शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

हम ही हैं इस महाविनाश के सृजनकार


प्राकृतिक दोहन किए जाने से कमजोर पड़ती धरती

ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पिघल रहे हैं ग्लैशियर

ओजन पर्त में छेद के कारण बढ़ता धरती का तापमान

धरती को खतरा आकाश से गिरने वाली उल्कापिंडों से

उत्तराखंड में प्रकृति ने जो अपना रौद्र रूप दिखाया है वह साफ इंगित कर रहा है कि अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति से खिलवाड़ करना हमें कितना भारी पड़ सकता है। प्रकृति की इस विनाश लीला में हजारों जानें चली गई हैं। परिवार के परिवार तबाह हो गये हैं। कहीं किसी परिवार में अकेला कोई बूढ़ा बच गया है तो किसी परिवार में मां-बाप भाई बहन को खोकर एक अकेला मासूम बच गया है। इस तबाही ने ऐसा जख्म दिया है जिसे लोग आजीवन भूल नहीं पाएंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार कौन है इस विनाशलीला का उत्तरदायी ? तो इसका सीधा सा जवाब है कि अपने स्वार्थ के लिए हमने धरती पर जो जुल्म किया है, धरती उसका बदला लेने के लिए अब पूरी तरह तैयार है केदारनाथ में आये इस भयावह जलप्रलय के सृजनकार हम मानव ही हैं। इस विपुल विध्वंस के कई पहलू हैं। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन व लगातार पेड़ों की कटाई से उपजते पर्यावरण असंतुलन के साथ ही व्यावसायिकता की आंधी में सारी नैतिकता और मानकों को ताक पर रख निर्माण कार्यों को अंजाम देना किस कदर भारी पड़ सकता है इसकी यह बानगी भर है। दरअसल, प्राकृतिक आपदाएं समय समय पर हमें झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई में परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से लगा सकते हैं, और आज इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड में आई भीषण बाढ के रूप में देख सकते हैं। हालात पर नजर रखने वाले इस विभीषिका को काफी बड़ा आंक रहे हैं। और आने वाली स्थितियां बतला रही हैं कि हालात बेहद गंभीर हैं मरने वालों की संख्या पर सिर्फ अनुमान लगाए जा रहे हैं। भूस्खलन और बाढ के रूप में अब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखा रही है। तबाही का ऐसा खौफनाक मंजर पहले नहीं देखा गया। हांलाकि 1970 में चमोली जिले में गौनाताल में बादल के फटने से डरावने हालात बन गये थे, लेकिन आज की तरह जानमाल की अधिक क्षति नहीं हुई थी।
आश्चर्य की बात है कि 2007 से 2012 के बीच उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा, बागेष्वर, चमोली, पिथौरागढ़, रूद्रप्रयाग जिलों में आयी प्राकृतिक आपदा में सैकड़ों जानें गई हैं इसके बावजूद सरकार से लेकर प्रशासन तक ने कोई सबक नहीं लिया। इस आपदा का जिम्मेदार खुद इंसान है जो उससे छेड़छाड़ करता आ रहा है। विकास का भयानक मॉडल तैयार किया जा रहा है। 220 जल विद्युत परियोजनाओं पर काम जारी है। करीब 600 परियोजाएं प्रस्तावित हैं। भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनन्दा, विष्णुगाड़, यमुना, पिंडर, धौली, काली गंगा, गोरी गंगा, राम गंगा के आस पास जितनी परियोजनाएं चल रही हैं उसका साइड इफैक्ट आज इन नदियों के तटवर्ती इलाकों में साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस आपदा को मानव जनित आपदा ही ज्यादा माने तो अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि कम समय में ज्यादा कमाने की चाह ने मानव को उत्तरकाशी में नदी के किनारे अट्टालिकाएं खड़ी करने को प्रेरित किया। गोविंदघाट में बड़े बड़े होटल व धर्मशालाएं भी प्रशासन और व्यवसायियों की मिलीभगत का नतीजा है। इंसानी जीवन शैली बदली तो पवित्र तीर्थाटन भी मजे और पिकनिक के हॉट स्पॉट बन गये। केदार घाटी दलदली क्षेत्र है यहां आसमान छूते होटल बनाने का अर्थ है भयानक विनाश को निमत्रंण देना। मंदिर समिति और सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि भौगोलिक रूप से खतरनाक इलाक़ा के रूप में चिन्हित किया जा चुका केदारनाथ में हजारों-लाखों लोगों को अंध श्रध्दा के नाम पर जमा करने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है? विकास के लिए ठेकेदारी प्रथा से धन बनाने के खेल में सभी लिप्त रहे। यदि देश के 14 मैदानी शहरों की तरह केदार घाटी में भी बादल फटने की चेतावनी देने वाले आधुनिकतम रडार लगे होते, तो वक्त रहते काफी लोग मौत के आगोश में समाने से बच जाते। लेकिन किसी भी सूरत में केवल विकास चाहिए की र बिना प्लानिंग के विकास का अंजाम आज हमारे सामने हैं।
यदि भविष्य में इस प्रकार के प्राकृतिक आपदा से बचना है तो इसकी तैयारी अभी से करनी होगी। विकास अच्छी बात है, परंतु इसके कुछ मानक तय होने चाहिए। दीर्घकालिक विकास की नीतियों को तय किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है कि समस्त हिमालयी क्षेत्रों में भारी निर्माण और दैत्याकार जल विद्युत परियोंजनाओं के निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाए। हिमालयी क्षेत्र में बेतहाशा खनन और सड़क निर्माण के नाम पर विस्फोट ना किये जायें। कब-कब किन हालात में आपदाएं आयी हैं इसका आकंड़ा जुटाया जाये। सबसे जरूरी यह है कि आपदा प्रबंधन विभाग को पुर्नजीवित करने के लिए राज्य सरकार और केन्द्र मिलकर पुख्ता नीति बनाये। हिमालयी क्षेत्रों में आधुनिकतम रडार तैनात किये जाये और मौसम विभाग की सूचनाओं को गंभीरता से लिया जाए क्योंकि पहले की अपेक्षा मौसम विभाग के पूर्वानुमान सच होने लगे हैं। 
आपदा राहत के काम में अभी सेना ने जिस तरह का साहस दिखाया है वह प्रशंसनीय है। उनके साथ जितने संगठन स्वप्रेरणा से लोगों की मदद कर रहे हैं उनको भी सलाम और निंदा करनी होगी उन लोगों की जो संकट की इस घड़ी में आपदा राहत के नाम पर धन कमाई में लगे हैं।

