमें किसी को परेशानी क्‍यों होने लगी?'
नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना नीतीश ने अपने भाषण के दौरान कई बार उन पर हमला किया. उनके मुताबिक, 'हमने तो कहा कि देश का नेतृत्‍व ऐसे लोगों के हाथ में हो जो देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चल सके. हमने अटल की कार्य शैली की बात की. इसे भी लोगों ने मान लिया कि हमने किसी के खिलाफ बोला.'
उन्‍होंने कहा, 'जब साथ छूटा तो लोग बिहार की जनता का नारा तो नहीं लगा रहे थे... नारा सुशील मोदी का तो लगा नहीं रहे थे... नारा किसी और का लगा रहे थे। मैंने तो पहले ही कहा था कि बाहरी लोगों का हस्‍तक्षेप काफी बढ़ गया है और यही कारण है कि हम साथ नहीं चल सकते।
नीतीश कुमार ने 2003 में रेलमंत्री के तौर पर अपने गुजरात दौरे का भी जिक्र किया और कहा, 'हम रेलमंत्री के तौर पर गए थे गुजरात. मैंने तो उस समय भी कहा था कि गुजरात पर एक काला धब्‍बा लगा है. बीजेपी के लोगों को वह भाषण फिर से सुन लेना चाहिए जिसका कुछ अंश अब लोगों को सुना रहे हैं। मोदी का नाम लिए बिना नीतीश ने कहा, '2005 में नया बिहार का नारा दिया गया था. वह नारा मेरे नाम को जोड़ कर दिया गया था. उस समय बीजेपी ने (मोदी को) क्‍यों नहीं बुलाया. 2009 में क्‍यों नहीं बुलाया गया।
नीतीश कुमार ने कोसी आपदा के समय का जिक्र किया. उस दौरान नरेंद्र मोदी ने बिहार को सहायता भेजी थी, जिसे नीतीश ने वापस कर दिया था. इसका जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा, 'मैं तो 2010 में इस्‍तीफा देने के लिए बैठा हुआ था. आपदाग्रस्‍त राज्‍य को दूसरे राज्‍य मदद करते ही हैं, लेकिन जिस तरीके से उन्‍होंने (मोदी ने) इसका जिक्र किया वह उचित नहीं था।

अभी तो नीतीश कुमार ने विधानसभा में विश्वासमत हासिल कर अपनी सरकार बचा ली है पर आगे रास्ता कठिन है। उन्होंने एक तरह से जुआ ही खेला है। साढ़े सोलह फीसदी मुस्लिम वोटों के लोभ में अपने सत्रह साल पुराने साथी को छोड़ना कही उन पर भारी न पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि अगड़े वोट तो हाथ से चले ही जाएं और मुस्लिम मत भी न मिले। ऐसे में जद (यू) के पास अब दो ही रास्ते हैं। वह क्षेत्रीय दलों के प्रस्तावित फेडरल फ्रंट के लिए कोशिश करे या फिर कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका संभाले। राहुल गांधी के निकटस्थ नेताओं का एक समूह और कुछ असरदार कॉरपोरेट घराने नीतीश को कांग्रेस के नजदीक लाने की कोशिश में हैं, पर शरद यादव इस पहल को लेकर थोड़े असहज बताए जाते हैं। खूद जदयू सूत्रों का कहना है कि यदि शरद यादव की चली होती तो यह गठबंधन नहीं टूटता लेकिन खुद शरद यादव भी नीतीश के सहारे ही अपनी संसदीय सीट बचा पाते हैं ऐसे में वे नीतीश से इतर कुछ कर पाने की हैसियत में ही नहीं हैं। फेडरल फ्रंट की खिचड़ी की हांडी अभी चूल्हे पर चढ़ी नहीं। नीतीश को दोनों विकल्पों के लिए और इंतजार करना होगा। 

