गुरुवार, 23 मई 2013

चाहें तो इतिहास रच दें


चाहें तो इतिहास रच दें

                                                बद्रीनाथ वर्मा
 ( राष्ट्रीय साप्ताहिक न्यू देहली पोस्ट के 19 से 25 मई के अंक में प्रकाशित संपादकीय)

पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अगर दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दें तो वह इतिहास रच सकते हैं। पाकिस्तान की जनता ने भी उनके घोषणा पत्र में किये गये वादों पर अपनी मुहर लगा दी है। गौरतलब है कि नवाज ने अपने घोषणा पत्र में काश्मीर समस्या का शांतिपूर्वक हल निकालने व भारत से संबंध सुधारने पर जोर दिया था। हालांकि पाकिस्तान की कट्टरतावादी पार्टियां व सेना उनके इस काम में अड़ंगा लगाने की भरपूर कोशिश करेंगी। हो सकता है कि सेना की तरफ से ही इस का जबर्दस्त विरोध हो पर शरीफ को यह समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तानी जनता ने उन पर यूं ही भरोसा नहीं जताया है। उसे मालूम है कि उसके नये प्रधानमंत्री न तो फौज से डरते हैं और न ही उसकी निंदा करते हैं। उनसे पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत बनाने के साथ भारत से अच्छे संबंध कायम रखने की उम्मीद की जा सकती है। एक पाकिस्तानी पत्रकार मोहम्द उस्मान फारूखी का कहना है कि नवाज शरीफ एक निडर नेता हैं। यह पाकिस्तान की खुशकिस्मती है कि उसे एक बार फिर नवाज शरीफ जेसे नेता का नेतृत्व मिला है। नवाज शरीफ के चुनाव में जीत जाने के बाद से राजनेताओं और फौज के बीच स्वस्थ संबंध बने रहने की आशा जगी है। अगर यह कहा जाय कि नवाज शरीफ की जीत पाकिस्तान ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के लिए शुभंकर सिद्ध होगी तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेरा ऐसा मानना है कि यदि 1999 में उनका फौजी तख्ता-पलट नहीं हुआ होता तो अभी तक भारत और पाकिस्तान आपसी रिश्तों के बहुत ऊंचे पायदान पर पहुंच जाते। वे भारत से संबंधों को लेकर पहले भी नरम रवैया रखते रहे हैं। बातचीत के माध्यम से समस्याओं को सुलझा लेने में विश्वास रखने वाले नवाज शरीफ ने 1998 के चुनाव में मतदान के दो दिन पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत से संबंध-सुधार की घोषणा की थी। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में कश्मीर मसले को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का वादा किया था। उस वक्त पाकिस्तानी राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले पंडितों ने दावा किया था कि नवाज शरीफ का यह बयान पाकिस्तनी जनता पसंद नहीं करेगी और चुनावों में उन्हें भारी पराजय का सामना करना पड़ेगा। यहां तक कहा गया कि वे खुद अपनी सीट भी नहीं जीत पाएंगे। लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो नवाज शरीफ को उस चुनाव में इतनी ज्यादा सीटें मिलीं, जितनी कि पूरे दक्षिण एशिया के किसी भी नेता को अपने चुनाव में कभी नहीं मिलीं। यानी भारत से संबंध-सुधार पर पाकिस्तान की जनता ने मुहर लगा दी। शरीफ कुछ कर पाते इससे पहले ही मुशर्रफ ने करगिल में घुसपैठ कर व बाद में उनका तख्ता पलटकर उनकी सद्इच्छाओं पर कुठाराघात कर दिया। बहरहाल पाकिस्तानी जनता ने उन्हें इस बार जिताकर उन्हें अपनी सद्इच्छाओं को पूरा करने का अवसर प्रदान कर दिया है। अब यह नवाज शरीफ के हाथ में है कि वे इस अवसर को कैसे सुअवसर में तब्दील करते हैं। उनके सामने मौका है चाहें तो वे इतिहास रच सकते हैं। गौरतलब है कि