धरती के 75 प्रतिशत हिस्से पर जल है और सिर्फ 25 प्रतिशत हिस्से पर ही मावन की गतिविधियां जारी थी। आज से 200-300 सौ साल पहले मानव की आकाश और समुद्र में पकड़ नहीं थी, लेकिन जबसे मानव ने आकाश और समुद्र में दखलअंदाजी की है, धरती को पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है। तेल के खेल और खनन ने धरती का तेल निकाल दिया है। वक्त के पहले धरती को मार दिए जाने की हरकतें धरती कतई बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। इससे पहले कि मानव अपनी हदें पार करे धरती उसके अस्तिव को मिटाने की पूरी तैयारी कर चुकी है।

धरती का अपना एक परिस्थितिकी तंत्र होता था। उस तंत्र के गड़बड़ाने से जीवन और जलवायु असंतुलित हो गया है। मानव की प्रकृति में बढ़ती दखलअंदाजी के चलते वह तंत्र गड़बड़ा गया है। मानव ने अपनी सुख, सुविधा और अर्थ के विकास के लिए धरती का हद से ज्यादा दोहन कर दिया है। एक तरफ मानव ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल जहां जीवन के स्तर को अच्छा बनाने में किया, वहीं उसने स्वयं सहित धरती के जीवन को संकट में डाल दिया है तब निश्चित ही प्रकृति प्रलय का सृजन कर स्वयं को रिफोर्म करेगी। प्राकृतिक और खगोलीय घटनाओं के लिए मानव स्वयं जिम्मेदार है।
                          प्राकृतिक आपदाएं 
ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते लगातार दुनिया के ग्लैशियर पिघल रहे हैं और जलवायु परिवर्तन हो रहा है। कहीं सुनामी तो कहीं भूकंप और कहीं तूफान का कहर जारी है। दूसरी और धरती के ऊपर ओजन पर्त का जो जाल बिछा हुआ है उसमें लगभग ऑस्ट्रेलिया बराबर का एक छेद हो चुका है। जिसके कारण धरती का तापमान 1 डिग्री बढ़ गया है। एक अन्य शोध के अनुसार भूकंप आदि आपदाओं के कारण धरती अपनी धूरी से 2.50 से 3 डिग्री घिसक गई है जिसके कारण भी जलवायु परिवर्तित हो गया है।
धरती की घूर्णन गति के कारण समुद्र और धरती के अंदर स्थित बड़ी-बड़ी चट्टानें घिसकर एक दूसरे से दूर होती रहती है जिसके कारण भूकंप और ज्वालामुखी सक्रिय होते हैं और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो आज भी जारी है और आगे भी निरंतर जारी रहेगी। लेकिन जब मानव इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल देता है तो स्थिति और भयानक बन जाती है।

आज धरती की हालत पहले की अपेक्षा इसलिए खराब हो चली है कि मानव ने समुद्र, आकाश और भूगर्भ में आवश्यकता से अधिक दखल दे दिया है इसलिए वैज्ञानिकों की चिंता का कारण आकाश से आने वाली कोई उल्कापिंड नहीं बल्कि धरती के खुद के ही असंतुलित होकर भारी तबाही मचाने का है। मौसम इस तेजी से बदल रहा है कि जलचर, थलचर और नभचर प्राणियों का जीना मुश्किल होता जा रहा है। हवा दूषित होती जा रही है। खाद्यान संकट बढ़ रहा है। मानव की जनसंख्‍या से पशु, पक्षियों और जलचर जंतुओं का अस्तित्व खतरे में हो चला है। परिस्थितिकि तंत्र गड़बड़ा रहा है तो स्वाभाविक रूप से मानव खुद ही प्रलय का निर्माता है।

                                                      खगोलीय आपदाएं


 हमारी आकाशगंगा जिसका नाम है 'मिल्की वे'। इस आकाशगंगा में धरती एक छोटा-सा ग्रह मात्र है जो कि विशालकाय तारों के मुकाबले एक छोटे से कंकर के समान है। एक आकाश गंगा में तारे, (लगभग 250 अरब सितारों का समूह) ग्रह, नक्षत्र और सूर्य हो सकते हैं।

हमारी आकाशगंगा की तरह लाखों आकाश गंगाएं हैं। प्रत्येक आकाशगंगा में सितारों के परिवार हैं, ग्रह, नक्षत्र, उपग्रह, एस्ट्रायड, धूमकेतू, उल्कापिंड और ज्वाला की भीषण भट्टियों के रूप में गैसों का अग्नितांडव है।

ब्रह्मांड की अपेक्षा धरती एक जर्रा भी नहीं है। वैज्ञानिक शोध अनुसार धरती के समान करोड़ों अन्य धरती हो सकती हैं जहां जीवन हो भी सकता है और नहीं भी। अनंत है संभावनाएं।

जिस तरह धरती घूमती है उसी तरह वह घूमते हुए हमारे सूर्य का चक्कर लगाती है। शनि, शुक्र, मंगल, बुध, प्लूटो और नेप्चून सहित हमारे सौर मंडल में स्थिति सभी उल्काएं सूर्य का चक्कर लगाती हैं। सभी सूर्य के कारण अपनी-अपनी धूरी पर चलायमान हैं, लेकिन उनमें से कुछ उल्काएं जब अपने पथ से भटक जाती हैं तो वे सौर मंडल के किसी भी ग्रह से आकर्षण में आकर उस पर गिर जाती है या उसका सौर्य पथ पहले की अपेक्षा और लम्बा या छोटा हो जाता है। यह भी हो सकता है कि वे उल्काएं इस कारण स्वत: ही जल कर नष्ट हो जाएं।

जिस तरह धरती पर ज्वालामूखी फूट रहे हैं, सूनामी आ रही है, भूकंप उठ रहे हैं तूफान आ रहे हैं उसी तरह यदि सूर्य पर कोई बड़ी घटना घटती है तो उसका प्रभाव धरती पर भी होता हैं उसी तरह धरती का प्रभाव चंद्रमा पर भी होता है। इस प्रभाव से मौसम में परिवर्तन देखने को मिलता है। मौसम के बदलने से भूगर्भ हलचलें और बढ़ जाती है। एस्ट्रायड (उल्कापिंड) या गैसीयपिंड के धरती के नजदीक से गुजरने या धरती से टकराने से धरती की जलवायु में भारी परिवर्तन देखने को मिलता है। 
मानव ने ठंड से बचने के उपाय तो ढूंढ लिए, भूकंप, तूफान और ज्वालामूखी से बचने के उपाय भी ढूंढ लिए हैं, लेकिन धरती को सूर्य, एस्ट्रायड या अन्य ग्रहों के दूष्प्रभाव से कैसे बचा जाए इसका उपाय अभी नहीं ढूंढा है। धरती को बचाए रखना है तो जल्द ही इसके उपाय ढूंढने होंगे।

