सोमवार, 26 मार्च 2012

हिटलर दीदी

(नई दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक "इतवार" के एक अप्रैल के अंक में प्रकाशित)
भले ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यह सोच कर खुश हो रही हैं कि उन्होंने दिनेश त्रिवेदी को निपटा दिया। लेकिन उनको निपटाने में उनकी साख पर जो बट्टा लगा है उसका परिमार्जन जल्द नहीं होने वाला है। करीब चार दिनों तक चले हाई बोल्टेज ड्रामे के बाद त्रिवेदी ने 18 मार्च की शाम प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा भेज दिया। कहा जा रहा है कि ममता के बढ़ते दबाव ने कांग्रेस को ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया। जैसे ही पता चला कि अपने सांसदों के साथ बैठक करने ममता दिल्ली आ रही हैं । त्रिवेदी को संदेश भेजा गया कि वे इस्तीफा दे दें। यह संदेश खुद प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी लेकर त्रिवेदी के पास गये थे। सूत्रों के अनुसार इसमें वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी अहम भूमिका निभाई। बस क्या था त्रिवेदी के बगावती सुर नरम पड़ गये। पिछले चार दिनों में एक बार भी ममता से बात नहीं करने वाले त्रिवेदी ने तृणमूल सुप्रीमो ममता के दिल्ली आने की खबर पाते ही उन्हें फोन किया। उस वक्त वे कालीघाट स्थित 30 नंबर हरीश बी चटर्जी लेन स्थित अपने आवास से दिल्ली की उड़ान पकड़ने के लिए निकल चुकी थीं। सूत्रों के अनुसार ममता ने उन्हें धमकाया और कहा कि यदि वे खैर चाहते हैं तो तुरंत अपना त्यागपत्र दें। तृणमूल सुप्रीमो के कड़े तेवर ने त्रिवेदी के कस बल निकाल दिये। उन्होंने उन्हें बताया कि वे प्रधानमंत्री कार्यालय को अपना इस्तीफा भेज चुके हैं। परिणाम हुआ ममता के दिल्ली पहुंचने से पहले ही त्रिवेदी का इस्तीफा हो चुका था। अपने इस्तीफे की जानकारी देते हुए दिल्ली में त्रिवेदी ने कहा कि ममता से बात करने के बाद उन्होंने अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री के पास भेज दिया है। उन्होंने ममता बनर्जी को अपनी नेता बताते हुए खुद को पार्टी का वफादार सैनिक कहा। उन्होंने ममता के कशीदे पढ़ते हुए बड़ी मासूमियत से कहा कि तृणमूल सांसद व केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री सुदीप वंद्योपाध्याय के बयान ने गलतफहमी पैदा कर दी थी। वे तो कभी का इस्तीफा दे चुके होते किन्तु वंद्योपाध्याय के संसद में दिये गये बयान " त्रिवेदी को पार्टी की तरफ से इस्तीफा देने के लिए नहीं कहा गया है " ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। खैर, चार दिनों तक चले इस हाई वोल्टेज ड्रामे के पटाक्षेप के पीछे कई कहानियां हवा में तैर रही हैं। कहा जा रहा है कि त्रिवेदी की पीठ थपथपा कर कांग्रेस ममता को उनकी औकात दिखा रही थी। इस बीच कई तरह की सौदेबाजी की भी चर्चा गर्म रही।
ममता की नाराजगी को देखते हुए वैसे तो त्रिवेदी का जाना तय ही माना जा रहा था किन्तु त्रिवेदी ने जो बगावती तेवर अपनाया उसने ममता के आभा मंडल को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। तृणमूल कांग्रेस में ऐसा पहली बार हुआ है कि ममता की हुक्मउदूली हुई है। उन्हीं की बिल्ली चार दिनों तक उन्हीं को म्याउं करती रही और वे लाचार खून का घूंट पीती रहीं। अग्निकन्या को निकट से जानने वालों का दावा है कि ममता अपने दुश्मनों को कभी नहीं भूलतीं। वे त्रिवेदी को भी सबक सिखायेंगी ही। आज नहीं तो कल। परिणाम चाहे जो हो। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि त्रिवेदी के बगावती तेवर के पीछे खुद उनकी ही पार्टी के कुछ सांसदों का समर्थन था। दीदी के हिटलरी अंदाज से ये सांसद खफा बताये जाते हैं। ऐसे सांसदों की संख्या करीब आठ बतायी जा रही है। सूत्रों का कहना है कि ये सभी लोग ममता के सताये हैं। इन्होंने ही त्रिवेदी को डटे रहने का हौसला दिया था। उन लोगों ने त्रिवेदी को भरोसा दिया था कि वे उनके साथ हैं। त्रिवेदी के संबंध में आम राय यही है कि वे बड़े ही सभ्य सुसंस्कृत व भले इंसान हैं। वे आम राजनेताओं की तरह नहीं हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि त्रिवेदी को जिस तरह हटाया गया उससे उनके पक्ष में माहौल बना है। लोगों को लगता है कि त्रिवेदी के साथ नाइंसाफी हुई है। प्रेक्षकों के अनुसार त्रिवेदी को अगर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाता हैं तो वे ममता के लिए भस्मासुर भी साबित हो सकते हैं। राजीव गांधी के कार्यकाल को याद करते हुए राजनीतिक पंडित कहते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि त्रिवेदी ममता के लिए दूसरा वी पी सिंह साबित हों।
इस्तीफा देने में हुई देरी का ठीकरा भले ही त्रिवेदी ने सुदीप के सिर फोड़ा किन्तु ममता बनर्जी ने 17 मार्च को अपने चार राज्यसभा सांसदों के नामांकन के अवसर पर संवाददाताओं से साफ कह दिया था कि दिनेश त्रिवेदी अब उनके रेलमंत्री नहीं हैं। उन्होंने कहा कि उनकी तरफ से अगले रेल मंत्री के तौर पर मुकुल राय हैं। साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि वे एक ही बात बार-बार नहीं दोहरायेंगी। इससे पहले लोकसभा में तृणमूल के मुख्य सचेतक कल्याण बनर्जी ने फोन करके दिनेश त्रिवेदी को अपने पद से इस्तीफा देने को कहा था। लेकिन त्रिवेदी ने यह कह कर इस्तीफा देने से मना कर दिया कि जब तक स्वयं ममता बनर्जी उनसे लिखित में इस्तीफा नहीं मांगती वो इस्तीफा नहीं सौंपेंगे। इस सारे घटनाक्रम पर इतवार से फोन पर बात करते हुए सुदीप वंद्योपाध्याय ने कड़े शब्दों में कहा कि अगर त्रिवेदी इज्जत से नहीं जाना चाहते तो उन्हें उसी भाषा में समझाया जायेगा जो उन्हें समझ में आयेगी। संदेश साफ था कि उन्हें पार्टी और बर्दास्त करने के मूड में नहीं है। उन्होंने कांग्रेस की गोद में खेलने का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्हें मंत्री बनाते समय भी उन्हें फोन पर ही निर्देश दिया गया था।
गौरतलब है कि 14 मार्च को संसद में पेश रेल बजट में यात्री किराया बढ़ाये जाने को आधार बनाकर दिनेश त्रिवेदी से इस्तीफा देने को कहा गया था। त्रिवेदी ने यह कह कर इस्तीफा देने से मना कर दिया कि जब तक स्वयं ममता या प्रधानमंत्री उनसे इस्तीफा देने के लिए नहीं कहते वे कत्तई इस्तीफा नहीं देंगे। उन्होंने दलील दी कि जो रेल बजट उन्होंने पेश किया है वे उसे लावारिश नहीं छोड़ सकते। वे मैदान से भागेंगे नहीं। वे संसद में रेलमंत्री के तौर पर बहस में भाग लेंगे और जो बजट उन्होंने प्रस्तुत किया है उसे अंजाम तक पहुंचायेंगे। उन्होंने देश व रेलवे को अपनी प्राथमिकता बताते हुए कहा कि पार्टी उनकी प्राथमिकता सूची में तीसरे नंबर पर है। रेलवे के लिए राष्ट्रीय नीति बनाये जाने की वकालत करते हुए त्रिवेदी ने कहा कि पार्टियों की नीति के आधार पर रेलवे की नीति नहीं बदलनी चाहिए। देश पहले है पार्टी बाद में अगर देश के लिए काम करना बगावत है तो यही सही। उनके इस बयान से आग बबूला ममता ने इसे कांग्रेस का गेमप्लान करार देते हुए कहा कि वह त्रिवेदी के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही है। गुस्साईं ममता बनर्जी किसी भी सूरत में दिनेश त्रिवेदी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं थीं। वे उनके इस्तीफे पर अड़ गयीं। उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी पार्टी की ओर से मुकुल राय ही अगले रेल मंत्री होंगे। लेकिन सूत्रों के मुताबिक खुद प्रधानमंत्री मुकुल को रेल मंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे। पिछली बार भी प्रधानमंत्री ने ही मुकुल राय के खिलाफ वीटो लगा दिया था। इसी वजह से मजबूरी में दिनेश त्रिवेदी को रेलमंत्री बनाया गया था। हालांकि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पत्रकारों से कहा था कि यदि स्थितियों की मांग हुई तो सरकार रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी के बदलाव पर विचार करेगी। जब उनसे पूछा गया था कि क्या वह तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की यात्री किराए में वृद्धि के मुद्दे पर त्रिवेदी को हटाये जाने की मांग पर विचार करेंगे। इस पर उन्होंने कहा था कि अगर इस तरह की स्थितियां बनती हैं तो हम इस पर विचार करेंगे।
गौरतलब है कि 14 मार्च को पेश किये गये त्रिवेदी के पहले रेल बजट में बीते 10 सालों में पहली बार यात्री किराये में वृद्धि का प्रस्ताव है। यात्री किराये में वृद्धि से नाराज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व पार्टी प्रमुख ममता ने बजट पेश किये जाने के कुछ ही घंटों बाद प्रधानमंत्री को फैक्स भेजकर त्रिवेदी को हटाकर उनके स्थान पर उन्हीं की पार्टी के एक अन्य नेता मुकुल राय को नियुक्त करने को कहा था। ममता के हिटलरी अंदाज से तंग कांग्रेस को भी लगा कि अब ममता को सबक सिखाने का वक्त आ गया। वह भी अड़ गयी। कांग्रेस की तरफ से साफ कर दिया गया कि प्रधानमंत्री या कांग्रेस त्रिवेदी को पद छोड़ने के लिए नहीं कहेगी। उसका इशारा साफ था कि वह तृणमूल कांग्रेस के अंदर मची घमासान व उससे होने वाले तमाशे को दूर से ही देखेगी। संप्रग सरकार के शीर्ष नेतृत्व ने तृणमूल आलाकमान को साफ कर दिया है कि वह त्रिवेदी से इस्तीफा लेकर दे, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सीधे उनसे इस्तीफा नहीं मांगेंगे। इस बीच रेलवे की पांच सशक्त यूनियनों ने दिनेश त्रिवेदी को हटाए जाने और किराया वृद्धि वापस लेने की स्थिति में हड़ताल की धमकी दे दी। इस बारे में उन्होंने पीएम को पत्र भी लिख मारा। इस बीच कांग्रेस के कुछ नेताओं ने दिनेश त्रिवेदी की पीठ पर हाथ रख दिया। यही कारण है कि त्रिवेदी ने चुपचाप इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इस सारे घटनाक्रम पर पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने अपनी टिप्पणी करते हुए कहा कि भले ही त्रिवेदी रहे या जायें किन्तु उन्होंने ममता को तो उनकी औकात दिखा ही दी। उन्होंने चुटकी ली कि अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे। संसदीय इतिहास की इस अभूतपूर्व घटना पर लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी मंत्री ने बजट पेश किया हो और उसी की पार्टी उससे इस्तीफा मांग रही हो। उन्होंने त्रिवेदी को अपनी शुभेच्छाएं देते हुए कहा कि तृणमूल की यह कार्रवाई लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। वहीं किराये में वृद्धि को आधार बनाकर रेलमंत्री को हटाये जाने पर टिप्पणी करते हुए राज्य वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस ने इसे ममता की नाटकबाजी करार दिया। उन्होंने कहा कि ममता नाटक करने में माहिर हैं। इस घटनाक्रम ने साबित कर दिया कि वे ऊंचे दर्जे की अभिनेत्री हैं। राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्रा ने टिप्पणी की कि रेलमंत्रालय को आईसीयू में भेजने की जिम्मेदार त्रिवेदी की पूर्ववर्ती रेलमंत्री ममता बनर्जी हैं। अब देखना यह है कि वे पश्चिम बंगाल को कब आईसीयू में भेजती हैं।
बद्रीनाथ वर्मा
मोबाइल - 8017633285

बुधवार, 21 मार्च 2012

धन्ना सेठों की धमक

(साप्ताहिक 'इतवार' के २५ मार्च के अंक में प्रकाशित)
निर्वाचन आयोग द्वारा पश्चिम बंगाल में अप्रैल में रिक्त हो रही राज्यसभा की पांच सीटों के चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी गयी। इसी के साथ बहुतों के मन में उच्च सदन की सदस्यता हासिल करने की आकांक्षा हिलोरे मारने लगी हैं। इसके लिए विभिन्न स्तरों पर गोटियां बैठाई जा रही है। चूंकि तृणमूल कांग्रेस अपने लगभग चार उम्मीदवारों को राज्य सभा में भेजने की कूब्बत रखती है इसलिए टिकट के तलबगारों ने सत्ता के इर्द गिर्द गणेश परिक्रमा शुरू कर दी है। राज्यसभा में पहुंचने के लिए विपक्षी पार्टियों के कुछ कद्दावर नेता भी लाइन में लगे हुए हैं। यदि मुख्यमंत्री की ओर से हरी झंडी मिल जाती है तो वे अपनी पुरानी पार्टियों को तिलांजलि देने में क्षण भर की भी देर नहीं करेंगे। इस के अतिरिक्त कुछ थैलीशाह भी जुगाड़तंत्र में जुटे हुए हैं। ऐसे में यह देखना मजेदार होगा कि किसकी इच्छा पूरी होती है और किसकी आस एक बार फिर अधूरी रह जाती है।
अप्रैल में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा की पांच सीटें रिक्त हो रही हैं। इनमें से जिन राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो रहा है उनमें तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव व केन्द्रीय जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय, माकपा के मोइनुल हसन, समन पाठक, तपन कुमार सेन तथा भाकपा के आर सी सिंह हैं। संख्याबल के आधार पर तृणमूल कांग्रेस अपने तीन उम्मीदवारों को आसानी से राज्यसभा में भेज सकती है जबकि चौथे उम्मीदवार को जिताने के लिए थोड़ी जोड़तोड़ की जरूरत पड़ेगी। गोरखालैंड जनमुक्ति मोर्चा के विधायकों व कुछ अन्य विधायकों के सहयोग से चौथे उम्मीदवार को भी जिताने की रणनीति तृणमूल की ओर से बनायी जा रही है। माकपा भी अपने एक उम्मीदवार को राज्यसभा में भेज सकती है। कांग्रेस को अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए अतिरिक्त सात विधायकों की जरूरत पड़ेगी। जीत के लिए 49 विधायकों का समर्थन चाहिए जबकि राज्य विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की संख्या महज 42 ही है। 30 मार्च को होने वाले चुनाव के लिए हालांकि अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं किन्तु अंदरखाने मोलतोल जारी है। राज्यसभा के लिए खाली सीटों को भरे जाने के कार्यक्रम की घोषणा करते हुए चुनाव आयोग की ओर से इसकी अधिसूचना 12 मार्च को जारी कर दी गयी। नामांकन भरने की अंतिम तिथि 19 मार्च निर्धारित की गयी है जबकि 22 मार्च तक नाम वापस लिये जा सकेंगे। मतदान 30 मार्च को होगा और उसी दिन परिणाम भी आ जायेगा।
राज्यसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू होते ही राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गयी हैं। पर्दे के पीछे टिकटों के लिए जोड़तोड़ की जा रही है। इस काम में थैलीशाह भी जुटे हुए हैं। सूत्रों के अनुसार करोड़ों में बोली लगायी जा रही है। कहा जा रहा है कि जिसकी बोली ज्यादा होगी उसे ही टिकट मिलेगा। यह कोई नयी बात नहीं है और न ही आश्चर्यचकित होने की जरूरत है। पिछली बार भी यही हुआ था। पश्चिम बंगाल की राजनीतिक समझ रखने वालों का तो कहना है कि पिछली बार जून महीने में संपन्न राज्यसभा चुनाव में करोड़ों की डील हुई थी। वही खेल इस बार थोड़ा और बड़े पैमाने पर होगा। यहां एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। राज्यसभा की सीट हथियाने की मंशा रखने वाले धनकुबेरों को पैसे की परवाह नहीं है। उच्च सदन की सदस्यता हासिल कर माननीय कहलाने की आकांक्षा पाले थैलीशाह मुंहमांगी कीमत देने को तैयार बैठे हैं। शर्त यही है कि उन्हें राज्यसभा सांसद बनकर लालबत्ती में घूमने का सुअवसर मिल जाये। इसका गणित भी बड़ा सीधा है। आकलन है कि टिकट के लिए जितना पैसा दिया जायेगा उससे कई गुना दो वर्षों के कार्यकाल में उगाहा जा सकता है। ऐसे में यह किसी भी तरह से घाटे का सौदा नहीं है। यही कारण है कि किसी भी कीमत पर वे टिकट हासिल करना चाहते हैं। उनकी इस आकांक्षा को देखते हुए सत्ता के निकटस्थ लोग भी मोलभाव में तल्लीन हो गये हैं। बिचौलिए सत्ता के गलियारे में चक्कर लगाने लगे हैं। जोड़तोड़ जारी है। देखना यह है कि कौन किस पर भारी पड़ता है। एक बात तो सच है कि जिसकी थैली ज्यादा वजनदार होगी उसी को टिकट मिलेगा। हिन्दू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष व सामाजिक कार्यकर्ता राज नाथानी कहते हैं कि अब यह बात छिपी नहीं है कि राज्यसभा के टिकट करोड़ों में बिकते हैं। यदि इस पर शीघ्र ही रोक नहीं लगी तो हमारे लोकतंत्र के मंदिर धनपशुओं व अपराधियों के सैरगाह बन जायेंगे। उनके अनुसार हिन्दू महासभा जल्द ही इस मुद्दे को लेकर विस्तृत जन आंदोलन करेगी। राज्यसभा सीट के लिए पर्दे के पीछे चल रही पैसे की जबरदस्त खेल की पुष्टि करते हुए इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सक्रिय कार्यकर्ता सुशील पाण्डेय का कहना है कि जब तक सशक्त लोकपाल बिल पारित नहीं होता यह गंदा खेल यूं ही चलता रहेगा। इस खेल में सभी पार्टियों के बराबर रूप से शामिल होने का आरोप लगाते हुए उन्होंने सवाल किया कि पैसे के बल पर टिकट खरीदकर हमारा भाग्यविधाता बनने वाले लोग अपने पैसे की वसूली करेंगे या जनता की सेवा करेंगे। इसी राजनीतिक कदाचार की वजह से अब तक दो सौ से भी ज्यादा भ्रष्टाचार के बड़े मामले हुए है।
तृणमूल कांग्रेस की ओर से केन्द्रीय जहाजरानी राज्य मंत्री मुकुल राय का दोबारा राज्यसभा में पहुंचना लगभग तय है। इसी के साथ नाट्यकर्मी तथा राज्य में परिवर्तन का नारा बुलंद करने वाले बुद्धिजीवियों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली अर्पिता घोष का नाम भी चर्चा में चल रहा है। तृणमूल कोटे की बाकी बची दो सीटों को लेकर अटकलें लगायी जा रही है। तृणमूल के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भाई गणेश बनर्जी भी राज्यसभा में जाना चाहते हैं। हालांकि इस पर निर्णय ममता को ही लेना है। दो सीटों के उम्मीदवारों का नाम लगभग तय होने के बाद बाकी बची दो सीटों के लिए सत्ता के दलाल अपनी गोटी लाल करने में जुटे हुए हैं। राजनीतिक पंडितों का विश्लेषण है कि इन सीटों पर बड़े बड़े लोगों की नजरें हैं। राज्यसभा में पहुंचने का ख्वाब देखने वालों में एक मीडिया घराने के मालिक भी हैं। उनके लिए जबरदस्त लाबिंग की जा रही है। मुख्यमंत्री तक उनकी बात पहुंचाने के लिए कई लोगों को लगाया गया है। तृणमूल सूत्रों के अनुसार कइयों का तो दावा है कि यदि तृणमूल कांग्रेस उन्हें अपने चौथे उम्मीदवार के रूप में भी मैदान में उतार दे तो बाकी मतों का इंतजाम वे खुद कर लेंगे। राजनीति में अपराध और धन के हावी होने का दोष अक्सर अनपढ़, गंवार और जाति-धर्म के दलदल में धंसी जनता पर मढ़ दिया जाता है। लेकिन यह कितना बड़ा झूठ है, यह साबित कर देता है राज्यसभा का चुनाव जिसमें चुनने का काम हमारे सांसद और विधायक जैसे जनप्रतिनिधि ही करते हैं।
स्वयंसेवी संस्था नेशनल इलेक्शन वॉच के एक अध्ययन के अनुसार राज्यसभा सांसदों में से कुछ इक्के दुक्के सदस्यों को अगर छोड़ दिया जाये तो सारे के सारे हमारे माननीय करोड़पति हैं। कुल सदस्यों के एक चौथाई सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन मुकदमों में हत्या की कोशिश, अपहरण, धोखाधड़ी व जालसाची से जुड़े अपराध शामिल हैं। लेकिन इन सभी लोगों को हमारे उन नेताओं ने चुनकर भेजा है जो राजनीति में अपराधियों के खिलाफ घुसपैठ पर गला फाड़ते रहते हैं। खास बात यह है कि इन उम्मीदवारों के नाम छांटने का काम हर पार्टी का आलाकमान करता है। इसलिए वह भी इससे लिए सीधे-सीधे दोषी है। नेशनल इलेक्शन वॉच देश भर के 1200 से ज्यादा संगठनों का साझा मंच है। यह मुख्य रूप से राजनीतिक सुधारों के लिए कार्यरत है और लोगों में वह चेतना पैदा करना चाहता है ताकि वे राजनीतिक पार्टियों पर खुद को बदलने के लिए दबाव डाल सकें।
नेशनल इलेक्शन वॉच संस्था की ओर से जारी अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार पिछली बार राज्यसभा की 54 सीटों के लिए 14 व 17 जून को दो चरणों में चुनाव संपन्न हुए थे। देश के बारह राज्यों की इन 54 सीटों के विजयी उम्मीदवारों में से एक चौथाई सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। निर्वाचन आयोग से 49 सीटों पर विजयी उम्मीदवारों के हलफनामों से पता चलता है कि उनमें से 15 (28 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इन चुनावों में प्रमुख पार्टियों में से कांग्रेस ने कुल सोलह प्रत्याशी मैदान में उतारे जिनमें से तीन (19 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मुदकमे चल रहे हैं। चाल, चरित्र और चेहरे में सबसे अलग होने का दावा करने वाली बीजेपी द्वारा नामांकित ग्यारह उम्मीदवारों में से दो अर्थात 17 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने तो दो के दोनों टिकट अपराधियों को ही दे दिये थे। बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के सात में से एक (सबसे कम 14 प्रतिशत) उम्मीदवार अपराधी है।
इसके अतिरिक्त पार्टियों द्वारा राज्यसभा टिकट की रेवड़ी देने में धनपशुओं को ही तवज्जो दी। राज्यसभा की इन 54 सीटों के लिए मैदान में उतरने वाले 80 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं। जिन विजयी 49 उम्मीदवारों के हलफनामे उपलब्ध हैं, उनमें से 38 (78 फीसदी) ने खुद स्वीकार किया कि उनकी संपत्ति करोड़ों में है। विजयी उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 25.24 करोड़ रुपये थी। इनमें से 615 करोड़ के साथ सबसे अमीर राज्यसभा सांसद है विजय माल्या। मजे की बात यह है कि हलफनामें के अनुसार माल्या ने कहा है कि उनके पास कोई अचल संपत्ति नहीं है। माल्या के बाद तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के यालामंचिली सत्यनारायण चौधरी (189.7 करोड़) और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कंवर दीप सिंह (82.6 करोड़) का नंबर आता है। निर्वाचन आयोग को दिये गये उम्मीदवारों के हलफनामे से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि राजनीतिक पार्टियों का आलाकमान और उनके ज्यादातर नेता भाषणों में चाहे जो बोलते हों, लेकिन चुनने की बारी आती है तो वे धन और अपराध की ताकत को ही तवज्जो देते हैं। धन की ताकत के आगे सारे आदर्श फीके पड़ जाते हैं। एक बार फिर यही इतिहास दोहराये जाने की तैयारियां पर्दे के पीछे चल रही है। देखना यह है कि कौन बाजी मार ले जाता है।
बद्रीनाथ वर्मा
डी/150, सोनाली पार्क, बांसद्रोनी, कोलकाता - 700070
मोबाइल - 08017633285

मानीं ममता, कब तक

(साप्ताहिक 'इतवार' २५ मार्च अंक में प्रकाशित)
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से लेकर कांग्रेस के हर छोटे बड़े नेता के मान मनौव्वल के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मान तो गयी किन्तु सवाल है कि आखिर कब तक। यह सवाल यहां इसलिए मौजू है कि राज्य के खाली पड़े खजाने व लगभग 2.2 लाख करोड़ के कर्ज से दबी राज्य सरकार को केन्द्र की तरफ से आर्थिक पैकेज नहीं मिलता तो वह यूपीए का हाथ झटकने में तनिक भी विलंब नहीं करेंगी। खुद प्रधानमंत्री ने उन्हें फोन कर उन्हें हरसंभव मदद का भरोसा दिया, तब जाकर बात बनी। हालांकि दिल्ली में राजीव शुक्ला ने प्रधानमंत्री द्वारा सीधे ममता से बात किये जाने से साफ इनकार किया। बहरहाल भले ही ममता ने दोनों के शपथग्रहण समारोह में स्वयं के शामिल होने का फैसला रद्द कर दिया किन्तु फिर भी कांग्रेस को चिढ़ाने से बाज नहीं आयीं। उन्होंने अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह में केन्द्रीय मंत्री सुल्तान अहमद को और अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी पर्यटन मंत्री रछपाल सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए अपने प्रतिनिधि के तौर पर भेजा। इससे उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे। एक ओर जहां उन्होंने मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता से दोस्ती बढ़ायी वहीं पंजाब में अकाली भाजपा के शपथ ग्रहण में अपना प्रतिनिधि भेजकर कांग्रेस को आंखें तरेरी कि वह एनडीए के साथ भी जा सकती हैं। बहरहाल ममता के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होने को लेकर बहाना बनाया गया नंदीग्राम में आयोजित शहीद दिवस को। मुख्यमंत्री की ओर से बताया गया कि 14 मार्च को नंदीग्राम कांड में मरने वालों की याद में आयोजित कार्यक्रम की वजह से वे पंजाब व उत्तर प्रदेश नहीं जा रही हैं। हालांकि पहले इस कार्यक्रम में सिर्फ केन्द्रीय मंत्री मुकुल राय व राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी के इसमें शामिल होने की बात थी। सूत्रों के अनुसार केन्द्र की ओर से ममता को भरोसा दिया गया है कि राज्य की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उनकी मांग के अनुरूप विशेष पैकेज दिया जायेगा। इस आश्वासन के बाद व गठबंधन धर्म की दुहाई दिये जाने के बाद ही ममता ने अपना निर्णय बदला किन्तु अपने प्रतिनिधियों को भेजकर फिर भी अपनी नाक ऊंची ही रखी।
कई मौकों पर केन्द्र की मनमोहन सरकार को संकट में डाल चुकीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी घटक दल तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के उत्तर प्रदेश और पंजाब के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के निर्णय ने कांग्रेस की बेचैनी बढ़ा दी थी। यूपीए के दरकते किले को देखकर पहले से ही बचाव की मुद्रा में आयी कांग्रेस के कान खड़े कर दिये। ममता की तृणमूल कांग्रेस केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। शपथ ग्रहण समारोह में ममता के शामिल होने की सूचना जैसे ही आयी कांग्रेस के हाथ पांव फूल गये। संप्रग सरकार में शामिल अपनी मुख्य साझेदार तृणमूल कांग्रेस के साथ विपक्षी दलों के मेलजोल बढ़ाने के प्रयास से बेचैन कांग्रेस की ओर से डैमेज कंट्रोल की कोशिशे तेज हो गयीं। दरअसल तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीटर पर लिखा कि ममता से उनकी बात हुई है और वे 14 मार्च को पंजाब और 15 मार्च को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेंगी। यह खबर जैसे ही मीडिया में आयी कांग्रेस को सांप सूंघ गया। आनन फानन में पश्चिम बंगाल मामलों के प्रभारी कांग्रेस महासचिव शकील अहमद को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मनाने के लिए भेजा गया। उन्होंने राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग जाकर ममता से मुलाकात की। दोनों के बीच लगभग 45 मिनट तक बातचीत हुई। हालांकि इससे भी बात नहीं बनी। डैमेज कंट्रोल के तहत हुई इस मुलाकात को शकील ने 'सौजन्यमूलक भेंट' बताकर मीडिया के सवालों से बचने की कोशिश की। ममता को विपक्षी दलों से मिले निमंत्रण को सामान्य ठहराने की कोशिश करते हुए उन्होंने संवाददाताओं से कहा कि राजनीति में मानवीय संबंध होते हैं। इसमें कोई दूसरा अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए। हमें भी दूसरों से निमंत्रण मिलते हैं। बातचीत के दौरान वरिष्ठ तृणमूल नेता व केन्द्रीय जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय भी मौजूद थे। शकील से मिलने के बाद भी जब बात नहीं बनी तो कांग्रेस की ओर से उन्हें गठबंधन धर्म की लक्ष्मण रेखा नहीं पार करने की दुहाई दी जाने लगी। शकील व ममता की मुलाकात के एक दिन बाद ही नयी दिल्ली में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि साझेदारी में शामिल लोगों की ओर से अजनबियों के साथ सामाजिक संवाद मान्य है, लेकिन स्पष्टतया यदि चीजें सामाजिक शिष्टाचार के पार चली जाती हैं तो वह अनैतिक होगा। सिंघवी ने ममता को गठबंधन धर्म का पालन करने की सीख देते हुए कहा कि उन्हें लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। सिंघवी का बयान राजनीतिक हलको में काफी अहम माना गया, क्योंकि यह बजट सत्र से महज एक दिन पहले आया। यह बजट सत्र यूपीए के लिए मुश्किल भरा होगा, क्योंकि विपक्षी दल संघीय ढांचे के मुद्दे पर यूपीए को घेरेंगे और घटकों के लिए यह साझा मुद्दा होगा। कांग्रेस के इस मान मनौव्वल से आखिरकार अग्निकन्या को अपना निर्णय बदलना पड़ा।
सूत्रों के अनुसार हार से हताश कांग्रेस हाईकमान ने राज्य के कांग्रेसियों को चुप बैठने की हिदायत दी है। प्रदेश कांग्रेस में ममता के सख्त आलोचक व धुर विरोधी अधीर रंजन चौधरी, दीपादास मुंशी तथा शंकर सिंह जैसे नेताओं को केन्द्रीय नेतृत्व ने स्पष्ट चेता दिया है कि वे फिलहाल ममता से उलझने से बाज आयें। इसकी एक झलक मेदिनीपुर में हुई कांग्रेस की एक सभा में दिखी भी। वहां उस सभा में पश्चिम बंगाल मामलों के प्रभारी महासचिव शकील अहमद भी थे। इसमें ममता विरोधी माने जाने वाले नेताओं को नहीं बुलाया गया। इस सभा से दीपादास मुंशी व अधीररंजन चौधरी जैसे नेताओं को दूर रखकर कांग्रेस की ओर से ममता को स्पष्ट संदेश दिया गया कि कांग्रेस उनके सारे नखरे उठाने को तैयार है। विभिन्न मुद्दों पर यूपीए सरकार के लिए मुसीबत खड़ी करने वाली तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष का यह कारनामा भी कांग्रेस के कान उमेठने के तौर पर ही देखा जा रहा है। उन्नीस सांसदों के बल पर मनमोहन सरकार को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाली तृणमूल प्रमुख व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बांछे खिली हुई हैं। यह मौका दिया है पांच राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनाव ने। इन चुनावों में हुई कांग्रेस की बुरी गत ने तृणमूल खेमे में खुशी ला दी है। 19 सांसदों के बल पर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के नाक में दम करने वाली तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी इस चुनाव में जहां कुछ और मजबूत होकर उभरी हैं वहीं कांग्रेस कुछ और कमजोर हुई है। दूसरे शब्दों में अगर कहा जाय कि कांग्रसे की लुटिया डूब गयी है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पांच राज्यों के संपन्न विधानसभा चुनावों का साइड इफेक्ट पश्चिम बंगाल में पूरे रौ में दिखायी दे रहा है। कांग्रेस कार्यालय विधानभवन में जहां बड़बोले नेताओं को सांप सूंघ गया है वहीं, तृणमूल कांग्रेस कार्यालय तृणमूल भवन में चहल पहल और बढ़ गयी है। मणिपुर में मिली जीत ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुस्कान कुछ और चौड़ी कर दी है। पूर्वोत्तर के इस राज्य में तृणमूल कांग्रेस पहली बार चुनाव मैदान में उतरी थी। वहां सात सीटों पर जीत दर्ज करने के साथ वह मणिपुर की मुख्य विपक्षी पार्टी का खिताब हासिल करने में सफल रही है। इसके पूर्व अरुणाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को पांच सीटें मिली थी। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने अरुणाचल व मणिपुर में जीत के साथ राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लक्ष्य की ओर कुछ और कदम आगे बढ़ा दिया है। पार्टी का अगला पड़ाव त्रिपुरा है। वह वहां भी माकपा सरकार को जमींदोज करने का सपना पाले हुए है। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली शिकस्त और तृणमूल के उत्थान से उत्साहित ममता राज्य में जल्द ही कांग्रेस को एक और झटका देने वाली हैं।
दीदी की दादागीरी से त्रस्त राज्य के कांग्रेसियों को उम्मीद थी कि विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस हाईकमान कोई ठोस निर्णय लेगा। जिससे उन्हें तृणमूल प्रमुख का और अपमान नहीं सहना होगा। वे आपसी बातचीत में कहते थे कि चुनावों के बाद केन्द्र सरकार की निर्भरता ममता बनर्जी पर कम हो जायेगी। उनका आकलन था कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की चाबी उन्हीं के हाथ में रहेगी। कांग्रेस वहां मुलायम सरकार को समर्थन देगी बदले में मुलायम के 22 सांसदों का समर्थन केन्द को मिलेगा। किन्तु हाय रे विधाता, उनकी सारी सोच धरी की धरी रह गयी। उत्तर प्रदेश में राहुल की दिन रात की मेहनत भी काम न आयी। जनता ने उन्हें हवा हवाई ही नेता समझा। और उनकी सारी चेष्टाओं को हवा में ही उड़ा दिया। पूरा कुनबा भी मिलकर कुछ खास नहीं कर पाया। पांच राज्यों के चुनाव में मात्र मणिपुर में ही कांग्रेस अपनी सरकार बचा पायी। हालांकि जोड़तोड़ कर वह उत्तराखंड में भी सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गयी है। बावजूद इसके मतदाताओं द्वारा दी गयी गहरी चोट ने कांग्रेस की कमर तोड़ दी है। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश ने भी राहुल के आभामंडल को ध्वस्त कर दिया। दिन रात की मेहनत व दो सौ ज्यादा छोटी बड़ी सभायें और दो हजार किलोमीटर से ज्यादा का सफर भी कुछ काम नहीं आया। इस सबका असर पश्चिम बंगाल पर सबसे ज्यादा पड़ा है। तृणमूल कांग्रेस से त्रस्त राज्य के कांग्रेसी अपना घाव सहला रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी राज्य में कांग्रेस को एक और चोट देने की तैयारी में हैं। सूत्र बताते हैं कि जल्द ही कांग्रेस के कुछ विधायक तृणमूल में शामिल होंगे। अप्रैल में पश्चिम बंगाल से रिक्त होने वाली राज्य सभा की पांच सीटों पर ममता का दबदबा रहने से कांग्रेस की राह और कठिन ही दिख रही है।
