बुधवार, 30 सितंबर 2015

यह नेताजी की पुरानी अदा है


बद्रीनाथ वर्मा
अपने जवानी के दिनों में पहलवानी के शौकीन रहे सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का सबसे  प्रिय दांव रहा है धोबियापाट। इस दांव से विपक्षी पहलवान पल भर में ही चारों खाने चित्त हो जाता है। हालांकि अब उन्होंने पहलवानी छोड़ दी है, लेकिन कहा जाता है न कि ‘चोर चोरी से जाये, हेराफेरी से नहीं’ सो यदाकदा वे अपने इस दांव को सियासी मैदान में भी आजमाते रहते हैं। ताजा वाकया है महागठबंधन को धोबियापाट से धूल चटाने का। महागठबंधन को मूर्त रूप देने में खास भूमिका निभाने वाले नेताजी ने आश्चर्यजनक रूप से इससे खुद को अलग करने का ऐलान कर दिया। अभी चार दिन पहले ही पटना में आयोजित स्वाभिमान रैली में उनके प्रतिनिधि के तौर पर उनके छोटे भाई व यूपी मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य शिवपाल सिंह यादव महागठबंधन के नेताओं के साथ मंच साझा करते हुए गरजे बरसे थे। उस वक्त तक लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार को सपने में भी गुमान नहीं था कि बस चार दिन बाद ही उन्हें ऐसा झटका लगने वाला है जिसके बाद उन्हें मुंह चुराने को मजबूर होना पड़ेगा। नेताजी के उपनाम से मशहूर सपा मुखिया ने ऐसा धोबियापाट लगाया कि महागठबंधन में शामिल सारे के सारे घटक दल भौंचक्के रह गये। कुनबा बिखरने से डरे शरद, लालू, से लेकर नीतीश तक मुलायम की मनुहार करते दिखे। वैसे मुलायम सिंह के लिए गच्चा देना कोई नया नहीं है। याद करिए राष्ट्रपति चुनाव। पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को ममता के साथ मिलकर राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने पर अडिग मुलायम सिंह ने दीदी को गच्चा देने में क्षण भर का भी विलंब नहीं किया। पहले तो उन्होंने ‘चढ़ जा बेटा शूली पर’ की तर्ज पर ममता की खूब पीठ थपथपाई लेकिन जब ममता काफी आगे बढ़ गईं तो उन्होंने अचानक पाला बदल लिया। बहरहाल, अपने हिसाब से गोटी फिट करने में माहिर खिलाड़ी मुलायम सिंह के इस यू टर्न को लेकर सियासी गलियारों में जबरदस्त चर्चा है। आम धारणा है कि उस वक्त भी सीबीआई का डर था और इस वक्त भी सीबीआई के डर ने ही पाला बदलने को मजबूर किया है। इस बार यादव सिंह प्रकरण उनके गले की फांस बना हुआ है। राष्ट्रीय लोकदल के महासचिव जयंत चौधरी इस पलटी के पीछे सीबीआई का भय मानते हैं। जयंत के मुताबिक मुलायम सिंह यादव का यह अंदाज कोई नया नहीं है। उनके राजनीतिक चरित्र और परम्पराओं का हिस्सा हमेशा से ही ऐसा रहा है। यादव एकदम से अपना मन बदलते है मूड बदलते हंै और मिजाज बदलते हैं। 
गठबंधन से अलग होने की घोषणा करने से ठीक दो दिन पहले ही रामगोपाल यादव भाजपा अध्यक्ष से मिले थे। तभी से सियासी गलियारों में कुछ खिचड़ी पकने की चर्चा ने जोर पकड़ा था। ध्यान से देखें तो भाजपा के नेताओं का सुर मुलायम के प्रति कुछ बदला-बदला सा है। राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही दुश्मन यह एक बार फिर से साबित हो रहा है। वैसे इस महागठबंधन को लेकर सपा में कोई खास उत्साह नहीं था। अखिलेश से लेकर रामगोपाल यादव तक सभी इसके खिलाफ थे। वे नहीं चाहते थे कि सपा ने जो फसल तैयार की है उसे काटने दूसरे लोग भी आ जाएं। यूपी में न तो जदयू का जनाधार है और न ही लालू प्रसाद के राजद की जबकि गठबंधन का सहयोगी होने के चलते विधानसभा चुनाव के वक्त सपा को उन्हें सीटें देनी पड़ती। जबकि बिहार में सपा को कोई खास फायदा नहीं होने वाला था। रही सही कसर लालू व नीतीश द्वारा सीटों के बंदरबांट ने पूरी कर दी। सीटों के बंटवारे के समय सपा मुखिया से उन्होंने सलाह लेना भी गंवारा नहीं किया। 
