बुधवार, 30 सितंबर 2015

इंटरव्यूः नीरज कुमार, प्रवक्ता-जदयू

छह लोगों को तो नौकरी दे नहीं सके, लाखों को कैसे देंगे

चुनावी खुमार में डूबने लगा है बिहार। आपके मुद्दे क्या हैं।
हमारा मुद्दा है, बदलता बिहार, बढ़ता बिहार और कानून का राज, सांप्रदायिक सौहार्द्र और सबके साथ न्याय।
कानून का राज या जंगलराज। विरोधी तो यही कह रहे हैं?
स्वाभाविक है कि भाजपा ने जो वादे किये और जो उनकी उपलब्धियां हैं उस पर सार्थक बहस कर नहीं सकते। इसलिए बार-बार इस जुमले को माननीय मोदीजी अपनी हर सभा में रिपीट कर रहे हैं। चूंकि उपलब्धियों के नाम पर बताने को कुछ है नहीं और नीतीश कुमार पर सीधा हमला कर नहीं सकते, विकास के मुद्दे पर फंस जाएंगे इसलिए नकारात्मक राजनीति की जा रही है। वहां तो सिर्फ एक ही ब्रह्मास्त्र हैं नरेंद्र मोदी, सिपाही भी और सेनापति भी। लेकिन इस बार जबर्दस्त हार मिलने वाली है। 
लेकिन जंगलराज का तमगा भी तो खुद नीतीश कुमार ने ही दिया था?
नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक शब्दावली में कभी भी इस शब्द का प्रयोग नहीं किया। सबसे पहले यह शब्द पटना हाईकोर्ट के एक न्यायायिक आॅब्जर्वेशन में आया था। कानून का राज नेतृत्वकर्ता पर तय होता है। हमारे यहां नेतृत्वकर्ता नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने कानून का राज स्थापित कर दिखाया है। उनके यहां नेतृत्व कौन करेगा? लालू प्रसाद बहुत खराब और रामकृपाल यादव बहुत अच्छे। पप्पू यादव प्रेरणा स्रोत बने हैं। उन्हें वाई श्रेणी की सुरक्षा दी जा रही है। जिनके नाम से बिहार की जनता दहशत खाती रही है उन तमाम आपराधिक छवि के फ्रीडम फाइटरों की सहायता से कानून का राज स्थापित करेगी भाजपा?
भाजपा के मुताबिक मुख्यमंत्री बनने लायक उसके पास दर्जनों नेता हैं?
दर्जनों नेता हैं तो किसी एक का नाम बता क्यों नहीं देते? भाजपा कह रही है कि सरकार उसी की बनेगी तो नाम घोषित कर देने में परेशानी क्या है। सर्वनाम की बजाय संज्ञा में नाम घोषित कर बिहार की जनता को आश्वस्त कर दें ताकि पता तो चले कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा।
गठबंधन के बिखराव व उठ रहे विरोधी स्वरों से कैसे निपटेंगे?
कहीं कोई बिखराव नहीं है। एनसीपी हमारी सहयोगी पार्टी है। उसे मना लिया जाएगा। हमारा प्राथमिक उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी को हराना है और इसके लिए सबको एकजुट रहना होगा और कुर्बानी भी देनी होगी। रही बात रघुवंश बाबू की तो वे हमारे वरिष्ठ नेता हैं। किसी भी परिवार में चलती तो मुखिया की ही है और राजद के मुखिया लालू प्रसाद हैं। इसलिए चिंता करने की बात नहीं है।
पहले आप 115 थे लेकिन अब सौ सीटों पर ही चुनाव लड़ रहे हैं। यह आपका प्रमोशन है, डिमोशन है या मोदी का भय?
न यह प्रमोशन है न डिमोशन है और न ही मोदी का भय है। नीतीश कुमार के भय से तो पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल पिछले कई महीनों से पटना में डेरा डाले हुए है। जहां तक कम सीटों पर लड़ने का प्रश्न है तो सीटें तो सीमित हैं, उसी में सबको लड़ना है इसलिए त्याग तो करना पड़ेगा। हमने बड़े लक्ष्य के लिए यह त्याग किया है। बड़े उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सीटों की संख्या मायने नहीं रखती। और हमारी तारिक अनवर से भी यही अपील है कि वे सीटों की संख्या को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर भाजपा को हराना अपना प्राथमिक लक्ष्य बनायें। 

इन दिनों सभी पार्टिया बिहार को बदलने में लगी हैं। आखिर कौन बदलेगा बिहार?
जनता जानती है कि कौन बदलेगा बिहार। 15 महीनों में बिहार के संदर्भ में किये गये लंबे चौड़े वायदों की ओर नहीं जा रहा। बस भाजपा यही बता दे कि पटना के गांधी मैदान में जो दुखद आतंकी ब्लास्ट हुआ उसमें मारे गये छह लोगों के परिजनों को माननीय मोदीजी ने नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन आज तक उन छह लोगों को भी नौकरी नहीं दे पाये, ऐसे में भला वह कैसे लाखों नौजवानों को रोजगार देंगे। जबकि बिहार में जहां संसाधन सीमित है वहां नीतीश कुमार ने प्रत्येक ग्राम पंचायत में 25-30 युवाओं को औसतन रोजगार दिया है। सीमित संसाधनों के बीच ऐसा करने वाला बिहार पहला राज्य है। मैं भाजपा को चुनौती देता हूं कि इसे गलत साबित कर बताए। भाजपा की तरफ से जो भी वायदे किये गये उनमें से कोई भी वादे सरजमीं पर नहीं उतरें जबकि नीतीश कुमार ने जो कहा उसे पूरा कर दिखाया।

बिहार के लिए विशेष पैकेज की मांग की जा रही थी। अब प्रधानमंत्री ने मांग से भी अधिक देकर आपसे वह मुद्दा भी छीन लिया?
जो मंत्रिपरिषद से स्वीकृत नहीं, कैबिनेट का निर्णय नहीं। संसद द्वारा पारित नहीं वह पैकेज नहीं छलावा है। संविधान के अनुच्छेद 275 में स्पष्ट वर्णित है कि राज्य को कोई अनुदान दिया जाएगा वह विधि के अनुसार होगा। अगर मंशा साफ थी तो क्यों नहीं मानसून सत्र में इसकी घोषणा की गई। मोदीजी को तो पैकेज व अनुदान तक का अंतर नहीं पता। कैसे बोल दिया कि वाजपेयीजी ने बिहार बंटवारे के वक्त पैकेज दिया था। वह पैकेज नहीं अनुदान था। भगवान भरोसे ही चल रहा है देश।
एक सीधे सवाल का सीधा जवाब दीजिए। आप चुनाव लड़ रहे हैं गठबंधन में लेकिन बढ़ता बिहार के पोस्टरों में एक भी घटक दल के नेता की तस्वीर नहीं?
पहली बात तो यह कि ‘बढ़ता बिहार, बदलता बिहार’ किसी राजनीतिक दल ने नहीं राज्य सरकार के सूचना विभाग द्वारा जारी किया गया है। जनता दल यू राजनीतिक दल है जब पार्टी अपना बैनर, पोस्टर जारी करेगी उसमें गठबंधन शामिल सभी दलों के नेताओं की तस्वीर होगी।

इंटरव्यूः नवल किशोर यादव (भाजपा)

सौ सियार मिलकर भी एक शेर का शिकार नहीं कर सकते

लगातार चौथी बार विधान परिषद का चुनाव जीतने वाले वरिष्ठ भाजपा नेता प्रो. नवल किशोर यादव से कैमूर टाइम्स की बातचीत के प्रमुख अंश:
महागठबंधन ने सीएम उम्मीदवार के साथ ही अब सीटों का बंटवारा भी कर लिया, जबकि आप इस मामले में काफी पीछे हैं। कैसे कर पाएंगे मुकाबला?
अगर सियार जंगल की घेराबंदी कर ले तो क्या वह किसी शेर का शिकार कर लेगा? सौ सियार मिलकर भी एक शेर को परास्त नहीं कर सकते। कमजोर आदमी हमेशा आत्मरक्षा की मुद्रा में रहता है। वहां अजीब स्थिति है। न नीतीश को लालू स्वीकार करते थे और न ही लालू को नीतीश। रही बात सीट बंटवारे व सीएम उम्मीदवार घोषित करने की तो वहां एक-दूसरे को औकात बताने के लिए ऐसा किया गया है। हमारे यहां तो किसी को हैसियत बताने की जरूरत ही नहीं है।  
अच्छा चलिए यह बता दीजिए कि बिहार में एनडीए का मुख्यमंत्री कौन होगा?
समय आने दीजिए, सब पता चल जाएगा। सीटों का बंटवारा भी होगा, हम जीतेंगे भी और मुख्यमंत्री भी हमारी पार्टी का विधायक बनेगा। चुनाव हो जाने के बाद विधायक दल की बैठक में मुख्यमंत्री का चुनाव होगा।
सीट बंटवारे में कहीं इसलिए तो देर नहीं की जा रही कि इससे एनडीए में भगदड़ मच जाएगी?
हमारे यहां भगदड़ मचने का सवाल ही नहीं है। सच्चाई तो यह है कि अगर हम अपना फाटक खोल दें तो उनके यहां जो हैं वे सारे के सारे इधर आ जाएंगे। और किसी भगदड़ से हमारी पार्टी डरती नहीं है क्योंकि बिहार ने तय कर लिया है कि किसकी सरकार बनवानी है। इसलिए भगदड़ का सवाल ही नहीं उठता।
कहा जा रहा है कि पप्पू यादव की पीठ पर बीजेपी का हाथ है। उन्हें फंडिंग भी आपकी पार्टी ही कर रही है?
पप्पू यादव शुरू से ही लालू के पोष्य पुत्र रहे हैं। अब लालू के पोष्य पुत्र को हम क्यों मदद करेंगे। पप्पू यादव हैं क्या जो भाजपा उन्हें फंडिंग करेगी। उनके बारे में तो लालू यादव से सवाल होना चाहिए कि कल तक नीतीश को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने पप्पू का इस्तेमाल किया। शरद यादव को हराने के लिए उन्होंने पप्पू यादव का सहारा लिया। 
मांझी जी के कुछ विधायकों को लेकर रामविलास पासवान को आपत्ति है। इसका समाधान कैसे करेंगे?
जब लालू व नीतीश एक साथ हो सकते हैं, तो जीतन राम मांझी को लेकर अपच होने का सवाल कहां है। सवाल बिहार का विकास है और सबको इसी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। वैसे मांझी जी व पासवानजी के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन हमारे लिए सभी सम्मानित हैं। सभी बराबर हैं। और अगर कहीं कोई कटुता है तो उसे मिल बैठकर सुलझा लिया जाएगा।
पीएम के मेगा पैकेज पर भी अलग अलग सुर सुनाई दे रहे हैं? 
भारत की आजादी के बाद से खासकर 2002 में बिहार के बंटवारे के बाद लगातार पैकेज की मांग होती रही लेकिन किसी भी केंद्र सरकार ने इस मांग को नहीं माना। सोनिया माता के दरबार में लगातार मत्था टेकने के बावजूद न तो लालू प्रसाद और न ही नीतीश कुमार कुछ हासिल कर सके। लेकिन प्रधानमंत्री ने जब बिहार को इतना कुछ दे दिया तो इसका स्वागत करने के बजाय इस पर राजनीति हो रही है। लोकतंत्र है, राजनीति करें लेकिन बिहार के विकास को लेकर तो कम से कम राजनीति न करें। बिहार को जंगलराज की ओर ले जाने को अग्रसर इन नेताओं को विकास से मतलब नहीं है, इन्हें बस राजनीति करनी है। 
बगैर मंत्रिपरिषद की स्वीकृति या बजटीय प्रावधान के पैकेज को छलावा बताया जा रहा है?
अगर यह बात नीतीश कुमार या लालू प्रसाद की तरफ से कहा जा रहा है तो बहुत ही दुखद है। या तो वे जनता को बरगलाने के लिए पाखंड रच रहे हैं या बहुत बड़े अज्ञानी हैं। लेकिन अज्ञानी उन्हें कहा नहीं जा सकता क्योंकि दोनों ही लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं। मान लीजिए अगर कोई भूकंप या दैवीय आपदा आ जाती है तो आपदाग्रस्त लोगों की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद की स्वीकृति का इंतजार किया जाएगा या एक लाख करोड़ की जरूरत है उसे पूरा किया जाएगा। नीतीश कुमार जरा बताएं कि पटना म्यूजियम बनाने के लिए 750 करोड़ किस बजट में उपबंध किये थे। यह बिहार की गरीब जनता के आंखों में धूल झोंकने के लिए सारा प्रोपेगैंडा तैयार किया जा रहा है।

