शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

कुर्सी तेरे भाग में दो कौड़ी के लोग


बद्रीनाथ वर्मा
15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो हर देशवासी की आंखों में एक सुनहरे भविष्य का सपना था। पर वह सपना धीरे धीरे दिवास्वप्न में तब्दील होता गया। दिन बीतते गये लोकतंत्र राजतंत्र में तब्दील होता गया। वंशवाद से होते हुए सत्ता पर धन बल और बाद में बाहुबल हावी होता गया। अब तो 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस का पालन महज एक रस्म अदायगी भर रह गया है। बस एक वार्षिक समारोह। जिस दिन लालकिले की प्राचीर से हमारे प्रधानमंत्री देश को सपने परोसते हैं। देश को आजादी मिले 69 साल हो गये। यह वक्त कम नहीं होता। एक पूरी की पूरी पीढ़ी बुढ़ा गई। सवाल है कि हमारे स्वतंत्रता  आंदोलन के शहीदों ने जिस उद्देश्य के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे दी क्या हम उसे पूरा कर सके। हमने कुछ क्षेत्रों में प्रगति जरूर की लेकिन आज भी बेरोजगारी, महंगाई व भुखमरी जैसी समस्याओं से हमारा पीछा नहीं छूट सका है। समस्याएं आज भी जस की तस बरकरार हैं और इसकी वजह भ्रष्टाचार है। पड़ोसी मुल्क चीन में मात्र कुछ लाख रुपये रिश्वत लेने के जुर्म में वहां के रेलमंत्री को फांसी की सजा सुना दी जाती है जबकि अपने यहां करोड़ों अरबों डकार जाने वाले हमारे राजनेताओं का एक बाल तक बांका नहीं हो पाता। देश का कोई ऐसा महकमा नहीं बचा जहां भ्रष्टाचार ने अपने पांव नहीं पसारा हो। नीचे से ऊपर तक सभी एक दूसरे से होड़ लेते हुए भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगा रहे हैं। ताकि उनकी सात पीढ़ियां सुरक्षित हो जायें। हमें अंग्रेजों से तो आजादी मिल गई पर स्वराज्य हमसे अभी भी कोसों दूर है। अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि क्या हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का आजादी से तात्पर्य सिर्फ सत्ता हस्तानांतरण से था। बिल्कुल नहीं। लेकिन हुआ यही। सवाल यह है कि यह आजादी मिली किसे। आम आदमी को आजादी का कितना फायदा मिला। देश के नये प्रभुवर्ग ने इसे हाइजैक कर लिया। अंग्रेजी जानने वाली देश की मात्र तीन प्रतिशत आबादी के हाथों में देश की सत्तानबे प्रतिशत जनता के भाग्य निर्धारण की बागडोर है। आज भी देश में अंग्रेजों द्वारा बनाये गये अधिकतर कानून लागू हैं। वही मैकाले की शिक्षा पद्धति, वही पुलिसिया आतंक। कुछ भी तो नहीं बदला। हां, अगर कुछ बदला तो यही कि देश में नया प्रभुवर्ग तैयार हुआ। सत्ता कायम रखने के लिए वोटों की सौदागरी हुई। धर्मनिरपेक्षता के आडंबर के तहत वोटबैंक की राजनीति हुई। यहां तक कि देश की कीमत पर भी। बस बदला तो यही कि गोरे अंग्रेजों की जगह हमारे देशी अंग्रेजों ने ले ली। इधर महंगाई है कि सुरसा के मुंह की तरह लगातार बढ़ती ही जा रही है। दिन ब दिन जिंदगी मुश्किल होती जा रही है। लोगों का जीना दूभर हो रहा है। भ्रष्टाचार की ही देन है कि हर रोज अपना रुपया डॉलर से मात खाता जा रहा है। जिस गति से भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी हुई है उसी तेजी से रुपये का अवमूल्यन भी हुआ है। आज एक डॉलर की कीमत लगभग सरसठ रुपये तक पहुंच चुकी है। जबकि 15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेजों से देश को आजादी मिली उस समय रुपया व डॉलर कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। यानी एक रुपया एक डॉलर के बराबर था। लेकिन आजादी के 69 सालों में रुपया भी लगभग रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच गया है। या यूं कहें कि उससे भी आगे। आज एक डालर की तुलना में रुपये की औकात घटकर सरसठ रुपये के आसपास पहुंच गयी है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। हालांकि इसके लिए सिर्फ किसी एक राजनीतिक दल को दोष देना नाइंसाफी होगी। जब जिस पार्टी को मौका मिला उसने देश को कंगाल बनाने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। हां, ये दीगर बात है कि आजादी के बाद सबसे ज्यादा सत्ता पर कांग्रेस ही काबिज रही। इस लिहाज से इसका सेहरा इसके सिर ही बंधता है।
शायर अशोक अंजुम के शब्दों में अगर कहें तो दृश्य कुछ इस तरह का दिखता है-
न जाने किस जन्म का, भोग रही है भोग,
कुर्सी तेरे भाग में, दो कौड़ी के लोग।। 

