सोमवार, 17 जून 2013

अगले मधोक बनने से बच गये आडवाणी ?


                                बद्रीनाथ वर्मा
इस्तीफे की जिद पर अड़े आडवाणी को पार्टी ने जिस तरह से मनाया है उससे एक बात साफ नजर आती है कि अब आडवाणी को पार्टी सिर्फ मार्गदर्शक की तरह चाहती है। मोदी अब बीजेपी का नया चेहरा हैं और संघ का समर्थन सिर्फ मोदी के साथ है। 11 जून को आडवाणी के इस्तीफे के तुरंत बाद भाजपा में जो हड़कंप मचा वह एक दिन बाद ही धीरे धीरे थम सा गया। एक दिन पहले ही जिन आडवाणी को मनाने के लिए उनके घर के बाहर नेताओं की गहमागहमी थी वह अगले ही दिन सन्नाटे में बदल गई। दरअसल, जैसे ही आरएसएस ने अपना रुख साफ किया कि अगर आडवाणी मानते हैं तो ठीक वर्ना आगे देखो, वैसे ही आडवाणी के घर के बाहर से भाजपा नेताओं की भीड़ छंटनी शुरू हो गई और अगले दिन तो आलम यह था कि उनके घर के बाहर एक तरह से सन्नाटा ही पसरा हुआ था। खुद राजनाथ सिंह भी अगले दिन आडवाणी को मनाने की बजाय राजस्थान दौरे पर निकल गये। इसी से पता चलता है कि आडवाणी बीजेपी में अलग थलग पड़ते जा रहे थे। आरएसएस ने दो टूक कह दिया कि आडवाणी के इस्तीफे जो नुकसान होना था वह हो गया। अब अगर वे मान जाते हैं तो अच्छी बात है और अगर नहीं मानते हैं तो आगे बढ़ो।
यानी संदेश बिल्कुल साफ था कि मोदी पर फैसला किसी भी सूरत में नहीं बदलेगा । भले ही आडवाणी रहें या जाएं। ऐसे में आडवाणी के सामने दो ही विकल्प थे। पहला, आरएसएस से पंगा लेकर बलराज मधोक की नियती प्राप्त करें या फिर इस्तीफा वापस लेकर जैसा आरएसएस चाहता है कि अभिभावक की भूमिका निभाये वो करें। उन्हें दूसरा विकल्प ज्यादा सही लगा। क्योंकि उन्हें भी पता है कि एक बार बीजेपी से बाहर जाने का मतलब अपनी मिट्टी पलीद कराने जैसी होगी। कल्याण सिंह, उमा भारती, मदन लाल खुराना से लेकर तमाम ऐसे बीजेपी के धाकड़ नेता हैं जो हेकड़ी में पार्टी छोड़कर जाने को तो चले गये पर लुट लुटा के उन्हें भाजपा में ही वापस आना पड़ा। भाजपा में रहते जो खुद को शूरमा समझते थे वह भाजपा से निकलकर भीगी बिल्ली बन गये। चाहे वह उमा भारती रही हों या कल्याण सिंह। भाजपा से बहिष्कृत होने के बाद इनका आभामंडल लगातार छीजता गया। अंततः उन्हें सारे गिले शिकवे भुलाकर भाजपा की ही शरण में आना पड़ा वह भी सब कुछ लुटा के होश में आये की तर्ज पर। लालकृष्ण आडवाणी के रूठकर फिर मान जाने के पीछे एक और वजह है कि भले ही नरेंद्र मोदी को बीजेपी में सबसे तेज चुनावी घोड़ा माना जा रहा है पर केंद्र में सरकार बनाने के लिए उसे सहयोगी दलों का समर्थन लेना ही होगा। बहरहाल उस वक्त जब सरकार गठन की परिस्थिति बने और मोदी के नाम पर सहमति न बन पाये तब आडवाणी की लाटरी लग सकती है। जिस तरह सन् 1997 में एनडीए सरकार के गठन के दौरान उदार छवि के अटल बिहारी वाजपेयी के विपरीत खुद लौहपुरुष की कट्टर छवि उनके प्रधानमंत्री पद के आड़े आ गई थी। घटक दलों ने उनके नाम पर वीटो लगा दिया था फलस्वरूप वाजपेयीजी को प्रधानमंत्री पद मिला। उसी तरह इस बार यदि सरकार बनाने की परिस्थितियां बनती हैं तो कट्टर छवि के नरेंद्र भाई मोदी की बनिस्बत उनके नाम पर सहमति बन सकती है। उस वक्त आरएसएस को भी हारकर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने पर सहमत होना पड़ेगा।   यह तो तय है कि अगली सरकार कांग्रेस की नही बनने जा रही पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र में सरकार बनाने लायक बहुमत पा लेना अकेले बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा। यह सही है कि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने जो भ्रष्टाचार के नित नये रिकार्ड बनाये है उससे मतदाताओं में उसके प्रति गहरी नाराजगी है।इसी के साथ हनुमान की पूंछ की तरह दिन ब दिन बढ़ती महंगाई ने जनता को त्रस्त कर रखा है। जनता दोबारा यूपीए गठबंधन को सत्ता में नहीं देखना चाहती यह भी ठीक है, पर अकेले भाजपा 272 सांसदों को जीता पायेगी इसमें संदेह है। हां, इतना जरूर है कि निःसंदेह बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। ऐसे में सरकार बनाने के लिए उसे अन्य दलों का सहयोग लेना होगा। ऐसी परिस्थिति में मोदी की कट्टर छवि को देखते हुए कुछ को छोड़कर अधिकतर दल उनके नाम पर समर्थन देने को राजी नहीं होंगे। इसके लक्षण पहले से ही दिख रहे हैं। अभी तो सिर्फ मोदी को चुनाव अभियान की कमान मिलने भर से उसकी सत्रह वर्ष पुराना साथी जेडीयू उससे अलग होने की कवायद में लग गया है। हो सकता है जिस वक्त आप यह पढ़ रहे हों तब तक वह अलग हो भी चुका हो।
बहरहाल, गोवा में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के ठीक एक दिन बाद ही भाजपा के लौहपुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने संसदीय बोर्ड, राष्ट्रीय कार्यकारिणी व चुनाव समिति से त्यागपत्र दे दिया। उनका यह त्यागपत्र दबाव की राजनीति के तहत ही दिया गया लगता है। उन्होंने राजनाथ सिंह को लिखे अपने पत्र में कहा था कि पार्टी अपने पुराने विचारों से हट गई है और अब हर नेता का निजी एजेंडा है। जाहिर है उनका इशारा नरेंद्र मोदी की तरफ था। ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी से यह पूछा जाना अनुचित नहीं होगा कि स्वयं उन्होंने इसे रोकने के लिए क्या किया। भाजपा के भीष्म पितामह को यह बताना चाहिए कि जब नरेंद्र मोदी पहले केशुभाई पटेल को गुजरात में हाशिये पर धकेल रहे थे और बाद में मात्र अपने अहम की तुष्टि के लिए संजय जोशी जैसों को ठीकाने लगा रहे थे उस समय वे चुप क्यों रहे। क्यों नहीं उन्होंने केशुभाई या संजय जोशी का पक्ष लिया। उस वक्त तो वह मोदी की पीठ पर हाथ रखे हुए थे। अब जब कि मोदी ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी उनसे छीन ली तो उन्हें निजी एजेंडा नजर आ रहा है।

