सोमवार, 8 जुलाई 2019

देश का नया बही खाता


बद्रीनाथ वर्मा

न्यू इंडिया का वादा कर प्रचंड बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में आई मोदी सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया है। सांकेतिक ही सही लेकिन गुलामी की परंपरा को खत्म करते हुए इसे देश का बही खाता नाम दिया गया। साथ ही देश की पहली महिला वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इसके लिए ब्रिफकेस के बजाय लाल कपड़े की फाइल का इस्तेमाल किया। देश के इस बही खाते का मुख्य फोकस किसान और गांव हैं। चूंकि वित्त मंत्री स्वयं भी महिला हैं इसलिए उन्होंने अपने पहले ही बजट में महिलाओं को बड़ी राहत दी है। जनधन खाताधारक महिलाओं को 5000 रुपए ओवरड्राफ्ट की सुविधा के साथ ही महिलाएं एक लाख रुपए तक मुद्रा लोन भी ले सकेंगी। अमीरों से लेकर गरीबों का कल्याण करने की नीति के तहत करोड़पतियों पर टैक्स की चपत पड़ी है। जिनकी आय 2 करोड़ से 5 करोड़ के बीच है, उन पर 3 फीसदी का अतिरिक्त सेस जबकि  5 करोड़ से अधिक की सालाना आय वालों पर 7 फीसदी का सेस ठोंका गया है। हालांकि मध्यम वर्ग को इस लिहाज से निराशा हो सकती है कि पुराने टैक्स स्लैब में किसी तरह का बदलाव नहीं किया गया है। इस बही खाते में स्टार्ट अप को बढ़ावा देने के लिए शुरुआती तीन साल तक आयकर से छूट के साथ ही शुरुआत में लगने वाले एंजल टैक्स से मुक्ति दे दी गई है। इसके अलावा उच्च शिक्षा पर नया मसौदा तैयार करने के लिए 400 करोड़ रुपये का बजट जारी करने के साथ ही नई शिक्षा नीति लाने की घोषणा तथा विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए अध्ययन  योजना का ऐलान साफ संकेत है कि सरकार का खासा ध्यान शिक्षा पर है। पिछली बार आयुष्मान भारत जैसी बड़ी योजना लागू करने वाली मोदी सरकार ने इस बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए किसी तरह की नई बात का जिक्र नहीं है।
बजट की एक खास बात यह है कि इसमें इलेक्ट्रॉनिक वाहनों पर जोर दिया गया है। इसके लिए छूट भी दी गई है। कई क्षेत्रों में सौ फीसदी एफडीआई का रास्ता खोले जाने व 100 से अधिक श्रम कानूनों की जगह सिर्फ चार तरह के कानून लाने की व्यवस्था निश्चय ही एक क्रांतिकारी कदम है। श्रम कानूनों में सुधार की पहल से पता चलता है मोदी सरकार ने उस कमजोर नस को पकड़ लिया है, जिसके चलते चीन से कई समानताएं होने के बावजूद उसके मुकाबले भारत मैन्यूफैक्चरिंग हब नहीं बन पाया। विशेषज्ञों के मुताबिक कई सरकारें आई गईं लेकिन कोई भी सरकार श्रम कानूनों में सुधार का साहस नहीं जुटा पाईं मगर मोदी सरकार ने इसे बदलने की पहल की है। निश्चय ही यह शुभ संकेत है। बहरहाल, आशा के अनुरूप ही सत्तापक्ष ने जहां बही खाते के कसीदे पढ़े वहीं विपक्ष ने इसकी मीन मेख निकालते हुए इसे नई बोतल में पुरानी शराब कहकर अपनी खीझ व्यक्त की है। इससे इतर प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी सराहना करते हुए कहा है कि इससे गरीब को बल मिलेगा, युवा को बेहतर कल मिलेगा। ये बजट 'न्यू इंडिया' के विजन को आगे बढ़ाता है। कुल मिलाकर की गई घोषणाओं के आधार पर अगर इसे संतुलित बजट कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।


लुटे पिटे-से केजरीवाल


बद्रीनाथ वर्मा

न भूतो न भविष्यति की तर्ज पर दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाली छवि तार-तार हो चुकी है। नतीजा, 70 में से 67 सीटें जीतने वाली केजरीवाल की पार्टी उसी दिल्ली में कांग्रेस से भी पिछड़ गई है। आखिर क्यों? क्या इसे अन्ना आंदोलन की भ्रुण हत्या के रूप में देखा जा सकता है?


