सोमवार, 15 जुलाई 2013
आओ मिलकर दागी दागी खेलें
राजनीति में
अपराधियों के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जताने व शुचिता आदि की कर्णप्रिय बातें करने
वाले राजनीतिक दलों को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा आइना दिखाया है जिसमें सभी दलों के
चेहरे दागदार नजर आ रहे हैं। राजनीतिक दलों बोलती बंद हो गई है। हर मुद्दे पर गला फाड़ने वाले नेताओं के मुंह से बोल
ही नहीं निकल रहे हैं। मानो उन्हें सांप सूंघ गया है। यह फैसला न निगलते बन रहा है
न उगलते। चुनाव आयोग समय समय पर अपनी रिपोर्टों में आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को
चुनाव लड़ने से रोकने की जोरदार वकालत करता रहा है। जबकि चुनाव आयोग की अपराधियों
को चुनाव लड़ने से रोकने की सिफारिशों का लगातार विरोध करते रहे राजनीतिक दल अब
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बगले झांक रहे हैं। इस फैसले को अपने लिए झटका मान
रहे दलों को डर है कि इसका विरोध करने से जनता के बीच गलत संदेश जाएगा। तमाम दलों
के नेता फिलहाल अध्ययन के बाद ही कुछ कह पाने का तर्क दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट
के फैसले पर सावधानीपूर्वक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कानून मंत्री कपिल सिब्बल
ने कहा कि कहा कि देश की राजनीति पर इसके असर को देखने के लिए हम पहले फैसले का
अध्ययन करेंगे । हम हर किसी से सलाह मशविरा करने के बाद ही इस पर प्रतिक्रिया
व्यक्त करेंगे। सरकार जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन लाएगी या फैसले को चुनौती
देगी के सवाल पर उनका कहना था कि राजनीतिक दलों के साथ साथ हर पक्ष से मशविरा करने
के बाद कोई फैसला किया जाएगा। जनप्रतिनिधित्व कानून का प्रशासनिक मंत्रालय कानून
मंत्रालय ही है। हां, झेंप मिटाने के लिए राजनीतिक दल बुझे मन व दबी जुबान से इसका
स्वागत कर रहे हैं।
दरअसल, आपराधिक
मामलों में दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने संबंधी
फैसला सुनाकर सर्वोच्च न्यायालय ने वह काम किया है, जिसकी जिम्मेदारी वैसे तो संसद की थी। दागी सांसदों और
विधायकों को सुप्रीम कोर्ट ने जोरदार झटका देते हुए कहा है कि अगर सांसदों और
विधायकों को किसी आपराधिक मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद दो साल से ज्यादा
की सजा हुई, तो ऐसे में उनकी
सदस्यता तत्काल प्रभाव से रद्द हो जाएगी। कोर्ट ने यह भी कहा है कि ये सांसद या
विधायक सजा पूरी कर लेने के बाद भी छह साल बाद तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य माने
जाएंगे।
बहरहाल, सर्वोच्च
अदालत ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा चार के उन विवादास्पद प्रावधानों को “अल्ट्रा वायरस” बताकर निरस्त कर दिया है जिसकी वजह से आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने के बावजूद
दागी निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी सदस्यता बचाए रखने में कामयाब हो जाते थे। हालांकि
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि उसका फैसला आने से पहले जो सांसद या विधायक अपनी
सजा को ऊपरी अदालत में चुनौती दे चुके हैं उन पर यह आदेश लागू नहीं होगा। खात बात
यह है कि उक्त प्रावधान संविधान की मूल भावना के ही खिलाफ था जिसमें, सभी को बराबरी का अधिकार दिया गया है। चुनाव सुधार की
बातें तो बीते चार दशकों से हो रही हैं पर अभी तक
कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा सका है। नतीजतन आज देश के कुल 4,835 सांसद-विधायकों
में से 1,448 ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज
हैं। इनमें से 162 सांसद हैं तो 1,286 विधायक। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने
इन आपराधिक जन प्रतिनिधियों के भविष्य पर तलवार लटका दी है।
मौजूदा संसद
में ही 76 सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर आरोप हैं।
यदि ये आरोप साबित हो जाएं तो उन्हें
पांच वर्ष से भी अधिक की सजा हो सकती है जबकि मौजूदा
कानून किसी भी सामान्य व्यक्ति को दो वर्ष से अधिक की सजा सुनाए जाने पर चुनाव
लड़ने से ही वंचित कर देता है। इस मामले में सुनवाई के दौरान सरकार ने तर्क दिया
था कि यदि आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी तो खासतौर से ऐसी सरकारों के समक्ष स्थिरता का संकट पैदा हो
सकता है
जो अल्प बहुमत से सत्ता में होती हैं। पर देश के सर्वोच्च
अदालत ने उसका यह तर्क खारिज कर पूरे राजनीतिक वर्ग को आईना दिखाने का काम किया
है। सच यह है कि किसी भी सियासी दल का रवैया इस मामले में सकारात्मक नहीं रहा है। बेशक यह एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन यह भी जरूरी है कि पर्दे के पीछे चलने वाले खेल पर भी
अंकुश लगाया जाए और राजनीति में काले धन के प्रवाह को रोका जाए। वैसे सुप्रीम
कोर्ट के इस फैसले को राजनीति की गंदगी साफ करने वाला माना जा रहा है। अब देखना यह
है कि राजनीतिक दल इसका क्या तोड़ निकालते हैं।
आपराधिक
मामला झेल रहे नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है, जिनके भविष्य पर इस फैसले से प्रतिकूल असर पड़ सकता है। फैसले
की सर्वाधिक मार क्षेत्रीय दलों के नेताओं को भुगतनी पड़ सकती है। यहां तक कि सपा
प्रमुख मुलायम सिंह यादव व बसपा सुप्रीमो मायावती का प्रधानमंत्री बनने का सपना भी
टूट सकता है। गौरतलब है कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, बसपा प्रमुख मायावती, कर्नाटक के पूर्व
मुख्यमंत्री येदियुरप्पा, राजद प्रमुख
लालू प्रसाद यादव,
वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगनमोहन रेड्डी, अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता, कांग्रेस नेता सुरेश कलमाडी, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन, एम करुणानिधि, ए राजा, कनिमोझी सहित कई नामचीन राजनीतिक हस्तियों के खिलाफ विभिन्न
अदालतों में अलग-अलग आपराधिक मामले लंबित हैं। अगर इन हस्तियों को इन मामलों में
किसी भी अदालत से सजा हुई तो इनके राजनीतिक कैरियर पर विराम लग सकता है। जहां तक
भाजपा की बात है तो बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती व विनय कटियार
सहित कई अन्य नेताओं के खिलाफ मामला अदालत में लंबित है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के
मामले में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण, पूर्व मंत्री दिलीप सिंह जूदेव सहित दर्जन भर नेता अलग से
घिरेंगे। फर्जी मुठभेड़ मामले में पार्टी महासचिव अमित शाह भी इस फैसले की जद में
शामिल हो सकते हैं। इस समय 162 सांसदों
पर विभिन्न आरोपों में आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें 76 सांसद ऐसे हैं जिन पर
चल रहे आपराधिक मामलों में उन्हें पांच साल से ज्यादा की सजा सुनाई जा सकती है। इसी
तरह 1460 विधायकों पर देश भर में विभिन्न आरोपों में आपराधिक मामले चल रहे हैं।
इनमें 30 फीसदी विधायक ऐसे हैं जिन पर चल रहे आपराधिक मामलों में उन्हें पांच साल
से ज्यादा की सजा सुनाई जा सकती है।
बाक्स...
फैसले से लाभ
सुप्रीम
कोर्ट के फैसले से राजनीति को साफ स्वच्छ बनाने में मदद मिलेगी।
आपराधिक
रिकॉर्ड वाले नेता संसद और विधानसभाओं में नहीं पहुंच सकेंगे।
दो साल या
इससे अधिक की सजा पर जनप्रतिनिधियों की सदस्यता खत्म।
दोषी करार
दिए जाने के दिन से ही जनप्रतिनिधि अयोग्य हो जाएगा।
जेल से रिहा
होने के छह साल बाद तक जनप्रतिनिधि बनने के लिए अयोग्य।
लटकती तलवार
नाम--आरोप--मुकदमे
की स्थिति
जगनमोहन
रेड्डी (सांसद)--आय से अधिक संपत्ति मामला--सीबीआई द्वारा चार्जशीट दाखिल
बीएस
येदियुरपपा (पूर्व मुख्यमंत्री, कर्नाटक)--गैर कानूनी खनन
घोटाला--मामला अदालत में
सुरेश कलमाडी
(सांसद)--राष्ट्रमंडल खेल घोटाला--आरोप तय, जमानत पर
रिहा
ए. राजा
(पूर्व केंद्रीय मंत्री)--2जी स्पेक्ट्रम घोटाला--आरोप तय, जमानत पर रिहा
कनीमोझी
(सांसद)--2जी स्पेक्ट्रम घोटाला--आरोप तय, जमानत पर
