बद्रीनाथ वर्मा
(राष्ट्रीय साप्ताहिक न्यू देहली पोस्ट में प्रकाशित)
कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर सुकमा में हुआ नक्सली हमला
जितना नृशंस है उतना ही कायरतापूर्ण। इसमें कुल 29 लोगों के मारे जाने की पुष्टि
हो चुकी है। देश इस घटना से आहत और क्षुब्ध है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से सन्
1967 में शुरू हुआ नक्सल आंदोलन एक दिन लाल आतंक का पर्याय बन जाएगा यह तो खुद
इसके प्रणेता कानू सान्याल व चारू मजूमदार ने भी नहीं सोचा होगा। यूं तो नक्सली पहले
भी छिटपुट नेताओं को शिकार बनाते रहे हैं पर किसी राजनीतिक दल पर हुए हमले की यह अब
तक की सबसे बड़ी घटना है। माना जा रहा था कि राज्य में नक्सली कमजोर हो रहे हैं, पर इस बर्बर घटना ने साबित कर दिया है कि नक्सली अब भी पूरी
मजबूती के साथ काम कर रहे हैं।
आ रही खबरों के अनुसार नक्सलियों के मुख्य
टार्गेट महेंद्र कर्मा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल व उनके पुत्र
दिनेश पटेल थे। कांग्रेस नेताओं का काफिला रोकने के बाद नक्सलियों ने हर एक गाड़ी
के पास जाकर महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल व दिनेश पटेल के बारे में पूछा। जब सब
खामोश रहे तो नक्सलियों ने कार से लोगों को निकाल कर मारना शुरू कर दिया। इसके बाद
महेंद्र कर्मा से नहीं रहा गया और वह कार से निकल आए और कहा कि मैं महेंद्र कर्मा
हूं, मेरे साथियों को
मत मारो। फिर क्या था नक्सलियों ने उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया।
नक्सली कर्मा
द्वारा शुरू किये गये सलवा जुड़ूम की वजह से उनके खून के प्यासे थे। साल 2005 में
महेंद्र कर्मा ने नक्सलियों की गोली का जवाब गोली से देने के लिए ग्रामीणों को
हथियारबंद कर सलवा जुड़ूम अभियान की शुरूआत की थी। इसके जरिए कर्मा ने आदिवासियों
को नक्सलियों से लड़ने की ताकत दी थी। सलवा जुडूम के तहत आम लोगों को हथियार देकर
नक्सली आतंकियों से निपटने की ट्रेनिंग दी जाती थी इस अभियान में सैकड़ों नक्सली
मारे गये थे। महेंद्र कर्मा के इस फॉर्म्यूले को बाद में मुख्यमंत्री रमन सिंह की
नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने अपना लिया और स्पेशल पुलिस फोर्स तैयार की। नक्सलियों
से लोहा लेने के कारण महेंद्र कर्मा को बस्तर का टाइगर कहा जाता था। उनको मौत की
नींद सुलाने को आतुर नक्सलियों ने इसके पहले भी उन पर चार बार हमला किया था लेकिन
हर बार उन्होंने मौत को मात दे दी थी। सुकमा में हुआ हमला पांचवा था जिसमें किस्मत ने साथ
नहीं दिया और महेंद्र कर्मा शहीद हो गए। महेंद्र कर्मा के साथ ही खामोश हो गई
आदिवासियों की वो ताकत, जो उनकी मजबूत आवाज भी थी।
महेंद्र कर्मा की
हत्या करने के बाद नक्सलियों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं। नक्सलियों
से लोहा लेने के लिए सलवा जुडूम को शुरू करने वाले कर्मा को गोलियों से छलनी करने
के बाद नक्सलियों ने उनकी मौत पर जश्न मनाया। हमले में घायल हुए लोगों के अस्पताल
से जो बयान आ रहे हैं उसके अनुसार कर्मा की लाश को घेरकर वे देर तक नाचते रहे और उनके
शव को बंदूक की बट से मारकर अपने घृणा का इजहार कर रहे थे। इतना ही नहीं मौत का
नंगा नाच करने के बाद नक्सली कई शवों के अंग भी काट कर अपने साथ ले गए। घटनास्थल
पर कई शवों की आंखें गायब थीं। माओवादियों का यह घिनौना कृत्य यह साबित करने के
लिए काफी है कि उनमें और बेरहम आतंकवादियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। सच तो
यह है कि खुद माओ ने भी क्रांति
के लिए ऐसी हिंसा की वकालत नहीं की थी। अक्सर इन्हें भटका हुआ कहकर इनके
कृत्यों को हल्का करने की कोशिश की जाती है पर अब वक्त आ गया है कि इनसे सख्ती से
निपटने पर विचार किया जाय। जो