सुविधा की सियासत के शातिर खिलाड़ी

                             बद्रीनाथ वर्मा 

नैतिकता व आदर्शों की दुहाई देते हुए नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ अपने सत्रह साल पुराने रिश्ते खत्म कर लिए।  उनका कहना कि वह सिद्धांतों की वजह से एनडीए से अलग हुए हैं, एक भद्दे मजाक से ज्यादा कुछ भी नहीं है। मोदी विरोध का परचम वह किसी नैतिकता या आदर्शों का उच्च उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए नहीं बल्कि अपनी महत्वाकांक्षा को सिरे चढ़ाने के लिए उठाये हुए हैं। अगर उन्हें इतनी ही नैतिकता की चिंता थी तो पहले उन्हें सरकार से त्यागपत्र देना चाहिए था और नया जनादेश लेकर बिहार की सत्ता संभालनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। नैतिकता का तकाजा था कि एनडीए के नाम पर मिले जनादेश को वे जदयू की सरकार के लिए उपयोग नहीं करते। रही बात गुजरात दंगे की वजह से बदनाम हुए नरेंद्र मोदी से एलर्जी की तो यह एलर्जी उस समय काफुर क्यों हो गई थी जब वे मोदी व गुजरात सरकार का प्रशस्ति वाचन कर रहे थे।
बीजेपी से अलग होने के सवाल पर भले ही सुशासन बाबू कह रहे हैं कि मोदी जैसे सांप्रदायिक व्यक्ति की वजह से ही उन्होंने उनसे किनारा किया है पर यह उनकी तथाकथित उच्च नैतिकता दस साल पुराने उस वीडियो में काफुर दिखती है। उस वीडियो में नरेंद्र मोदी के गुणगान करते नीतीश कुमार मोदी से देश को अपनी सेवाएं देने की अपील करते नजर आते हैं। जबकि उस समय गुजरात दंगे को हुए अभी पूरे एक साल भी नहीं गुजरे थे। गुजरात दंगों के तत्काल बाद तो छोड़िए पूरे ग्यारह साल तक एनडीए के साथ रहकर पहले केंद्र में रेलमंत्री और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की मलाई चाटते रहे। हां, इस दौरान उनकी महत्वाकांक्षाओं ने भी उड़ान भरनी शुरू कर दी। यह महत्वाकांक्षा है प्रधानमंत्री पद की लालसा। इस बार जैसी की संभावना जताई जा रही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई व घोटाले के लिए बदनाम हो चुकी यूपीए-2 सरकार की विदाई निश्चित है, ऐसे में उन्हें लगा कि मौका अच्छा है। मोदी विरोध का परचम उठाकर बिहार की साढ़े सोलह फीसदी मुस्लिम आबादी पर दावा ठोंका जाय। क्योंकि एनडीए में रहते हुए यह मंसूबा कामयाब हो नहीं पाता। भले ही बीजेपी ने स्पष्ट नहीं किया था पर यह तो जगजाहिर है कि बीजेपी में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार के रूप में उभरे हैं। सुविधा की सियासत के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार यह भलीभांति जानते हैं कि बीजेपी से अलग दिखने पर अगला देवगौड़ा बनने के आसार बढ़ जाएंगे। यूं भी भाजपा से नाता तोड़ने में तात्कालिक तौर पर उन्हें कोई नुकसान नहीं होने जा रहा था। बिहार में अपनी सरकार बचाये रखने के लिए उन्हें सिर्फ चार विधायकों के ही समर्थन की जरूरत पड़ने वाली थी। सीधा सा गणित था कि राज्य विधानसभा में कांग्रेस के चार और छह निर्दलिय विधायकों के सहारे सरकार बच जाएगी। फिलहाल उनकी सरकार ने विश्वासमत हासिल भी कर लिया है। कांग्रेस विधायकों के अलावा चार निर्दलिय विधायकों ने भी सरकार के पक्ष में मतदान किया।
बीजेपी व जदयू के रास्ते अलग होने के बाद भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने सही सवाल उठाया है कि जब गुजरात में दंगे के घाव अभी हरे ही थे उस वक्त तो नीतीश को मोदी में कोई बुराई नहीं नजर आती थी और आज दस साल बाद जब गुजरात में चारों ओर शांति है, खुशहाली है। गुजरात विकास के पथ पर है तो अचानक नीतीश को मोदी सांप्रदायिक नजर आने लगे। जाहिर है इस सवाल का जवाब नीतीश के पास नहीं है। अगर है भी तो वे देना नहीं चाहते। दरअसल, मामला न तो नैतिकता का है और न ही किसी आदर्श या सिद्धांत का। मामला है प्रधानमंत्री पद का। नीतीश को पता है कि एनडीए में रहते हुए उनकी यह महत्वाकांक्षा कभी पूरी नहीं होने वाली है। इसलिए मुस्लिम वोटों की लालच में उन्होंने भी वही शार्टकट अपनाया है जो हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनाते हैं। मोदी का डर दिखाकर मुस्लिमों के वोट हासिल करना।
भाजपा से अलगाव के ऐलान के साथ नीतीश और शरद ने दावा किया कि उन्होंने सिद्धांतों से समझौता न करने का फैसला किया। साथ में यह भी कहा कि गठबंधन अटल-आडवाणी के चलते हुआ था। यह कौन सा सिद्धांत है, जिसमें किसी पार्टी का दूसरी पार्टी के साथ समझौता विचारों व साझा कार्यक्रमों के बजाय सिर्फ व्यक्तियों के आधार पर होता है! दूसरा सवाल कि आखिर जद (यू) कैसे निर्देशित करेगी कि भाजपा का अगला नेता कौन हो या भाजपा क्यों तय करेगी कि जद (यू) का मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन हो! चुनाव-परिणाम के बाद जद (यू) यदि किसी नाम पर वीटो लगाता, तो उसका कोई मतलब था।
दरअसल यह गठबंधन न तो किसी विचारधारा पर आधारित था और न ही यह राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दों से अनुप्रेरित था। यह सिर्फ और सिर्फ बिहार की राजनीति के एक खास पहलू पर लालू विरोध पर आधारित गठबंधन था, जिसकी प्रासंगिकता कब की खत्म हो चुकी थी। अगर जद (यू) को सेक्यूलरवाद से अपनी कथित प्रतिबद्धता के चलते इस गठबंधन को तोड़ना था, तो सर्वप्रथम तो इसे बनना ही नहीं चाहिए था, क्योंकि बाबरी-ध्वंस के बाद यह बना। नीतीश को सेक्यूलरिज्म और समाजवाद से इतना गहरा लगाव था, तो वह 1995 की अपनी लाइन (समता-आईपीएफ तालमेल) को जारी रखते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वर्ष 1996 में भाजपा के साथ हो लिए। मान लिया कि लालू-हटाओकी तात्कालिक जरूरत के हिसाब से गठबंधन बन भी गया, तो 2002 के गुजरात दंगे के बाद मोदी को सत्ता से न हटाए जाने के बाद इसे टूट जाना चाहिए था। आखिर रामविलास पासवान ने नैतिकता दिखाते हुए उस वक्त इसी आधार पर न सिर्फ मंत्रिपद को ठोकर मार दी बल्कि राजग से खुद को अलग भी कर लिया था। पर जद (यू) के धुरंधर समाजवादी (या सुविधावादी!) राजग-राज के मजे लेते रहे। बिहार में भाजपा के सहयोग से ही जद (यू) की विधानसभाई (2010) और संसदीय (2009) सीटों में इजाफा संभव हो सका। ऐसे में यह साझा मुनाफे, सुविधा और सहूलियत का गठबंधन था।
गठबंधन नरेंद्र मोदी के नाम पर टूटा जरूर, पर इसके पीछे सियासत के कई अंतःपुर थे। बिहार में भाजपा-संघ ने बीते आठ वर्षों की सत्ता के दौरान खूब जमकर राजनीतिक विस्तार किया। जद (यू) के साथ नौकरशाह, कॉरपोरेट और ठेकेदार नत्थी होते रहे, तो भाजपा-संघ के साथ विभिन्न वर्गों-वर्णों में नए-नए कार्यकर्ता-समर्थक जुड़ते रहे। नीतीश के कथित अति-पिछड़ा और महादलित आधार में भी संघ-संपोषित संगठनों ने पैठ बना ली।

नीतीश का सब्र कब तक बंधा रहता! पिछले डेढ़-दो साल से नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगातार बोल-बोलकर नीतीश ने बिहार के लगभग 16.5 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं में पुख्ता आधार तलाशने की कोशिश की, पर राजग में बने रहते हुए उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल पा रही थी। उन्हें कुछ समय पहले तक यकीन था कि लालकृष्ण आडवाणी के जरिये भी वह मोदी-विरोध की लड़ाई जीत सकते हैं। मगर गोवा बैठक के बाद उनका यह विश्वास धाराशायी हो गया। फिर सियासत का खूबसूरत शब्द सेक्यूलरिज्म थाम लेने में हर्ज नहीं था और नीतीश ने वही किया।
देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश का यह दांव कहीं उल्टा तो नहीं पड़ जाता है। इसकी बानगी दिखनी शुरू भी हो गई है। कल तक एक दूसरे के गलबहियां डाले दोनों दल आज एक दूसरे पर लाठियां बरसाने तक से परहेज नहीं कर रहे हैं। एक दूसरे को विश्वासघाती करार दिया जा रहा है। भाजपा जहां नीतीश कुमार को विश्वासघाती ठहराते हुए बिहार बंद करा चुकी है वहीं नीतीश भाजपा को विश्वासघातियों की जमात करार दे रहे हैं। नीतीश का कहना है कि भाजपा अपने बुजुर्गों का सम्मान करने के बजाय उनके साथ विश्वासघात करती है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जनता दल (यू) के अलगाव पर भाजपा और जद (यू) के बीच बढ़ती खटास से कांग्रेस खेमे में खुशी है। केंद्र सरकार की नाकामियों और कमजोरियों के खिलाफ उभरते जनाक्रोश का राष्ट्रीय स्तर पर जिस विपक्षी गठबंधन को सबसे ज्यादा फायदा मिलने की संभावना जताई जा रही हो, उसके बिखराव से कांग्रेस का खुश होना लाजिमी है।
यदा कदा बोलने वाले देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी नीतीश को सेक्यूलर का सर्टिफिकेट दे दिया है जिसे नीतीश ने उनका शुक्रिया अदा करते हुए तहे दिल से स्वीकार किया है। आगे नीतीश कांग्रेस के साथ जाते हैं या फेडरल फ्रंट की खिचड़ी की हांडी चुल्हे पर चढ़ाने की जुगत भिड़ाते हैं। वैसे कांग्रेस ने नीतीश पर डोरे डालने शुरू कर दिए है। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि अब तक कांग्रेस को समर्थन दे रहे लालू का क्या होगा। खैर राजनीति संभावनाओं का खेल है इसे मान लेना ही बुद्धिमानी होगी। एक समय राजग में तेईस दल थे, अब सिर्फ तीन बचे हैं। हो सकता है कल को फिर तीस हो जाएं या फिर यूपीए में अकेले कांग्रेस ही रह जाए।



अपनों से परेशान अखिलेश

                            बद्रीनाथ वर्मा
खराब कानून व्यवस्था को लेकर विपक्षी दलों के हमले झेल रही उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार की परेशानियां कम होने का नाम ही नहीं ले रही। विपक्षी दलों का तो खैर काम ही है सरकार की खामियों को उजागर करना, पर अब अखिलेश सरकार के विधायक ही उन पर हमलावर हो गये हैं। चंदौसी की विधायक लक्ष्मी गौतम का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा है कि बलिया जिले के सिकंदरपुर से समाजवादी पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गये मोहम्मद जियाउद्दीन रिजवी ने अखिलेश सरकार को भ्रष्ट कहकर मुश्किल खड़ी कर दी है।
समाजवादी पार्टी के विधायक मोहम्मद जियाउद्दीन रिज़वी कहते हैं कि अखिलेश सरकार में भ्रष्टाचार बिल्कुल अपने चरम पर पहुंच गया है। यहां बिना पैसे के कोई काम नहीं होता है। हर विभाग व हर अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त है।
बलिया जिले के सिकंदरपुर से विधायक रिज़वी यही नहीं रुके बल्कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि इससे पहले प्रदेश में इतनी भ्रष्ट सरकार कभी नहीं रही। विधायक के इस आरोप से सकते में आई अखिलेश सरकार विधायक की शिकायतों का निवारण करने की बात कहकर अपनी खाल बचाने की कोशिश कर रही है। मोहम्मद जियाउद्दीन ने न्यू देहली पोस्ट से कहा कि भ्रष्टाचार इस कदर व्याप्त है कि आम जनता हो या कोई विधायक बिना पैसे दिए आपकी कोई नहीं सुनेगा। जिला में तैनात छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों ने अपने काम करने का यही तरीका बना लिया है। बगैर रिश्वत के कोई भी काम नहीं करने की मानो उन्होंने ठान ली है। आम जनता की तो बात छोड़िए विधायक तक को सर्टिफिकेट लेने या पुलिस से मामले की जांच कराने के लिए पैसे देने पड़ते हैं।
विधायक जियाउद्दीन के आरोपों से बचाव की मुद्रा में आई सपा सरकार ने इन आरोपों को खारिज करते हुए रिज़वी की शिकायत पर ध्यान देने की बात कही है। इस संबंध में सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी से पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि उन्हें इस मामले की जानकारी नहीं है। अगर वाकई कोई समस्या है तो हम इसकी जांच करेंगे।
वहीं राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार से आजिज व इस पर तल्ख रुख अपनाए रिज़वी ने सरकार पर बरसते हुए कहा कि यहां आज से ज्यादा खराब स्थिति पहले कभी नहीं थी। उन्होंने अपनी बात के दावे में कहा कि इससे बुरी बात और क्या हो सकती है कि बलिया जिले के चिटगांव पुलिस थाने में हवलदारों और पुलिस निरीक्षकों ने धरना दिया था क्योंकि वसूली के पैसे को बराबर न बांटने के मसले पर वह नाराज थे। रिज़वी ने अपनी बात न सुने जाने पर धरने पर बैठ जाने की धमकी भी दी है। साथ ही उन्होंने सपा सरकार में बलिया के ही दो वरिष्ठ मंत्रियों पर पार्टी नेतृत्व को जमीनी स्तर की सही जानकारी नहीं देने का आरोप भी लगाया है। बहरहाल विधायक के भ्रष्टाचार के आरोप व इसके पहले सपा की महिला विधायक लक्ष्मी गौतम के कदाचार ने अखिलेश सरकार की फजीहत करा दी है। पूरे राज्य में लक्ष्मी गौतम के किस्से चटखारे लेकर कहे सुने जा रहे हैं। अब यह हाई प्रोफाइल मामला मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव की अदालत में है।  गौरतलब है कि चंदौसी से एसपी विधायक लक्ष्मी गौतम अपने प्रेमी मुकुल अग्रवाल के साथ लखनऊ के टीडीआई सिटी स्थित विधायक निवास में रह रही थी। पिछले दिनों जब विधायक के पति वहां पहुंचे तो अपनी पत्नी को प्रेमी के साथ देखकर आग बबुला हो गये। पहले तो इस मुद्दे पर दोनों के बीच बहस हुई, बाद में इस मसले ने हंगामे की शक्ल ले ली। विधायक ने पुलिस बुला ली और कहा कि दिलीप उनके पति ही नहीं है। लक्ष्मी का कहना है कि दिलीप से उनकी शादी नहीं हुई थी। दोनों लिव-इन में वर्षों से रहते थे। हालांकि दिलीप और लक्ष्मी के दो बच्चे भी हैं।
यही नहीं चंदौसी से समाजवादी पार्टी विधायक लक्ष्मी ने कई बार सरकारी दस्तावेजों में दिलीप को बतौर पति बताया है। उन्होंने नामांकन भरते वक्त शपथ पत्र में भी दिलीप को अपना पति बताया है। सरकारी स्कूल में टीचर दिलीप ने कहा कि लक्ष्मी मेरी पत्नी हैं, लेकिन अब किसी और के साथ रह रही हैं। विधायक की शिकायत पर दिलीप को पुलिस ने हिरासत में लिया था मगर विधायक द्वारा कोई एफआईआर न कराने की वजह से उन्हें छोड़ दिया गया। लक्ष्मी का कहना है कि उन्होंने दिलीप से कभी शादी नहीं की और उन्हें खुद को उनका पति कहलाने का अधिकार भी नहीं है। उनका आरोप है कि वह शक इतना करते थे कि विधान सभा सत्र में विधायकों से भी नहीं मिलने देते थे। सिर्फ हस्ताक्षर कर लौटने की बात कहते थे।
हालांकि लक्ष्मी गौतम भले ही अब कह रही हैं कि उनका दिलीप से कोई संबंध नहीं है। पर एक वक्त ऐसा भी था जब लक्ष्मी और दिलीप का प्रेम परवान चढ़ा था। लक्ष्मी गौतम खुद बताती हैं कि जब वह 11वीं में पढ़ती थीं दिलीप प्राइमरी स्कूल में टीचर थे। स्कूल आते जाते दोनों की मुलाकात होने लगी। दिलीप ने ही एक दिन उन्हें प्रपोज कर दिया। वर्ष 2003 में दोनों घूमने के लिए मसूरी, नैनीताल और शिमला गए। इस दौरान दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बने। दिलीप से उनके दो बच्चे भी हैं। ऐसे में अब सवाल उठ रहे हैं जब दिलीप को लक्ष्मी पति नहीं मानती थीं तो उन्होंने शपथ पत्र पर पति की जगह दिलीप का नाम क्यों लिखा। गलत सूचना भरने के लिए क्या लक्ष्मी गौतम पर धोखाधड़ी का मामला नहीं चलना चाहिए। बहरहाल इस कदाचार ने अखिलेश सरकार की भी खूब किरकिरी कराई है। लक्ष्मी गौतम जगह जगह अपनी सफाई देती फिर रही हैं। लेकिन उनकी यह सफाई उस वक्त भारी पड़ गई जब आजम खान ने उन्हें ही कसूरवार ठहराते हुए उनके प्रेमी को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया । दरअसल हुआ यूं कि एक कार्यक्रम में
राज्य के कद्दावर मंत्री आजम खां से अपनी पीड़ा बयान करने लगी। इस पर हत्थे से उखड़े आजम ने विधायक लक्ष्मी गौतम की करतूतों को पार्टी की फजीहत बताते हुए उनके प्रेमी मुकुल अग्रवाल को गिरफ्तार करने का फरमान सुना दिया। विधायक की 'कथा' शुरू होते ही आजम खां उखड़ गए। उन्होंने कहा कि इस घटना से पार्टी व सरकार की फजीहत हो रही है। प्रेमी माने जा रहे मुकुल अग्रवाल को तत्काल जेल भेजा जाना चाहिए। बस क्या था आनन फानन में उसकी तलाश में पुलिस ने पास ही खड़ी विधायक की गाड़ी व कुछ अन्य वाहनों को भी सर्च किया मगर वह हाथ नहीं आया।

बहरहाल, पार्टी की किरकिरी कराने को लेकर नगर विकास मंत्री आजम खां की सख्ती व फटकार के बाद बिगड़े हालात में विधायक अपना बचाव करने की रणनीति बना रही हैं।  इस बीच पूरे प्रकरण पर न कोई पदाधिकारी बोलने को तैयार है और न कार्यकर्ता। बयानबाजी महंगी पड़ सकती है। कार्यकर्ता और पदाधिकारियों को कार्रवाई का खौफ सता रहा है। 
पहले मीडिया से खुलकर बात कर रही गौतम अब मीडिया से बच रही हैं। वहीं उनके पति दिलीप वार्ष्णेय ने न्यू देहली पोस्ट से कहा कि उन्हें सपा नेतृत्व पर पूरा भरोसा है। उन्हें आशा है कि नेतृत्व उनके साथ न्याय करेगा। इस बीच कहा जा रहा है कि मुकुल अग्रवाल ने भी सपा में राजनीतिक संरक्षण के लिए भागदौड़ तेज कर दी है। राज्य भर में चटखारे लेकर सुनी जा रही विधायक की प्रेम कथा पर विधायक कहती हैं उन्हें पिस्टल और रिवाल्वर से धमकाया गया। तो विधायक पति का बयान आया कि पति-पत्नी के बीच वो का नाम आने के बाद मामला बिगड़ गया था। 
आखिर सच क्या है। राजनीतिक हलकों में इसकी खासी चर्चा है। अन्य संगठनों के साथ समाज में भी यही प्रकरण छाया हुआ है। घटनाक्रम में जो बयानबाजी विधायक और उनके पति की ओर से मीडिया के सामने हुई है उसे लेकर लोग अपने अपने तरीके से विश्लेषण कर रहे हैं। 

दिलीप मुझ पर शक किया करते थे यहां तक कि विधानसभा सत्र में भी शामिल नहीं होने देते थे। मुकुल अग्रवाल मेरा प्रेमी नहीं बल्कि पार्टी कार्यकर्ता है। - लक्ष्मी गौतम, सपा विधायक चंदौसी 
राज्य में इस कदर भ्रष्टाचार है कि आम जनता हो या कोई विधायक बिना पैसे खर्च किये किसी की भी नहीं सुनी जा रही है।  मोहम्मद जियाउद्दीन रिजवी, सपा विधायक, सिकंदरपुर

दर्द की दास्तां

                                                                 बद्रीनाथ वर्मा
उत्तराखंड में हर तरफ बर्बादी पसरी है। राहत की राह में इतने रोड़े हैं कि न मदद पहुंच पा रही है और न ही मददगार। चार धाम यात्रा के रास्तों पर जगह-जगह लोग फंसे हुए हैं। इस तीर्थस्थान पर कुदरत की मार तीन तरह से पड़ी है। पहले बारिश आई, फिर बादल फटा और बाद में रही-सही कसर चट्टानों के टूटकर गिरने ने पूरी कर दी। चारों ओर पानी ही पानी है। जल प्रलय ने इस शिवधाम का नक्शा ही बदल दिया है। जहां कभी बाजार लगा करते थे, वहां अब झीलें बन चुकी हैं । हजारों लोग जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। सबसे ज्यादा बर्बादी केदारनाथ में हुई है। मुख्य मंदिर को छोड़कर बाकी सारा कुछ जल प्रलय की भेंट चढ़ गया है। मंदिर का पूरा चबूतरा तबाह हो गया है। मुख्य मंदिर के आसपास के छोटे-छोटे मंदिरों का नामोनिशान नहीं है। बड़े-बड़े पत्थरों के सिवा वहां कुछ नजर नहीं आ रहा है।
अभी तक सैकड़ों लोगों के मरने की खबरें आ चुकी हैं। यह संख्या अगर हजारों में भी पहुंच जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। तीर्थयात्रा करने गये लोगों को इसका तनिक भी आभास नहीं था कि प्रकृति इस कदर कहर बरपायेगी।कुछ यात्री तो ऐसे भी हैं जो खुद तो किसी तरह से बच गए हैं लेकिन उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य इस त्रासदी में गुम हो चुका है। ईश्वर का फैसला भी अजीब है। परिवार का कोई सदस्य सुरक्षित है तो कोई काल के गाल में समा चुका है। आखिर इस जिंदगी का अब क्या मतलब जो ताउम्र अपनी किस्मत से यही सवाल पूछती रहेगी कि मुझे किसके सहारे जीने के लिए छोड़ दिया।
गौरीकुंड से निकलकर गौरी गांव में शरण लिये कुछ तीर्थयात्रियों ने फोन पर यह करुण पुकार की कि हम लोग बच नहीं पाएंगे। तीन दिन से गौरी गांव में फंसे हैं। खाने के लिए न भोजन मिल रहा है न पीने के लिए पानी। गड्ढे का पानी पी रहे हैं। जो भीगता है बीमार हो जाता है और दवा नहीं मिलने से मर जाता है।  क्या हुआ था केदारनाथ में तबाही वाली रात? कैसा था वहां का मंजर? बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब में फंसे यात्रियों पर क्या गुजरी थी? आइए आपको बताते हैं दर्द की कुछ कहानियां उन्हीं की जुबानी...
बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर गए दांता के सरपंच बसंत कुमावत कहते हैं कि  पांडुकेश्वर इलाके के जिस होटल में हम सो रहे थे, 200 मीटर दूर बह रही नदी अचानक होटल तक आ पहुंची। रात 2 बजे अफरा-तफरी। हम बाहर निकले ही थे कि होटल की दीवार हिलने लगी। पहले दीवारें तिरछी हुईं। और गुड़ी-मुड़ी होकर पूरा होटल बह गया। कुछ नहीं बचा। लोग भूखे-प्यासे गाडिय़ों में बैठे हैं। कोई पहाड़ी पर जा चढ़ा है। लगभग सारे ही लोग गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के बीच फंसे हैं। 
हरियाणा के जिंद जिले से आए वीरेंद्र कुमार व उनके साथी कहते हैं कि 16 जून तक सबकुछ ठीक चल रहा था। शिवधाम केदारनाथ में भक्ति गीत चारों ओर चल रहे थे, लेकिन न जाने किसकी नजर लगी, बारिश शुरू हुई तो मन घबराने लगा। कुछ देर बाद तबाही शुरू हो गई। हम किसी तरह से बच पाए। रास्ते भर का मंजर जो उन्होंने देखा वह अब भी डरा रहा है। वह मंजर याद कर सिंहर उठते हैं। उनका कहना है कि सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि कुछ पता ही नहीं चला। रास्ते भर हाहाकार की स्थिति थी। सब तरफ पानी और पत्थर। वहीं केदारनाथ यात्रा पर गए जालंधर के रोहित जामवाल ने फोन पर बताया, 'मैं गौरीकुंड में फंसा हूं। मुझे बचा लो। यहां चारों तरफ लाशें बिछी हैं और उनके बीच बिखरे पत्ते खाकर गुजारा कर रहा हूं। 19 जून को हेलीकॉप्टर आया था। खाने के कुछ पैकेट गिराए। कुछ ही लोगों के हाथ आए। पानी के बाद भुखमरी फैल गई है। पहले लोगों, गाडिय़ों को सूखे पत्ते की तरह बहते देखा। जल्द इंतजाम नहीं हुए तो आदमी को भूख से मरते देखना पड़ेगा। अभी गौरीकुंड के पास गौरी गांव में हूं। गांव के एक परिवार ने हमें शरण दे रखी है। इसके अतिरिक्त कहीं कोई मदद नहीं। कोई मददगार नहीं। हम सब मिलकर यहां हैलीपेड बनाने में लगे हैं। इस आस में कि कोई हेलीकॉप्टर यहां उतर जाए और हमें ले जाए। इस मोबाइल फोन का भी भरोसा नहीं। जाने कब बंद हो जाए। अब रखता हूं। उस रात तबाही का मंजर क्या था यह किसी तरह बचे केदारनाथ गांव के रहने वाले सोहन सिंह नेगी ने बयां किया। उन्होंने बताया कि मैंने खुद अपनी आंखों के सामने 60 लाशों को तैरते हुए देखा। करीब 200 लोग ऐसे हैं जिनको मैं जानता हूं, लेकिन उनका कहीं कोई अता पता नहीं है। इसी तरह हेमकुंड साहिब में तबाही का मंजर वहां से लौटे एक यात्री सुखप्रीत ने बयां की। उनके अनुसार उन्होंने अपनी आंखों के सामने 200 से ज्यादा मोटरसाइकलों को नदी में समाते देखा। इसके अलावा उन्होंने बताया कि बच्चों समेत करीब 50 यात्री नदी में समा गये।
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पति के शव के साथ गुजारे दो दिन
 सबसे दर्दनाक दास्तां सहारनपुर निवासी सविता नागपाल की है। सविता अपने पति सुरेंद्र नागपाल के साथ बद्रीनाथ यात्रा पर गई थीं। सोमवार रात अचानक होटल में पानी घुसने के बाद यह बुजुर्ग दंपती ठौर की तलाश में सड़क पर आ गया। मलबे की चपेट में आकर पति सुरेंद्र नागपाल की मौत हो गई। सविता दो दिन तक अपने पति के शव के पास रोती-बिलखती रहीं। तीसरे दिन बेटे मुकेश के पहुंचने पर पति का अंतिम सस्कार किया जा सका। मुकेश को देहरादून में ही पिता के मरने की खबर मिल गई थी। वह किसी तरह वहां पहुंचे।

हाथ छूटा और पत्नी बह गई
 राजस्थान के करौली के रहने वाले कल्याण सिंह इस हादसे में अपनी पत्नी को खोकर सदमे में हैं। उन्होंने मीडिया के सामने केदारनाथ में उस काली रात की दास्तां बयां की। उन्होंने बताया कि होटल में अचानक पानी भरने लगा था। लोग होटल की तीसरी मंजिल पर आ गए। इसी बीच उनकी पत्नी मालती का हाथ उनके हाथ से छूट गया और वह पानी में बह गईं। उनके दल के कुछ साथी भी साथ में बह गए।
केदारनाथ की वह भयानक रात
 केदारनाथ मंदिर के पुजारी रविंद्र भट्ट ने भी अपनी आपबीती सुनाई। भट्ट के मुताबिक केदारनाथ में 16 जून की रात और 17 जून की सुबह तबाही का सैलाब आया था। भट्ट के मुताबिक 16 जून को शाम आठ बजे तक धाम में सब कुछ ठीक था। सवा आठ बजे अचानक मंदिर के ऊपर से पानी का सैलाब सा आता दिखा। उन्होंने दूसरे तीर्थ यात्रियों के साथ मंदिर में शरण ली। रातभर लोग एक दूसरे की हिम्मत बंधाते रहे। 17 जून को सुबह 6:55 बजे एक बार फिर पानी का सैलाब आया। इसने धाम में काफी तबाही मचाई। इस तबाही के बाद धाम में कई शव बिखरे दिखे।

बाल बाल बचे अश्विनी चौबे
 केदारनाथ की यात्रा पर गए बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे 16 जून की रात का जिक्र आते ही कांप जाते हैं। उन्होंने दो बार सैलाब का सामना किया। वह तो किसी तरह अपनी जान बचाने में कामयाब रहे लेकिन उनके साथ आए सात रिश्तेदार और सुरक्षाकर्मी सैलाब में बह गए। उन लोगों का कोई सुराग नहीं मिल रहा है। अश्विनी चौबे खुद भी घायल हो गये थे। चौबे की पत्नी, दोनों बेटे, बहू और पोता सुरक्षित हैं, लेकिन साढ़ू सुबोध मिश्र, साली संगीता (सुबोध मिश्र की पत्नी), भतीजा गुड्डू, पुरोहित दीनानाथ पंडित और तीन बॉडीगार्ड्स का कोई सुराग नहीं है।


सोमवार, 17 जून 2013

अगले मधोक बनने से बच गये आडवाणी ?


                                बद्रीनाथ वर्मा
इस्तीफे की जिद पर अड़े आडवाणी को पार्टी ने जिस तरह से मनाया है उससे एक बात साफ नजर आती है कि अब आडवाणी को पार्टी सिर्फ मार्गदर्शक की तरह चाहती है। मोदी अब बीजेपी का नया चेहरा हैं और संघ का समर्थन सिर्फ मोदी के साथ है। 11 जून को आडवाणी के इस्तीफे के तुरंत बाद भाजपा में जो हड़कंप मचा वह एक दिन बाद ही धीरे धीरे थम सा गया। एक दिन पहले ही जिन आडवाणी को मनाने के लिए उनके घर के बाहर नेताओं की गहमागहमी थी वह अगले ही दिन सन्नाटे में बदल गई। दरअसल, जैसे ही आरएसएस ने अपना रुख साफ किया कि अगर आडवाणी मानते हैं तो ठीक वर्ना आगे देखो, वैसे ही आडवाणी के घर के बाहर से भाजपा नेताओं की भीड़ छंटनी शुरू हो गई और अगले दिन तो आलम यह था कि उनके घर के बाहर एक तरह से सन्नाटा ही पसरा हुआ था। खुद राजनाथ सिंह भी अगले दिन आडवाणी को मनाने की बजाय राजस्थान दौरे पर निकल गये। इसी से पता चलता है कि आडवाणी बीजेपी में अलग थलग पड़ते जा रहे थे। आरएसएस ने दो टूक कह दिया कि आडवाणी के इस्तीफे जो नुकसान होना था वह हो गया। अब अगर वे मान जाते हैं तो अच्छी बात है और अगर नहीं मानते हैं तो आगे बढ़ो।
यानी संदेश बिल्कुल साफ था कि मोदी पर फैसला किसी भी सूरत में नहीं बदलेगा । भले ही आडवाणी रहें या जाएं। ऐसे में आडवाणी के सामने दो ही विकल्प थे। पहला, आरएसएस से पंगा लेकर बलराज मधोक की नियती प्राप्त करें या फिर इस्तीफा वापस लेकर जैसा आरएसएस चाहता है कि अभिभावक की भूमिका निभाये वो करें। उन्हें दूसरा विकल्प ज्यादा सही लगा। क्योंकि उन्हें भी पता है कि एक बार बीजेपी से बाहर जाने का मतलब अपनी मिट्टी पलीद कराने जैसी होगी। कल्याण सिंह, उमा भारती, मदन लाल खुराना से लेकर तमाम ऐसे बीजेपी के धाकड़ नेता हैं जो हेकड़ी में पार्टी छोड़कर जाने को तो चले गये पर लुट लुटा के उन्हें भाजपा में ही वापस आना पड़ा। भाजपा में रहते जो खुद को शूरमा समझते थे वह भाजपा से निकलकर भीगी बिल्ली बन गये। चाहे वह उमा भारती रही हों या कल्याण सिंह। भाजपा से बहिष्कृत होने के बाद इनका आभामंडल लगातार छीजता गया। अंततः उन्हें सारे गिले शिकवे भुलाकर भाजपा की ही शरण में आना पड़ा वह भी सब कुछ लुटा के होश में आये की तर्ज पर। लालकृष्ण आडवाणी के रूठकर फिर मान जाने के पीछे एक और वजह है कि भले ही नरेंद्र मोदी को बीजेपी में सबसे तेज चुनावी घोड़ा माना जा रहा है पर केंद्र में सरकार बनाने के लिए उसे सहयोगी दलों का समर्थन लेना ही होगा। बहरहाल उस वक्त जब सरकार गठन की परिस्थिति बने और मोदी के नाम पर सहमति न बन पाये तब आडवाणी की लाटरी लग सकती है। जिस तरह सन् 1997 में एनडीए सरकार के गठन के दौरान उदार छवि के अटल बिहारी वाजपेयी के विपरीत खुद लौहपुरुष की कट्टर छवि उनके प्रधानमंत्री पद के आड़े आ गई थी। घटक दलों ने उनके नाम पर वीटो लगा दिया था फलस्वरूप वाजपेयीजी को प्रधानमंत्री पद मिला। उसी तरह इस बार यदि सरकार बनाने की परिस्थितियां बनती हैं तो कट्टर छवि के नरेंद्र भाई मोदी की बनिस्बत उनके नाम पर सहमति बन सकती है। उस वक्त आरएसएस को भी हारकर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने पर सहमत होना पड़ेगा।   यह तो तय है कि अगली सरकार कांग्रेस की नही बनने जा रही पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र में सरकार बनाने लायक बहुमत पा लेना अकेले बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा। यह सही है कि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने जो भ्रष्टाचार के नित नये रिकार्ड बनाये है उससे मतदाताओं में उसके प्रति गहरी नाराजगी है।इसी के साथ हनुमान की पूंछ की तरह दिन ब दिन बढ़ती महंगाई ने जनता को त्रस्त कर रखा है। जनता दोबारा यूपीए गठबंधन को सत्ता में नहीं देखना चाहती यह भी ठीक है, पर अकेले भाजपा 272 सांसदों को जीता पायेगी इसमें संदेह है। हां, इतना जरूर है कि निःसंदेह बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। ऐसे में सरकार बनाने के लिए उसे अन्य दलों का सहयोग लेना होगा। ऐसी परिस्थिति में मोदी की कट्टर छवि को देखते हुए कुछ को छोड़कर अधिकतर दल उनके नाम पर समर्थन देने को राजी नहीं होंगे। इसके लक्षण पहले से ही दिख रहे हैं। अभी तो सिर्फ मोदी को चुनाव अभियान की कमान मिलने भर से उसकी सत्रह वर्ष पुराना साथी जेडीयू उससे अलग होने की कवायद में लग गया है। हो सकता है जिस वक्त आप यह पढ़ रहे हों तब तक वह अलग हो भी चुका हो।
बहरहाल, गोवा में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के ठीक एक दिन बाद ही भाजपा के लौहपुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने संसदीय बोर्ड, राष्ट्रीय कार्यकारिणी व चुनाव समिति से त्यागपत्र दे दिया। उनका यह त्यागपत्र दबाव की राजनीति के तहत ही दिया गया लगता है। उन्होंने राजनाथ सिंह को लिखे अपने पत्र में कहा था कि पार्टी अपने पुराने विचारों से हट गई है और अब हर नेता का निजी एजेंडा है। जाहिर है उनका इशारा नरेंद्र मोदी की तरफ था। ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी से यह पूछा जाना अनुचित नहीं होगा कि स्वयं उन्होंने इसे रोकने के लिए क्या किया। भाजपा के भीष्म पितामह को यह बताना चाहिए कि जब नरेंद्र मोदी पहले केशुभाई पटेल को गुजरात में हाशिये पर धकेल रहे थे और बाद में मात्र अपने अहम की तुष्टि के लिए संजय जोशी जैसों को ठीकाने लगा रहे थे उस समय वे चुप क्यों रहे। क्यों नहीं उन्होंने केशुभाई या संजय जोशी का पक्ष लिया। उस वक्त तो वह मोदी की पीठ पर हाथ रखे हुए थे। अब जब कि मोदी ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी उनसे छीन ली तो उन्हें निजी एजेंडा नजर आ रहा है।

वैसे यह सत्य है कि भाजपा को राष्ट्रीय स्वरूप देने में 86 वर्षीय लालकृष्ण आडवाणी का योगदान सर्वाधिक है। यह इन्हीं आडवाणी की देन है जो भाजपा को 2 से 186 सीटों तक पहुंची। लेकिन प्रधानमंत्री बने अटलजी। 2005 की हार के बाद अटल जी के सन्यास लेने के बाद वे बीजेपी के अगले पीएम इन वेटिंग बने पर यहां भी किस्मत ने दांव दे दिया। 2009 में जब लगा कि वे इस बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो पार्टी ही हार गई। यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार व आम आदमी में इस गठबंधन के प्रति बढ़ती नाराजगी से इस बार उन्हें अपना सपना साकार होता दिख रहा था पर पार्टी ने उनका पत्ता काटकर गुजरात में अपनी चमक बिखेर कर सबकी आंखे चौंधिया देने वाले मोदी को आगे कर दिया। अब क्या पता अगले चुनाव तक उम्र भी साथ दे या न दे। पहले तो उन्होंने मोदी को रोकने के लिए जनता दल यू का सहारा लिया। पर इससे भी जब बात नहीं बनी तो आडवाणी ने गोवा अधिवेशन में सम्मिलित न होकर दबाव की रणनीति बनाई। परंतु उनका यह वार भी खाली गया। संघ ने सुरेश सोनी के माध्यम से राजनाथ को संदेश पहुंचवा दिया कि आडवाणी आएं या नहीं, मोदी के नाम का ऐलान कर दिया जाए। जिन आडवाणी के बगैर भाजपा का कोई अधिवेशन पूरा नहीं होता था उन्हीं आडवाणी की नाराजगी को नजरंदाज कर मोदी के नाम की घोषणा कर देना आडवाणी को संघ का साफ संदेश था कि वे अब अभिभावक के रूप में पार्टी का मार्गदर्शन करें। अपना यह वार भी खाली जाता देख अंतिम वार के तौर पर आडवाणी ने इस्तीफे का ब्रह्मास्त्र चलाया। इससे भाजपा को लहूलुहान होना था सो हुई भी । पर संघ ने कड़ा रुख अपनाते हुए कह दिया कि उनके इस्तीफे से भाजपा को जो नुकसान होना था हो चुका। अब आगे की सोचो। यह आडवाणी के लिए भी संदेश था कि अब भाजपा में आडवाणी के लिए सिर्फ और सिर्फ मार्ग दर्शक की ही भूमिका शेष बची है।