शनिवार, 28 मई 2016

जिंदगी में मिठास घोलते सागर के दो बूंद

बद्रीनाथ वर्मा

133 ए, गली नंबर 21 बिपिन गार्डेन एक्सटेंशन निकट द्वारका मोड़ दिल्ली। यह एक महज पता नहीं है। बल्कि यह ऐसा पता है जहां आकर हर ओर से हारे थके लोगों को जीने की एक नई उम्मीद मिलती है। यहां रहते हैं सागर। इनकी दो बूंद की सलाह अब तक सैकड़ों जिंदगियों को रौशन कर चुकी है। जूनून की हद तक जनसेवा को अपना ध्येय मानने वाले सागर यूं तो शिक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं मगर उनकी इससे एक अलग पहचान भी है। वह पहचान है लाइलाज बीमारियों से लोगों को निजात दिलाने की। होम्योपैथिक औषधियों से असाध्य बीमारियों से पीड़ित लोगों को नवजीवन प्रदान करने वाले सागर का बचपन बिहार के मधेपुरा जिले के सिंहेश्वर में बीता है। स्कूली शिक्षा भी उन्होंने यहीं से पाई है। ज्ञात हो कि सिंहेश्वर सबसे बड़े महादेव मंदिर के लिए देश भर में ख्यात है। पिता से विरासत में मिले होम्योपैथी ज्ञान को उन्होंने स्वाध्याय व व्यापक रिसर्च के सहारे कई सारे ऐसे केसों में जहां बड़े बड़े अस्पतालों व डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे ऐसे लोगों को भी उन्होंने नवजीवन प्रदान किया है। सागर के पास होम्योपैथी या किसी भी मेडिकल पद्धति की कोई डिग्री नहीं है लेकिन स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान के बलबूते निस्पृह भाव से मानव समाज की भलाई के लिए कार्य किये जा रहे हैं। सरकारी नौकरी में होने की वजह से वैसे तो दवा देने से कतराते हैं लेकिन रोग से पीड़ित लोगों की व्यथा से विचलित होकर अंतत: उनका इलाज करने को राजी हो जाते हैं। हालांकि सागर काफी व्यस्त रहते हैं बावजूद इसके चूंकि शनिवार व रविवार को दफ्तर में छुट्टी रहती है सो उस दिन उनके आवास पर दूर दूर से लोग उनके हाथों से दवाइयों की दो बूंद लेने आते हैं। सागर के इलाज से लाभान्वित हुए लोग एक सुर में बताते हैं कि उनके हाथों में जादू है। रोगों को डायग्नोस कर दवाओं का कंपोजिशन वे खुद तैयार करते हैं। जब कोई हर ओर से हारा थका एक उम्मीद लेकर उनके यहां आता है तो वे अपनी पूरी ऊर्जा उसे रोगमुक्त करने में लगा देते हैं। उनकी इसी जूनून का नतीजा है कि जिन रोगों को बड़े बड़े डाक्टरों ने लाइलाज घोषित कर दिया था वह इन्होंने अपनी दो बूंदों की बदौलत ठीक कर दिया। उनकी सलाह पर होम्योपैथी की दो बूंद लेकर आज सैकड़ों लोग असाध्य समझी जाने वाली बीमारियों से मुक्त होकर खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं। सागर के विभाग के सेक्शन आॅफिसर संतोष का चार वर्षीय बेटा सुगर से पीड़ित था। इंसुलिन उसके जीवन के रोजमर्रा का हिस्सा हो गया था। संतोष के मुताबिक जबसे सागर ने उसका इलाज शुरू किया है तबसे उनके बेटे के सुगर लेबल में सुधार की प्रक्रिया शुरू है। उन्हें विश्वास हो गया है कि जल्द ही उनका बेटा पूरी तरह से ठीक हो जाएगा और उसे इंसुलिन की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसी तरह उनकी सहकर्मी रश्मि बताती हैं कि उनकी बेटी दो-दो तीन-तीन दिन तक लैट्रिन नहीं जा पाती थी लेकिन सागर की दवा से उसे इस परेशानी से मुक्ति मिल गई है। सागर की  दो बूंद की सलाह से नवजीवन पाए ऐसे सैकड़ों लोगों की अपनी अपनी कहानियां हैं। निरोग हो चुके ऐसे लोग उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते।