सोमवार, 13 अगस्त 2012

हार की इबारत


हार की इबारत (साप्ताहिक इतवार. 29 अप्रैल )
दिल्ली नगर निगम चुनाव में कांग्रेस की पराजय को किसी भी तरह से अनपेक्षित नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस की हार की इबारत तो उसी दिन लिखी जा चुकी थी जब स्वयं कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के विरोध के बावजूद एमसीडी के तीन हिस्से कर दिये गये थे। हालांकि इस इबारत को न तो शीला सरकार और न ही कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व समय रहते पढ़  पाया। अगर वह इसे पढ़ पाता तो शायद आज परिदृश्य कुछ दूसरा होता। हार की दूसरी वजह है हनुमान की पूंछ की तरह बेतरतीब बढ़ती महंगाई। इस बढ़ती महंगाई से हर आम ओ खास परेशान है। रही सही कसर पूरी कर दी कार्यकर्ताओं की नाराजगी ने। सक्षम व समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर टिकटों की बंदरबांट हुई। इसने भी पार्टी की जीत में पलीता लगाने का काम किया। इस दौरान कांग्रेस की गुटबाजी चरम पर रही। टिकट बंटवारे से नाराज कार्यकर्ताओं ने भी अपना कमाल दिखाया और परिणाम कांग्रेस की हार के रूप में सामने आया। दरअसल, यह चुनाव परिणाम दिल्ली की शीला सरकार के कामकाज पर मतदाताओं का रोष भी अभिव्यक्त करता है। क्योंकि इस चुनाव से स्थानीय मुद्दे गायब रहे। पूरे चुनाव के दौरान दिल्ली सरकार व कुछ हद तक केेंद्र सरकार की कारगुजारियों को ही विपक्षी भाजपा ने जोरशोर से उठाया। इस तरह से इस चुनाव से स्थानीय मुद्दे गायब ही रहे। इसलिए अगर इस हार को कांग्रेस की हार के बजाय शीला सरकार की हार के रूप में देखें तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यूपी, मुंबई और अब दिल्ली तक लगातार हो रही पराजय ने कांग्रेस के कान खड़े कर दिये हैं।। इस अप्रत्याशित परिणाम ने राजनीतिक विश्लेषकों को भी अचंभे में डाल दिया है। कहा जा रहा है कि यह कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में चल रही गुस्से की लहर का ही परिणाम है। एमसीडी चुनाव में कांग्रेस को अपनी जीत का पक्का भरोसा था। सूत्र बताते है कि खुद भाजपा को भी अपनी इस तरह की जीत का विश्वास नहीं था। कुल मिलाकर देखा जाय तो यह कांग्रेस की हार से ज्यादा शीला दीक्षित सरकार की हार है। क्योंकि उन्हीं की मनमानियों का खामियाजा भुगतना पड़ा है कांग्रेस को। उन्होंने एमसीडी को तीन भागों में विभाजित करने की जो चाल चली वह उल्टी पड़ गयी। उनके इस निर्णय का बीजेपी समेत खुद उनकी पार्टी कांग्रेस ने भी विरोध किया था। हालांकि कांग्रेसियों का विरोध भी नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के निकट मानी जाने वाली शीला ने उनसे इस पर वीटो लगवा लिया। इसके बाद भला किस कांग्रेसी में दम था कि वह इसका विरोध करे। एमसीडी को तीन भागों में बांटने का उद्देश्य साफ था। पिछले दरवाजे से इस पर कब्जा करना। मतदाताओं को शीला सरकार की यह साजिश भी नागवार गुजरी और उसने सबक सिखाने की ठान ली। इस तरह देखा जाय तो हार की इबारत उसी दिन लिखी जा चुकी थी। भले ही कांग्रेस उसे पढऩे में चूक गयी। रही सही कसर दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती महंगाई ने पूरी कर दी। कुल मिलाकर यह कहने में झिझक नहीं है कि एमसीडी चुनाव में कांग्रेस को शीला सरकार की गल्तियों का खामियाजा भुगतना पड़ा है। एमसीडी के चुनाव परिणाम ने साफ संकेत दे दिया है कि दिल्ली की जनता शीला सरकार से खुश नहीं है। क्योंकि यह चुनाव पानी, बिजली और सड़क के मुद्दे पर नहीं लड़ा गया था। यह भाजपा की जीत उतनी नहीं है जितनी कांग्रेस खासकर शीला सरकार की हार है। एमसीडी पर काबिज भाजपा ने इस दौरान ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसे उसकी उपलब्धि कहा जा सके। हां, एक बात के लिए उसकी प्रशंसा जरूर की जानी चाहिए कि इस दौरान उसके नेताओं पर कोई बदनुमा दाग नहीं लगा जबकि इसके विपरीत शीला सरकार से लेकर केंद्र सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे। बढ़ती महंगाई व भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता ने एमसीडी चुनाव में कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए बीजेपी को अपना वोट दिया है। चुनाव परिणाम से स्पषट है कि जनता किसी भी कीमत पर कांग्रेस को जीतने देना नहीं चाहती थी। उसका विजन बिल्कुल साफ था। शीला सरकार को सबक सिखाओ। इसलिए उसने शीला सरकार के विरोध में कांग्रेस के खिलाफ वोट देकर अपना गुस्सा उतारा है। हालांकि एमसीडी चुनाव का पक्ष सिर्फ नकारात्मक नहीं है। इसके कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। इस जीत के लिए लगातार मेहनत करने वाले दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। वे लगातार सड़कों पर संघर्ष करते रहे। कभी दिल्ली भाजपा में मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा व सुषमा स्वराज जैसे कद्दावर नेताओं का वर्चस्व था। दिल्ली भाजपा अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता का राजनीतिक कद हालांकि इनकी तुलना में काफी छोटा है इसके बावजूद उन्होंने अपनी मेहनत से अपनी जगह बनायी है। यह भूलना नहीं चाहिए। वे पिछले एक वर्षों से शीला सरकार की खामियां व भ््रषटाचार को लेकर मुखर थे। तो क्या यह माना जाये कि यह परिणाम विधानसभा चुनाव के पूर्व शीला दीक्षित सरकार की हार का पूर्वाभास है। या मतदाताओं की सामयिक नाराजगी का नतीजा । जो धीरे धीरे स्वत: ही समाप्त हो जायेगा। लगता नहीं है कि ऐसा होगा। क्योंकि जिस तरह के चुनाव परिणाम आये हैं उससे तो साफ संकेत मिलते हैं कि शीला सरकार अब चलाचली की बेला में है। चुनाव परिणाम आने के बाद एक सवाल राजनीतिक गलियारों में बड़े चटखारे लेकर पूछा जा रहा है कि क्या शीला दीक्षित का हश्र भी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री रहीं व वर्तमान में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज जैसा होने वाला है। यानी कि क्या विधानसभा चुनाव से पूर्व शीला दीक्षित को हटाया जायेगा? ध्यान रहे कि तत्कालीन मुख्यमंत्री रहीं सुषमा स्वराज को भाजपा ने विधानसभा चुनाव के मात्र चार महीने पहले बदल दिया था। बावजूद इसके वह हार से बच नहीं पाई थीं। क्या वही इतिहास एक बार फिर दोहराया जायेगा?
                                                                                            बद्रीनाथ वर्मा मोबाइल 9718389836

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