सोमवार, 27 मई 2013

चार साल, सौ सवाल


                                                         बद्रीनाथ वर्मा

घोटाले, महंगाई, सियासी मजबूरियां, लकवाग्रस्त नीतियां, दागी मंत्री और परेशान जनता। यूपीए सरकार की दूसरी पारी पर नज़र दौड़ाएं तो चंद ऐसे ही लफ्ज़ ज़हन से गुज़रते हैं। कहने को तो मनमोहन सरकार अपनी दूसरी पारी के चार साल काट चुकी है लेकिन इस दौरान अपना अस्तित्व बचाकर रखना ही इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। 'कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' का नारा गूंजता रहा लेकिन आम आदमी कांग्रेस के उस हाथ में सुखद स्पर्श के बजाए तमाचे की छवि महसूस करता रहा। अरुण जेटली कहते हैं कि इस सरकार की केवल एक उपलब्धि है और वो यह कि उसने सीबीआई के दुरुपयोग से चार साल का कार्यकाल पूरा किया है। मनमोहन सरकार ने अपनी चौथी वर्षगांठ मनायी। मनाना भी चाहिए, पर इससे हासिल क्या हुआ। सबसे बड़ा सवाल यही है।  यह तो अपने ही हाथों अपनी पीठ थपथपाने वाली बात हुई। सरकार में सहभागी रही कई पार्टियां उसका साथ छोड़ कर जा चुकी है। जो बची हैं वह भी उसके साथ तनकर खड़ा होने का साहस नहीं दिखा पा रही हैं। उत्तर प्रदेश की दो धुर विरोधी पार्टी मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन पार्टी सरकार को समर्थन दे रही हैं पर चौथी वर्षगांठ पर आयोजित रात्रिभोज से समाजवादी पार्टी नदारद रही। दरअसल, सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हिंदी पट्टी के चारो दल- समाजवादी पार्टी, बीएसपी, आरजेडी और एलजेपी अपनी-अपनी वजहों से सरकार के साथ हैं तो जरूर पर दूरी भी बनाकर रखना चाहते हैं। डर है कि कहीं कांग्रेस के मंत्रियों के किये भ्रष्टाचार का खामियाजा उन्हें न भुगतना पड़े। पिछले एक साल में कुल छह पार्टियों ने यूपीए का साथ छोड़ा है। इनमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और एम. करुणानिधि की डीएमके जैसे दूसरे और तीसरे नंबर के घटक भी शामिल हैं। यह भी दिलचस्प है कि यूपीए के साथ सबसे लंबी दूरी शरद पवार की एनसीपी ने तय की, जिसे सन 2004 में गठबंधन बनाते वक्त सबसे अविश्वसनीय सहयोगी माना जा रहा था। जहां तक सवाल इस सरकार की राजनीतिक जमीन का है तो इस बारे में कहने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है। समुद्र की लहरों की तरह एक के बाद एक आती भ्रष्टाचार की खबरों के कारण बीते चार साल न सिर्फ सरकार, बल्कि देश के लिए भी दु:स्वप्न सरीखे गुजरे हैं। इन सभी मामलों में एक साझा बात यह थी कि इनसे जुड़ी सूचनाएं सरकार के ही किसी अंग, सीएजी या सीबीआई के जरिए सामने आईं। हालांकि कुछ मामलों में सूचना के अधिकार की भूमिका महत्वपूर्ण रही, और जब-तब न्यायपालिका को भी इसके लिए पूरी ताकत लगानी पड़ी। भारतीय राज्य मशीनरी और इसे चलाने वाले मंत्रियों को लेकर देश में पहले भी कोई अच्छी राय नहीं रही है। लेकिन पिछले चार सालों में भ्रष्टाचार का जो ज्वालामुखी सा फूट पड़ा है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सत्ता के दो केंद्रों की मौजूदगी ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। आम लोगों में यह धारणा घर कर गई है कि इस सरकार में शामिल सारे के सारे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। हाल में आये सर्वेक्षणों में एक बात कॉमन दिखी कि देश की जनता अब इस सरकार को और झेलने के मूड में नहीं है। अगर आज चुनाव हो जाएं तो यूपीए की सीटों की संख्या घटकर आधी रह जाएगी। सिर्फ एक बात आज भी सरकार के पक्ष में जाती है कि जो ताकतें यूपीए का विकल्प बन सकती हैं- एनडीए या संभावित तीसरा मोर्चा- वे स्थिरता, शुचिता और नीतिगत समझ का कोई खाका अभी नहीं पेश कर पा रही हैं। यूपीए और उसके समर्थक दल अपने लिए मौजूद इस संकरी जगह का इस्तेमाल दोबारा खड़ा होने में कर पाते हैं या नहीं, अगले कुछ महीनों में उनका इतना ही कौशल देखने को रह गया है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान  206 सीटें लाकर 22 मई 2009 को देश की सत्ता पर काबिज़ हुई कांग्रेस ने सबको चौंका दिया था। लेकिन मौजूदा हालत के मद्देनज़र साफ है कि कांग्रेस लोगों की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। यूपीए-2 में आए दिन न सिर्फ घोटालों की खबरें सुर्खियां बटोरती रहीं बल्कि कैग रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां सरकार को बेनकाब करती रहीं। यही वजह है कि विपक्ष मनमोहन सरकार को आज़ाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार बताने से भी नहीं चूकता। विपक्ष के आरोपों की जड़ में दरअसल वो सिलसिलेवार घोटाले हैं जिन्होंने सरकार की नैतिक सूरत ही बिगाड़ कर रख दी। कई मंत्रियों के दामन दागदार हुए तो कइयों को जेल की हवा खानी पड़ी। घोटालों ने सरकार को बदनाम किया तो महंगाई और आर्थिक नीतियों ने आम लोगों की कमर तोड़ दी। डीज़ल के लगातार बढ़ते दाम, रसोई गैस सब्सिडी में कटौती, ब्याज़ दरों में राहत का ना मिलना और फल- सब्ज़ी-दूध जैसी रोज़मर्रा की चीजों के बढ़ते दामों ने आम आदमी की जेब नोंच ली।
 बहरहाल, एक तरफ यूपीए टू की तरफ से चौथी वर्षगांठ मनाई जा रही थी तो दूसरी तरफ मनमोहन सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्टतम सरकार का तमगा देते हुए मनमोहन सिंह को सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताया। 

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