रिहा
गिर सकती है गाज
बाबूभाई
बोखरिया (पूर्व मंत्री, गुजरात सरकार)--अवैध खनन
मामला
रंगनाथ मिश्र
(यूपी के पूर्व माध्यमिक शिक्षा मंत्री)--लेकफैड घोटाला
बाबू सिंह
कुशवाहा (पूर्व मंत्री, यूपी सरकार)--एनआरएचएम घोटाला
गोपाल कांडा
(पूर्व मंत्री,
हरियाणा सरकार)--एयरहोस्टेस खुदकुशी मामला
राघव जी
(पूर्व मंत्री,
मध्य प्रदेश सरकार)--यौन शोषण मामला
मुख्तार
अंसारी (निर्दलीय विधायक, यूपी)--हत्या
के मामले में
मधु कोड़ा
(पूर्व मुख्यमंत्री, झारखंड)--भ्रष्टाचार का मामला
दागी
माननीयों को लेकर आया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यूपी के सत्ता के गलियारों में खासी
हलचल मचा सकता है। प्रदेश के कुल 403 विधायकों में से 47 प्रतिशत यानि 189
विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 98 ऐसे हैं जिनके ऊपर हत्या, बलात्कार जैसी संगीन धाराओं में रिपोर्ट दर्ज है। इन आंकड़ों
को देखकर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से आने वाले समय में यूपी में ही
सबसे ज्यादा उठापटक मचेगी। विधायकों के हलफनामों के आधार पर तैयार यूपी इलेक्शन
वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक चुनावों में बहुमत हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी
आपराधिक मामलों वाले माननीयों के मामले में अन्य दलों के मुकाबले कहीं आगे है।
दागी विधायकों के मामले में वह बहुमत से बस थोड़ा ही पीछे है। उसके 224 विधायकों
में से 111 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 56 के खिलाफ गंभीर मामले हैं।
दागी
विधायकों में सपा के बाद दूसरा नंबर बसपा का है। उसके 80 विधायकों में से 29 पर के
खिलाफ आपराधिक मुकदमे हैं, जिसमें से 14
माननीयों पर तो गंभीर मामले हैं। इस मामले में भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा
नहीं। उसके 47 में से 25 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं जबकि इनमें 14 पर
गंभीर आरोप हैं। वहीं कांग्रेस के 28 में से 13 विधायकों पर आपराधिक मामले हैं। गंभीर
अपराधों वाले टॉप टेन विधायकों में नंबर एक पर समाजवादी पार्टी के बीकापुर के
विधायक मित्रसेन यादव हैं। उनके खिलाफ 36 मामले हैं। इनमें से अकेले 14 मामले हत्या
के हैं। दूसरे नंबर पर माफिया डॉन बृजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह का नाम है।
सकलडीहा से निर्दलीय विधायक सुशील सिंह पर 20 मामले दर्ज हैं। इनमें से 12 मामले
हत्या के हैं। तीसरे नंबर पर जसराना के सपा विधायक रामवीर सिंह का नाम है। रामवीर
के खिलाफ कुल 18 मामले दर्ज हैं। मऊ से कौमी एकता दल से चुने गए माफिया डॉन
मुख्तार अंसारी के खिलाफ भी हत्या के 38 मामलो सहित लगभग दो सौ रिपोर्ट दर्ज हैं।
इलाहाबाद
हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश में जातीय सम्मेलन करने पर रोक लगा दी है।
प्रदेश के राजनीतिक दलों के लिए ये तगड़ा झटका माना जा रहा है। ये फैसला एक जनहित
याचिका की सुनवाई में दिया गया है। याचिका मोती लाल यादव नामक व्यक्ति ने लगाई थी।
याचिका में कहा गया कि इन रैलियों में नेता गण दूसरी जातियों के बारे में विद्वेष
भरी बातें करते हैं और जाति विशेष की भावनाओं को भड़काते हैं जिससे समाज में
वैमनस्य बढ़ रहा है।
गौरतलब है कि
2014 लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटे सपा और बसपा जैसे राजनीतिक दल यूपी के
सभी हिस्सों में जातीय सम्मेलन कर रहे हैं। बसपा ने ब्राह्मणों और मुसलमानों को
लुभाने के लिए कई जातीय सम्मेलन प्रस्तावित कर रखे हैं। बसपा ने सतीश चंद्र
मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीकी के नेतृत्व में कुछ सम्मेलन कर भी लिए हैं। बसपा
की होड़ में ही सपा भी प्रदेश में ब्राह्मणों को लुभाने के ब्राह्मण सम्मेलन कर
रही है। ये दल ब्राह्मणों और मुसलमानों के सम्मेलनों की अलावा वैश्यों और पिछड़ी
जातियों के सम्मेलन भी कर रही हैं।
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