माओवादी मृतकों का पेट काट कर उसमें विस्फोटक लगा सकते हैं, ट्रेन की पटरियां उखाड़कर आम जनता को मौत की नींद सुला सकते
हैं, उनसे किसी सभ्य भूमिका की
उम्मीद करना या उनके साथ नरमी से पेश आने की सोचना खुद को धोखा देने जैसा है! अक्सर कहा जाता है कि
नक्सल समस्या की मुख्य वजह सामाजिक और आर्थिक है। लेकिन यह आंशिक सच है। हकीकत तो यह
है कि आज विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा नक्सली ही हैं। वे नहीं चाहते कि विकास
की लौ आदिवासियों तक पहुंचे। क्योंकि यदि विकास की लौ उन इलाकों में पहुंच गई तो
फिर नक्सलियों की समानांतर सत्ता ध्वस्त हो जाएगी। ऐसे में वे कभी नहीं चाहेंगे कि
वहां विकास की बयार बहे। आज हालत यह है कि देश का एक चौथाई हिस्सा नक्सलवाद की
चपेट में है। नक्सलबाड़ी से माओबाद का सफर तय करने वाला लाल आतंक अब किसी राज्य का
विषय नहीं रह गया है और न ही एक दूसरे पर कीचड़ उछालने से कुछ होगा। इसके खात्मे के
लिए जरूरी है दृढ़ इच्छाशक्ति का। नक्सल आंदोलन अपने उद्देश्यों से भटक गया है इसे
हम जितना जल्दी समझ लें, बेहतर होगा।
आश्चर्य तो अपने उन वामपंथी बुद्धिजीवी मित्रों
के रवैये पर हो रहा है जो सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में नक्सलियों के मारे जाने
पर हाय तौबा मचाते हुए बुक्का फाड़ते हुए मानवाधिकार और न जाने कौन कौन से अधिकारों
की दलीलें देना शुरू कर देते हैं। पर सुकमा में नक्सलियों के इस कृत्य पर वे मौन
व्रत की मुद्रा धारण किये बैठे हैं। नक्सलियों के मारे जाने पर अरण्यरोदन करने
वाले ऐसे बुद्धिजीवियों से भी देश जवाब चाहता है।
बहरहाल सुकमा के इस नरसंहार के बाद एक बार फिर नक्सलवाद को
नेस्तनाबूद कर देने को लेकर बहस तेज हो गई है। ऐसी ही बहस कुछ समय पहले नक्सली
हमले में सीआरपीएफ के 76 जवानों के मारे जाने के बाद भी शुरू हुई थी, लेकिन स्थितियां कुछ समय बाद जस की तस
हो गयीं। माओवादियों
के खिलाफ हमारी लड़ाई कितनी चुस्त और सशक्त है, इसके प्रमाण के लिए बस यही जान लेना
काफी होगा कि हमले के
ढाई घंटे बाद तक भी पुलिस व अर्धसैनिक बल के जवान वहां नहीं पहुंचे थे। यह तथ्य माओवाद से संघर्ष में जुटी
सरकार की रणनीति को गहरे प्रश्नों के घेरे में लाती है। देश यह जानना चाहता है कि
आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसी के साथ एक सबसे बड़ा सवाल है कि जब
माओवादियों ने मुख्यमंत्री रमन सिंह की विकास यात्रा तथा कांग्रेस की परिवर्तन
यात्रा को लेकर धमकी दी थी तो खुफिया एजेंसियां उन धमकियों का समुचित आकलन करने
में विफल क्यों साबित हुईं। एक और बात जब कोई समस्या सामने आ जाती है तो नये कानून
बनाने की वकालत की जाने लगती है। क्या सिर्फ कानून बना देने से ऐसे हमले रुक जाने की
गारंटी ली जा सकती है? यहां
यह याद दिलाना समीचीन होगा कि पिछले साल 16 दिसंबर की रात
दामिनी के साथ हुए वहशीपन के बाद आनन फानन में बलात्कार के खिलाफ सख्त कानून बना दिया
गया। क्या इससे बलात्कार रुक गया है। कानून बन जाने के बाद भी इसी दिल्ली में
बलात्कार की एक दो घटनाएं रोज घट रही हैं। कटु सत्य है कि कानून तो बना दिये जाते
हैं पर उसे लागू करने की न तो फुरसत होती है और न ही चिंता। सवाल कानून बनाने का नहीं है, बल्कि कानूनों के सही क्रियान्वयन का
है। दृढ़ इच्छाशक्ति का है। नक्सल समस्या से निबटने के नाम पर अब तक अरबों रुपये
पानी की तरह बहाए जा चुके हैं। बावजूद इसके यह छोटी सी समस्या बढ़ते बढ़ते नासूर बन
चुकी है। दरअसल, इस समस्या के विकराल रूप धारण करने की
मुख्य वजह है समग्र सोच का अभाव। इसके निपटारे के लिए व्यावहारिक व
सख्त नीति अपनानी ही होगी। तभी इस कैंसर से
छुटकारा मिल सकता है। अन्यथा मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की वाली हालत ही
रहेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें