शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

ए सखि साजन? ना सखि नेता


( मासिक पत्रिका कैमूर टाइम्स में प्रकाशित
जब जब अपनी लय मे आवे 
चांद सितारों से ललचावे
मुझको सबसे प्रिय बतलाता
का सखि साजन? ना सखि नेता। ‘कह मुकरी’ की ये पंक्तियां बिहार विधानसभा चुनाव का मिजाज पढ़े जाने के लिहाज से बिल्कुल उपयुक्त हैं। लोक काव्य की सबसे अधिक चर्चित विधाओं में से एक है ‘कह मुकरी’। इसका सीधा सा अर्थ है कुछ कहकर उससे मुकर जाना। ‘कह मुकरी’ मूलत: दो सखियों के बीच एक ऐसा संवाद है, जिसमें पहले तीन पदों में एक सखी अपने प्रिय को याद करती जान पड़ती है। जब चौथे पद में उसकी सखी उसके कथनों से 'साजन' अभिप्राय लगाती है, तब पहली सखी अपनी बात से मुकर जाती है और पहले तीन पदों में कही अपनी बातों का कुछ और ही अर्थ बता देती है। बिहार विधानसभा चुनाव के संदर्भ में देखें तो मतदाताओं की झोली में चांद सितारे तक डाल देने की बातें हो रही हैं। इसके लिए एक से बढ़कर एक नारे गढ़े गये हैं। चुनावी घोषणाओं की झमाझम बारिश हो रही है। जनता को लुभाने के लिए हर बार की तरह इस बार भी घोषणापत्र या यह भी कह सकते हैं कि वादों का पुलिंदा जारी करने की परंपरा का बखूबी निर्वहन किया गया है। इन घोषणापत्रों या वचन पत्रों अथवा विजन पत्रों में वादों की लंबी फेहरिश्त है। घोषणापत्र जारी करने की परंपरा राजनीति की उस पीढ़ी ने शुरू किया था जो आजादी के आंदोलन से निकली थी। आजादी के आंदोलन से निकले इन तपे तपाये नेताओं के मन में देश को बदलने की हसरत थी। तब घोषणापत्र में कही गई हर बात को पूरा करना  उनका मकसद होता था। मगर आज घोषणापत्र जारी करना राजनीतिज्ञों के लिए एक रस्म भर बन कर रह गई है। हो भी क्यों न, इसे जनता चुनाव के पहले नहीं पढ़ती और नेता चुनाव के बाद। कुल मिलाकर माजरा ‘कह मुकरी’ से तनिक भी अधिक नहीं है। यहां पैकेज को भुनाने से लेकर भावनाएं उभारकर वोटों की फसल काटने की तरकीबें आजमाई जा रही हैं। सच यह भी है कि अक्सर भावनाएं मुद्दों पर भारी पड़ जाती हैं। इन सबके बावजूद जातिवाद, परिवारवाद और वंशवाद बिहार की राजनीति का वास्तविक यथार्थ है। बिहार में जातियता किस कदर गहरा जड़ जमाए बैठी है इसकी बानगी इसी से जानी जा सकती है कि कुशवाहा मतों को अपनी ओर खींचने के लिए नीतीश कुमार ने अपने तत्कालीन सहयोगी उपेंद्र सिंह को बाकायदा एफिडेविट के जरिए उपेंद्र कुशवाहा बना दिया। बिहार दौरे के दौरान कैमूर टाइम्स की टीम ने साफ महसूस किया कि पढ़े लिखे लोग भी जातियता के फंदे से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। चाहे वह मुगलसराय में पदस्थ दानापुर निवासी रेलवे में ड्राइवर राजेंद्र सिंह हों या मेरठ छावनी में तैनात आरा निवासी फौजी अरुण यादव। स्वजातीय होने की लिहाज से लालू यादव के प्रति इनका झुकाव स्पष्ट दिखा। वहीं युवाओं व अन्य लोगों को मोदी का विकास लुभा रहा है। इससे इतर राजनीतिक रूप से जागरूक बिहार के हर गली कूचे में चुनावी गणित सुलझाने के साथ ही राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की जीत-हार पर चर्चा चरम पर है। सभी के अपने-अपने तर्क होते है। चुनावी बहस का मुख्य मुद्दा है कि अगली सरकार किसकी बनेगी, कौन बड़ा नेता चुनाव हार जायेगा या फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोबारा सत्ता में वापसी करेंगे या नहीं। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी के सवा लाख करोड़ रुपये के विशेष पैकेज का एनडीए को कितना लाभ मिलेगा। बहस के दौरान ही कोई राजग की जीत तय मान रहा होता है तो कोई महागठबंधन की ही दोबारा सरकार बनाने की बात करता है। सभी को लगता है कि उसके दावे में दम है। 