                                      जवाबदेही से बच नहीं सकती सरकार

इस हादसे ने कई सवालों को जन्म दिया है। केदारनाथ त्रासदी से ठीक दो दिन पूर्व मौसम विभाग ने प्रशासन को चेतावनी दी थी कि अगले 24 घंटों में भारी बारिश हो सकती है तो क्यों नहीं देहरादून से सतर्कता बरती गयी? कुल कितने यात्री उस दौरान केदारनाथ में थे इसकी भी सटीक जानकारी राज्य सरकार के पास नहीं हैं। ऐसे में हताहतों का अन्दाजा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। हिमालयी क्षेत्रों के लिए बादल फटने की घटना नई नहीं है। समय-समय पर ऐसी दर्दनाक घटनाएं होती रहती हैं। फिर भी सरकारें इससे सबक़ लेने की बजाए ऐसे ही किसी हादसे के इंतज़ार में बैठी रहती हैं। 
 यह कितना शर्मनाक  है कि अति वृष्टि के अंदेशे के बावजूद भी हम अपार जनहानि को रोक  पाने की कोई आपात व्यवस्था नहीं कर पाए। निश्चय ही विज्ञान और प्रौद्योगीकी की इतनी प्रगति के बाद भी इतनी बड़ी जनहानि हमारे लिए शर्म की बात है! माना कुदरत के आगे हम विवश हो जाते हैं मगर जो कुछ उत्तरांचल में घटा है उससे तनिक भी आपको लगता है कि निरीह दर्शनार्थियों की जान माल की रक्षा की भी कोई भी कवायद हुई होगी? आपदा प्रबंध की कोई तैयारी तक नहीं थी! सब असहाय निरुपाय काल के गाल में समा गए। हादसे का न तो पूर्वानुमान था और अगर था भी तो एक  लापरवाह बेहयाई के चलते जिम्मेदार लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और अनहोनी घटित हो गई ! आज उत्तराखंड सरकार निश्चित रूप से कटघरे में खडी है। उसे आज नहीं तो कल जवाब देना ही होगा। वह अपनी इस गैर जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पायेगी।

सबसे शर्मनाक  यह भी है कि इतनी बड़ी जनहानि हो गयी और जवाबदेह लोग घटना पर दो दिन तक  तोपन ही डालते रहे। प्रत्यक्ष दर्शी जहाँ हजारो की मौत का मंजर बयां कर रहे थे वहीं सरकारी आंकड़ा सौ सवा सौ तक सिमटा रहा। आखिर क्यों ? यही डर था न कि सरकार की भद पिट जायेगी ? विपक्षी पार्टियां सरकार को कटघरे में ला खड़ी करेंगी ? वह तो हो ही रहा है और आगे भी अभी कम लानत मलामत नहीं होगी। सारे देश से श्रद्धालु वहां गए थे। केंद्र व राज्य सरकार की इतनी बड़ी विफलता का सवाल अभी पूरे देश में गूंजेगा! अभी तो लोग सदमे में है अपने स्वजनों की सलामती की दुआ कर रहे हैं। उनकी बेसब्री से इंतज़ार हो रहा है। इससे उबरते ही लोग इस हादसे की जिम्मेदारी नियत करने में लगेगें। सैलाब पर सियासत की रोटी सेंक रहे ये सियासतदां यह मानकर अब इतना घाघ हो चुके हैं कि भारतीय जन -स्मृतियां बहुत अल्पकालिक हैं मन ही मन आश्वस्त हैं। लोग दो चार दिन चिल्ल पों मचाएगें और फिर चुप हो जायेंगे। मगर यह मामला धर्म कर्म से जुड़ा है जो भारतीय जीवन का प्राण -तत्व है -निश्चित ही इस बड़ी लापरवाही या चूक का खामियाजा दोनों सरकारों को भोगना होगा

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