मणिपुर में पहली बार चुनाव लड़ी तृणमूल ने 7 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया है। भले ही इस जीत का सांकेतिक महत्व ही हो परन्तु इससे तृणमूल प्रमुख की महत्वाकांक्षा को और हवा मिल गयी है। तृणमूल कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने के लिए बेचैन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस जीत के साथ उस तरफ एक और कदम आगे बढ़ा दिया हैं। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कोई सीट तो नहीं मिली किन्तु उनके दो उम्मीदवारों की हार बहुत ही कम वोटों से हुई। चुनाव परिणामों के बाद तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव व केन्द्रीय मंत्री मुकुल राय ने कहा कि हालांकि पार्टी को उत्तर प्रदेश में कोई सीट नहीं मिली है। परन्तु वहां उनके दो उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे। एक उम्मीदवार तो मात्र दो हजार वोटों से हारा। तृणमूल कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभारने की महत्वाकांक्षा पालने वाली ममता ने राज्य में सरकार गठन के बाद से ही चेष्टा में लग गयी थीं। गौरतलब है कि विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर तृणमूल सरकार ने मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित गंगा सागर मेले का बखूबी इस्तेमाल किया था। गंगासागर स्नान करने आये तीर्थयात्रियों की सुख सुविधा का ख्याल रखकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व उनकी पार्टी ने विभिन्न प्रान्तों से आये तीर्थ यात्रियों का दिल जीतने की भरपूर चेष्टा की थी। बंगला प्रेमी मुख्यमंत्री ने हिन्दीभाषी तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए कोलकाता से सागरद्वीप (जहां कपिलमुनि का मंदिर है और जहां गंगासागर स्नान होता है ) तक जगह जगह हिन्दी में सूचना पट्ट लगाये गये थे। यहां तक कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर गंगासागर तीर्थयात्रियों से हर साल तीर्थ कर के रूप में लिया जाने वाला टैक्स भी माफ कर दिया गया था। सारा खर्च दक्षिण 24 परगना जिला परिषद व राज्य सरकार ने उठाया था। उनके इस निर्णय का स्वयं कपिलमुनि मंदिर के कर्ता धर्ता अयोध्या से आये संत ज्ञानदास समेत तीर्थयात्रियों ने भूरि भूरि प्रशंसा की थी।
ममता बनर्जी अगर प्रकाश सिंह बादल के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचती तो एक बड़ा ही दिलचस्प नजारा देखने को मिलता। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को पानी पी पीकर कोसने वाली ममता को वहां जाने पर बीजेपी और एनडीए नेताओं के साथ मंच साझा करना पड़ता क्योंकि पंजाब में अकाली दल की सहयोगी पार्टी बीजेपी है। खैर जो भी हो राजनीति को संभावनाओं का खेल माना जाता है। कब धुर विरोधी गलबहियां डालें एक दूसरे के कशीदे पढ़ने लगें कहा नहीं जा सकता। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि ममता यदि एनडीए की गोद में बैठ जायें तो आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। जिस दिन ममता को आभास हो जायेगा कि कांग्रेस का साथ लाभदायक नहीं रहा उसी दिन वे कांग्रेस से अपना पिंड छुड़ा लेंगी।
बद्रीनाथ वर्मा
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दरकता दीदी का किला

(साप्ताहिक इतवार में १८ मार्च के अंक में प्रकाशित)
मात्र 9 महीने पहले ही परिवर्तन की हवा पर सवार होकर पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज हुई तृणमूल कांग्रेस में असंतोष की खदबदाहट शुरू हो गयी है। हालांकि इस पर कोई खुलकर नहीं बोल रहा है किन्तु तृणमूली राजनीति की गहरी जानकारी रखने वाले सूत्रों के अनुसार अन्दरखाने खटास बढ़ रही है। राजनीतिक जानकारों की मानें तो दिन ब दिन असंतोष तीब्रतर होता जा रहा है। अभी हाल ही में पार्टी के वरिष्ठ नेता व विधानसभा में सत्ता पक्ष के मुख्य सचेतक शोभनदेव चट्टोपाध्याय ने अपने असंतोष का खुलकर इजहार किया था। उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि तृणमूल प्रमुख चाहें तो उनसे मुख्य सचेतक का पद भी वापस ले लें। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। चट्टोपाध्याय से तृणमूल श्रमिक संगठन आईएनटीटीयूसी का कार्यभार वापस लेकर सुब्रत मुखर्जी को देने से नाराज चट्टोपाध्याय ने उक्त तल्खी बयान की। इस कार्रवाई से अपमानित महसूस कर रहे चट्टोपाध्याय के करीबी सूत्रों का कहना है कि दीदी वफादारों की कीमत पर गैरों को गले लगा रही हैं।
इस कार्यवाही को शोभनदेव के पर काटने के रूप में देखा जा रहा है। तृणमूल सूत्रों के अनुसार वरिष्ठ नेताओं की बैठक में लिए गये इस फेरबदल के निर्णय जिसमें स्वयं शोभनदेव भी शामिल थे, पर अपना असंतोष जाहिर करते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री से कहा कि वे चाहें तो उनसे मुख्य सचेतक का पद भी वापस ले लें। हालांकि मुख्यमंत्री ने उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करने की बात कही किन्तु उन्होंने साफ मना कर दिया। इतवार से हालांकि तृणमूल के इस वयोवृद्ध नेता ने खुद को पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता बताते हुए किसी तरह के असंतोष से इन्कार किया किन्तु इसी के साथ इस उलटफेर को एक गहरा षड्यंत्र करार दिया। उन्होंने बड़ी तल्खी से कहा कि हो सकता है कि मेरी योग्यता में कोई कमी हो अथवा पार्टी के प्रति मेरी वफादारी में कमी हो। गौरतलब है कि चट्टोपाध्याय तृणमूल कांग्रेस के जन्मकाल से ही ममता बनर्जी के साथ हैं जबकि उनके स्थान पर संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये गये सुब्रत मुखर्जी तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हो गये थे। विधानसभा चुनाव के पूर्व हवा का रुख देखकर मुखर्जी फिर तृणमूल में शामिल हो गये थे। बहरहाल तृणमूल श्रमिक संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यभार जहां राज्य के वरिष्ठ मंत्री सुब्रत मुखर्जी को सौंपा गया वहीं राज्य के श्रममंत्री पूर्णेन्दु बसु को प्रदेश आईएनटीटीयूसी का चेयरमैन बनाया गया। बसु की नियुक्ति को दोला सेन की नकेल कसने के रूप में देखा जा रहा है। दोला प्रदेश आईएनटीटीयूसी की अध्यक्ष हैं। इन दोनों नियुक्तियों ने तृणमूल कांग्रेस के भीतर असंतोष को हवा दे दी है। हालांकि तृणमूल सुप्रीमो व राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के दबदबे की वजह से कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है किन्तु राजनीतिक जानकारों के अनुसार अन्दरखाने कड़वाहट जरूर बढ़ रही