इंटरव्यूः मुद्रिका यादव, महासचिव राजद

इस बार नहीं गलेगी बीजेपी की दाल: मुंद्रिका यादव
                 महासचिव, राष्ट्रीय जनता दल 
राष्ट्रीय जनता दल के प्रधान महासचिव मुंद्रिका प्रसाद यादव से कैमूर टाइम्स की बातचीत के संपादित अंश:
बिहार चुनावी बुखार में तपने लगा है। आप किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाएंगे? 
हम शुरू से ही सामाजिक न्याय के पैरोकार रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सांप्रदायिक सद्भाव, सामाजिक न्याय व कानून का राज यही हमारा चुनावी मुद्दा है। 
सामाजिक न्याय या पारिवारिक न्याय। रामकृपाल यादव व पप्पू यादव का तो यही कहना है?
रामकृपाल यादव व पप्पू यादव जैसे लोगों ने सामाजिक न्याय की पीठ में छुरा घोंपने का काम किया है। उन्हें इसकी सजा मिलेगी। रामकृपाल तो लालूजी के नाक के बाल रहे। उन्हें जमीन से आसमान पर पहुंचाने का काम किया। वे कभी भी सड़क पर नहीं रहे। हमेशा विधानपरिषद या लोकसभा, राज्यसभा में लालूजी की कृपा से रहे। उस समय उन्हें पारिवारिक न्याय की बात नहीं नजर आई। पप्पू को जब मधेपुरा से सांसद बनाया तब उन्हें भी पारिवारिक न्याय नहीं दिखा।
आप शिक्षा, स्वास्थ्य व कानून के राज की बात कर रहे हैं लेकिन आपके शासनकाल में इन तीनों का ही बुरा हाल था, इसी वजह से जंगलराज कहा गया। क्या कहेंगे?
लालूजी व राबड़ीजी की 15 वर्षों की सरकार ने दलितों वंचितों व दबे कुचलों को जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दी। उनमें स्वाभिमान भरने का काम किया। मगर गरीबों, दलितों व वंचितों के उदय को सामंती सोच के लोग पचा नहीं पाये इसलिए बदनाम करने के लिए जंगलराज का शोर मचाया जा रहा है। लेकिन जनता सब जानती है। लोग बहकावे में नहीं आने वाले। सांप्रदायिकता का जहर फैलाकर देश को बांटने वालों की दाल इस बार नहीं गलेगी। यह लड़ाई मंडल बनाम कमंडल की है।
आपको नहीं लगता कि सांप्रदायिकता के नारे को लोग नकार चुके हैं। आप जिन पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहे हैं उन्हें 32 सीटें मिली जबकि आपको केवल चार।
जनता भाजपा के झूठे वादों के झांसे में आ गई थी, मगर अब उनकी पोल खुल गई है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। चुनाव के दौरान किये गये एक भी वादे पूरे नहीं हुए। न महंगाई कम हुई और न ही युवाओं को रोजगार मिला। और तो और कालाधन लाने का वादा भी पूरा नहीं किया गया। कहां गये हर खाते में 15 लाख देने के वादे। 15 महीनों की सरकार में कोई भी ऐसा काम नहीं हुआ जिससे जनता उन पर दोबारा विश्वास करे। वादाखिलाफियों को इस बार मुंह की खानी पड़ेगी। बिहार में महागठबंधन ही सरकार बनाएगा।  
महागठबंधन के लिए पहले लालूजी जहर पीते हैं फिर सीटों पर रघुवंश प्रसाद 100 के बदले 10 का नोट की बात करते हैं। यह कैसा विरोधाभास?
देखिए, वह हमारी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन यह उनका अपना निजी विचार है। गठबंधन एकजुट है। इसमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं है। हम इस बार पूरी एकजुटता के साथ झूठे सपने दिखाने वाले कमंडल वालों को बिहार से भगाएंगे। 
कल तक साथ रहे पप्पू यादव आज घोर विरोधी हैं। कितना नुकसान पहुंचाएंगे?
पप्पू यादव मुख्यमंत्री बनने की हड़बड़ी में हैं। बीजेपी के पैसे पर हेलिकॉप्टर पर उड़ रहे हैं, लेकिन चुनाव बाद उनकी हैसियत पता चल जाएगी। रही बात नुकसान पहुंचाने की तो उनकी इतनी बड़ी औकात अभी नहीं है। 