वैसे यह सत्य है कि भाजपा को राष्ट्रीय स्वरूप देने में 86 वर्षीय लालकृष्ण आडवाणी का योगदान सर्वाधिक है। यह इन्हीं आडवाणी की देन है जो भाजपा को 2 से 186 सीटों तक पहुंची। लेकिन प्रधानमंत्री बने अटलजी। 2005 की हार के बाद अटल जी के सन्यास लेने के बाद वे बीजेपी के अगले पीएम इन वेटिंग बने पर यहां भी किस्मत ने दांव दे दिया। 2009 में जब लगा कि वे इस बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो पार्टी ही हार गई। यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार व आम आदमी में इस गठबंधन के प्रति बढ़ती नाराजगी से इस बार उन्हें अपना सपना साकार होता दिख रहा था पर पार्टी ने उनका पत्ता काटकर गुजरात में अपनी चमक बिखेर कर सबकी आंखे चौंधिया देने वाले मोदी को आगे कर दिया। अब क्या पता अगले चुनाव तक उम्र भी साथ दे या न दे। पहले तो उन्होंने मोदी को रोकने के लिए जनता दल यू का सहारा लिया। पर इससे भी जब बात नहीं बनी तो आडवाणी ने गोवा अधिवेशन में सम्मिलित न होकर दबाव की रणनीति बनाई। परंतु उनका यह वार भी खाली गया। संघ ने सुरेश सोनी के माध्यम से राजनाथ को संदेश पहुंचवा दिया कि आडवाणी आएं या नहीं, मोदी के नाम का ऐलान कर दिया जाए। जिन आडवाणी के बगैर भाजपा का कोई अधिवेशन पूरा नहीं होता था उन्हीं आडवाणी की नाराजगी को नजरंदाज कर मोदी के नाम की घोषणा कर देना आडवाणी को संघ का साफ संदेश था कि वे अब अभिभावक के रूप में पार्टी का मार्गदर्शन करें। अपना यह वार भी खाली जाता देख अंतिम वार के तौर पर आडवाणी ने इस्तीफे का ब्रह्मास्त्र चलाया। इससे भाजपा को लहूलुहान होना था सो हुई भी । पर संघ ने कड़ा रुख अपनाते हुए कह दिया कि उनके इस्तीफे से भाजपा को जो नुकसान होना था हो चुका। अब आगे की सोचो। यह आडवाणी के लिए भी संदेश था कि अब भाजपा में आडवाणी के लिए सिर्फ और सिर्फ मार्ग दर्शक की ही भूमिका शेष बची है।

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