गुरुवार, 27 जून 2013

सुविधा की सियासत के शातिर खिलाड़ी

                             बद्रीनाथ वर्मा 

नैतिकता व आदर्शों की दुहाई देते हुए नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ अपने सत्रह साल पुराने रिश्ते खत्म कर लिए।  उनका कहना कि वह सिद्धांतों की वजह से एनडीए से अलग हुए हैं, एक भद्दे मजाक से ज्यादा कुछ भी नहीं है। मोदी विरोध का परचम वह किसी नैतिकता या आदर्शों का उच्च उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए नहीं बल्कि अपनी महत्वाकांक्षा को सिरे चढ़ाने के लिए उठाये हुए हैं। अगर उन्हें इतनी ही नैतिकता की चिंता थी तो पहले उन्हें सरकार से त्यागपत्र देना चाहिए था और नया जनादेश लेकर बिहार की सत्ता संभालनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। नैतिकता का तकाजा था कि एनडीए के नाम पर मिले जनादेश को वे जदयू की सरकार के लिए उपयोग नहीं करते। रही बात गुजरात दंगे की वजह से बदनाम हुए नरेंद्र मोदी से एलर्जी की तो यह एलर्जी उस समय काफुर क्यों हो गई थी जब वे मोदी व गुजरात सरकार का प्रशस्ति वाचन कर रहे थे।
बीजेपी से अलग होने के सवाल पर भले ही सुशासन बाबू कह रहे हैं कि मोदी जैसे सांप्रदायिक व्यक्ति की वजह से ही उन्होंने उनसे किनारा किया है पर यह उनकी तथाकथित उच्च नैतिकता दस साल पुराने उस वीडियो में काफुर दिखती है। उस वीडियो में नरेंद्र मोदी के गुणगान करते नीतीश कुमार मोदी से देश को अपनी सेवाएं देने की अपील करते नजर आते हैं। जबकि उस समय गुजरात दंगे को हुए अभी पूरे एक साल भी नहीं गुजरे थे। गुजरात दंगों के तत्काल बाद तो छोड़िए पूरे ग्यारह साल तक एनडीए के साथ रहकर पहले केंद्र में रेलमंत्री और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की मलाई चाटते रहे। हां, इस दौरान उनकी महत्वाकांक्षाओं ने भी उड़ान भरनी शुरू कर दी। यह महत्वाकांक्षा है प्रधानमंत्री पद की लालसा। इस बार जैसी की संभावना जताई जा रही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई व घोटाले के लिए बदनाम हो चुकी यूपीए-2 सरकार की विदाई निश्चित है, ऐसे में उन्हें लगा कि मौका अच्छा है। मोदी विरोध का परचम उठाकर बिहार की साढ़े सोलह फीसदी मुस्लिम आबादी पर दावा ठोंका जाय। क्योंकि एनडीए में रहते हुए यह मंसूबा कामयाब हो नहीं पाता। भले ही बीजेपी ने स्पष्ट नहीं किया था पर यह तो जगजाहिर है कि बीजेपी में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार के रूप में उभरे हैं। सुविधा की सियासत के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार यह भलीभांति जानते हैं कि बीजेपी से अलग दिखने पर अगला देवगौड़ा बनने के आसार बढ़ जाएंगे। यूं भी भाजपा से नाता तोड़ने में तात्कालिक तौर पर उन्हें कोई नुकसान नहीं होने जा रहा था। बिहार में अपनी सरकार बचाये रखने के लिए उन्हें सिर्फ चार विधायकों के ही समर्थन की जरूरत पड़ने वाली थी। सीधा सा गणित था कि राज्य विधानसभा में कांग्रेस के चार और छह निर्दलिय विधायकों के सहारे सरकार बच जाएगी। फिलहाल उनकी सरकार ने विश्वासमत हासिल भी कर लिया है। कांग्रेस विधायकों के अलावा चार निर्दलिय विधायकों ने भी सरकार के पक्ष में मतदान किया।
बीजेपी व जदयू के रास्ते अलग होने के बाद भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने सही सवाल उठाया है कि जब गुजरात में दंगे के घाव अभी हरे ही थे उस वक्त तो नीतीश को मोदी में कोई बुराई नहीं नजर आती थी और आज दस साल बाद जब गुजरात में चारों ओर शांति है, खुशहाली है। गुजरात विकास के पथ पर है तो अचानक नीतीश को मोदी सांप्रदायिक नजर आने लगे। जाहिर है इस सवाल का जवाब नीतीश के पास नहीं है। अगर है भी तो वे देना नहीं चाहते। दरअसल, मामला न तो नैतिकता का है और न ही किसी आदर्श या सिद्धांत का। मामला है प्रधानमंत्री पद का। नीतीश को पता है कि एनडीए में रहते हुए उनकी यह महत्वाकांक्षा कभी पूरी नहीं होने वाली है। इसलिए मुस्लिम वोटों की लालच में उन्होंने भी वही शार्टकट अपनाया है जो हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनाते हैं। मोदी का डर दिखाकर मुस्लिमों के वोट हासिल करना।
भाजपा से अलगाव के ऐलान के साथ नीतीश और शरद ने दावा किया कि उन्होंने सिद्धांतों से समझौता न करने का फैसला किया। साथ में यह भी कहा कि गठबंधन अटल-आडवाणी के चलते हुआ था। यह कौन सा सिद्धांत है, जिसमें किसी पार्टी का दूसरी पार्टी के साथ समझौता विचारों व साझा कार्यक्रमों के बजाय सिर्फ व्यक्तियों के आधार पर होता है! दूसरा सवाल कि आखिर जद (यू) कैसे निर्देशित करेगी कि भाजपा का अगला नेता कौन हो या भाजपा क्यों तय करेगी कि जद (यू) का मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन हो! चुनाव-परिणाम के बाद जद (यू) यदि किसी नाम पर वीटो लगाता, तो उसका कोई मतलब था।
दरअसल यह गठबंधन न तो किसी विचारधारा पर आधारित था और न ही यह राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दों से अनुप्रेरित था। यह सिर्फ और सिर्फ बिहार की राजनीति के एक खास पहलू पर लालू विरोध पर आधारित गठबंधन था, जिसकी प्रासंगिकता कब की खत्म हो चुकी थी। अगर जद (यू) को सेक्यूलरवाद से अपनी कथित प्रतिबद्धता के चलते इस गठबंधन को तोड़ना था, तो सर्वप्रथम तो इसे बनना ही नहीं चाहिए था, क्योंकि बाबरी-ध्वंस के बाद यह बना। नीतीश को सेक्यूलरिज्म और समाजवाद से इतना गहरा लगाव था, तो वह 1995 की अपनी लाइन (समता-आईपीएफ तालमेल) को जारी रखते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वर्ष 1996 में भाजपा के साथ हो लिए। मान लिया कि लालू-हटाओकी तात्कालिक जरूरत के हिसाब से गठबंधन बन भी गया, तो 2002 के गुजरात दंगे के बाद मोदी को सत्ता से न हटाए जाने के बाद इसे टूट जाना चाहिए था। आखिर रामविलास पासवान ने नैतिकता दिखाते हुए उस वक्त इसी आधार पर न सिर्फ मंत्रिपद को ठोकर मार दी बल्कि राजग से खुद को अलग भी कर लिया था। पर जद (यू) के धुरंधर समाजवादी (या सुविधावादी!) राजग-राज के मजे लेते रहे। बिहार में भाजपा के सहयोग से ही जद (यू) की विधानसभाई (2010) और संसदीय (2009) सीटों में इजाफा संभव हो सका। ऐसे में यह साझा मुनाफे, सुविधा और सहूलियत का गठबंधन था।
गठबंधन नरेंद्र मोदी के नाम पर टूटा जरूर, पर इसके पीछे सियासत के कई अंतःपुर थे। बिहार में भाजपा-संघ ने बीते आठ वर्षों की सत्ता के दौरान खूब जमकर राजनीतिक विस्तार किया। जद (यू) के साथ नौकरशाह, कॉरपोरेट और ठेकेदार नत्थी होते रहे, तो भाजपा-संघ के साथ विभिन्न वर्गों-वर्णों में नए-नए कार्यकर्ता-समर्थक जुड़ते रहे। नीतीश के कथित अति-पिछड़ा और महादलित आधार में भी संघ-संपोषित संगठनों ने पैठ बना ली।