टीवी या थियेटर नहीं, फिल्म ही प्राथमिकता: संजय मिश्रा



हिन्दी फिल्मों में हास्य को नया आयाम देने वाले बालीवुड अभिनेता संजय मिश्रा अपनी उपस्थिति से ही दर्शकों को गुदगुदाते हैं। हाल ही में उन्हें आंखों देखी फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला है। रोहित शेट्टी की ‘आॅल द बेस्ट : फन बिगिन्स’ में संजय द्वारा निभाये गये किरदार का डायलॉग ‘ढोंडू जस्ट चिल’ बहुत मशहूर हुआ था। उनके चर्चित धारावाहिकों में सॉरी मेरी लॉरी, आफिस आॅफिस, लापतागंज, व चाणक्य इत्यादि हैं जबकि उनकी कुछ चर्चित फिल्मों में सत्या, दिल से, साथिया, बंटी और बबली, गोलमाल, सन आॅफ सरदार,  जॉली एलएलबी, सिंह साहेब द ग्रेट, फटा पोस्टर निकला हीरो मसान और 'भूतनाथ रिटर्न्स' इत्यादि हैं। संजय मिश्रा ने एक फिल्म प्रणाम वालेकुम का निर्देशन भी किया है। पटना में जन्मे संजय मिश्रा ने 12वीं के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय का प्रशिक्षण लिया और 90 के दशक के आरंभ में उन्होंने फिल्मों से पहले विज्ञापनों और धारावाहिकों के जरिये अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज कराई। फिलहाल कई नामचीन निर्देशकों के साथ काम कर रहे संजय मिश्रा से कैमूर टाइम्स के लिए बद्रीनाथ वर्मा की खास बातचीत:

आपकी पहचान खासकर हास्य अभिनेता के तौर पर है। क्या आप इससे संतुष्ट हैं?
मेरी पहचान सिर्फ हास्य अभिनेता के तौर पर है ऐसा कहना गलत है। मैंने कई सारी फिल्मों में विभिन्न भूमिकाएं अदा की है। अभी हाल ही में मुझे आंखों देखी फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला है।

क्या संजय शर्मा फिर से टीवी सीरियलों में नजर आएंगे?
नहीं, क्योंकि इतनी फिल्मों में काम कर रहा हूं कि टीवी सीरियलों के लिए बिल्कुल ही समय नहीं है। अगले अगस्त महीने तक मैं पूरी तरह से व्यस्त हूं। टीवी या थियेटर के लिए जरा सा भी वक्त नहीं है।

फिल्म, टेलीविजन व थियेटर। इनमें से कौन सी विधा आप की प्राथमिकता सूची में है?
फिल्म ही मेरी प्राथमिकता है क्योंकि इसकी पहुंच ज्यादा दूर तक है। टेलीविजन सीरियलों की भी अपनी एक सीमा है। रही बात नाटकों की तो उसके दर्शकों की संख्या तो और भी कम है। दूसरी बात यह कि हर कलाकार काम करता है जनता के लिए। और अगर वह जनता तक पहुंचे ही नहीं तो फिर काम करने का फायदा ही क्या। इसलिए मैं फिल्म को प्राथमिकता देता हूं।

सुना है आपने किसी फिल्म का निर्देशन भी किया है?
जी हां, मैंने प्रणाम वालेकुम का निर्देशन किया है। यह कोई आम मुंबइया फिल्म नहीं है। सामाजिक मुद्दे पर बनी संदेशपरक इस फिल्म में इरफान खान व विजयदान देथा समेत अन्य कई नामचीन कलाकार हंै। 

आपका पसंदीदा अभिनेता कौन है?
बेशक अमिताभ बच्चन। वह जितने अच्छे अभिनेता है उससे भी ज्यादा नेक इंसान। उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता है। किसी भी अभिनेता को एक बार अमित जी के साथ जरूर काम करना चाहिये।

आपकी आने वाली फिल्में कौन-कौन सी हैं और भविष्य की क्या योजना है?
मंगल हो, बंबू, ग्लोबल बाबा ढेर सारी फिल्में हैं, किन किन का नाम लूं। रही बात भविष्य की तो प्रणाम वालेकुम का सिक्वल वालेकुम प्रणाम बनाने की सोच रहा हूं।

यह नेताजी की पुरानी अदा है


बद्रीनाथ वर्मा
अपने जवानी के दिनों में पहलवानी के शौकीन रहे सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का सबसे  प्रिय दांव रहा है धोबियापाट। इस दांव से विपक्षी पहलवान पल भर में ही चारों खाने चित्त हो जाता है। हालांकि अब उन्होंने पहलवानी छोड़ दी है, लेकिन कहा जाता है न कि ‘चोर चोरी से जाये, हेराफेरी से नहीं’ सो यदाकदा वे अपने इस दांव को सियासी मैदान में भी आजमाते रहते हैं। ताजा वाकया है महागठबंधन को धोबियापाट से धूल चटाने का। महागठबंधन को मूर्त रूप देने में खास भूमिका निभाने वाले नेताजी ने आश्चर्यजनक रूप से इससे खुद को अलग करने का ऐलान कर दिया। अभी चार दिन पहले ही पटना में आयोजित स्वाभिमान रैली में उनके प्रतिनिधि के तौर पर उनके छोटे भाई व यूपी मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य शिवपाल सिंह यादव महागठबंधन के नेताओं के साथ मंच साझा करते हुए गरजे बरसे थे। उस वक्त तक लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार को सपने में भी गुमान नहीं था कि बस चार दिन बाद ही उन्हें ऐसा झटका लगने वाला है जिसके बाद उन्हें मुंह चुराने को मजबूर होना पड़ेगा। नेताजी के उपनाम से मशहूर सपा मुखिया ने ऐसा धोबियापाट लगाया कि महागठबंधन में शामिल सारे के सारे घटक दल भौंचक्के रह गये। कुनबा बिखरने से डरे शरद, लालू, से लेकर नीतीश तक मुलायम की मनुहार करते दिखे। वैसे मुलायम सिंह के लिए गच्चा देना कोई नया नहीं है। याद करिए राष्ट्रपति चुनाव। पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को ममता के साथ मिलकर राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने पर अडिग मुलायम सिंह ने दीदी को गच्चा देने में क्षण भर का भी विलंब नहीं किया। पहले तो उन्होंने ‘चढ़ जा बेटा शूली पर’ की तर्ज पर ममता की खूब पीठ थपथपाई लेकिन जब ममता काफी आगे बढ़ गईं तो उन्होंने अचानक पाला बदल लिया। बहरहाल, अपने हिसाब से गोटी फिट करने में माहिर खिलाड़ी मुलायम सिंह के इस यू टर्न को लेकर सियासी गलियारों में जबरदस्त चर्चा है। आम धारणा है कि उस वक्त भी सीबीआई का डर था और इस वक्त भी सीबीआई के डर ने ही पाला बदलने को मजबूर किया है। इस बार यादव सिंह प्रकरण उनके गले की फांस बना हुआ है। राष्ट्रीय लोकदल के महासचिव जयंत चौधरी इस पलटी के पीछे सीबीआई का भय मानते हैं। जयंत के मुताबिक मुलायम सिंह यादव का यह अंदाज कोई नया नहीं है। उनके राजनीतिक चरित्र और परम्पराओं का हिस्सा हमेशा से ही ऐसा रहा है। यादव एकदम से अपना मन बदलते है मूड बदलते हंै और मिजाज बदलते हैं। 
गठबंधन से अलग होने की घोषणा करने से ठीक दो दिन पहले ही रामगोपाल यादव भाजपा अध्यक्ष से मिले थे। तभी से सियासी गलियारों में कुछ खिचड़ी पकने की चर्चा ने जोर पकड़ा था। ध्यान से देखें तो भाजपा के नेताओं का सुर मुलायम के प्रति कुछ बदला-बदला सा है। राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही दुश्मन यह एक बार फिर से साबित हो रहा है। वैसे इस महागठबंधन को लेकर सपा में कोई खास उत्साह नहीं था। अखिलेश से लेकर रामगोपाल यादव तक सभी इसके खिलाफ थे। वे नहीं चाहते थे कि सपा ने जो फसल तैयार की है उसे काटने दूसरे लोग भी आ जाएं। यूपी में न तो जदयू का जनाधार है और न ही लालू प्रसाद के राजद की जबकि गठबंधन का सहयोगी होने के चलते विधानसभा चुनाव के वक्त सपा को उन्हें सीटें देनी पड़ती। जबकि बिहार में सपा को कोई खास फायदा नहीं होने वाला था। रही सही कसर लालू व नीतीश द्वारा सीटों के बंदरबांट ने पूरी कर दी। सीटों के बंटवारे के समय सपा मुखिया से उन्होंने सलाह लेना भी गंवारा नहीं किया। 
ध्यान रहे परिवार और पार्टी के शीर्ष नेताओं के विरोध के बावजूद मुलायम ने जनता परिवार को एक करने की भूमिका निभाई। मगर जनता परिवार के ही कुछ घटकों के विलय के खिलाफ होने की वजह से विलय नहीं हो पाया और एक मोर्चा बन गया। पर इस मोर्चे में भी अध्यक्ष भले मुलायम रहे हो पर उनकी चली कभी नहीं। अति तो तब हुई जब उन्हें बिना भरोसे में लिये समाजवादी पार्टी को पांच सीट और कांग्रेस को चालीस सीट दी गई। वह भी तब हुआ जब राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ने से इनकार करते हुए महागठबंधन से नाता तोड़ लिया। साफ था बिहार से जो राजनैतिक संदेश जाता उसका सारा श्रेय लालू नीतीश के साथ सोनिया को ज्यादा जाता मुलायम को नहीं। उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल बाद विधान सभा का चुनाव है ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर जाकर वे देश के सबसे बड़े सूबे में कैसे मुकाबला करते। दूसरा पहलू यह है कि अखिलेश सरकार को अपने विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र का सहयोग आवश्यक है। वे केंद्र से संबंध खराब करना नहीं चाहते क्योंकि डेढ़ साल बाद ही यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं। दूसरी तरफ मोदी की तो बिहार में प्रतिष्ठा ही दांव पर लगी हुई है। इसलिए इसे लेनदेन का मामला मानने वालों की कमी नहीं है। सियासी पंडितों का मानना है कि नेताजी अगर बिहार में नाता तोड़ रहे हैं तो यूपी में कोई राजनीतिक फायदा जरूर देख रहे हैं। 
बहरहाल, कुछ हो या न हो मुलायम सिंह यादव एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में तो आ ही गये हैं। कल तक उन्हें जिस जनता परिवार ने हाशिये पर रखा था वह उनके धोबियापाट से चारों खाने चित्त होकर उनकी चौखट पर सिजदा कर रहा है। हालांकि अभी तक वे अपने फैसले पर अटल हैं। गठबंधन से नाता तोड़ने के पीछे लालू नीतीश की कांग्रेस से बढ़ती नजदीकियों को जिम्मेदार ठहराते हुए बिहार प्रदेश सपा अध्यक्ष रामचंद्र यादव का कहना है कि जब तक नीतीश कुमार गठबंधन के नेता नहीं बने थे, तब तक मुलायम चलीसा पढ़ रहे थे, लेकिन बाद में सोनिया-राहुल चलीसा पढ़ने लगे। दरअसल, मानसून सत्र के दौरान ही मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के तल्ख संबंध सामने आ चुके थे। लोकसभा सत्र में विपक्ष का चेहरा कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का था जबकि एक बड़े गठबंधन के बावजूद मुलायम सिंह हाशिये पर थे। अंतत: मुलायम ने बीच सत्र में यह भी कह दिया कि वे संसद में गतिरोध तोड़ने के पक्ष में हैं और वे कांग्रेस से अलग भी जा सकते हंै। खैर, मौजूदा हालात में मुलायम के सामने और कोई चारा भी नहीं बचा था। बे बिहार में हाशिए पर पहुंचा दिये गये थे। सपा को महज पांच सीटें दी गई वह भी एनसीपी के इनकार के बाद।