लोकसभा चुनाव में मत प्रतिशत के लिहाज से दिल्ली में तीसरे नंबर पर खिसक जाने के बाद पूरी आम आदमी पार्टी अंदर से हिली हुई है। तेजी से घटती लोकप्रियता को थामने के लिए हाथ पैर मार रही पार्टी इसके कारणों को तलाशने के बजाय महिलाओं को मेट्रो में मुफ्त यात्रा की सुविधा देने जैसे लॉलीपॉप का सहारा ले रही है। जाहिर है यह पार्टी से दूर होती जा रही, आम जनता को पार्टी के प्रति विश्वास बनाये रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। सोचने वाली बात है कि जिस पार्टी को दिल्ली की जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता सौंपी थी उससे आखिरकार जनता के मोहभंग का क्या कारण है। दरअसल, भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंककर सत्ता के शीर्ष तक पहुंची पार्टी ने न केवल भ्रष्टाचार में खूब नाम कमाया है। बल्कि चुनाव पूर्व किये गये नई राजनीति के वादों को बिसारकर उसी कांग्रेस से गठबंधन करने को बेताब दिखे, जो उनकी नजर में महाभ्रष्ट थी।
भ्रष्टाचार के पुख्ता सबूत होने का दावा करते हुए तब अरविंद केजरीवाल सत्ता में आने पर शीला दीक्षित को जेल भेजने की बात कहते थे। अपने बच्चों की कसम खाते थे कि वह कभी भी कांग्रेस से हाथ नहीं मिलायेंगे लेकिन बदलते वक्त में उनका एकमात्र एजेंडा सत्ता में बने रहने तक सीमित हो गया। अन्ना आंदोलन की कोख से उपजी आप का यह बदला स्वरूप दिल्ली की जनता को नहीं भा रहा। इसका उदाहरण चुनाव नतीजे हैं। अरविन्द केजरीवाल केंद्रित बन चुकी पार्टी के नेता हर उस आरोप में फंसे हैं जो आम आदमी पार्टी के संस्थापक सिद्धांतों के खिलाफ हैं। सैक्स स्कैंडल से लेकर भ्रष्टाचार तक। एक भी ऐसी गंदगी बाकी नहीं बची जिसका दाग इस पार्टी पर न लगा हो। ऐसे में इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि जनता का उससे मोहभंग उसकी कथनी और करनी में फर्क का नतीजा है।

आम आदमी पार्टी आम जनता की कसौटी पर पूरी तरह से फिसड्डी साबित हुई है। इसे साबित करने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। नगर निगम चुनावों व विधानसभा के उपचुनावों में मिली हार के बाद हालिया लोकसभा चुनाव के नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं। आएगा तो मोदी ही की तर्ज पर लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद आप की ओर से नया नारा गढ़ा गया है दिल्ली में तो केजरीवाल। यह नारा दिल्लीवासियों को कितना भायेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन आज की हकीकत तो यही है कि दिल्ली में अब आम आदमी पार्टी तीसरे नंबर पर खिसक चुकी है। कुछ महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में भी अगर लोकसभा चुनाव का ही ट्रेंड जारी रहता है तो यह केजरीवाल की पार्टी के साथ खुद उनके सियासी वजूद पर भी गंभीर खतरा है। फिलहाल पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के साथ नंबर दो की लड़ाई लड़ती हुई ही प्रतीत हो रही है।
अन्ना आंदोलन की कोख से उपजी आम आदमी पार्टी को मिली यह शानदार जीत दिल्लीवासियों के इस भरोसे का प्रतिबिंब थी कि यह पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से अलग हटकर काम करेगी। लेकिन ऐसा हो न सका। जैसे जैसे वक्त बीता यह पार्टी भी आम से खास होकर उसी राजनीतिक सड़ांध का शिकार हो गई, जिसके खिलाफ वह लड़ने का दावा करती थी।
आम जनता के इस मोहभंग के कारणों को रेखांकित करते हुए देश के मूर्धन्य पत्रकार रामबहादुर राय का कहना है कि दिल्लीवासियों ने जिस उम्मीद के साथ केजरीवाल को समर्थन दिया था वह उस पर खरे नहीं उतर पाये। भ्रष्टाचार के खिलाफ लंबी चौड़ी बातें सत्ता में आते ही रफूचक्कर हो गईं। लोकतंत्र व पारदर्शिता की वकालत भी कब की पीछे छूट चुकी हैं। केजरीवाल की न तो पार्टी में लोकतंत्र व पारदर्शिता की कोई जगह है और न ही उनकी सरकार में। नई तरह की साफ सुथरी राजनीति करने आये केजरीवाल ने जिस तेजी से रंग बदला उससे जनता निराश हुई। जिस कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार का झंडा बुलंद किये हुए थी, उसी के साथ लोकसभा चुनावों में गठबंधन बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। जनता को उनका यह नया रूप बिल्कुल ही पसंद नहीं आया। कथनी करनी का यही फर्क उनके व उनकी पार्टी के पतन का कारण है।
बर्खास्त किए गए नेताओं की लिस्ट
योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, कपिल मिश्रा और संदीप कुमार


उल्लेखनीय है कि लगभग साढ़े चार साल पहले अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने न भूतो न भविष्यति की तर्ज पर ऐसी ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी जिसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं की गई थी। वह भी तब, जब पीएम नरेंद्र मोदी ब्रांड मोदीके रूप में अपनी पूरी चमक के साथ सियासी फलक पर धूम मचाये हुए थे। एक के बाद एक लगातार राज्यों में विजय पताका फहराते जा रहे मोदी के रथ को केजरीवाल की नई नवेली पार्टी ने दिल्ली में रोक दिया था। न केवल रोका बल्कि दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर देश-दुनिया को चौंका दिया था। अन्ना आंदोलन की कोख से उपजी आम आदमी पार्टी को मिली यह शानदार जीत दिल्लीवासियों के इस भरोसे का प्रतिबिंब थी कि यह पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से अलग हटकर काम करेगी। लेकिन ऐसा हो न सका। जैसे जैसे वक्त बीता यह पार्टी भी आम से खास होकर उसी राजनीतिक सड़ांध का शिकार हो गई, जिसके खिलाफ वह लड़ने का दावा करती थी।

             पार्टी छोड़ने वाले नेताओं की लिस्ट

 आशुतोष, आशीष खेतान, मयंक गांधी, विशाल डडलानी, मेधा पाटकर, जीआर गोपीनाथ, अंजलि दमानिया, अलका लांबा, देवेंद्र सहरावत, अनिल वाजपेयी, गुरप्रीत सिंह

दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद पार्टी लगातार ढलान पर है। चाहे नगर निगम के चुनाव हों या विधानसभा के उपचुनाव। लगातार हार ही मिली। रही सही कसर लोकसभा के चुनाव ने पूरी कर दी। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली की सात में से एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुई है। वैसे 2014 के आम चुनाव में भी आप को दिल्ली में कोई सफलता हाथ नहीं लगी थी। हालांकि वह कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेलने में कामयाब हुई थी। लेकिन इस बार मामला बिल्कुल उलट गया। दिल्ली की सातों की सातों सीटों में से किसी भी सीट पर पार्टी दूसरे नंबर पर भी नहीं आई। मतदान प्रतिशत के लिहाज से भी पार्टी तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। पार्टी को लगभग 18 फीसदी वोट मिले हैं। दूसरे नंबर पर कांग्रेस और पहले नंबर पर बीजेपी मौजूद है। इस नतीजे ने पूरी पार्टी को हिलाकर रख दिया है। कुछ ही महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए पार्टी हाथ पांव मार तो रही है लेकिन वह ऐसे भंवरजाल में फंस गई है जहां से निकल पाना फिलहाल संभव नहीं दिखता।
दिल्ली की सत्ता हासिल करने के तुरंत बाद अरविंद केजरीवाल ने पहला काम किया आंदोलन के साथियों को पार्टी से निकाल बाहर करने का। अरविन्द केजरीवाल ने उन लोगों को पार्टी से बाहर करना या उन्हें हाशिये पर भेजना शुरू किया जो उनकी सत्ता के लिए चुनौती साबित हो सकते थे। फिर चाहे वो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण हों या एडमिरल रामदास से लेकर प्रो. आनंद कुमार। ये सभी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में थे। एडमिरल रामदास तो पार्टी के आंतरिक लोकपाल थे।
उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे को ढाल बनाकर दिल्ली की सत्ता हासिल करने के तुरंत बाद अरविंद केजरीवाल ने पहला काम किया आंदोलन के साथियों को पार्टी से निकाल बाहर करने का। अरविन्द केजरीवाल ने उन लोगों को पार्टी से बाहर करना या उन्हें हाशिये पर भेजना शुरू किया जो उनकी सत्ता के लिए चुनौती साबित हो सकते थे। फिर चाहे वो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण हों या एडमिरल रामदास से लेकर प्रो. आनंद कुमार। ये सभी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में थे। एडमिरल रामदास तो पार्टी के आंतरिक लोकपाल थे। कहना गलत नहीं होगा कि पार्टी पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए केजरीवाल ने इसकी स्थापना काल से जुड़ने व जीत की व्यूहरचना करने वाले अपने पुराने साथियों को एक के बाद एक दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिया। बाद के दिनों में भी जिस किसी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री व आप संयोजक अरविंद केजरीवाल के खिलाफ आवाज उठाई उसे पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखाने में जरा भी देर नहीं लगाई। कुछ को पार्टी ने बाहर किया तो कुछ ने खुद ही इस्तीफा देकर पार्टी से किनारा कर लिया। वैसे पार्टी में एक ऐसे भी नेता हैं, जिन्होंने न तो अभी तक पार्टी से इस्तीफा दिया है और न ही उन्हें पार्टी से निकाला गया है। लेकिन हां, उनका कद छोटा जरूर कर दिया गया है। कवि और राजनेता कुमार विश्वास भले ही आम आदमी पार्टी से अभी भी जुड़े हुए हैं, लेकिन उनका बागी तेवर बयां करता है कि वह दिल से इस पार्टी से कबके दूर जा चुके हैं। अपने ट्वीट के जरिए केजरीवाल को एकाधिक बार वह आत्ममुग्ध बौना कह चुके हैं।

                           ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह

केजरीवाल और उनकी पार्टी के सिपहसालारों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की एक लंबी फेहरिस्त है। हर आरोप को भाजपा की चाल बताकर इससे पल्ला झाड़ने की कला में पारंगत केजरीवाल सरकार पर लगे कुछ गंभीर आरोप

  • दिल्ली सरकार में जल मंत्री रहे कपिल मिश्रा ने अरविंद केजरीवाल पर स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन से दो करोड़ रुपये नकद लेने का आरोप लगाया था। मिश्रा का कहना था कि सत्येंद्र जैन ने जमीन सौदे के लिए 50 करोड़ रुपये की डील कराईजिसमें से ये रकम केजरीवाल को उनके घर पर दिए गए।

  • रोड्स एंटी करप्शन ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक राहुल शर्मा ने आरोप लगाया था कि सीएम केजरीवाल के साढ़ू सुरेंद्र बंसल ने कई फर्जी कंपनियों के जरिए सरकारी ठेके लिये। लेकिन बगैर कोई काम किये ही केजरीवाल के दबाव में सभी भुगतान आश्चर्यजनक ढंग से कर दिए गए। इससे सरकारी खजाने को 10 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ। एसीबी ने सुरेंद्र बंसल के बेटे विनय बंसल को भी घोटाले के आरोप में गिरफ्तार किया था।

  • सुशील गुप्ता व एनडी गुप्ता को राज्यसभा टिकट दिये जाने को लेकर केजरीवाल पर आरोप लगा कि उन्होंने दोनों से 50-50 करोड़ लेकर टिकट दिया। इनमें से सुशील गुप्ता तो 40 दिन पहले तक कांग्रेस में थे। बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा ने केजरीवाल को खुली चुनौती देते हुए कहा था कि वे अपना नार्को टेस्ट करवा लें। अगर अपने मुंह से खुद ना कहें कि 100 करोड़ में दो टिकट दिए तो मैं परिवार के साथ देश छोड़ कर चला जाऊंगा।

बहरहाल, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर सत्ता हासिल करने वाली केजरीवाल सरकार पर भ्रष्टाचार व घोटालों के कई गंभीर आरोप लग चुके हैं। भ्रष्टाचार का सबसे ताजातरीन मामला है दिल्ली के स्कूलों में कमरों के निर्माण में हुए दो हजार करोड़ रुपये के घोटाले का। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना के बेटे व दिल्ली भाजपा प्रवक्ता हरीश खुराना की सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी से खुलासा हुआ है कि स्कूलों के जो कमरे 892 करोड़ रुपये में बनाए जा सकते थे। उनके लिए 2892 करोड़ रुपये खर्च किये गये। यानी 2000 करोड़ की सीधी लूट। यही नहीं, जिन 34 ठेकेदारों को टेंडर दिये गये उनमें से कुछ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के रिश्तेदार या उनके जानने वाले हैं। इस खुलासे के बाद स्कूलों को चमका देने की डींग हांकने की हकीकत भी अब बेपर्दा हो चुकी है।
घोटाले में केजरीवाल व सिसोदिया की संलिप्तता का आरोप लगाते हुए दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने उनके इस्तीफे की मांग की। तिवारी ने कहा कि केजरीवाल सरकार कहती है कि उसने शिक्षा में बड़ा काम किया है लेकिन सच ये है कि इन्होंने शिक्षा के नाम पर 2000 करोड़ रुपये का घोटाला किया है। तिवारी के मुताबिक 300 स्क्वायर फीट का एक कमरा बनाने में अधिकतम 3 से 5 लाख का खर्च आता है। लेकिन केजरीवाल सरकार ने एक-एक कमरे के निर्माण के लिए 24 लाख 86 हजार यानी करीब 25 लाख रुपये दिए है।
आरटीआई के खुलासे व मनोज तिवारी के आरोपों के मद्देनजर इसकी जांच कराने के बजाय मनीष सिसोदिया नौटंकी पर उतारू हो गये। एक कमरे की निर्माण लागत 25 लाख कैसे हो गई, इसका जवाब देने के बजाय उन्होंने मनोज तिवारी को उन्हें गिरफ्तार कराने की चुनौती दे दी। हालांकि दिल्ली सरकार के कामकाज पर पैनी नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि सिसोदिया चाहे जो कहें लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि स्कूलों व मुहल्ला क्लिनिकों में भारी भ्रष्टाचार है।
बहरहाल, साल 2014 के आम चुनाव से पहले आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी तमाम लोकतांत्रिक सवालों को उठाते हुए सत्ता में आई थी। धनबल, बाहुबल, जातीय कार्ड और सांप्रदायिकता को धता बताते हुए भ्रष्टाचार से परेशान जनता को नई राजनीति का भरोसा देने वाले अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी में उम्मीद दिखी। इतिहास बना और राजनीति के मायने बदल गए। लेकिन 2019 आते-आते यमुना में बहुत सारा पानी बह चुका है। नई राजनीति का मुलम्मा उतर चुका है। वोट प्रतिशत के आधार पर तीसरे नंबर पर खिसक चुकी पार्टी का दिल्ली में भविष्य बहुत अच्छा नजर नहीं आता है। विधानसभा चुनाव में पार्टी सफल नहीं हुई, या सरकार बनाने में सफल नहीं हुई तो आम आदमी पार्टी के लिए एक बार फिर खुद को मुख्यधारा में लाना बहुत मुश्किल होगा।





बुधवार, 3 जुलाई 2019

कांग्रेस की कमान सोनिया के हाथ


बद्रीनाथ वर्मा
अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की चर्चा इस बात पर मुहर है कि पार्टी में फिलहाल राहुल युग का पटाक्षेप होकर कांग्रेस की कमान दोबारा सोनिया गांधी के हाथ में आने वाली है।

पहले खबर आई थी कि राहुल गांधी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से खासे नाराज हैं। 25 मई को हार की समीक्षा के लिए आयोजित बैठक में उन्होंने गहलोत के अलावा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम को जमकर खरी खोटी सुनाई थी। यह खरी खोटी उन्हें अपने-अपने बेटों की जीत को ज्यादा तवज्ज़ो देने के लिए सुनाई गई थी। तीनों ही नेताओं पर वंशवाद को प्रश्रय देने का आरोप लगाते हुए तब राहुल गांधी ने कहा था कि अपने पुत्रों की सीटों पर उलझकर इन नेताओं ने अन्य प्रत्याशियों पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिससे कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। बीते करीब एक दशक से वंशवाद का आरोप पार्टी के विरुद्ध एक बड़ा हथियार भी साबित हुई है। निश्चित तौर पर यह कांग्रेस के लिए मंथन का समय है लेकिन यह मंथन गहरा और वास्तविक होना चाहिए। खैर, यह अब पुरानी बात हो गई क्योंकि जिन अशोक गहलोत को राहुल गांधी ने लताड़ लगाई थी, उन्हीं में सोनिया गांधी को सबसे ज्यादा उम्मीद की किरण नजर आ रही है।
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक अशोक गहलोत को कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाया जा सकता है। अभी गहलोत या कांग्रेस की ओर से इस संबंध में कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। लेकिन कांग्रेस ने इस बारे में मन बना लिया है और अशोक गहलोत को इसके लिए तैयार रहने को भी कहा है। हालांकि इस बारे में तस्वीर अभी साफ नहीं है कि अशोक गहलोत अकेले कांग्रेस अध्यक्ष होंगे या साथ में दो-तीन और नेताओं को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जाएगा लेकिन एक बात तो बिल्कुल साफ है कि अगले कुछ दिनों में कांग्रेस को नया अध्यक्ष मिलने जा रहा है। जो कम से कम गांधी परिवार से तो नहीं ही होगा। इसका संकेत खुद राहुल गांधी भी दे चुके हैं। जाहिर है सोनिया गांधी के बेहद करीबी माने जाने वाले अशोक गहलोत पार्टी की पहली पसंद है। अशोक गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाये जाने का एक मतलब यह भी है कि पार्टी में फिलहाल राहुल युग का अवसान हो गया है और कांग्रेस एक बार फिर सोनिया की शरण में जा पहुंची है। ऐसा इसलिए क्योंकि बरास्ता गहलोत कांग्रेस की असली कमान सोनिया के ही हाथों में रहेगी। बावजूद इसके राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत को अगर वाकई कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाता है तो यह कांग्रेस की राजनीति के लिए शुभ संकेत है।
25 मई को जिन अशोक गहलोत को राहुल गांधी ने लताड़ लगाई थी, उन्हीं में सोनिया गांधी को सबसे ज्यादा उम्मीद की किरण नजर आ रही है।
देश के मूर्धन्य पत्रकार राम बहादुर राय की दृष्टि में नये कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अशोक गहलोत का चयन बिल्कुल सही फैसला है। उनकी छवि कुशल संगठनकर्ता, विनम्र व मिलनसार व्यक्ति के रूप में है। कांग्रेस को इस संकट से ऐसा ही व्यक्ति उबार सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि उपलब्ध विकल्पों में से अशोक गहलोत का चयन सही दिशा में उठाया गया कदम है। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती संगठन को निचले स्तर पर मजबूती प्रदान करने की है। जमीन से जुड़े नेता व पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले गहलोत से इसकी उम्मीद की जा सकती है।
राहुल गांधी के नेतृत्व में लगातार मिलने वाली हार ने पार्टी के आत्मविश्वास को डिगा दिया है। राहुल अपनी हरकतों से अक्सर ही अपनी अपरिपक्वता का प्रदर्शन करते रहे हैं। तमाम प्रयासों के बाद भी उनकी छवि इससे बाहर नहीं निकल पाई। देश का मूड न भांप पानी उनकी अक्षमता का द्योतक है। गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने का एक संकेत यह भी है कि अब कांग्रेस राहुल के हाथों से निकलकर सोनिया के हाथ में जा रही है।
गहलोत को सोनिया गांधी का विश्वस्त सिपहसालार माना जाता है। बीते करीब चार दशक से कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय गांधी परिवार के प्रति इनकी निष्ठा किसी से छिपी नहीं है। उल्लेखनीय है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस जहां लगातार एक के बाद एक चुनाव हारते जाने का रिकार्ड बना चुकी है। वहीं, सोनिया के नेतृत्व में यही कांग्रेस लगातार दस वर्षों तक केंद्र की सत्ता पर काबिज रही। अब अशोक गहलोत से कांग्रेस जादू की उम्मीद लगाये हुए है। यहां जादू का जिक्र इसलिए किया गया है क्योंकि अशोक गहलोत के पिता जादूगर थे। खुद गहलोत भी जादू के कई शो कर चुके हैं।
बहरहाल, अशोक गहलोत वर्तमान कांग्रेस नेताओं में अकेले ऐसे नेता हैं जो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी यानी पूरे गांधी परिवार की लगातार पसंद बने रहे हैं। स्वाभाविक रूप से बहुतों की आंख में वे खटकते भी रहे, पर गहलोत का जादू इस परिवार पर हमेशा बरकरार रहा। गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाये जाने के पीछे दो मूल वजह है। पहला, वे पिछड़ी जाति से आते हैं और दूसरा संगठन में काम करने का बृहद अनुभव। वैसे भी राजनीति में संकेतों का बेहद अहम स्थान होता है। केंद्र में सत्तासीन पार्टी भाजपा से ही उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्विता है। इस समय भाजपा में पिछड़े वर्ग का ही आधिपत्य है। प्रधानमंत्री मोदी खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं। ऐसे में कांग्रेस को समझ आ गया है कि अब सवर्ण राजनीति के दिन लद गये। वैसे भी अशोक गहलोत भले ही पार्टी अध्यक्ष रहेंगे लेकिन पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथों में रहेगी। ऐसे में यह कहना समीचीन होगा कि राहुल की नेतृत्व क्षमता परखने के बाद कांग्रेस एक बार फिर सोनिया की शरण में पहुंच गई है।