खैर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए लगातार नीतीश कुमार पर लगातार आक्रामक वार करता जा रहा है। नीतीश अपनी कमजोरी को ताकत बनाने की कोशिश में हैं। एनडीए जितना अटैक कर रहा है नीतीश अपने आप को उतना ही कमजोर व असहाय पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। तमाम मुद्दों को किनारे कर नीतीश ने बड़ी चालाकी से डीएनए शब्द को मुद्दा बनाने की कोशिश की। नीतीश शायद इस अहसास तले काम कर रहे हैं कि पीएम मोदी की छवि को तोड़ने के लिए बिहार में विकास को नहीं, भावना को मुद्दा बनाना होगा। डीएनए का मुद्दा फ्लाप होने के बाद पीएम द्वारा उन्हें याचक कहे जाने को मुद्दा  बनाने लगे। दरअसल नीतीश कुमार की पूरी कोशिश इस छवि को पेश करने की है कि वे असहाय हैं और बीजेपी केंद्र से ताकत लेकर उन पर हमले कर रही है। दरअसल, यह सब करने के पीछे नीतीश कुमार की सोची समझी गहरी रणनीति है। इसी तरह की रणनीति को अभी हाल ही में दिल्ली में जबरदस्त सफलता मिली है। एड़ा बनकर पेड़ा खाने वाली इसी राजनीति को अपनाकर अरविंद केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गये। केजरीवाल ने पूरी शिद्दत के साथ अपनी छवि ताकतवर विरोधियों के सामने एक लाचार संघर्षशील नेता वाली पेश की। राजनीति में असली मालिक जनता होती है। ताकत भी जनता के पास ही होती है। मालिक के पास अगर कोई शौक से भी असहाय शोक मनाए तो मालिक सहानुभूति का मत प्रदान कर देता है। शायद इसीलिए नीतीश कुमार शौक से शोक मना रहे हैं।

नाक की लड़ाई बन चुके बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे बताएंगे कि कौन हाफ हुआ और कौन साफ हो गया। हाफ और साफ इसलिए क्योंकि अगर भाजपा हारी तो मोदी हाफ और महागठबंधन की पराजय हुई तो नीतीश कुमार पूरी तरह से साफ। दरअसल, इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रतिष्ठा पूरी तरह से दांव पर लगी हुई है। अगर भाजपा या एनडीए की हार हुई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की सेहत पर भले ही तात्कालिक रूप से कोई खास असर नहीं पड़ेगा पर हां, एक बात जरूर है कि उनका आभामंडल जरूर छीजेगा। साथ ही बिहार कोटे से केंद्र में मंत्री बनाए गये कई नेताओं की कुर्सी भी खतरे में पड़ जाएगी। दिल्ली चुनाव को अगर अपवाद मान लें तो लोकसभा चुनाव के बाद अब तक हरियाणा, महाराष्ट्र से लेकर जम्मू-कश्मीर व झारखंड विधानसभा के चुनाव में ब्रांड मोदी का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला है। इसी प्रकार यदि महागठबंधन की पराजय होती  है तो नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी पूरी के पूरी तरह से खत्म हो जाने की संभावना अधिक है। यही कारण है कि दोनों ओर से कोई भी कोर कसर बाकी नहीं रखी जा रही है।
बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव का अखाड़ा पूरी तरह से सज गया है। ताल ठोंक रहे पहलवान बाजी मारने के लिए हर दांव-पेंच आजमा रहे हैं। कुछ पहलवान पिछले चुनाव की तरह अपनी पार्टी से चुनाव मैदान में हैं तो कई ऐसे हैं जिन्होने अपने दलों से नाता तोड़कर नई पार्टी के साथ अपनी बिसात बिछा ली है। इस बार कई ऐसे चेहरे हैं जो बिहार के लिए भले ही जाने-पहचाने हो, लेकिन वे पहली बार अपनी पार्टी को अखाड़े में लड़वाने निकले है। इन नये कप्तानों की विधान सभा चुनाव में अग्निपरीक्षा होने वाली है। चुनाव में कई छोटे-बड़े नाम ऊंची उड़ान भरने को आतुर है। अब इन कप्तानों के लिए ‘सपने कितने सुहाने होते हैं’। यह चुनाव परिणाम ही तय करेंगे। जिन नये कप्तानों पर खासकर नजरें टिकी हंै उनमें राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के अध्यक्ष और केन्द्रीय राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा, हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, जन अधिकार पार्टी के अध्यक्ष एवं सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, समरस समाज पार्टी के अध्यक्ष एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री नागमणि, गरीब जनता दल सेक्यूलर के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद तथा लालू प्रसाद यादव के साले अनिरुद्ध प्रसाद उर्फ साधु यादव और समाजवादी जनता दल के अध्यक्ष एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेन्द्र यादव की पार्टी शामिल है। इन कप्तानों की व्यथा और कथा एक जैसी ही है। पहली बार कप्तान के रूप में ताल ठोंक रहे इन नेताओं में एक समानता है कि ये सभी जिन दलों के खिलाफ पहलवानों को उतारने की तैयारी में लगे है वहां के वह पहले योद्धा थे। 
उधर, चुनावी समर जीतने के लिए सभी दलों और गठबंधनों का खासा जोर लोकलुभावन नारे देकर जनता को हरसंभव अपनी तरफ आकर्षित करने की है। चुनावी नारों की इस बरसात से कोई भी दल अछूता नहीं है। इन नारों में पार्टियों का दृष्टिकोण तो झलकता ही है साथ ही साथ इनमें विरोधियों के लिए भरपूर व्यंग्य वाणों का भी समावेश किया गया है। वैसे नारों और स्लोगनों के आधार पर जनता को जगाने और लुभाने का चलन कोई नया नहीं है। हाईटेक प्रचार और स्लोगन के जरिए लोकसभा चुनाव में सभी पूवार्नुमानों को झुठलाते हुए प्रचंड बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा ने प्रधानमंत्री के सवा लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा के बाद से राज्य के लोगों को यह बताने में लगी है कि ‘बिहार के विकास में अब नहीं बाधा ,मोदीजी ने दिया है वादे से ज्यादा’। इसके अलावा राज्य में जंगलराज की वापसी को लेकर महागठबंधन पर तंज कसता हुआ नारा ‘बीजेपी करेगी पहला काम, जंगलराज पर पूर्णविराम’। वहीं राजग में शामिल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने नारा दिया है नया बिहार बनायेंगे लालू-नीतीश को भगायेंगे। उधर, लालू की पार्टी ने नारा दिया है ‘युवा रूठा नरेन्द्र मोदी झूठा’ एक अन्य नारे में राजद ने लिखा ‘न जुमलो वाली न जुल्मी सरकार गरीबों को चाहिये अपनी सरकार’ तथा ‘गरीबों की आवाज है लालू हम सब की परवाज है लालू’।
इसी तरह सतारूढ़ जदयू का पैकेज पर पलटवार खासा दिलचस्प है। ‘झांसे में न आयेंगे नीतीश को जितायेंगे’, सबको सम्मान और अधिकार फिर एक बार नीतीश कुमार, बहुत हुआ जुमलों का वार फिर एक बार नीतीश कुमार। आदि आदि। वैसे, बिहार की चुनावी पिच पर विभिन्न पार्टियों के दिग्गज बल्लेबाजों द्वारा ताबड़तोड़ जड़े जा रहे चुनावी नारों के ये छक्के जनता की दीर्घा (स्टैंड) तक का सफर तय करने में कितने कामयाब हो पाते हैं, इसका पता आठ नवंम्बर को ही चल सकेगा जब लोगों का मत ईवीएम से बाहर निकलेगा। हां, एक बात तो तय है कि मुकाबला कांटे का है।

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