है। जिस तरीके से चट्टोपाध्याय को आईएनटीटीयूसी के अध्यक्ष पद से हटाया गया उसे तृणमूल का एक हिस्सा उचित नहीं मानता। बैठक में शामिल एक वरिष्ठ नेता ने इतवार से अनौपचारिक बातचीत में इस कार्रवाई पर अपना असंतोष जाहिर करते हुए कहा कि शोभन दा के अनुभव व उनकी वरिष्ठता को देखते हुए मुख्यमंत्री को यह फरमान जारी करने से पहले उनसे अकेले में बात करनी चाहिए थी। दोला के करीबी सूत्रों के अनुसार चेयरमैन के रूप में बसु को अपने सिर पर बैठाये जाने को लेकर वे काफी असंतुष्ट हैं। प्रदेश कार्यालय तृणमूल भवन में नियमित दिखायी देने वाली दोला ने कई दिनों तक वहां से दूरी बनाये रखी। अलबत्ता उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से कहा कि इससे संगठन के कार्यों को मजबूती मिलेगी। इस फेरबदल पर तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि यह फेरबदल संगठन में हावी गुटबाजी को खत्म करने के लिए की गयी है। दरअसल मुख्यमंत्री के पास विभिन्न स्रोतों से खबरें आ रही थीं कि दोला व शोभनदेव चट्टोपाध्याय की गुटबाजी का संगठन पर बुरा असर पड़ रहा है। उन दोनों में जारी अहम की लड़ाई से संगठन को हो रहे नुकसान को रोकने के लिए ही मुख्यमंत्री ने यह सख्त कदम उठाया। बहरहाल इस कदम से गुटबाजी खतम होगी या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है किन्तु इतना सच है कि इससे पार्टी के भीतर असंतोष जरूर उबल रहा है। इसी तरह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इर्दगिर्द उनकी परछाई की तरह दिखायी देने वाले विधायक व कोलकाता नगर निगम के मेयर शोभन चटर्जी भी अपने अधिकारों में कटौती को लेकर असंतुष्ट बताये जाते हैं। अभी हाल ही में नगर निगम के कई विभागों की जिम्मेदारी उनसे लेकर अन्यों को सौंप दी गयी। अक्सर ही मुख्यमंत्री की ओर से अपमान की हद तक मिलने वाली सार्वजनिक झिड़की को हंस कर टाल जाने वाले मेयर को अपने अधिकारों में की गयी कमी काफी खल रही है। हद तो तब हो गयी जब ममता ने अपने विश्वसनीय सिपहसालार राज्य के पूर्व परिवहन मंत्री व वर्तमान में मुख्यमंत्री द्वारा खाली की गयी दक्षिण कोलकाता लोकसभा सीट से निर्वाचित सुब्रत बख्शी को कोलकाता नगर निगम के काउंसिलरों की बैठक करने का निर्देश दिया। यह बैठक हुई भी। इससे राजनीतिक हलकों में यह चर्चा गरम है कि कहीं मेयर को हटाकर उनके स्थान पर सुब्रत बख्शी को लाये जाने की तैयारी तो नहीं की जा रही है। बहरहाल इस पर चुटकी लेते हुए एक वरिष्ठ तृणमूल नेता ने कहा कि शोभन नामधारी दोनों नेताओं के लिए दोनों सुब्रत शनि साबित हो रहे हैं। तृणमूल में शुरू हुई इस असंतोष की आहट से राज्य में विरोधियों के कान खड़े हो गये हैं। वे इस सबको अपने लिए मुफीद मान रहे हैं। उनका आकलन है कि आने वाले दिनों में असंतोष की आग और तेज धधकेगी।
बद्री नाथ वर्मा
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भतीजे का धमाल

(साप्ताहिक इतवार में प्रकाशित)
सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का......। जी हा, कुछ यही हाल इन दिनों पश्चिम बंगाल का है और यहां कोतवाल से तात्पर्य मुख्यमंत्री से है। पूरे राज्य में सत्ता का नशा सिर चढ़कर बोल रहा है। चाहे वह सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता हों या स्वयं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के परिजन। इन्हें पूरा विश्वास है कि वे चाहे कुछ भी करें उनका बाल बांका नहीं होने वाला। दरअसल इस विश्वास के वाजिब कारण भी हैं। राजनीतिक बदले के रूप में तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा किया जाने वाला महिलाओं से बलात्कार हो या विरोधी दल के कार्यकर्ताओं की हत्या अथवा सरेआम पत्रकारों की पिटाई। हर घटना में मुख्यमंत्री को विरोधियों का हाथ नजर आता है। पिछले दिनों घटी इन सारी घटनाओं को पूर्व नियोजित और मनगढ़ंत (साजानो) कहकर उन्होंने इनसे पल्ला झाड़ लिया। मुख्यमंत्री के इस तरह के बयान पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा रहे हैं। परिणाम यह हो रहा है कि हर दिन इस तरह की दर्जनों घटनाएं घट रही हैं। इस परिपेक्ष्य में राज्य भाजपा अध्यक्ष राहुल सिन्हा का कहना है कि वाममोर्चा के दीर्घ 34 वर्षों के आंतक राज से आजिज जनता ने तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी की "हिंसा नय शांति चाई" (हिंसा नहीं, शांति चाहिए) नारे को हाथोंहाथ लिया और पूरे विश्वास के साथ राज्य की बागडोर उनके हाथ में सौंप दी किन्तु अब देखा जा रहा है कि यह सरकार तो पूर्व वाममोर्चा सरकार से भी ज्यादा असंवेदनशील है। तृणमूल कार्यकर्ता प्रारंभिक चुप्पी के बाद राजनीतिक बदला भजाने में जुट गये हैं। स्वयं महिला होने के बावजूद मुख्यमंत्री महिलाओं से हो रहे बलात्कार को मनगढ़ंत करार देकर अपराधियों का मनोबल बढ़ाने में जुटी हुई हैं। यह उनकी असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। अस्पतालों में हो रही नवजातों की मौत और कर्ज तले दबे किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या को राजनीतिक विरोधियों की साजिश कहना राज्य भाजपा अध्यक्ष की नजर में मुख्यमंत्री के असंवेदनशील होने का परिचायक है।
अब जब मुख्यमंत्री कोतवाल की भूमिका में हैं तो उनके परिजन भला पीछे कैसे रहते। मुख्यमंत्री के भतीजे आकाश बनर्जी की दबंगई ने तो पूरे प्रशासन को ही हतप्रभ कर दिया। सवाल पूछा जाने लगा कि क्या यहां कोई भी सुरक्षित नहीं है। सवाल यह भी है कि माकपा राज से मुक्ति के बाद क्या जंगलराज कायम होने की डगर पर है पश्चिम बंगाल। मामला है एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर को पीटे जाने का। और यह कारनामा किया है मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे आकाश बनर्जी ने। अपने साथियों के साथ इनोवा गाड़ी में सवार आकाश को ट्रैफिक भंग करने पर रोका जाना नागवार गुजरा। गाड़ी से उतरकर खुद को मुख्यमंत्री का भतीजा बताते हुए उसने सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में ट्रैफिक इंस्पेक्टर सुबीर घोष को तमाचा जड़ दिया। ट्रैफिक इंस्पेक्टर घोष ने आरोप लगाया कि आकाश ने चाटा मारने के साथ ही गाली गलौज भी की। चूंकि मामला ममता बनर्जी के भतीजे से जुड़ा था इसलिए सुबीर की सूचना पर घटनास्थल पर पहुंची स्थानीय वाटगंज पुलिस उन्हें थाने ले गयी मगर बगैर कोई मामला दर्ज किये ही उसे व उसके साथियों को छोड़ दिया। आकाश मुख्यमंत्री के बड़े भाई काली बनर्जी का पुत्र हैं। सूत्रों के अनुसार उसकी