मंगलवार, 2 जुलाई 2019


गुमनामी के भंवर में चंद्रबाबू!

बद्रीनाथ वर्मा

केवल अपने अहं की तुष्टि के लिए विपक्षी एकता की खातिर दिल्ली से लेकर कोलकाता तक उछलकूद मचाने वाले टीडीपी सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू को उनके ही सूबे की जनता ने ऐसी चपत लगाई कि वे कहीं के न रहे। माया मिली न राम मुहावरे की रचना शायद इन जैसे लोगों को ही ध्यान में रखकर हुई होगी। सांसदों ने साथ छोड़ना शुरू कर दिया, बड़े जतन से बनाई गई प्रजा वेदिका ध्वस्त कर दी गई। ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या वह फिर से खड़े हो पाएंगे?

कहां तो तमन्ना थी राष्ट्रीय क्षितिज पर छा जाने की, और अब अस्तित्व पर ही बन आई है। बात हो रही है तेलगुदेशम पार्टी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू की। अभी हाल-हाल तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर विपक्ष को एकजुट कर पीएम मोदी की सत्ता की राह रोकने के प्रयास में सरकारी हवाई जहाज से कोलकाता से लेकर दिल्ली तक चक्कर काटते थे। लेकिन इस चक्कर ने उन्हें ऐसा घनचक्कर बनाया कि वे अब न तो घर के रहे, न घाट के। अपनी इस हालत के लिए नायडू स्वयं ही जिम्मेदार हैं। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने इस कदर जोर मारा कि उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य के दर्जे को लेकर एनडीए से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी राजनीति का एकमात्र एजेंडा मोदी विरोध सेट कर लिया। इसी एजेंडे पर वे अन्य विपक्षी दलों को भी एकजुट करने में लग गये। ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक और राहुल गांधी से लेकर फारुक अब्दुल्ला तक को एक मंच पर लाकर पीएम मोदी को जबरदस्त चुनौती देने की उनकी मंशा पूरी तरह से विफल हो गई।
  • नेताओं के मिलने से नहीं बल्कि जनता के दबाव व नेता के प्रति आकर्षण व विश्वास से गठबंधन बनता है। अगर वे अपने ससुर एनटी रामाराव को नजीर मानकर ऐसा कर रहे थे तो उन्हें यह पता होना चाहिए था कि उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह की लोकप्रियता चरम पर थी। बोफोर्स के खुलासे के बाद वह हीरो की तरह उभरे थे। गठबंधन जनदबाव का नतीजा था। क्या नायडू इसे समझने में नाकाम रहे?