सजनी हमहूं राजकुमार


बद्रीनाथ वर्मा
मगध एक्सप्रेस मुगलसराय से खुलकर दिलदारनगर को पीछे छोड़ते हुए जैसे ही कर्मनाशा नदी पार कर बिहार की सीमा में प्रवेश करती है, सियासत की शातिर हवा फिजा में महसूस होने लगती है। बक्सर आते-आते यह हवा अपने पूरे रौ में प्लेटफॉर्म से लेकर ट्रेन की बोगियों तक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगती है। बिहार चुनावी मोड में आ चुका है, इसका आभास यहां भली-भांति होने लगता है। चुनावी चर्चा से ट्रेन की बोगियां भी अछूती नहीं रह जाती हैं। पटना पहुंचते-पहुंचते सियासी धुंध पूरी तरह से छंट जाती है। प्लेटफार्म से बाहर निकलते ही सब कुछ साफ साफ नजर आता है। यहां हर कोई ‘सजनी हमहूं राजकुमार’ की तर्ज पर बिहार को बदलने का दावा कर रहा है। यहां ख्वाबों की मंडी सच चुकी है। राजनीतिक दलों में सपना बेचने की होड़ लगी है। चुनावी मंडी में कौन कितना बड़ा सपना बेच सकता है, इसके लिए बाकायदा एक दूसरे को धकियाकर मतदाताओं को लुभाने की एक से एक तरकीबें आजमाई जा रही हैं। इसके लिए हर सड़क, चौराहा, यहां तक कि नुक्कड़ों व गलियों तक को नहीं बख्शा गया है। राजधानी पटना की सड़कों पर लगे नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स बता रहे हैं कि बिहार बस उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है। ‘आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ के उद्घोष के साथ होर्डिंग्स के मामले में नीतीश कुमार तमाम विपक्षी दलों को मीलों पीछे छोड़ते प्रतीत हो रहे हैं। कोई ऐसी सड़क या गली नहीं बची है जहां नीतीश कुमार के बड़Þे बड़े होर्डिंग्स न लगे हों। होर्डिंग्स हालांकि भाजपा के भी कम नहीं हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटोयुक्त होर्डिंग महागठबंधन पर प्रहार कर रहे हैं। ‘अपराध, अहंकार भ्रष्टाचार, क्या इस गठबंधन से बढ़ेगा बिहार’। होर्डिंग्स की कमी को भाजपा परिवर्तन रथ से पूरी कर रही है। पटना समेत पूरे बिहार में घूम रहे परिवर्तन रथ एक तरफ केंद्र सरकार की उपलब्धियों का बखान कर रहे हैं वहीं कल तक एक दूसरे को गरियाने वाले लालू यादव व नीतीश कुमार द्वारा एक दूसरे की शान में पढ़े गये कसीदों की रिकार्डिंग सुनाकर मतदाताओं को बताया जा रहा है कि यह बेमेल गठबंधन सिर्फ सत्ता हासिल करने भर के लिए बना है। वाकई बड़ी विचित्र स्थिति है। कल तक एक दूसरे के लिए जीने मरने की कसमें खाने वाले आज एक दूसरे के सामने ताल ठोंक रहे हैं। ललकार रहे हैं। चाहे वह पप्पू यादव हों या जीतनराम मांझी। जिस जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनाया वह विरोधी के शामियाने की शोभा बढ़ा रहे हैं और जिनके शामियाने में खुद नीतीश कुमार पालथी मारे बैठे हैं कल तक उन्हें जंगलराज का मसीहा करार देते हुए गाली देते नहीं अघाते थे। लेकिन आज चुनावी मजबूरी ने दोनों को एक ही छत के नीचे ला खड़ा किया है। बिहार की सत्ता उनके हाथों से छीनने को आतुर भाजपा लगातार उनके इसी जुमले ‘जंगलराज’ को हथियार बनाकर वार पर वार किये जा रही है। भाजपा के वार से घायल नीतीश को इसका सटीक जवाब नहीं सूझ रहा। मुश्किल यह है कि सांप्रदायिकता जैसे शब्द बेअसर साबित हो चुके हैं। बिहार में विकास की गंगा बहाने का दावा करने वाले नीतीश की परेशानी वाकई इस बात ने बढ़ा दी है कि चुनाव में उनके रथ का सारथी वह है जिस पर जंगलराज का तोहमत लगाकर कल तक वह उसकी परछाई तक से परहेज करते थे। इसी तरह लालू का खेल बिगाड़ने में लगे पप्पू यादव पर राजद व जदयू दोनों हमलावर हैं। पप्पू यादव के सियासी असर के सवाल पर जदयू प्रवक्ता नीरज उन्हें बिहार की राजनीति का शिखंडी करार देते हैं। जदयू प्रवक्ता ने कैमूर टाइम्स से कहा कि भाजपा पप्पू का इस्तेमाल वोट कटवा के रूप में कर रही है, लेकिन बिहार में ‘पप्पू कांट डांस’ साबित होगा। उधर, राजद प्रवक्ता भगवान सिंह कुशवाहा ने पप्पू को भाजपा के टॉप-अप पर रिचार्ज होकर चलने वाला नेता बताया। वहीं, भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी लालू-नीतीश के गठजोड़ पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि बिहार में सरकार बनाने के लिए नहीं, दूसरा दल सरकार न बना ले, इसके लिए गठजोड़ हुआ है। यही नहीं अपने हर भाषण में नीतीश पर निशाना साधते हुए सुशील मोदी लगातार भाजपा से गठबंधन तोड़ने को लेकर प्रहार करते हुए सवाल उठाते हैं। पूर्व उपमुख्यमंत्री कहते हैं गठबंधन तोड़ने का अधिकार हर किसी को है लेकिन जनादेश तोड़ने का अधिकार किसी के भी पास नहीं। अगर उन्हें गठबंधन तोड़ना ही था तो फिर से चुनाव मैदान में आते। सिर्फ सत्ता के लिए गठबंधन जनता के साथ छलावा है। बहरहाल, बात होर्डिंग्स की हो रही थी। पटना शहर के बिजली के खंबों पर लोकजनशक्ति पार्टी का कब्जा है। चिराग पासवान के ऐलाने जंग जैसी मुद्रा वाली तस्वीरों के साथ छोटे-बड़े होर्डिंग्स व पोस्टर ‘इसी चिराग से होगा बिहार का हर घर रौशन’ छाये हुए हैं। कहीं कहीं लालू प्रसाद यादव के साले व लालू राज में जंगलराज के प्रतीक कहे गये साधु यादव की पार्टी गरीब जनता दल (सेक्युलर) भी बिहार को बदलने का दावा कर रही है। यदा कदा राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के पोस्टर भी नीतीश कुमार सरकार की असफलता गिनाती नमूदार है। इससे इतर बिहार को बदलने के लिए केवल एक साल की मांग कर रहे पप्पू यादव का दावा है कि यदि इस दौरान वे बिहार को नहीं बदल पाये तो राजनीति से संन्यास ले लेंगे। उनके भी बड़े बड़े होर्डिंग्स पटना के मुख्य-मुख्य जगहों पर अपना कब्जा जमाये हुए हैं। पप्पू के सवाल उठाते पोस्टर समाधान भी बताते हैं। मसलन, ‘जब महिलाओं पर हो रहा है अत्याचार तो कैसे बढ़ेगा बिहार, लेकिन बदलेगा बिहार, बढ़ेगा बिहार, मैं बदलूंगा बिहार।’ ऐसे में भला लालू प्रसाद यादव कैसे पीछे रह सकते हैं। लालू व राबड़ी देवी के फोटो से युक्त उनके पोस्टर भी राजधानी पटना में छाये हुए हैं। राजद के पोस्टरों में लालू प्रसाद के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को भी विशेष तवज्जो दी गई है। यह इस बात का भी ईशारा है कि लालू के वारिस तेजस्वी यादव ही होंगे। उनके पोस्टरों में ‘काम कुछ नहीं, प्रचार ज्यादा, क्या यही है तेरा अच्छे दिनों का वादा’ के जरिए सीधा पीएम नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया गया है। इसी तरह राजद के एक और पोस्टर की चर्चा जरूरी है। ‘ठगों की बातों में न आएं, चलो अपना बिहार बनाएं।’ बहरहाल, अभी चुनाव के तारीखों की घोषणा नहीं हुई है लेकिन हरेक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए अभी से अपना एड़ी चोटी का जोर लगा चुका है। लोकसभा चुनाव में महाबली मोदी के हाथों जबरदस्त शिकस्त खा चुके राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बार कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहते। गठबंधन के साझीदारों का मानना है कि भाजपा लगभग 30 फीसदी व सहयोगियों को मिलाकर एनडीए के खाते में महज तकरीबन 38 फीसदी ही मत गये थे। यानी कि 62 प्रतिशत मतदाताओं का रुख एनडीए के खिलाफ था। इसी 62 फीसदी को साधने के लिए लालू को जहर पीकर भी नीतीश का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा है। उधर, बिहार में लगभग 14 फीसद यादव मतदाताओं पर अपना एकाधिकार मानने वाले लालू प्रसाद यादव की हवा निकालने के लिए भाजपा अपने सभी यादव नेताओं को इसमें सेंध लगाने के लिए मैदान में उतार चुकी है। सूत्रों की मानें तो भाजपा इस बार कम से कम 70 सीटों पर यादव उम्मीदवारों को खड़ा करेगी। खास बात यह है कि भाजपा उन्हीं सीटों पर यादव उम्मीदवार खड़ा करेगी, जहां से जदयू अपने उम्मीदवार उतारेगा। इस प्रकार भाजपा की यह रणनीति होगी कि जदयू को राजद के यादव मतदाताओं का वोट न मिले। बिहार में यादवों का असली नेता कौन है हालांकि इस पर विवाद है। लालू जहां खुद को यादवों का एकमात्र नेता मानते हैं वहीं विरोधी इसको सिरे से खारिज करते हैं। विरोधियों का दावा है कि अगर वाकई लालू की पैठ यादवों में होती तो उनकी पत्नी और बेटी लोकसभा चुनाव में यादव बहुल्य सीटों से क्योंकर हार गईं। इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार व विश्व संवाद केंद्र के संपादक संजीव कुमार कहते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं कि लालू  प्रसाद यादवों के बड़े नेता हैं लेकिन एकमात्र नेता नहीं हैं। नब्बे के दशक से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। अब पप्पू यादव से लेकर हुक्मदेव नारायण यादव व रामकृपाल यादव तक तमाम नेताओं की यादव वोटों पर अपनी अपनी दावेदारी है। बहरहाल, अभी की स्थिति यह है कि पोस्टरों के मामले में नीतीश कुमार जहां सबसे आगे चल रहे हैं वहीं 340 परिवर्तन रथ के सहारे भाजपा पूरे बिहार में एक बार फिर मोदी की आंधी को सुनामी में बदलने के लिए दिन रात एक कर चुकी है। वैसे अभी यह भविष्य के गर्भ में है कि कौन किस पर भारी पड़ेगा या किस गठबंधन की सरकार बनेगी। आंकड़े भले ही कुछ भी कहें लेकिन राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होते। इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि मोदी का रथ रोक पाने में यह गठबंधन कितना कारगर साबित होगा।  या कि तमाम किंतु परंतु के बावजूद नीतीश के नेतृत्व में तीसरी बार सरकार बनेगी। फिलहाल तो हम यही कह सकते हैं कि तेल देखो और तेल की धार देखो।