सोमवार, 15 जुलाई 2013

सबसे अधिक खतरा राजनीतिक आतंकवाद से

                      Badrinath Verma

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा राजनीतिक आतंकवाद का मुखर चेहरा बनकर उभरे हैं। अपने उल जुलूल बयानों की वजह से अक्सर चर्चा में रहने वाले दिग्गी राजा ने एक बार फिर साबित किया है कि देश की संप्रभुता पर होने वाले आतंकी हमलों की जांच में जुटी सुरक्षा एजेंसियों को दिग्भ्रमित करने की कला में उन्हें महारथ हासिल है। आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने के बजाय नरेंद्र मोदी पर आक्षेप करना उन्हें ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। जब हमारे देश के कर्णधारों की सोच इस स्तर की है तो जाहिर है कि आतंकवादी हमले तो होंगे ही। हर राजनेता एक-दूसरे पर इसका दोषारोपड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेगा। बोध गया के महाबोधि मंदिर में हुए सिलसिलेवार धमाकों के बाद राजनेताओं के आये बयान इसी को रेखांकित करते हैं। इशरत जहां को बिहार की बेटी बताकर नरेंद्र मोदी को घेरने व राजनीतिक लाभ लेने की रणनीति बनाने में जुटे नीतीश कुमार की इस धमाके ने बोलती बंद कर दी। सुरक्षा व्यवस्था में नाकामी उन्हें शर्मसार करने के लिए काफी थी। सुरक्षा व्यवस्था में हुई यह चूक तब थी जबकि खुफिया एजेंसिया लगातार इस बारे में बिहार सरकार को सचेत कर रही थीं। धमाके को नीतीश के चिर विरोधी लालू प्रसाद यादव ने अपने पक्ष में भुनाने के लिए आनन फानन में मगध बंद का ऐलान कर दिया। यही नहीं, कल तक नीतीश सरकार की हमनिवाला रही भाजपा ने भी गया बंद का ऐलान करते हुए इस आतंकी हमले के लिए पूरी तरह से नीतीश कुमार को दोषी ठहरा दिया। उसने यह कहकर इसका ठीकरा नीतीश के सिर फोड़ा कि गृहमंत्रालय उन्हीं के पास है। वहीं कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस आतंकी हमले के तार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से जोड़ दिए। नरेंद्र मोदी को लेकर दिग्विजय की टिप्पणी आपत्तिजनक होने के साथ ही घोर निंदनीय है। सच तो यह है कि दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं के ऐसे बेतरतीब व बकवास बयान आंतकवादियों के मनोबल को बढ़ाते हैं और इस तरह के धमाकों को खाद पानी मुहैया कराने का काम करते हैं। बेशक कांग्रेस के महासचिव को अपने विरोधियों की आलोचना या उन पर हमले का हक है पर इसकी भी एक हद तो होनी ही चाहिए। क्या वोट के लिए इस तरह की हरकत बर्दाश्त करने योग्य है। अक्सर मुस्लिमपरस्ती में हमारे देश के सियासतदां यह भूल जाते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है। बावजूद इसके उन्हें इस बात का डर सताता है कि इससे उनका मुस्लिम वोटबैंक खिसक जाएगा। हमले के पीछे मोदी का हाथ होने का शक जताकर दिग्विजय सिंह की मंशा मुस्लिम वोट बैंक को खुश करना है। सियासतदानों को मोदी विरोध मुस्लिमों को अपने पाले में लाने का सबसे सुगम व सटीक तरीका लगता है। वह उन्हें मोदी के नाम से डराकर वोटों की फसल काटना चाहते हैं जबकि सच्चाई यह है कि गुजरात में हुए साल 2002 के दंगों को छोड़ दिया जाय तो उसके बाद वहां पूरी तरह अमन व शांति है। वहां के मुसलमानों को भी विकास का वही लाभ मिल रहा है जो वहां के हिंदुओं को। यहां तक कि गुजरात के मुसलमानों ने मोदी को वोट भी दिया है। बावजूद इसके मोदी का भय दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने में ये घाघ राजनेता जुटे हैं। अक्सर बेसिर पैर के बयान देकर अखबारों की सुर्खियां बटोरने वाले दिग्विजय को मोदी, भाजपा व भगवा आतंकवाद से आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता, या फिर वह देखना नहीं चाहते। सुरक्षा एजेंसिया महाबोधि मंदिर में हुए धमाके की जांच में जुटी हुई हैं। अभी वे किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची हैं। पर दिग्विजय ने धमाके के तार गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी से जोड़ दिये। दिग्‍गी राजा की दलील है कि मोदी ने नीतीश कुमार को सबक सिखाने की बात कही और उसके अगले ही दिन धमाका हो गया। उनके इस आरोप पर भाजपा का तिलमिलाना वाजिब ही है। उसने दिग्गी राजा को पागल करार दे दिया। 

गौरतलब है कि कांग्रेस महासचिव अक्सर ऐसे विवादित बयान देते रहे हैं। बीजेपी की ओर से सिंह पर आतंकी वारदात में शामिल लोगों की वकालत का आरोप लगाया जाता रहा है। दिल्ली में जामा मस्जिद के निकट बटला हाउस में हुए एनकाउंटर को वे फर्जी करार दे चुके हैं, जबकि यह एनकाउंटर उन्हीं की पार्टी की सरकार के दौरान हुआ था। वे इस एनकाउंटर में मारे गये आतंकवादियों के परिवार से आजमगढ़ जाकर मिल आये हैं। व अभी भी वे मानते हैं कि यह एनकाउंटर फर्जी था। बावजूद इसके कि इसमें दिल्ली पुलिस के जांबाज इंस्पेक्टर इस हमले में शहीद हो गये। इसी तरह मुंबई हमले के वक्त भी उन्होंने आशंका जताई थी। देश के बाहर जमा काले धन को वापस करने की मांग पर जोरदार आंदोलन चलाने वाले योगगुरु बाबा रामदेव को वे ठग करार दे चुके हैं। इसी तरह एक बार उनसे यह पूछे जाने पर कि ओपिनियन पोल दर्शाते हैं कि मोदी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए काफी लोकप्रिय हैं तब उन्होंने कहा था कि हिटलर भी काफी लोकप्रिय था। 
इसी तरह फिल्म अभिनेता संजय दत्त की माफी की वकालत करते हुए दिग्विजय का कहना था कि चूंकि संजय के पिता और कांग्रेस नेता सुनील दत्त सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ थे इसलिए संजय को जान का खतरा महसूस हो रहा था। इसीलिए उन्होंने हथियार लिये। यही नहीं वे भारत के महालेखा परीक्षक रहे विनोद राय को भी अपनी औकात में रहने की नसीहत दे चुके हैं। भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी का कहना है कि सिंह बेलगाम बकवास करने में माहिर हैं। उनको खुद नहीं पता होता कि वह क्या बोल रहे हैं। उनके साथ बदकिस्मती यह है कि रात में उन्हें कोई सपना आता है और सुबह उठकर वह उसे बोलना शुरू कर देते हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें भविष्य के बारे में सब कुछ पता रहता है। जो कुछ होने वाला होता है, उसका ख्वाब उन्हें पहले आ जाता है।

दरअसल राजनेताओं की ओर से आतंकी धमाकों को भी राजनीतिक नफे नुकसान के चश्में से देखने की प्रवृत्ति कोढ़ में खाज साबित हो रही है। उनकी इस प्रवृत्ति से जहां आतंकियों का मनोबल बढ़ता है वहीं आम जन में एक समुदाय विशेष के खिलाफ रोष। राजनेता यही तो चाहते हैं। इससे वोटों की फसल उगाने में उन्हें मदद मिलती है। देश जाये भाड़ में। उन्हें मतलब है तो बस वोट से। देश के सभी मुस्लिम आतंकवादी या उनके समर्थक नहीं हैं। यह सर्वमान्य तथ्य है। हालांकि मुस्लिम हितैषी होने का ढोंग करने वाले कुछ नेताओं की वजह से पूरा मुस्लिम समुदाय को ही लांक्षित होना पड़ता है। दिग्विजय व मुलायम जैसे तथाकथित मुस्लिमपरस्त नेताओं की गलतबयानी हिंदू अतिवादियों को पूरे समुदाय पर कीचड़ उछालने का अवसर उपलब्ध कराती है। धमाके को भी राजनीतिक लाभ लेने का जरिया बनाने की प्रवृत्ति ने एक बार फिर साबित कर दिया कि मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ही ऐसे धमाकों के लिए जिम्मेदार है। दरअसल आतंकवाद से तभी निपटा जा सकता है जब दिग्विजय सिंह जैसे राजनीतिक आतंकियों पर लगाम लगे। मंदिर परिसर में व्याप्त आध्यात्मिक शांति और आस्था की नींव को हिलाने का नापाक मंसूबा लेकर धमाका करने वालों की मंशा तो नाकाम हो गई पर राजनीतिक बयानबाजियों ने जरूर आतंकियों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।

बहरहाल, आस्था की नींव हिलाने का नापाक मंसूबा लेकर आए आतंकियों के मुंह पर श्रद्धालुओं की आस्था ने जोरदार तमाचा मारा है। आतंकियों का मंसूबा था कि उन सभी 16 देशों में जहां बौध धर्म के अनुयायी रहते हैं इस धमाके की गूंज गूंजेगी और दुनिया को यह पता चलेगा कि भारत जाना खतरे से खाली नहीं पर धमाके के बावजूद न तो श्रद्धालुओं की आस्था कम हुई  और न ही परंपरागत तौर पर होने वाली नियमित पूजा ही बाधित हुई।



आओ मिलकर दागी दागी खेलें

                     Badrinath Verma

राजनीति में अपराधियों के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जताने व शुचिता आदि की कर्णप्रिय बातें करने वाले राजनीतिक दलों को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा आइना दिखाया है जिसमें सभी दलों के चेहरे दागदार नजर आ रहे हैं। राजनीतिक दलों बोलती बंद हो गई है। हर मुद्दे पर गला फाड़ने वाले नेताओं के मुंह से बोल ही नहीं निकल रहे हैं। मानो उन्हें सांप सूंघ गया है। यह फैसला न निगलते बन रहा है न उगलते। चुनाव आयोग समय समय पर अपनी रिपोर्टों में आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने की जोरदार वकालत करता रहा है। जबकि चुनाव आयोग की अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने की सिफारिशों का लगातार विरोध करते रहे राजनीतिक दल अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बगले झांक रहे हैं। इस फैसले को अपने लिए झटका मान रहे दलों को डर है कि इसका विरोध करने से जनता के बीच गलत संदेश जाएगा। तमाम दलों के नेता फिलहाल अध्ययन के बाद ही कुछ कह पाने का तर्क दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सावधानीपूर्वक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कहा कि देश की राजनीति पर इसके असर को देखने के लिए हम पहले फैसले का अध्ययन करेंगे । हम हर किसी से सलाह मशविरा करने के बाद ही इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। सरकार जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन लाएगी या फैसले को चुनौती देगी के सवाल पर उनका कहना था कि राजनीतिक दलों के साथ साथ हर पक्ष से मशविरा करने के बाद कोई फैसला किया जाएगा। जनप्रतिनिधित्व कानून का प्रशासनिक मंत्रालय कानून मंत्रालय ही है। हां, झेंप मिटाने के लिए राजनीतिक दल बुझे मन व दबी जुबान से इसका स्वागत कर रहे हैं।

दरअसल, आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने संबंधी फैसला सुनाकर सर्वोच्च न्यायालय ने वह काम किया है, जिसकी जिम्मेदारी वैसे तो संसद की थी। दागी सांसदों और विधायकों को सुप्रीम कोर्ट ने जोरदार झटका देते हुए कहा है कि अगर सांसदों और विधायकों को किसी आपराधिक मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद दो साल से ज्यादा की सजा हुई, तो ऐसे में उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से रद्द हो जाएगी। कोर्ट ने यह भी कहा है कि ये सांसद या विधायक सजा पूरी कर लेने के बाद भी छह साल बाद तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य माने जाएंगे।
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। इससे धुंधली सी ही सही पर एक उम्मीद बंधती है कि आपराधिक छवि वाले नेताओं को संसद और विधानसभाओं में जाने से रोका जा सकेगा। धुंधली सी उम्मीद इसलिए क्योंकि घाघ किस्म के ये सियासतदां इतनी आसानी से इसे हजम कर लेंगे, यकीन नहीं होता। जरूर वे इसमें अड़ंगा लगाने की कोशिश करेंगे। अभी पिछले ही दिनों सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को भी आरटीआई के दायरे में लाने के लिए जारी किये गये अध्यादेश का हश्र इसकी बानगी है। इस मुद्दे पर लगभग सभी पार्टियां एकजुट हो गई थी। अंततः संसद ने इसे निरस्त कर दिया।

बहरहाल, सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा चार के उन विवादास्पद प्रावधानों को अल्ट्रा वायरस बताकर निरस्त कर दिया है जिसकी वजह से आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने के बावजूद दागी निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी सदस्यता बचाए रखने में कामयाब हो जाते थे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि उसका फैसला आने से पहले जो सांसद या विधायक अपनी सजा को ऊपरी अदालत में चुनौती दे चुके हैं उन पर यह आदेश लागू नहीं होगा। खात बात यह है कि उक्त प्रावधान संविधान की मूल भावना के ही खिलाफ था जिसमें, सभी को बराबरी का अधिकार दिया गया है। चुनाव सुधार की बातें तो बीते चार दशकों से हो रही हैं पर अभी तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा सका है। नतीजतन आज देश के कुल 4,835 सांसद-विधायकों में से 1,448 ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 162 सांसद हैं तो 1,286 विधायक। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने इन आपराधिक जन प्रतिनिधियों के भविष्य पर तलवार लटका दी है।

मौजूदा संसद में ही 76 सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर आरोप हैं। यदि ये आरोप साबित हो जाएं तो उन्हें पांच वर्ष से भी अधिक की सजा हो सकती है जबकि मौजूदा कानून किसी भी सामान्य व्यक्ति को दो वर्ष से अधिक की सजा सुनाए जाने पर चुनाव लड़ने से ही वंचित कर देता है। इस मामले में सुनवाई के दौरान सरकार ने तर्क दिया था कि यदि आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी तो खासतौर से ऐसी सरकारों के समक्ष स्थिरता का संकट पैदा हो सकता है जो अल्प बहुमत से सत्ता में होती हैं। पर देश के सर्वोच्च अदालत ने उसका यह तर्क खारिज कर पूरे राजनीतिक वर्ग को आईना दिखाने का काम किया है। सच यह है कि किसी भी सियासी दल का रवैया इस मामले में सकारात्मक नहीं रहा है। बेशक यह एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन यह भी जरूरी है कि पर्दे के पीछे चलने वाले खेल पर भी अंकुश लगाया जाए और राजनीति में काले धन के प्रवाह को रोका जाए। वैसे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को राजनीति की गंदगी साफ करने वाला माना जा रहा है। अब देखना यह है कि राजनीतिक दल इसका क्या तोड़ निकालते हैं।

आपराधिक मामला झेल रहे नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है, जिनके भविष्य पर इस फैसले से प्रतिकूल असर पड़ सकता है। फैसले की सर्वाधिक मार क्षेत्रीय दलों के नेताओं को भुगतनी पड़ सकती है। यहां तक कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व बसपा सुप्रीमो मायावती का प्रधानमंत्री बनने का सपना भी टूट सकता है। गौरतलब है कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, बसपा प्रमुख मायावती, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा, राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव, वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगनमोहन रेड्डी, अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता, कांग्रेस नेता सुरेश कलमाडी, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण,  झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन, एम करुणानिधि, ए राजा, कनिमोझी सहित कई नामचीन राजनीतिक हस्तियों के खिलाफ विभिन्न अदालतों में अलग-अलग आपराधिक मामले लंबित हैं। अगर इन हस्तियों को इन मामलों में किसी भी अदालत से सजा हुई तो इनके राजनीतिक कैरियर पर विराम लग सकता है। जहां तक भाजपा की बात है तो बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में लालकृष्‍ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती व विनय कटियार सहित कई अन्य नेताओं के खिलाफ मामला अदालत में लंबित है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के मामले में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण, पूर्व मंत्री दिलीप सिंह जूदेव सहित दर्जन भर नेता अलग से घिरेंगे। फर्जी मुठभेड़ मामले में पार्टी महासचिव अमित शाह भी इस फैसले की जद में शामिल हो सकते हैं। इस समय 162 सांसदों पर विभिन्न आरोपों में आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें 76 सांसद ऐसे हैं जिन पर चल रहे आपराधिक मामलों में उन्हें पांच साल से ज्यादा की सजा सुनाई जा सकती है। इसी तरह 1460 विधायकों पर देश भर में विभिन्न आरोपों में आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें 30 फीसदी विधायक ऐसे हैं जिन पर चल रहे आपराधिक मामलों में उन्हें पांच साल से ज्यादा की सजा सुनाई जा सकती है।

 

बाक्स...

फैसले से लाभ

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राजनीति को साफ स्वच्छ बनाने में मदद मिलेगी।

आपराधिक रिकॉर्ड वाले नेता संसद और विधानसभाओं में नहीं पहुंच सकेंगे।

दो साल या इससे अधिक की सजा पर जनप्रतिनिधियों की सदस्यता खत्म।

दोषी करार दिए जाने के दिन से ही जनप्रतिनिधि अयोग्य हो जाएगा।

जेल से रिहा होने के छह साल बाद तक जनप्रतिनिधि बनने के लिए अयोग्य।


लटकती तलवार

नाम--आरोप--मुकदमे की स्थिति

जगनमोहन रेड्डी (सांसद)--आय से अधिक संपत्ति मामला--सीबीआई द्वारा चार्जशीट दाखिल

बीएस येदियुरपपा (पूर्व मुख्यमंत्री, कर्नाटक)--गैर कानूनी खनन घोटाला--मामला अदालत में

सुरेश कलमाडी (सांसद)--राष्ट्रमंडल खेल घोटाला--आरोप तय, जमानत पर रिहा

ए. राजा (पूर्व केंद्रीय मंत्री)--2जी स्पेक्ट्रम घोटाला--आरोप तय, जमानत पर रिहा

कनीमोझी (सांसद)--2जी स्पेक्ट्रम घोटाला--आरोप तय, जमानत पर रिहा

अशोक चव्हाण (मुख्यमंत्री महाराष्ट्र)--आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला--आरोप तय