दरअसल, विपक्ष एक मंच पर नहीं आ पाया तो इसके कारण कई थे। जैसे विपक्ष में कई दल ऐसे थे जो राज्यों में एक दूसरे के विरोधी थे। दिलचस्प बात यह है कि नायडू दिल्ली में भाजपा को घेरने की कोशिश कर रहे थे। और इधर  जगनमोहन रेड्डी ने उनकी सियासी जमीन पर कब्जा कर ली। सवाल है कि आखिर नायडू इतनी उछलकूद क्यों कर रहे थे? चुनाव से पहले तक खुद को भविष्य का किंग मेकरमानकर चल रहे चंद्रबाबू जिस तरह से दिल्ली-कोलकाता एक किये हुए थे, उन्हें उम्मीद थी कि लोकसभा के त्रिशंकु होने की स्थिति में देवेगौड़ा की तरह लॉटरी उनके हाथ भी लग सकती है। यानी वह भी प्रधानमंत्री उम्मीदवारों की लाइन में थे इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन चुनाव परिणामों ने उनके ख्वाबों पर तुषारापात कर दिया। तो क्या यह मान लिया जाय कि उन्हें इस बात का तनिक भी गुमान नहीं था कि उनकी इस उछलकूद में उनके खुद की सियासी जमीन उनके पैरों के नीचे से खिसक रही है? हमेशा से कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाली तेलगूदेशम पार्टी का आंध्र प्रदेश चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन करना सूबे की जनता को रास नहीं आ रहा था। यह एक अकल्पनीय गठजोड़ था। अस्तित्व के संकट ने चंद्रबाबू नायडू को यह कहने को मजबूर किया कि कांग्रेस और टीडीपी वैचारिक रूप से एक ही पाले में हैं। नायडू के लिए इस प्रयोग का नतीजा बेहद निराशाजनक रहा। क्या नायडू इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि यह महामिलावट जनता बर्दास्त नहीं कर पायेगी? इतने अनुभवी राजनीतिक दिग्गज से इस तरह की अपरिपक्वता की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर वे ऐसा क्यों कर रहे थे? कहीं वह अपने ससुर एन टी रामाराव का नया संस्करण तो नहीं बनना चाह रहे थे?
  • चुनाव से पहले तक खुद को भविष्य का किंग मेकर’ मानकर चल रहे चंद्रबाबू जिस तरह से दिल्ली-कोलकाता एक किये हुए थे, उन्हें उम्मीद थी कि लोकसभा के त्रिशंकु होने की स्थिति में देवेगौड़ा की तरह लॉटरी उनके हाथ भी लग सकती है। यानी वह भी प्रधानमंत्री उम्मीदवारों की लाइन में थे इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन चुनाव परिणामों ने उनके ख्वाबों पर तुषारापात कर दिया।

गौरतलब है कि 1989 में जनता दल, असम गण परिषद, तेलुगुदेसम पार्टी और द्रमुक ने मिलकर वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया। एनटी रामाराव इस मोर्चे के संयोजक बने। इस मोर्चे ने भाजपा और दो वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए गठबंधन किया। राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स दलालीकांड को लेकर उभरे जनरोष में यह गठबंधन कामयाब रहा था। लेकिन नायडू अगर मोदी सरकार के खिलाफ भी उसी तरह के जनरोष की कल्पना कर रहे थे तो यह निहायत ही बचकाना था। चुनाव परिणामों से भी यह साबित हो गया। अगर ऐसा नहीं था तो फिर उनके इस उछलकूद का मतलब क्या था। भाजपा व मोदी विरोध के नाम पर वह इस जमीनी हकीकत को कैसे भूल गये कि मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई जनहित की योजनाओं का सीधा लाभ जरूरतमंदों को मिलना ऐसा क्रांतिकारी कदम था जिसकी काट विपक्ष के पास नहीं थी। केवल मोदी विरोध के नाम पर विपक्षी एकजुटता जनता को नागवार गुजर रहा था। नेताओं के मिलने से नहीं बल्कि जनता के दबाव व नेता के प्रति आकर्षण व विश्वास से गठबंधन बनता है। अगर वे अपने ससुर एनटीआर को नजीर मानकर ऐसा कर रहे थे तो उन्हें यह पता होना चाहिए कि उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह की लोकप्रियता चरम पर थी। बोफोर्स के खुलासे के बाद वह हीरो की तरह उभरे थे। क्या नायडू जैसे नेता भी इसे समझने में नाकाम रहे? अगर हां, तो क्यों और अगर नहीं तो फिर क्या वजह रही? यूं तो चंद्रबाबू नायडू की इस कवायद के पीछे कई वजहें थी, मगर उनमें से सबसे बड़ी वजह अपने वजूद की थी। अपने सूबे आंध्र प्रदेश में अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए वह वाईएसआर कांग्रेस के साथ एक जबर्दस्त सियासी संग्राम लड़ रहे थे।
बहरहाल, 2014 के चुनाव में चंद्रबाबू नायडू ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। इसका न केवल उन्हें बल्कि भाजपा को भी फायदा मिला था। राज्य की 25 लोकसभा की सीटों में से चंद्रबाबू नायडू की पार्टी तेलगुदेशम को 15 और 175 सदस्यीय राज्य विधानसभा में 126 पर विजय मिली थी। इसी तरह भाजपा को लोकसभा की दो और विधानसभा की चार सीटों पर जीत मिली थी। इसी के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 30 साल बाद केंद्र में पहली बार कोई गैरकांग्रेसी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी। पीएम मोदी ने अपनी सरकार में सभी घटक दलों को शामिल किया। नायडू की पार्टी भी मंत्रिपरिषद का हिस्सा बनी। लेकिन आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दिये जाने को मुद्दा बनाकर नायडू की पार्टी एनडीए सरकार से अलग हो गई और मोदी विरोध का झंडा उठा लिया।
मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए चंद्रबाबू नायडू ने हर वह जतन किया, जो वह कर सकते थे। लेकिन देश की जनता की तो बात ही क्या कहें खुद आंध्र प्रदेश की जनता को भी उनका यह बेसुरा राग नहीं सुहाया। नतीजा चुनावों में उनकी पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। लोकसभा की महज तीन और विधानसभा की केवल 23 सीटों पर सिमट गई नायडू की पार्टी का हाल देखकर तो यही अंदाजा लगता है कि विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास वह खुद के अस्तित्व की रक्षा के लिए कर रहे थे। विशेष राज्य के दर्जा का शिगूफा छोड़ देश भर में सक्रिय रहकर वह सूबे की जनता की सहानुभूति बटोरने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें लगा कि खुद को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत कर जनता की भावनाओं का दोहन कर वे आंध्र की गद्दी पर काबिज होने में कामयाब हो जायेंगे। लेकिन उनकी यह चाल बुरी तरह से फेल हो गई।