उन्होंने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भी भारत से संबंध-सुधारने की बात पर जोर दिया था। उन्होंने अखबारों को ऐन मतदान के पहले -साफ कहा कि भारत से संबंध सुधारना उनकी प्राथमिकता रहेगी। वे कश्मीर मसले का शांतिपूर्ण तरीके से हल निकालेंगे और भारत को पाकिस्तान होकर मध्य एशिया तक आने-जाने का रास्ता देंगे। भारत से व्यापार भी बढ़ाएंगे। उनके घोषणा पत्र के आधार पर मिली उन्हें यह जीत प्रमाणित करती है कि न केवल भारतीय जनता बल्कि पाकिस्तानी जनता भी अमन चाहती है। हालांकि सभी प्रमुख दलों ने भारत से संबंध -सुधार की बात कही है, लेकिन नवाज शरीफ ने जिस जोर-शोर से अपनी बात कही है, उसका महत्व असाधारण है। चूंकि अब वे पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री है इसलिए आशा की जा सकती है कि उन्होंने चुनाव से पहले पाकिस्तानी जनता से जो कहा व अपने चुनाव घोषणा पत्र में जिस बात को मजबूती से रखा वे उसका पालन करेंगे। नवाज शरीफ पर विश्वास न करने का कोई कारण भी नजर नहीं आता। वैसे यहां एक बात पर विशेष रूप से ध्यान देनी होगी कि भारत से संबंध सुधारने की बात सबसे ज्यादा पाकिस्तानी फौज को नागवार गुजरती है। हालांकि अब फौजी तानाशाह पस्त हो चुके हैं।
जनरल कयानी की फौज ने बहुत ही संयम का परिचय दिया है, लेकिन यह चरम सत्य है कि यदि भारत से पाकिस्तान के संबंध सुधर गए तो पाकिस्तानी समाज में फौज का दबदबा निश्चित रूप से घट जाएगा। ऐसे में इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि फौज इसे इतनी सहजता से नहीं होने देगी। हालांकि नवाज शरीफ साहसी और प्रखर नेता हैं। बावजूद इसके उन्हें इस ओर से भी चौकस रहने की दरकार है। उनके पुराने तजुर्बो ने उन्हें नया आत्मबल दिया है। यह पाकिस्तान का सौभाग्य है कि उसे अब ऐसा नेतृत्व मिला है, जो न तो फौज से डरता है और न ही फौज की निंदा करता है। जीतने के बाद नवाज शरीफ ने ठीक ही कहा है कि उन्हें मुशर्रफ से शिकायत थी, फौज से नहीं। यानी अब पाकिस्तान के राजनेताओं और फौज के बीच स्वस्थ संबंध बने रहने की आशा जगी है। यदि इमरान खान को इस चुनाव में बहुमत मिल जाता तो यह माना जाता कि इस्लामाबाद के सिंहासन पर फौज दूसरे दरवाजे से आ बैठी है। इस चुनाव की सबसे बड़ी खूबी यह है कि एक तरफ पाकिस्तानी जनता ने जहां नवाज शरीफ की पार्टी पर जमकर भरोसा जताया है वहीं अन्य पार्टियों को क्षेत्रीय पार्टियों में तब्दील कर दिया है। यहां तक की आसिफ अली जरदारी की पीपुल्स पार्टी भी सिर्फ सिंध प्रांत तक सिमट कर रह गई है। वैसे भी जरदारी की पार्टी को तो हारना ही था क्योंकि वह उनकी न होकर बेनजीर की पार्टी थी। पाकिस्तान की जनता ने पिछले चुनाव में उन्हें नहीं बल्कि शहीद बेनजीर को चुना था, जैसे कि 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी सहानुभूति वोटों पर सवार होकर रिकार्ड बहुमत से जीत दर्ज की थी। राजीव ने जब अपने दम पर चुनाव लड़ा तो उनकी सीटें आधी रह गईं और जरदारी की तो एक चौथाई ही रह गईं। यह भी नवाज शरीफ के पक्ष में ही है। 

 नवाज शरीफ पर पाकिस्तानी जनता ने जो भरोसा जताया है उसमें वह कामयाब हों।हां, हम उन्हें यह भरोसा जरूर दे सकते हैं कि अगर उन्होंने हमारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाकर अगर एक कदम भी आगे बढ़ेंगे तो हम चार कदम चलकर उनका इस्तकबाल करेंगे। बहरहाल मियां साहब को शुभकामनाएं देते हुए हम तो यही कहेंगे कि दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें... 

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