ध्यान रहे परिवार और पार्टी के शीर्ष नेताओं के विरोध के बावजूद मुलायम ने जनता परिवार को एक करने की भूमिका निभाई। मगर जनता परिवार के ही कुछ घटकों के विलय के खिलाफ होने की वजह से विलय नहीं हो पाया और एक मोर्चा बन गया। पर इस मोर्चे में भी अध्यक्ष भले मुलायम रहे हो पर उनकी चली कभी नहीं। अति तो तब हुई जब उन्हें बिना भरोसे में लिये समाजवादी पार्टी को पांच सीट और कांग्रेस को चालीस सीट दी गई। वह भी तब हुआ जब राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ने से इनकार करते हुए महागठबंधन से नाता तोड़ लिया। साफ था बिहार से जो राजनैतिक संदेश जाता उसका सारा श्रेय लालू नीतीश के साथ सोनिया को ज्यादा जाता मुलायम को नहीं। उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल बाद विधान सभा का चुनाव है ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर जाकर वे देश के सबसे बड़े सूबे में कैसे मुकाबला करते। दूसरा पहलू यह है कि अखिलेश सरकार को अपने विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र का सहयोग आवश्यक है। वे केंद्र से संबंध खराब करना नहीं चाहते क्योंकि डेढ़ साल बाद ही यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं। दूसरी तरफ मोदी की तो बिहार में प्रतिष्ठा ही दांव पर लगी हुई है। इसलिए इसे लेनदेन का मामला मानने वालों की कमी नहीं है। सियासी पंडितों का मानना है कि नेताजी अगर बिहार में नाता तोड़ रहे हैं तो यूपी में कोई राजनीतिक फायदा जरूर देख रहे हैं। 
बहरहाल, कुछ हो या न हो मुलायम सिंह यादव एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में तो आ ही गये हैं। कल तक उन्हें जिस जनता परिवार ने हाशिये पर रखा था वह उनके धोबियापाट से चारों खाने चित्त होकर उनकी चौखट पर सिजदा कर रहा है। हालांकि अभी तक वे अपने फैसले पर अटल हैं। गठबंधन से नाता तोड़ने के पीछे लालू नीतीश की कांग्रेस से बढ़ती नजदीकियों को जिम्मेदार ठहराते हुए बिहार प्रदेश सपा अध्यक्ष रामचंद्र यादव का कहना है कि जब तक नीतीश कुमार गठबंधन के नेता नहीं बने थे, तब तक मुलायम चलीसा पढ़ रहे थे, लेकिन बाद में सोनिया-राहुल चलीसा पढ़ने लगे। दरअसल, मानसून सत्र के दौरान ही मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के तल्ख संबंध सामने आ चुके थे। लोकसभा सत्र में विपक्ष का चेहरा कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का था जबकि एक बड़े गठबंधन के बावजूद मुलायम सिंह हाशिये पर थे। अंतत: मुलायम ने बीच सत्र में यह भी कह दिया कि वे संसद में गतिरोध तोड़ने के पक्ष में हैं और वे कांग्रेस से अलग भी जा सकते हंै। खैर, मौजूदा हालात में मुलायम के सामने और कोई चारा भी नहीं बचा था। बे बिहार में हाशिए पर पहुंचा दिये गये थे। सपा को महज पांच सीटें दी गई वह भी एनसीपी के इनकार के बाद।

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