बुधवार, 11 नवंबर 2009

माई ( भाग - एक )

बाबूजी के असामयिक निधन ने हमारे पुरे परिवार को हिलाकर रख दिया। हमने तो कभी कल्पना भी नही की थी की कभी ऐसा भी होगा। मुझे तो बहुत दिनों तक यह विश्वास ही नही होता था कि बाबूजी अब इस दुनिया में नही रहे। मुझे लगता था कि मै कोई सपना देख रहा हूँ और जैसे ही आंख खुलेगी सब कुछ पहले की तरह ठीक हो जाएगा, लेकिन न तो ऐसा होना था न हुआ। माई के तो आंसू रुकने का नाम ही नही लेते थे। माई को रोते देख कर हम सभी भाई बहन भी रोने लगते थे अंततः माई को अपने आंसुओं को पीना पड़ता था। खैर बाबूजी की मृत्यु के बाद चाचा द्वारा हमसे पिंड छुडा लेने के बाद माई ने जिस तरह से हम भाई बहनों को संभाला वह माई के ही वश की बात थी। यहाँ उसकी जिजीविषा प्रकट होती है, वह साहसी तो इतनी थी की कोई भी काम उसके लिए असंभव नही था।

जिस माई ने बाबूजी के जीवन काल में कभी बिना घूँघट के घर की दहलीज नहीं लांघी थी, उसे अब हम भाई-बहनों के भूख लडाई लड़नी थी। उसने इस चुनौती को स्वीकार किया और निकल पड़ी हमारे भूख से दो -दो हाथ करने। माई ने हमारे लालन - पालन में कोई कमी नही रखी। उसने हर वह काम किया जो सामाजिक मर्यादाओं के दायरे में आता है। उसने हमें बाबूजी के न होने का कभी अहसाह तक न होने दिया। माई ने उस घोर संकट काल में भी कभी भी हमें भूखे पेट नही सोने दिया। बहुत बार तो ऐसा भी हुआ कि हमारा पेट भरने के लिए ख़ुद माई को भूखे पेट सो जाना पड़ता था, फ़िर भी उसके चेहरे पर एक शिकन तक न पड़ती थी , उल्टे उसके चेहरे पर आत्म संतुस्टी का भाव झलकता था। यह सब देख कर कभी-कभी मेरा बालमन विद्रोह कर उठता था। मन करता था कि पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करूँ जिससे माई की कुछ सहायता कर सकू लेकिन माई मुझे ऐसा करने से मना करते हुए बड़े प्यार से समझाते हुए कहती कि देख बचवा , सुख-दुःख दिन -रात के तरह होला जईसे दिन के बाद रात आ रात के बाद दिन आवेला ओसही सुख के बाद दुःख आ दुःख के बाद सुख जरुर आवेला, एही से आदमी के कुल चिंता भगवान पर छोड़ के बस आपन काम में मन लगावे के चाही । तोहार काम बा अभी पढाई कईल एसे तू कुल चिंता-फिकिर छोड़ के केवल आपन पढाई पर ध्यान और गीता का एक श्लोक कर्मण्ये वा धिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन--------अर्थ सहित सुना देती थी। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि माई ने औपचारिक स्कूली शिक्षा तो नहीं पाई थी किंतु स्वाध्याय के बदौलत रामायण व गीता भली-भांति पढ़ व समझ लेती थी। माई गीत भी बहुत मधुर गाती थी , मै तो बार-बार जिद्द करके उससे भजन और खासकर "जतसार" ( ग्रामीण महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला एक प्रकार का पारंपरिक विरह गीत ) गवा कर सुनता था। माई को लगभग आधा रामायण कंठस्थ था। पढ़ने को तो माई कठिन से कठिन संस्कृत के श्लोक भी पढ़ लेती थी किंतु टेढ़े-मेढ़े अक्षरो में अपना नाम लिखने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं लिख पाती थी। बहरहाल माई सारी जिंदगी ख़ुद जलकर हमारे जीवन को रौशन करती रही। हमारी जिंदगियां सवारने में वह ऐसी खोई कि ख़ुद का सुध -बुध ही भुला बैठी । सन १९९५ की बात है। कोलकाता में मझली दीदी प्रेम कुमारी की पुत्री की शादी थी। मै भी उस वक्त तक कोलकाता में ही सेटल हो गया था। उसी शादी में शामिल होने के लिए माई भी कोलकाता आई हुई थी। शादी के एक सप्ताह पहले ही माई के पेट में भयंकर दर्द उठा। डाक्टरों ने बताया की पित्ताशय का कैंसर है। काफी ईलाज हुआ किंतु कैंसर अन्तिम स्टेज पर पहुच चुका था। डाक्टरों ने माई की जीवन रेखा को छोटी करते हुए अधिकतम तीन वर्षों की समय-सीमा में समेट दिया। उन्होंने साफ-साफ कह दिया की माई अब इस दुनिया में अधिकतम तीन वर्षों की ही मेहमान है। --------शेषांश अगले पोस्ट में । बद्री नाथ वर्मा ९८३६७२१२७६ तथा 8013538901