नीतीश का सब्र कब तक बंधा रहता! पिछले डेढ़-दो साल से नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगातार बोल-बोलकर नीतीश ने बिहार के लगभग 16.5 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं में पुख्ता आधार तलाशने की कोशिश की, पर राजग में बने रहते हुए उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल पा रही थी। उन्हें कुछ समय पहले तक यकीन था कि लालकृष्ण आडवाणी के जरिये भी वह मोदी-विरोध की लड़ाई जीत सकते हैं। मगर गोवा बैठक के बाद उनका यह विश्वास धाराशायी हो गया। फिर सियासत का खूबसूरत शब्द सेक्यूलरिज्म थाम लेने में हर्ज नहीं था और नीतीश ने वही किया।
देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश का यह दांव कहीं उल्टा तो नहीं पड़ जाता है। इसकी बानगी दिखनी शुरू भी हो गई है। कल तक एक दूसरे के गलबहियां डाले दोनों दल आज एक दूसरे पर लाठियां बरसाने तक से परहेज नहीं कर रहे हैं। एक दूसरे को विश्वासघाती करार दिया जा रहा है। भाजपा जहां नीतीश कुमार को विश्वासघाती ठहराते हुए बिहार बंद करा चुकी है वहीं नीतीश भाजपा को विश्वासघातियों की जमात करार दे रहे हैं। नीतीश का कहना है कि भाजपा अपने बुजुर्गों का सम्मान करने के बजाय उनके साथ विश्वासघात करती है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जनता दल (यू) के अलगाव पर भाजपा और जद (यू) के बीच बढ़ती खटास से कांग्रेस खेमे में खुशी है। केंद्र सरकार की नाकामियों और कमजोरियों के खिलाफ उभरते जनाक्रोश का राष्ट्रीय स्तर पर जिस विपक्षी गठबंधन को सबसे ज्यादा फायदा मिलने की संभावना जताई जा रही हो, उसके बिखराव से कांग्रेस का खुश होना लाजिमी है।
यदा कदा बोलने वाले देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी नीतीश को सेक्यूलर का सर्टिफिकेट दे दिया है जिसे नीतीश ने उनका शुक्रिया अदा करते हुए तहे दिल से स्वीकार किया है। आगे नीतीश कांग्रेस के साथ जाते हैं या फेडरल फ्रंट की खिचड़ी की हांडी चुल्हे पर चढ़ाने की जुगत भिड़ाते हैं। वैसे कांग्रेस ने नीतीश पर डोरे डालने शुरू कर दिए है। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि अब तक कांग्रेस को समर्थन दे रहे लालू का क्या होगा। खैर राजनीति संभावनाओं का खेल है इसे मान लेना ही बुद्धिमानी होगी। एक समय राजग में तेईस दल थे, अब सिर्फ तीन बचे हैं। हो सकता है कल को फिर तीस हो जाएं या फिर यूपीए में अकेले कांग्रेस ही रह जाए।



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