बहरहाल, राज्य की सत्ता गंवाने और लोकसभा चुनाव में भारी हार के बाद अब पार्टी भी टूट गई है। उधर, नायडू विदेश में परिवार के साथ छुट्टियां मना रहे थे इधर, उनकी पार्टी के चार राज्यसभा सदस्यों ने उन्हें टाटा बाय-बाय करते हुए बीजेपी का दामन थाम लिया। दिलचस्प बात यह है कि जिन चार सांसदों ने पार्टी छोड़ी है, वे सभी नायडू के भरोसे के थे। सांसदों का साथ छोड़ना नायडू की मुश्किलों की शुरुआत भर है। आगे उनकी मुश्किलों में और अधिक इजाफा होने वाला है। मुश्किलों में इजाफे का एक उदाहरण यह भी है कि उनकी लाख मिन्नतों के बावजूद नियम कायदों को दरकिनार कर 8 करोड़ की लागत से बनवाई गई उनके अमरावती स्थित घर से सटी इमारत प्रजा वेदिका को जगन मोहन रेड्डी सरकार ने जमींदोज कर दिया है। मुख्यमंत्री के रूप में नायडू इसी इमारत में जनता दरबार लगाते थे व अफसरों तथा कार्यकर्ताओं से मिलते थे। उन्होंने राज्य सरकार से विपक्ष के नेता के तौर पर इस इमारत की मांग की थी लेकिन गैरकानूनी रूप से बनाये गये इस इमारत को रेड्डी ने ढहा दिया। सियासी पंडितों का मानना है कि उनकी मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होने वाली। राज्य की रेड्डी सरकार लगातार उनके फैसलों की समीक्षा कर रही है और कई अहम निर्णयों को रद्द किया गया है। खबरें यहां तक हैं कि कुछ फैसलों को लेकर आने वाले दिनों में नायडू को कटघरे में भी खड़ा किया जा सकता है।

बहरहाल, नायडू ने जोखिम भरा दांव चला था, नतीजों ने इसकी तस्दीक कर दी है। चुनाव से पहले वह कांग्रेस के साथ हो गए। जबकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को राज्य के विभाजन के लिए जिम्मेदार माना जाता है। गलत वक्त पर लिए गए फैसलों के कारण नायडू प्रदेश में ही नहीं पार्टी के भीतर भी अलोकप्रिय हो गए। नायडू हालांकि ऐसी परिस्थितियों से पहले भी दो-चार हो चुके हैं। 2004 और 2009 में भी उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। चार दशकों से भी लंबे अपने राजनीतिक जीवन में एन चंद्रबाबू नायडू ने कई जोखिम उठाए और अनेक चुनौतियों का सामना किया, मगर मौजूदा चुनौती उन सबसे अलहदा है। यह उनके पूरे राजनीतिक करियर को बना भी सकता है और मिटा भी सकता है। प्रश्न यह है कि क्या वह फिर से खड़े हो पाएंगे?