शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

क्या सपा व बसपा के बीच साठगांठ है


राष्ट्रीय साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित

स्लग- हाजिर-नाजिर

इंट्रो- अक्सर एक दूसरे को पानी पी पीकर कोसते रहते हैं बहनजी और नेताजी। पर जैसे ही सरकार बनती है। एक-दूसरे के घपलों घोटालों पर कार्रवाई करने से बचते हैं। आखिर क्यों? क्या दोनों के बीच कोई सांठगांठ है

हाईलाईटर-  बसपा सरकार के दौरान हुए घोटालों की जांच कराने से कतरा रही है सपा सरकार


राज्य में इन दिनों सपा-बसपा में साठगांठ को लेकर फुसफुसाहट तेज हो रही है। दावा किया जा रहा है कि दोनों दल जनता के सामने चाहे जितना गाल बजाएं, पर अंदरखाने एक-दूसरे के घपलों-घोटालों पर पर्दा डालने के लिए अंडरस्टैंडिंग बनी हुई है। आपस में गुत्थमगुत्था दिखने वाले दोनों सियासी दलों की वास्तव में यह नूराकुश्ती है। विधानसभा चुनाव के दौरान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मायावती को कोसने का एक भी मौका नहीं चूकते थे। अपनी हर चुनावी सभा में उनके भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए उनके जेल जाने की भविष्यवाणी करते फिरते थे। दावा था कि सत्ता में आने पर बसपा शासन के भ्रष्टाचार की जांच कराई जाएगी और भ्रष्टाचार की गंगोत्री मायावती को जेल भेजा जाएगा। इसी के साथ जगह-जगह बने पार्कों में अस्पताल और स्कूल खोले जाएंगे। नेताजी तो जिले के अफसरों की ओर उंगली उठाते हुए यहां तक कहते थे कि मायावती का साथ देने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लच्छेदार भाषणों ने अपना असर दिखाया, और मायावती शासन से त्रस्त जनता ने सपा को प्रचंड बहुमत के साथ यूपी की गद्दी सौंप दी। पर, सत्तासीन होते ही सपा चुनावी सभा में दिए गए लच्छेदार भाषणों को भूल गई। हालत यह है कि बसपा शासन के घपले घोटालों के तथ्य होने के बावजूद सपा सरकार मायावती के खिलाफ जांच कराने तक से कतरा रही है। आखिर क्यों? कहीं इस हृदयपरिवर्तन के पीछे आपसी मिलीभगत तो नहीं? क्या यह समझा जाय कि दोनों के बीच अंदरखाने कोई खिचड़ी पक रही है। यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि चुनावों में मायावती सरकार को पानी पी पीकर कोसने वाले समाजवादी पिता-पुत्र ने सभी मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है जो उन्हें बहनजी के खिलाफ कार्रवाई करने से रोकती है। क्या इसमें भी कांग्रेस का दबाव काम कर रहा है। या फिर आपसी रजामंदी से ही मामलों को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या वजह है कि चार महीने बाद भी एक भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकी अखिलेश सरकार। इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह ैहै कि राज्य सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले शिवपाल सिंह यादव ने पूरे तामझाम से आरटीआई के जरिए मायावती के सरकारी निवास पर खर्च हुए 86 करोड़ रुपये का ब्यौरा निकलवाया। विधानसभा में सवाल भी उठा। पर सब टांय-टांय फिस्स। अब जांच कराने से ही इंकार। क्या मायने हैं इसके। क्या इससे नहीं साबित होता कि सपा-बसपा के बीच जरूर कोई जुगलबंदी है। तथ्य भी इसी ओर इशारे कर रहे हैं। इसे समझने के लिए एक और मामले का जिक्र करना समीचीन होगा। मायावती सरकार के दौरान 21 चीनी मिलें बेची गईं। कैग की रिपोर्ट में 808 करोड़ रुपये के घपले का खुलासा हुआ। चुनाव के दौरान समाजवादी पिता-पुत्र ने मामले को जोर-शोर से उठाया। पर सरकार बनने के बाद खामोशी का लबादा ओढ़ लिया। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिससे आम आदमी को बसपा व सपा के बीच मिलीभगत की आशंका हो रही है।
ऐसा मानने वालों की दलील है कि मायावती और मुलायम सिंह अपने भाषणों या बयानों में चाहे जितनी एक दूसरे की बखिया उधेड़ते हों पर, दोनों ही एकदूसरे के घोटालों पर अपने कार्यकाल के दौरान पर्दा डालते रहे हैं। मायावती जब सत्ता में आती हैं तो सपा सरकार के दौरान हुए घपलों-घोटालों पर चुप्पी साध जाती हैं और जब सपा की बारी आती है तो वह बसपा शासनकाल के भ्रष्टाचार की फाइलों पर अजगर बन कर बैठ जाती है। इसके प्रमाण में मुलायम काल में हुए पुलिस भर्ती घोटाले समेत तमाम मुद्दों को गिनाते हैं जिन पर मायावती ने कुछ भी नहीं किया। वह पूरे पांच साल तक सपा शासनकाल के विवादित फैसलों पर कार्रवाई करने से बचती ही रहीं। वही हाल आज सपा सरकार का है। वह भी मायावती को मुश्किल में डालने वाले मामलों पर पालथी मार कर बैठ गई है। ऐसे में यदि दोनों के बीच किसी साठगांठ की आशंका व्यक्त की जा रही है तो, कहीं न कहीं लोगों को इसमें सच्चाई नजर आ रही है। दरअसल, उत्तर प्रदेश का राजनीतिक मिजाज भी तमिलनाडु की तरह ही हो गया है। मायावती और मुलायम दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि। मान लिया गया है कि हर पांच वर्ष बाद सत्ता का बंटवारा सपा व बसपा के बीच ही होना है। होता भी यही है। एक बार मायावती की सरकार बनती है तो दूसरी बार मुलायम सिंह की। राष्ट्रीय पार्टियां कही जाने वाली कांग्रेस व भाजपा का वजूद दिनोंदिन सिमटता जा रहा है। जनता एक की खीझ दूसरे को विजयी बनाकर उतारती है। बावजूद इसके कि मायावती की माया और मुलायम की माया में ज्यादा कुछ फर्क नहीं है। दोनों ही जातीय गोलबंदी के माहिर व मंझे हुए खिलाड़ी हैं। मायावी हैं। अपने तईं एक-दूसरे को बचाने की पुरजोर कोशिश की जाती है। बहरहाल, सत्ता शीर्ष की अदला बदली जनता इस भरोसे के साथ करती है कि अब उसकी तकदीर बदल जाएगी। हालांकि हर बार वह ठगी ही जाती है। दरअसल, तकदीर नहीं केवल तस्वीर बदलती है।
धूमिल ने उत्तर प्रदेश के बारे में लिखा था कि भाषा में भदेस हूं/ इतना कायर हूं कि/ उत्तर प्रदेश हूं। दुर्भाग्य से धू््मिल अब नहीं हैं। अगर आज होते तो नि:संदेह यही लिखते कि कभी मायावती, कभी अखिलेश हूं /सच तो यह है कि/ कभी नहीं सुधरूंगा/ उत्तर प्रदेश हूं।
बहरहाल जनता ने बड़ी उम्मीदों से युवा अखिलेश को राज्य की बागडोर सौंपी थी। पर चार महीने बीतते न बीतते वह मोहभंग के कगार पर पहुंच गई है। यूपी की जनता आजकल रामचरितमानस का एक दोहा मन ही मन दुहरा रही है- कोऊ नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ नहीं होउब रानी।






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