मां ने गृह कलह से तंग आकर कुछ साल पहले आत्महत्या कर ली थी। मातृविहीन आकाश की गतिविधियों से पूरा परिवार ही परिचित था। बुआ ममता बनर्जी के राज्य की बागडोर संभालने के बाद वह और ज्यादा उच्छृंखल होता चला गया। वैसे मुख्यमंत्री के निकटस्थ अन्य परिजनों के ऊपर भी छिटपुट आरोप लगते रहे हैं। हालांकि दबदबे की वजह से कोई खुलकर बोलना नहीं चाहता। बहरहाल ट्रैफिक इंस्पेक्टर को पीटे जाने का मामला भी अन्य मामलों की तरह ही दब गया होता यदि मीडिया में इसका पर्दाफाश नहीं हुआ होता। जैसे ही बगैर कोई केस दर्ज किये आकाश को छोड़े जाने की जानकारी स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लगी उन्होंने रास्ता अवरोध कर प्रदर्शन शुरू कर दिया। उसी के बाद यह मामला मीडिया में आ गया। आरोप है कि थाने से बगैर किसी केस के आकाश को छोड़े जाने के पीछे स्थानीय विधायक व राज्य के शहरी विकास मंत्री फिरहाद हकीम उर्फ बॉबी हकीम का हाथ था। उन्होंने ही पुलिस पर दबाव डालकर उसे छोड़े जाने को कहा था। खैर मामले को मीडिया में तूल पकड़ता देखकर आकाश की गिरफ्तारी का फरमान जारी किया गया। वैसे भी इन दिनों ममता का मीडिया के एक हिस्से से छत्तीस का आंकड़ा चल रहा है। कभी एक सुर में ममता का गुणगान करने वाली मीडिया का राग बेसुरा हो गया है। मीडिया सरकार की बखिया उधेड़ने में लगी हुई है। एक ओर मीडिया है जो ममता को घेरने का कोई मौका चूकना नहीं चाहती तो दूसरी तरफ राज्य की जनता का भी धीरे धीरे ही सही पर इस सरकार से भोहभंग होता सा प्रतीत हो रहा है। बदला नय, बदल चाई (बदला नहीं, बदलाव चाहिए) और हिंसा नय, शांति चाई (हिंसा नहीं, शांति चाहिए) का नारा बुलंद कर राज्य की सत्ता पर काबिज हुई तृणमूल कांग्रेस सरकार की कथनी और करनी में फर्क से राज्य की जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है। बहरहाल मीडिया व राजनीतिक दलों के बढ़ते दबाव ने मुख्यमंत्री को आकाश की गिरफ्तारी का आदेश देना पड़ा। सिलीगुड़ी दौरे पर गयीं मुख्यमंत्री को मीडियाकर्मियों ने घेरा और भतीजे को बगैर कोई केस दर्ज किये छोड़े जाने को लेकर लगे सवाल पर सवाल दागने। मजबूरन मुख्यमंत्रो को अपने ही भतीजे को गिरफ्तार करने का निर्देश देना पड़ा। गिरफ्तारी का फरमान मिलते ही पुलिस ने इनोवा गाड़ी समेत आकाश बनर्जी व उसके दो दोस्तों नीतीश सिंह व अमित मिश्र के साथ ही गाड़ी के ड्राइवर को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार नीतीश व अमित तृणमूल कांग्रेस के नवगठित युवा संगठन "तृणमूल युवा" से जुड़े हुए हैं। इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ममता के एक और भतीजे अभिषेक बनर्जी हैं। गिरफ्तारी के बाद जहां राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी ने इस पर मंतव्य जाहिर करने से मना कर दिया वहीं, राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग में शहरी विकास मंत्री फिरहाद हकीम ने इसे मुख्यमंत्री द्वारा राजधर्म के पालन का अनूठा उदाहरण बताते हुए खुद की सरकार की पीठ थपथपाई। जबकि स्वयं हकीम ने ही स्थानीय पुलिस पर दबाव डालकर आकाश व उसके साथियों को छोड़ने को कहा था। बहरहाल दो रात जेल में गुजारने के बाद चारों को जमानत पर छोड़ दिया गया है। माकपा ने इसे कानून व्यवस्था का मामला बताते हुए इस पर सख्त कार्रवाई की मांग की।
सत्ता के मद में चूर होकर ट्रैफिक इंस्पेक्टर को थप्पड़ मारने वाले आकाश पर इससे पहले भी इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने के अभियोग लगते रहे हैं। अभी हाल ही में उन्होंने हावड़ा के बोटैनिकल गार्डेन में सुरक्षागार्ड से धक्का मुक्की की थी। वहां भी उन्होंने मुख्यमंत्री के भतीजे के तौर पर परिचय देते हुए शाम के समय बोटैनिकल गार्डेन में अपनी महिला मित्र के साथ जाने की जबर्दस्ती कोशिश की। सुरक्षा जवानों द्वारा रोके जाने पर खुद को मुख्यमंत्री का भतीजा होने की धौंस जमाते हुए उन्हें देख लेने की धमकी दी थी। इस तरह की घटना दो बार 19 फरवरी व 4 फरवरी को हुई। संयुक्त निदेशक (सुरक्षा ) हिमाद्रीशेखर देवनाथ ने इस बात की तस्दीक की। अदालत के आदेशानुसार बोटैनिकल गार्डेन का गेट शाम को बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां प्रवेश प्रतिबंधित है। घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए प्रदेश कांग्रेस के महासचिव कनक देवनाथ ने इतवार से कहा कि यह घटना तृणमूल कार्यकर्ताओं के साथ ही साथ मुख्यमंत्री के परिजनों के सत्ता के मद में चूर होकर निरंकुश होते जाने को प्रतिबिंबित कर रहा है। अगर मुख्यमंत्री का रवैया इसी तरह हर घटना को मनगढ़ंत करार देने का रहा तो यह एक दिन उन्ही के लिए भस्मासुर साबित होगा। उन्होंने चेतावनी दी कि भले ही कांग्रेस सरकार में शामिल है किन्तु ऐसी घटनाओं को चुपचाप मूकदर्शक बनकर नहीं देखेगी।
तृणमूल कार्यकर्ताओं के सत्ता के नशे मे चूर होकर निरंकुश होते जाने के हाल ही में कई मामले प्रकाश में आये हैं। कटवा, बर्दवान समेत राज्य के अन्य हिस्सों में राजनीतिक बदला भजाने के क्रम में जहां औरतों की अस्मत लूटी जा रही है, वहीं विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जा रही हैं। रोज ब रोज घट रही ऐसी घटनाएं और सरकार की लीपापोती भयानक तस्वीर पेश कर रही है। यह स्थिति कोढ़ में खाज की तरह है। गत दिनों बर्दवान के सीपीआईएम के पूर्व विधायक प्रदीप ता की हत्या कर दी गयी। 22 फरवरी को एक जुलूस का नेतृत्व कर रहे पूर्व विधायक प्रदीप ता (55) व एक माकपा कार्यकर्ता कमल गाइन (65) की पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी। आरोप है कि हथियारों से लैस तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उन दोनों को जुलूस से खींचकर जमकर पिटाई की। दिनदहाड़े सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में हुई मार कुटाई में पूर्व विधायक की तो घटनास्थल पर ही मौत हो गयी जबकि कमल गाइन ने अस्पताल के रास्ते में दम तोड़ दिया। सबसे दुखद बात यह रही कि राजनेता इस लोमहषर्क घटना पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आये। जहां माकपा नेतृत्व ने राज्य में गुंडाराज कायम होने का आरोप लगाया वहीं दिल्ली में राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे माकपा की आपसी रंजिश का नतीजा बताया। फिर क्या था तृणमूल के सभी छोटे बड़े नेताओं ने इस हत्याकांड का आरोप माकपा पर ही मढ़ना शुरू कर दिया।
बद्रीनाथ वर्मा
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