गिर सकती है गाज

बाबूभाई बोखरिया (पूर्व मंत्री, गुजरात सरकार)--अवैध खनन मामला

रंगनाथ मिश्र (यूपी के पूर्व माध्यमिक शिक्षा मंत्री)--लेकफैड घोटाला

बाबू सिंह कुशवाहा (पूर्व मंत्री, यूपी सरकार)--एनआरएचएम घोटाला

गोपाल कांडा (पूर्व मंत्री, हरियाणा सरकार)--एयरहोस्टेस खुदकुशी मामला

राघव जी (पूर्व मंत्री, मध्य प्रदेश सरकार)--यौन शोषण मामला

मुख्तार अंसारी (निर्दलीय विधायक, यूपी)--हत्या के मामले में

मधु कोड़ा (पूर्व मुख्यमंत्री, झारखंड)--भ्रष्टाचार का मामला

 

अपराधी विधायकों की संख्या बहुमत से थोड़ा ही कम

दागी माननीयों को लेकर आया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यूपी के सत्ता के गलियारों में खासी हलचल मचा सकता है। प्रदेश के कुल 403 विधायकों में से 47 प्रतिशत यानि 189 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 98 ऐसे हैं जिनके ऊपर हत्या, बलात्कार जैसी संगीन धाराओं में रिपोर्ट दर्ज है। इन आंकड़ों को देखकर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से आने वाले समय में यूपी में ही सबसे ज्यादा उठापटक मचेगी। विधायकों के हलफनामों के आधार पर तैयार यूपी इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक चुनावों में बहुमत हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी आपराधिक मामलों वाले माननीयों के मामले में अन्य दलों के मुकाबले कहीं आगे है। दागी विधायकों के मामले में वह बहुमत से बस थोड़ा ही पीछे है। उसके 224 विधायकों में से 111 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 56 के खिलाफ गंभीर मामले हैं।

दागी विधायकों में सपा के बाद दूसरा नंबर बसपा का है। उसके 80 विधायकों में से 29 पर के खिलाफ आपराधिक मुकदमे हैं, जिसमें से 14 माननीयों पर तो गंभीर मामले हैं। इस मामले में भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं। उसके 47 में से 25 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं जबकि इनमें 14 पर गंभीर आरोप हैं। वहीं कांग्रेस के 28 में से 13 विधायकों पर आपराधिक मामले हैं। गंभीर अपराधों वाले टॉप टेन विधायकों में नंबर एक पर समाजवादी पार्टी के बीकापुर के विधायक मित्रसेन यादव हैं। उनके खिलाफ 36 मामले हैं। इनमें से अकेले 14 मामले हत्या के हैं। दूसरे नंबर पर माफिया डॉन बृजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह का नाम है। सकलडीहा से निर्दलीय विधायक सुशील सिंह पर 20 मामले दर्ज हैं। इनमें से 12 मामले हत्या के हैं। तीसरे नंबर पर जसराना के सपा विधायक रामवीर सिंह का नाम है। रामवीर के खिलाफ कुल 18 मामले दर्ज हैं। मऊ से कौमी एकता दल से चुने गए माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के खिलाफ भी हत्या के 38 मामलो सहित लगभग दो सौ रिपोर्ट दर्ज हैं।

 हाईकोर्ट ने भी चलाया चाबुक

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश में जातीय सम्‍मेलन करने पर रोक लगा दी है। प्रदेश के राजनीतिक दलों के लिए ये तगड़ा झटका माना जा रहा है। ये फैसला एक जनहित याचिका की सुनवाई में दिया गया है। याचिका मोती लाल यादव नामक व्यक्ति ने लगाई थी। याचिका में कहा गया कि इन रैलियों में नेता गण दूसरी जातियों के बारे में विद्वेष भरी बातें करते हैं और ‌जाति विशेष की भावनाओं को भड़काते हैं जिससे समाज में वैमनस्‍य बढ़ रहा है।

गौरतलब है कि 2014 लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटे सपा और बसपा जैसे राजन‌ीतिक दल यूपी के सभी हिस्सों में जातीय सम्‍मेलन कर रहे हैं। बसपा ने ब्राह्मणों और मुसलमानों को लुभाने के लिए कई जातीय सम्‍मेलन प्रस्तावित कर रखे हैं। बसपा ने सतीश चंद्र मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीकी के नेतृत्व में कुछ सम्‍मेलन कर भी लिए हैं। बसपा की होड़ में ही सपा भी प्रदेश में ब्राह्मणों को लुभाने के ब्राह्मण सम्‍मेलन कर रही है। ये दल ब्राह्मणों और मुसलमानों के सम्‍मेलनों की अलावा वैश्यों और पिछड़ी जातियों के सम्‍मेलन भी कर रही हैं।


 

सात महीने में ही तार-तार हो गया सात जन्मों का बंधन

                            Badrinath Verma 
ई इलावरसन और दिव्या नागराजन की उस प्रेम कहानी जिसने पूरे तमिलनाडु को सुलगा दिया था उसका ऐसा दुखद अंत होगा किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। उनके इस अंतरजातीय प्रेम विवाह ने दो जातियों को एक दूसरे के सम्मुख ला दिया था। इस प्रेम कहानी की वजह से दो लोगों की मौत, सैकड़ों लोग घायल व हजारों लोग बेघर हो गये। यहां तक कि प्रेमिका दिव्या नागराजन के पिता ने लोकलाज के चलते आत्महत्या कर ली। धर्मपुरी के रहने वाले इस प्रेमी जोड़े की इस प्रेम कथा ने ऐसा बवंडर मचाया कि हर तरफ बस तबाही ही तबाही नजर आई। इस प्रेम कहानी को राजनेताओं ने भी खूब भुनाया। इस पर जमकर राजनीतिक रोटियां सेंकी गई। अंत में दिव्या नागराजन अपने प्रेमी ई इलावरसन को छोड़कर 2 जून को अपनी मां के घर लौट आई। उसने कोर्ट में कहा कि चूंकि उसके पिता ने आत्महत्या कर ली है और उसकी मां बेसहारा व अकेली हो गई है इसलिए वह अपने प्रेमी इलावरसन के साथ रहने की बजाय अपनी मां के साथ रहना चाहती है। इलावरसन इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सका और 4 जुलाई को उसने ट्रेन के सामने कूदकर अपनी जान दे दी। इस प्रेम कहानी का ऐसा दुखद अंजाम देखकर सभी हतप्रभ रह गये। ई इलावरसन की मौत की खबर से धर्मपुरी में तनाव फैल गया। उसका शव धर्मपुरी सरकारी कॉलेज के पीछे रेल की पटरी पर मिला।
दरअसल, 20 साल का इलावरसन अपने से दो साल बड़ी 22 साल की दिब्या पर फिदा हो गया। इलावरसन दलित था जबकि दिव्या ऊंची जाति से ताल्लुक रखती थी। कहा जाता है कि प्रेम अंधा होता है। इसमें ऊंच नीच गरीब अमीर कुछ भी मायने नहीं रखता। यही इन दोनों के साथ बी हुआ। दिव्या भी इलावरसन के प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा न सकी। वह भी इलावरसन से मोहब्बत करने लगी। इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते, यह बात यहां भी चरितार्थ हुई। दिव्या व इलावरसन का छिप छिपकर मिलना जल्द ही दुनिया के सामने आ गया। कानाफूंसी होने लगी और जब उनकी इस प्रेम कहानी की जानकारी दिब्या के घर वालों को हुई तो मानो उन पर पहाड़ ही टूट पड़ा। वे  इस रिश्ते को किसी भी हाल में स्वीकार करने को राजी नहीं थे। भला एक ऊंची जाति से ताल्लुक रखने वाला परिवार अपनी बेटी को दलित के घर की बहू बनाने को क्योंकर राजी हो जाता। परिवार की तरफ से दिव्या के घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन वह आग ही क्या जो बुझ जाय। एक दिन मौका पाकर अक्टूबर 2012 में दिव्या अपने प्रेमी इलावरसन के साथ घर से भाग गई।
दिव्या और इलावरसन ने अपने प्रेम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए मंदिर में शादी कर ली। इस शादी ने ऊंची जातियों को तिलमिला दिया। वे दलितों को सबक सिखाने की रणनीति बनाने लगे। वे लगातार इलावरसन के परिवार वालों को धमकी देते रहे कि इस रिश्ते को खत्म कर लो। दिव्या के परिवार वालों ने भी इलावरसन के घर जाकर धमकी दी। इलावरसन ने धमकी के मद्देनजर स्थानीय सेलम पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाई। जब किसी तरह बात नहीं बनी तो ऊंची जातियों ने पंचायत करके दलितों से दिव्या को वापस करने का फरमान सुनाया। परंतु दिब्या ने इसे नकारते हुए अपने पिता के घर जाने से इनकार कर दिया।
अपनी बेटी के व्यवहार से आहत दिव्या के पिता नागराजन अपनी इज्जत की छिछालेदर और नहीं सह सके और उन्होंने खुदकुशी कर ली थी। नागराजन की खुदकुशी के बाद गैरदलितो में रोष चरम पर था। करीब 25,00 लोगों की भारी भीड़ नाथम, अन्ना नगर और कोंडोपट्टी गांव में घुस कर 148 दलितों के घरों में आग लगा दी। इसमें दो लोगों की मौत व सैकड़ों लोग घायल हुए।

पुलिस ई इलावरसन की मौत को संदेह की नजर से देख रही है। उसके अनुसार जांच पड़ताल के बाद ही पता चलेगा कि यह खुदकुशी का मामला है या किसी की साजिश का नतीजा। वहीं, स्‍थानीय स्टेशन प्रबंधक ने अपनी‌ शिकायत में आशंका जताई है कि 4 जुलाई की दोपहर 12:55 बजे ई इलावरसन मुंबई जाने वाली लोकमान्य तिलक एक्सप्रेस के सामने कूद गया। घटना स्‍थल से पुलिस को एक मोटरसाइकिल, एक बैग और कुछ प्रेम पत्र मिले। यह पत्र  उसकी पत्नी दिव्या नागराजन ने उसे पहले लिखा था।
गौरतलब है कि इस घटना से ए‌क दिन पहले ही दिव्या ने मद्रास हाईकोर्ट के बाहर कहा था कि अब उसकी शादी का अंत हो चुका है। उसने ई इलावरसन से संबंधों को लेकर कोई भी बात करने से इंकार कर दिया था।
ई इलावरसन (20) ने पिछले साल अक्‍टूबर में अपने से दो साल बड़ी दिव्या नागराजन से ब्याह रचाया। वह दलित था और दिव्या वन्नियार जाति से, जो खुद को दलितों से ऊपर मानते हैं। यह शादी, शादी नहीं बरबादी का आगाज थी, जिसने पूरे राज्य को सुलगा दिया। दिव्या के पिता ने अपनी बेटी की इस कारगुजारी से दुखी होकर अपनी जान दे दी। साम्प्रदायिक दंगों की आग ने कई बेगुनाहों के घर उजाड़े। जातिगत सियासत का नंगा नाच हुआ। और आखिरकार पीएमके नेता एस रामदास जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए। कई मुश्किलों के बावजूद यह मोहब्बत शादी के अंजाम तक पहुंची थी। सात जन्मों तक साथ निभाने के वादे के साथ प्रेमी जोड़े ने समाज, जाति बिरादरी व अपने माता पिता की इज्जत व अरमानों को ठेंगे पर रखकर शादी तो कर ली लेकिन केवल सात महीने में प्रेम कहानी तार-तार हो गई। एक-दूसरे का होने की खातिर दुनिया को ठेंगे पर रखने वाला यह युगल अलग हो गया। 
7
नवंबर को पंचायत में बुजुर्गों ने फैसला किया कि दिव्या को घर लौटना होगा। लेकिन उसने अपने पति के साथ ही रहने का निर्णय लिया। उसी शाम अपनी बेटी के फैसले से नाराज और निराश पिता जी नागराजन ने खुदकुशी कर ली थी।
इस मौत ने इलाके में दलितों के खिलाफ गुस्सा भड़का दिया। जमकर हिंसा हुई, सैकड़ो वाहन जलाए गए, दलितों के घर फूंक दिए गए। कहानी यही नहीं रुकी। तनाव राज्य के दूसरे इलाकों तक भी पहुंच गया। पीएमके ने जातिगत कार्ड खेला, जो वन्नियार की पार्टी मानी जाती है। हालात इतने बिगड़ गए कि पार्टी नेता गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए। हिंसा जारी रही। दो लोग मारे गए और हाइवे पर गाड़ियों पर हमले होने से कई लोग जख्मी होकर अस्पतालों में भर्ती हुए।
यह हमला दिव्या और इलावरसन के रिश्ते पर भी हुआ। दिव्या 2 जून को अपनी मां के पास लौट गई। इलावरसन ने पुलिस में मामला दर्ज कराया। एक मामले की सुनवाई के लिए दोनों पक्ष अदालत पहुंचे। जजों ने पूछा कि दिव्या मां के साथ रहना चाहती है या अपने पति के, तो उसने रोते हुए कहा कि उसकी मां बीमार और पिता की मौत के बाद अकेली है, इसलिए वह उसके साथ रहना चाहती है।
इलावरसन ने दिव्या से लौटने का आग्रह किया, लेकिन वह चुप रही। उसके करीबी लोगों का कहना था कि यह शादी खत्म हो चुकी थी। आग्रह स्वीकार करते हुए अदालत ने दिव्या को मां के साथ जाने की इजाजत दे दी। दोनों तरफ के वकीलों ने उसकी सुरक्षा का इंतजाम करने की अपील की। दिव्या के वकील के मुताबिक शादी रजिस्टर नहीं कराई गई थी, क्योंकि इलावरसन की उम्र 21 साल से कम है। कानूनी रूप से दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं है, इसलिए औपचारिक तलाक की जरूरत भी नहीं है।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

हम ही हैं इस महाविनाश के सृजनकार


प्राकृतिक दोहन किए जाने से कमजोर पड़ती धरती

ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पिघल रहे हैं ग्लैशियर

ओजन पर्त में छेद के कारण बढ़ता धरती का तापमान

धरती को खतरा आकाश से गिरने वाली उल्कापिंडों से

उत्तराखंड में प्रकृति ने जो अपना रौद्र रूप दिखाया है वह साफ इंगित कर रहा है कि अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति से खिलवाड़ करना हमें कितना भारी पड़ सकता है। प्रकृति की इस विनाश लीला में हजारों जानें चली गई हैं। परिवार के परिवार तबाह हो गये हैं। कहीं किसी परिवार में अकेला कोई बूढ़ा बच गया है तो किसी परिवार में मां-बाप भाई बहन को खोकर एक अकेला मासूम बच गया है। इस तबाही ने ऐसा जख्म दिया है जिसे लोग आजीवन भूल नहीं पाएंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार कौन है इस विनाशलीला का उत्तरदायी ? तो इसका सीधा सा जवाब है कि अपने स्वार्थ के लिए हमने धरती पर जो जुल्म किया है, धरती उसका बदला लेने के लिए अब पूरी तरह तैयार है केदारनाथ में आये इस भयावह जलप्रलय के सृजनकार हम मानव ही हैं। इस विपुल विध्वंस के कई पहलू हैं। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन व लगातार पेड़ों की कटाई से उपजते पर्यावरण असंतुलन के साथ ही व्यावसायिकता की आंधी में सारी नैतिकता और मानकों को ताक पर रख निर्माण कार्यों को अंजाम देना किस कदर भारी पड़ सकता है इसकी यह बानगी भर है। दरअसल, प्राकृतिक आपदाएं समय समय पर हमें झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई में परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से लगा सकते हैं, और आज इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड में आई भीषण बाढ के रूप में देख सकते हैं। हालात पर नजर रखने वाले इस विभीषिका को काफी बड़ा आंक रहे हैं। और आने वाली स्थितियां बतला रही हैं कि हालात बेहद गंभीर हैं मरने वालों की संख्या पर सिर्फ अनुमान लगाए जा रहे हैं। भूस्खलन और बाढ के रूप में अब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखा रही है। तबाही का ऐसा खौफनाक मंजर पहले नहीं देखा गया। हांलाकि 1970 में चमोली जिले में गौनाताल में बादल के फटने से डरावने हालात बन गये थे, लेकिन आज की तरह जानमाल की अधिक क्षति नहीं हुई थी।
आश्चर्य की बात है कि 2007 से 2012 के बीच उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा, बागेष्वर, चमोली, पिथौरागढ़, रूद्रप्रयाग जिलों में आयी प्राकृतिक आपदा में सैकड़ों जानें गई हैं इसके बावजूद सरकार से लेकर प्रशासन तक ने कोई सबक नहीं लिया। इस आपदा का जिम्मेदार खुद इंसान है जो उससे छेड़छाड़ करता आ रहा है। विकास का भयानक मॉडल तैयार किया जा रहा है। 220 जल विद्युत परियोजनाओं पर काम जारी है। करीब 600 परियोजाएं प्रस्तावित हैं। भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनन्दा, विष्णुगाड़, यमुना, पिंडर, धौली, काली गंगा, गोरी गंगा, राम गंगा के आस पास जितनी परियोजनाएं चल रही हैं उसका साइड इफैक्ट आज इन नदियों के तटवर्ती इलाकों में साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस आपदा को मानव जनित आपदा ही ज्यादा माने तो अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि कम समय में ज्यादा कमाने की चाह ने मानव को उत्तरकाशी में नदी के किनारे अट्टालिकाएं खड़ी करने को प्रेरित किया। गोविंदघाट में बड़े बड़े होटल व धर्मशालाएं भी प्रशासन और व्यवसायियों की मिलीभगत का नतीजा है। इंसानी जीवन शैली बदली तो पवित्र तीर्थाटन भी मजे और पिकनिक के हॉट स्पॉट बन गये। केदार घाटी दलदली क्षेत्र है यहां आसमान छूते होटल बनाने का अर्थ है भयानक विनाश को निमत्रंण देना। मंदिर समिति और सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि भौगोलिक रूप से खतरनाक इलाक़ा के रूप में चिन्हित किया जा चुका केदारनाथ में हजारों-लाखों लोगों को अंध श्रध्दा के नाम पर जमा करने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है? विकास के लिए ठेकेदारी प्रथा से धन बनाने के खेल में सभी लिप्त रहे। यदि देश के 14 मैदानी शहरों की तरह केदार घाटी में भी बादल फटने की चेतावनी देने वाले आधुनिकतम रडार लगे होते, तो वक्त रहते काफी लोग मौत के आगोश में समाने से बच जाते। लेकिन किसी भी सूरत में केवल विकास चाहिए की र बिना प्लानिंग के विकास का अंजाम आज हमारे सामने हैं।
यदि भविष्य में इस प्रकार के प्राकृतिक आपदा से बचना है तो इसकी तैयारी अभी से करनी होगी। विकास अच्छी बात है, परंतु इसके कुछ मानक तय होने चाहिए। दीर्घकालिक विकास की नीतियों को तय किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है कि समस्त हिमालयी क्षेत्रों में भारी निर्माण और दैत्याकार जल विद्युत परियोंजनाओं के निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाए। हिमालयी क्षेत्र में बेतहाशा खनन और सड़क निर्माण के नाम पर विस्फोट ना किये जायें। कब-कब किन हालात में आपदाएं आयी हैं इसका आकंड़ा जुटाया जाये। सबसे जरूरी यह है कि आपदा प्रबंधन विभाग को पुर्नजीवित करने के लिए राज्य सरकार और केन्द्र मिलकर पुख्ता नीति बनाये। हिमालयी क्षेत्रों में आधुनिकतम रडार तैनात किये जाये और मौसम विभाग की सूचनाओं को गंभीरता से लिया जाए क्योंकि पहले की अपेक्षा मौसम विभाग के पूर्वानुमान सच होने लगे हैं। 
आपदा राहत के काम में अभी सेना ने जिस तरह का साहस दिखाया है वह प्रशंसनीय है। उनके साथ जितने संगठन स्वप्रेरणा से लोगों की मदद कर रहे हैं उनको भी सलाम और निंदा करनी होगी उन लोगों की जो संकट की इस घड़ी में आपदा राहत के नाम पर धन कमाई में लगे हैं।

धरती के 75 प्रतिशत हिस्से पर जल है और सिर्फ 25 प्रतिशत हिस्से पर ही मावन की गतिविधियां जारी थी। आज से 200-300 सौ साल पहले मानव की आकाश और समुद्र में पकड़ नहीं थी, लेकिन जबसे मानव ने आकाश और समुद्र में दखलअंदाजी की है, धरती को पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है। तेल के खेल और खनन ने धरती का तेल निकाल दिया है। वक्त के पहले धरती को मार दिए जाने की हरकतें धरती कतई बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। इससे पहले कि मानव अपनी हदें पार करे धरती उसके अस्तिव को मिटाने की पूरी तैयारी कर चुकी है।

धरती का अपना एक परिस्थितिकी तंत्र होता था। उस तंत्र के गड़बड़ाने से जीवन और जलवायु असंतुलित हो गया है। मानव की प्रकृति में बढ़ती दखलअंदाजी के चलते वह तंत्र गड़बड़ा गया है। मानव ने अपनी सुख, सुविधा और अर्थ के विकास के लिए धरती का हद से ज्यादा दोहन कर दिया है। एक तरफ मानव ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल जहां जीवन के स्तर को अच्छा बनाने में किया, वहीं उसने स्वयं सहित धरती के जीवन को संकट में डाल दिया है तब निश्चित ही प्रकृति प्रलय का सृजन कर स्वयं को रिफोर्म करेगी। प्राकृतिक और खगोलीय घटनाओं के लिए मानव स्वयं जिम्मेदार है।
                          प्राकृतिक आपदाएं 
ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते लगातार दुनिया के ग्लैशियर पिघल रहे हैं और जलवायु परिवर्तन हो रहा है। कहीं सुनामी तो कहीं भूकंप और कहीं तूफान का कहर जारी है। दूसरी और धरती के ऊपर ओजन पर्त का जो जाल बिछा हुआ है उसमें लगभग ऑस्ट्रेलिया बराबर का एक छेद हो चुका है। जिसके कारण धरती का तापमान 1 डिग्री बढ़ गया है। एक अन्य शोध के अनुसार भूकंप आदि आपदाओं के कारण धरती अपनी धूरी से 2.50 से 3 डिग्री घिसक गई है जिसके कारण भी जलवायु परिवर्तित हो गया है।
धरती की घूर्णन गति के कारण समुद्र और धरती के अंदर स्थित बड़ी-बड़ी चट्टानें घिसकर एक दूसरे से दूर होती रहती है जिसके कारण भूकंप और ज्वालामुखी सक्रिय होते हैं और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो आज भी जारी है और आगे भी निरंतर जारी रहेगी। लेकिन जब मानव इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल देता है तो स्थिति और भयानक बन जाती है।

आज धरती की हालत पहले की अपेक्षा इसलिए खराब हो चली है कि मानव ने समुद्र, आकाश और भूगर्भ में आवश्यकता से अधिक दखल दे दिया है इसलिए वैज्ञानिकों की चिंता का कारण आकाश से आने वाली कोई उल्कापिंड नहीं बल्कि धरती के खुद के ही असंतुलित होकर भारी तबाही मचाने का है। मौसम इस तेजी से बदल रहा है कि जलचर, थलचर और नभचर प्राणियों का जीना मुश्किल होता जा रहा है। हवा दूषित होती जा रही है। खाद्यान संकट बढ़ रहा है। मानव की जनसंख्‍या से पशु, पक्षियों और जलचर जंतुओं का अस्तित्व खतरे में हो चला है। परिस्थितिकि तंत्र गड़बड़ा रहा है तो स्वाभाविक रूप से मानव खुद ही प्रलय का निर्माता है।

                                                      खगोलीय आपदाएं


 हमारी आकाशगंगा जिसका नाम है 'मिल्की वे'। इस आकाशगंगा में धरती एक छोटा-सा ग्रह मात्र है जो कि विशालकाय तारों के मुकाबले एक छोटे से कंकर के समान है। एक आकाश गंगा में तारे, (लगभग 250 अरब सितारों का समूह) ग्रह, नक्षत्र और सूर्य हो सकते हैं।

हमारी आकाशगंगा की तरह लाखों आकाश गंगाएं हैं। प्रत्येक आकाशगंगा में सितारों के परिवार हैं, ग्रह, नक्षत्र, उपग्रह, एस्ट्रायड, धूमकेतू, उल्कापिंड और ज्वाला की भीषण भट्टियों के रूप में गैसों का अग्नितांडव है।

ब्रह्मांड की अपेक्षा धरती एक जर्रा भी नहीं है। वैज्ञानिक शोध अनुसार धरती के समान करोड़ों अन्य धरती हो सकती हैं जहां जीवन हो भी सकता है और नहीं भी। अनंत है संभावनाएं।

जिस तरह धरती घूमती है उसी तरह वह घूमते हुए हमारे सूर्य का चक्कर लगाती है। शनि, शुक्र, मंगल, बुध, प्लूटो और नेप्चून सहित हमारे सौर मंडल में स्थिति सभी उल्काएं सूर्य का चक्कर लगाती हैं। सभी सूर्य के कारण अपनी-अपनी धूरी पर चलायमान हैं, लेकिन उनमें से कुछ उल्काएं जब अपने पथ से भटक जाती हैं तो वे सौर मंडल के किसी भी ग्रह से आकर्षण में आकर उस पर गिर जाती है या उसका सौर्य पथ पहले की अपेक्षा और लम्बा या छोटा हो जाता है। यह भी हो सकता है कि वे उल्काएं इस कारण स्वत: ही जल कर नष्ट हो जाएं।

जिस तरह धरती पर ज्वालामूखी फूट रहे हैं, सूनामी आ रही है, भूकंप उठ रहे हैं तूफान आ रहे हैं उसी तरह यदि सूर्य पर कोई बड़ी घटना घटती है तो उसका प्रभाव धरती पर भी होता हैं उसी तरह धरती का प्रभाव चंद्रमा पर भी होता है। इस प्रभाव से मौसम में परिवर्तन देखने को मिलता है। मौसम के बदलने से भूगर्भ हलचलें और बढ़ जाती है। एस्ट्रायड (उल्कापिंड) या गैसीयपिंड के धरती के नजदीक से गुजरने या धरती से टकराने से धरती की जलवायु में भारी परिवर्तन देखने को मिलता है। 
मानव ने ठंड से बचने के उपाय तो ढूंढ लिए, भूकंप, तूफान और ज्वालामूखी से बचने के उपाय भी ढूंढ लिए हैं, लेकिन धरती को सूर्य, एस्ट्रायड या अन्य ग्रहों के दूष्प्रभाव से कैसे बचा जाए इसका उपाय अभी नहीं ढूंढा है। धरती को बचाए रखना है तो जल्द ही इसके उपाय ढूंढने होंगे।

                                      जवाबदेही से बच नहीं सकती सरकार

इस हादसे ने कई सवालों को जन्म दिया है। केदारनाथ त्रासदी से ठीक दो दिन पूर्व मौसम विभाग ने प्रशासन को चेतावनी दी थी कि अगले 24 घंटों में भारी बारिश हो सकती है तो क्यों नहीं देहरादून से सतर्कता बरती गयी? कुल कितने यात्री उस दौरान केदारनाथ में थे इसकी भी सटीक जानकारी राज्य सरकार के पास नहीं हैं। ऐसे में हताहतों का अन्दाजा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। हिमालयी क्षेत्रों के लिए बादल फटने की घटना नई नहीं है। समय-समय पर ऐसी दर्दनाक घटनाएं होती रहती हैं। फिर भी सरकारें इससे सबक़ लेने की बजाए ऐसे ही किसी हादसे के इंतज़ार में बैठी रहती हैं। 
 यह कितना शर्मनाक  है कि अति वृष्टि के अंदेशे के बावजूद भी हम अपार जनहानि को रोक  पाने की कोई आपात व्यवस्था नहीं कर पाए। निश्चय ही विज्ञान और प्रौद्योगीकी की इतनी प्रगति के बाद भी इतनी बड़ी जनहानि हमारे लिए शर्म की बात है! माना कुदरत के आगे हम विवश हो जाते हैं मगर जो कुछ उत्तरांचल में घटा है उससे तनिक भी आपको लगता है कि निरीह दर्शनार्थियों की जान माल की रक्षा की भी कोई भी कवायद हुई होगी? आपदा प्रबंध की कोई तैयारी तक नहीं थी! सब असहाय निरुपाय काल के गाल में समा गए। हादसे का न तो पूर्वानुमान था और अगर था भी तो एक  लापरवाह बेहयाई के चलते जिम्मेदार लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और अनहोनी घटित हो गई ! आज उत्तराखंड सरकार निश्चित रूप से कटघरे में खडी है। उसे आज नहीं तो कल जवाब देना ही होगा। वह अपनी इस गैर जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पायेगी।

सबसे शर्मनाक  यह भी है कि इतनी बड़ी जनहानि हो गयी और जवाबदेह लोग घटना पर दो दिन तक  तोपन ही डालते रहे। प्रत्यक्ष दर्शी जहाँ हजारो की मौत का मंजर बयां कर रहे थे वहीं सरकारी आंकड़ा सौ सवा सौ तक सिमटा रहा। आखिर क्यों ? यही डर था न कि सरकार की भद पिट जायेगी ? विपक्षी पार्टियां सरकार को कटघरे में ला खड़ी करेंगी ? वह तो हो ही रहा है और आगे भी अभी कम लानत मलामत नहीं होगी। सारे देश से श्रद्धालु वहां गए थे। केंद्र व राज्य सरकार की इतनी बड़ी विफलता का सवाल अभी पूरे देश में गूंजेगा! अभी तो लोग सदमे में है अपने स्वजनों की सलामती की दुआ कर रहे हैं। उनकी बेसब्री से इंतज़ार हो रहा है। इससे उबरते ही लोग इस हादसे की जिम्मेदारी नियत करने में लगेगें। सैलाब पर सियासत की रोटी सेंक रहे ये सियासतदां यह मानकर अब इतना घाघ हो चुके हैं कि भारतीय जन -स्मृतियां बहुत अल्पकालिक हैं मन ही मन आश्वस्त हैं। लोग दो चार दिन चिल्ल पों मचाएगें और फिर चुप हो जायेंगे। मगर यह मामला धर्म कर्म से जुड़ा है जो भारतीय जीवन का प्राण -तत्व है -निश्चित ही इस बड़ी लापरवाही या चूक का खामियाजा दोनों सरकारों को भोगना होगा