मौत दे दो पर पाकिस्तान मत भेजो


                              बद्रीनाथ वर्मा
 अपने के बच्चे के लिए बहुत परेशान थी। चाह कर भी कुछ नहीं कर पाई। रोती रही लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उसका बच्चा छीन लिया गया। भारती की आंखों के सामने ही सुरक्षा बलों ने उसके जिगर के टुकड़े को छीन कर दूर कर दिया। इस घटना को बीते तीन महीने से ज्यादा गुजर गए मगर आज भी भारती की आंखें नम है। उसे हर वक्त अपने बेटे की याद सताती रहती है। बावजूद इसके उस दोजख में वह फिर नहीं जाना चाहती। हां, उसके दिल में अभी भी एक उम्मीद बाकी है कि उसका बच्चा एक दिन जरूर वापस मिलेगा  उसे। यह व्यथाकथा है पाकिस्तान से आई उस युवती का, जो दोबारा फिर पाकिस्तान लौटकर नहीं जाना चाहती। वह कहती है कि चाहे तो भारत सरकार हमें मौत दे दे पर पाकिस्तान जाने को न कहे। अपने दुधमुंहे बच्चे को पाने की आस लगाये भारती पत्रकारों के सामने अपना दुखड़ा सुनाती रहती है। उसे यकीन है मीडिया के सहारे उसकी आवाज सही जगह तक जरूर पहुंचेगी। मगर इन सबके बावजूद एक डर उसके अंदर बैठा है कि अगर भारत सरकार ने उन्हें यहां रहने की अनुमित नहीं दी तो क्या होगा? इस सवाल का सही जवाब किसी के पास नहीं है। सरकार और विपक्ष दोनों ही इस सवाल से बच रहे हैं। शायद प्रश्न ही ऐसा है। मगर भारती के पास जबाब है - वह कहती है मर जाउंगीं लेकिन वापस नहीं जाउंगी।
इस संबंध में भारतीय जनता पार्टी के पूर्व महासचिव व थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य कहते हैं कि भारत सरकार को इन शरणार्थियों का हर हाल में साथ देना चाहिए। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार को देखते हुए भारत सरकार को राष्ट्रसंघ में मामला ले जाना चाहिए। पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों खासकर हिन्दुओं पर तो लगातार हमले जारी है। हिंदुओं की बहु बेटियों का अपहरण कर उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए बाध्य करना व हिन्दुओं की संपत्ति पर जबरन दखल करना पाकिस्तान में आम बात है। ऐसे में अगर ये शरणार्थी पाकिस्तान नहीं जाना चाहते तो उन्हें मदद करने में हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। बहरहाल, भारती की ही तरह सभी शरणार्थी एक स्वर में कहते हैं कि पाकिस्तान वापस जाने से पहले हम मरना पसंद करेंगे। भारती पाकिस्तानी सूबे, सिंध के काशमबाद जिले की रहने वाली है। कुंभ के लिए पाकिस्तान से आए पुण्यार्थियों के साथ अपने परिवार सहित वह भी भारत आई। उसके परिवार में पति के अलावा छह बच्चे भी हैं।
कुंभ के लिए निकलने से महज दो दिन पहले ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया था। जब भारती अपने परिवार के साथ बॉर्डर पर पहुंची तो पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने यह कह कर बच्चे को साथ ले जाने से मना कर दिया कि इस बच्चे के पास वीजा नहीं है। बच्चे को अपने ससूर के भाई को सौंप कर वह आ गई। यह त्रासदी सिर्फ भारती के साथ ही नहीं है बल्कि पाकिस्तान में रह रहे हर हिन्दू अल्पसंख्यक की कहानी एक सी है। कुंभ के बहाने भारत आए हर पाकिस्तानी हिन्दू परिवार की अपनी व्यथाकथा है। ये लोग बीते दिनों को याद नहीं करना चाहते। अपने जीवन के बाकी बचे दिन हिन्दुस्तान में ही गुजारना चाहते हैं। अभी ये लोग दिल्ली के बिजवासन में नाहर सिंह के मकान में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। दो मकान में कुल 480 लोग रह रहे हैं। इसमें बड़ी संख्या में औरतें और बच्चे हैं। ज्यादातर शरणार्थी पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आए हैं तथा आर्थिक और समाजिक रूप से बेहद कमजोर हैं। गौरतलब है कि इन हिन्दू शरणार्थियों की वीजा डेडलाईन खत्म होने के बाद विदेश मंत्रालय ने इनकी वीजा अविध को एक महीने का विस्तार दे दिया है लेकिन इनकी समस्याओं का कोई हल निकलता नजर नहीं आ रहा। नाहर सिंह ने बताया कि वह इस बारे में भारत के राष्ट्रपति, विदेश मंत्रालय और संयुक्त राष्ट्र संघ को लिख चुके हैं, पर अब तक कोई जवाब नहीं मिल पाया है।
वीजा खत्म हो जोने के बाद भी पाकिस्तान वापस न जाने की इनकी अपनी वजह है। हनुमान प्रसाद बताते हैं कि पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों के साथ इंसानों जैसा व्यवहार ही नहीं किया जाता है। हिंदुओं का माल असबाब से लेकर बहु बेटियां तक वहां महफूज नहीं हैं। धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डाला जाता है। जो धर्म परिवर्तन के लिए राजी नहीं होते उन पर तरह तरह के अत्याचार किये जाते हैं। बहु बेटियों को अगवा कर लिया जाता है। संपत्ति लूट ली जाती है। बहुत सारे हिन्दूओं ने तो अत्याचारों से तंग आकर या तो मौत को गले लगा लिया या फिर इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। वहां हिन्दुओं के लिए धार्मिक अधिकार की बात भी बेमानी है। मरने के बाद शव का अंतिम संस्कार करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। इतना ही नहीं भारत में होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना का बुरा असर हिन्दुओं पर पड़ता है। पिछले दिनों जब विराट कोहली ने 175 रन बनाए तो सिंध में कोहली समाज की तीन लड़कियों को अगवा कर लिया गया। जिनका आज तक कोई पता नहीं चला। अपनी आजीविका चलाने के लिए अधिकांश निम्मवर्गिय हिन्दू परिवार जमींदारों से ठेके पर जमीन लेकर खेती करते हैं। ठेके की एक निश्चित रकम तय की जाती है। जमींदार को रकम अदा नहीं करने पर वह हिन्दू किसानों को बंधुवा मजदूर बना लेता हैं और रकम वसूल करने के लिए इन्हें दूने कीमत पर दूसरे जमींदार को बेच देते हैं। यह सिलसिला कई पुश्तों तक चलता रहाता है। सरकार और कानून के नुमार्इंदे अल्पसंख्यकों की सहायता करने के बदले सुझाव देते हैं कि इस्लाम कबूल कर लो सब समस्या अपने आप ही खत्म हो जाएगी।
पाकिस्तान में 1951 की जनगणना में 22 फीसदी हिन्दू आबादी थी, जो आज घटकर दो फीसदी से भी नीचे चली गई है। और इसमें से भी केवल पांच प्रतिशत अल्पसंख्यक ही ठीक-ठाक हालात में हैं बाकी के हिन्दू घुट-घुट के जीने को मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि हम लोग अचानक ही पाकिस्तान से चले आए। करीब डेढ़ साल से हम भारत आने की योजना बना रहे थे। कुंभ के बहाने लगभग 3000 लोगों ने सरकार से वीजा के लिए आवेदन किया था। जिनमें से केवल 480 लोगों को ही वीजा दिया गया। एक ही परिवार के कुछ लोगों को वीजा दिया गया कुछ को नहीं। किसी की पत्नी बच्चों सहित भारत आ गई है तो पति अपने मां के साथ पकिस्तान में है। सरकार ने जानबूझ कर ऐसा किया ताकि हम वापस जा सकें। लेकिन कुछ भी हो हम वापस नहीं जाएंगे। पाकिस्तान हमारे लिए दोजख के समान है। वहां जिल्लत की जिंदगी जीने से बेहतर है कि हम यहां शुकुन की मौत मर सकें। कम से कम मरने के बाद हमें अंतिम क्रिया के लिए संघर्ष तो नहीं करना पड़ेगा। हम भारत सरकार से गुजारिश करते हैं कि मानवता के नाते हम पर रहम करे। अगर हमें यहां नहीं रख सकती तो पाकिस्तान भेजने के बजाय हमें सामूहिक मौत दे दे। हम खुशी खुशी इसे गले लगा लेंगे। हनुमान प्रसाद आगे कहते हैं कि हमने कभी अपने लिए पाकिस्तान नहीं मांगा था। हमारे पूर्वज तो देश की आजादी के लिए लड़े थे, बंटवारे के लिए नहीं।
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दिन ब दिन घटती गई हिन्दू आबादी

पाकिस्तान में 1951 की जनगणना में 22 फीसदी हिन्दू आबादी थी, जो आज घटकर दो फीसदी से भी नीचे चली गई है। और इसमें से भी केवल पांच प्रतिशत अल्पसंख्यक ही ठीक-ठाक हालात में हैं बाकी के हिन्दू घुट-घुट के जीने को मजबूर हैं।