बुधवार, 21 मार्च 2012

मानीं ममता, कब तक

(साप्ताहिक 'इतवार' २५ मार्च अंक में प्रकाशित)
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से लेकर कांग्रेस के हर छोटे बड़े नेता के मान मनौव्वल के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मान तो गयी किन्तु सवाल है कि आखिर कब तक। यह सवाल यहां इसलिए मौजू है कि राज्य के खाली पड़े खजाने व लगभग 2.2 लाख करोड़ के कर्ज से दबी राज्य सरकार को केन्द्र की तरफ से आर्थिक पैकेज नहीं मिलता तो वह यूपीए का हाथ झटकने में तनिक भी विलंब नहीं करेंगी। खुद प्रधानमंत्री ने उन्हें फोन कर उन्हें हरसंभव मदद का भरोसा दिया, तब जाकर बात बनी। हालांकि दिल्ली में राजीव शुक्ला ने प्रधानमंत्री द्वारा सीधे ममता से बात किये जाने से साफ इनकार किया। बहरहाल भले ही ममता ने दोनों के शपथग्रहण समारोह में स्वयं के शामिल होने का फैसला रद्द कर दिया किन्तु फिर भी कांग्रेस को चिढ़ाने से बाज नहीं आयीं। उन्होंने अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह में केन्द्रीय मंत्री सुल्तान अहमद को और अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी पर्यटन मंत्री रछपाल सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए अपने प्रतिनिधि के तौर पर भेजा। इससे उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे। एक ओर जहां उन्होंने मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता से दोस्ती बढ़ायी वहीं पंजाब में अकाली भाजपा के शपथ ग्रहण में अपना प्रतिनिधि भेजकर कांग्रेस को आंखें तरेरी कि वह एनडीए के साथ भी जा सकती हैं। बहरहाल ममता के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होने को लेकर बहाना बनाया गया नंदीग्राम में आयोजित शहीद दिवस को। मुख्यमंत्री की ओर से बताया गया कि 14 मार्च को नंदीग्राम कांड में मरने वालों की याद में आयोजित कार्यक्रम की वजह से वे पंजाब व उत्तर प्रदेश नहीं जा रही हैं। हालांकि पहले इस कार्यक्रम में सिर्फ केन्द्रीय मंत्री मुकुल राय व राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी के इसमें शामिल होने की बात थी। सूत्रों के अनुसार केन्द्र की ओर से ममता को भरोसा दिया गया है कि राज्य की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उनकी मांग के अनुरूप विशेष पैकेज दिया जायेगा। इस आश्वासन के बाद व गठबंधन धर्म की दुहाई दिये जाने के बाद ही ममता ने अपना निर्णय बदला किन्तु अपने प्रतिनिधियों को भेजकर फिर भी अपनी नाक ऊंची ही रखी।
कई मौकों पर केन्द्र की मनमोहन सरकार को संकट में डाल चुकीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी घटक दल तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के उत्तर प्रदेश और पंजाब के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के निर्णय ने कांग्रेस की बेचैनी बढ़ा दी थी। यूपीए के दरकते किले को देखकर पहले से ही बचाव की मुद्रा में आयी कांग्रेस के कान खड़े कर दिये। ममता की तृणमूल कांग्रेस केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। शपथ ग्रहण समारोह में ममता के शामिल होने की सूचना जैसे ही आयी कांग्रेस के हाथ पांव फूल गये। संप्रग सरकार में शामिल अपनी मुख्य साझेदार तृणमूल कांग्रेस के साथ विपक्षी दलों के मेलजोल बढ़ाने के प्रयास से बेचैन कांग्रेस की ओर से डैमेज कंट्रोल की कोशिशे तेज हो गयीं। दरअसल तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीटर पर लिखा कि ममता से उनकी बात हुई है और वे 14 मार्च को पंजाब और 15 मार्च को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेंगी। यह खबर जैसे ही मीडिया में आयी कांग्रेस को सांप सूंघ गया। आनन फानन में पश्चिम बंगाल मामलों के प्रभारी कांग्रेस महासचिव शकील अहमद को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मनाने के लिए भेजा गया। उन्होंने राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग जाकर ममता से मुलाकात की। दोनों के बीच लगभग 45 मिनट तक बातचीत हुई। हालांकि इससे भी बात नहीं बनी। डैमेज कंट्रोल के तहत हुई इस मुलाकात को शकील ने 'सौजन्यमूलक भेंट' बताकर मीडिया के सवालों से बचने की कोशिश की। ममता को विपक्षी दलों से मिले निमंत्रण को सामान्य ठहराने की कोशिश करते हुए उन्होंने संवाददाताओं से कहा कि राजनीति में मानवीय संबंध होते हैं। इसमें कोई दूसरा अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए। हमें भी दूसरों से निमंत्रण मिलते हैं। बातचीत के दौरान वरिष्ठ तृणमूल नेता व केन्द्रीय जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय भी मौजूद थे। शकील से मिलने के बाद भी जब बात नहीं बनी तो कांग्रेस की ओर से उन्हें गठबंधन धर्म की लक्ष्मण रेखा नहीं पार करने की दुहाई दी जाने लगी। शकील व ममता की मुलाकात के एक दिन बाद ही नयी दिल्ली में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि साझेदारी में शामिल लोगों की ओर से अजनबियों के साथ सामाजिक संवाद मान्य है, लेकिन स्पष्टतया यदि चीजें सामाजिक शिष्टाचार के पार चली जाती हैं तो वह अनैतिक होगा। सिंघवी ने ममता को गठबंधन धर्म का पालन करने की सीख देते हुए कहा कि उन्हें लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। सिंघवी का बयान राजनीतिक हलको में काफी अहम माना गया, क्योंकि यह बजट सत्र से महज एक दिन पहले आया। यह बजट सत्र यूपीए के लिए मुश्किल भरा होगा, क्योंकि विपक्षी दल संघीय ढांचे के मुद्दे पर यूपीए को घेरेंगे और घटकों के लिए यह साझा मुद्दा होगा। कांग्रेस के इस मान मनौव्वल से आखिरकार अग्निकन्या को अपना निर्णय बदलना पड़ा।
सूत्रों के अनुसार हार से हताश कांग्रेस हाईकमान ने राज्य के कांग्रेसियों को चुप बैठने की हिदायत दी है। प्रदेश कांग्रेस में ममता के सख्त आलोचक व धुर विरोधी अधीर रंजन चौधरी, दीपादास मुंशी तथा शंकर सिंह जैसे नेताओं को केन्द्रीय नेतृत्व ने स्पष्ट चेता दिया है कि वे फिलहाल ममता से उलझने से बाज आयें। इसकी एक झलक मेदिनीपुर में हुई कांग्रेस की एक सभा में दिखी भी। वहां उस सभा में पश्चिम बंगाल मामलों के प्रभारी महासचिव शकील अहमद भी थे। इसमें ममता विरोधी माने जाने वाले नेताओं को नहीं बुलाया गया। इस सभा से दीपादास मुंशी व अधीररंजन चौधरी जैसे नेताओं को दूर रखकर कांग्रेस की ओर से ममता को स्पष्ट संदेश दिया गया कि कांग्रेस उनके सारे नखरे उठाने को तैयार है। विभिन्न मुद्दों पर यूपीए सरकार के लिए मुसीबत खड़ी करने वाली तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष का यह कारनामा भी कांग्रेस के कान उमेठने के तौर पर ही देखा जा रहा है। उन्नीस सांसदों के बल पर मनमोहन सरकार को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाली तृणमूल प्रमुख व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बांछे खिली हुई हैं। यह मौका दिया है पांच राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनाव ने। इन चुनावों में हुई कांग्रेस की बुरी गत ने तृणमूल खेमे में खुशी ला दी है। 19 सांसदों के बल पर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के नाक में दम करने वाली तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी इस चुनाव में जहां कुछ और मजबूत होकर उभरी हैं वहीं कांग्रेस कुछ और कमजोर हुई है। दूसरे शब्दों में अगर कहा जाय कि कांग्रसे की लुटिया डूब गयी है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पांच राज्यों के संपन्न विधानसभा चुनावों का साइड इफेक्ट पश्चिम बंगाल में पूरे रौ में दिखायी दे रहा है। कांग्रेस कार्यालय विधानभवन में जहां बड़बोले नेताओं को सांप सूंघ गया है वहीं, तृणमूल कांग्रेस कार्यालय तृणमूल भवन में चहल पहल और बढ़ गयी है। मणिपुर में मिली जीत ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुस्कान कुछ और चौड़ी कर दी है। पूर्वोत्तर के इस राज्य में तृणमूल कांग्रेस पहली बार चुनाव मैदान में उतरी थी। वहां सात सीटों पर जीत दर्ज करने के साथ वह मणिपुर की मुख्य विपक्षी पार्टी का खिताब हासिल करने में सफल रही है। इसके पूर्व अरुणाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को पांच सीटें मिली थी। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने अरुणाचल व मणिपुर में जीत के साथ राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लक्ष्य की ओर कुछ और कदम आगे बढ़ा दिया है। पार्टी का अगला पड़ाव त्रिपुरा है। वह वहां भी माकपा सरकार को जमींदोज करने का सपना पाले हुए है। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली शिकस्त और तृणमूल के उत्थान से उत्साहित ममता राज्य में जल्द ही कांग्रेस को एक और झटका देने वाली हैं।
दीदी की दादागीरी से त्रस्त राज्य के कांग्रेसियों को उम्मीद थी कि विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस हाईकमान कोई ठोस निर्णय लेगा। जिससे उन्हें तृणमूल प्रमुख का और अपमान नहीं सहना होगा। वे आपसी बातचीत में कहते थे कि चुनावों के बाद केन्द्र सरकार की निर्भरता ममता बनर्जी पर कम हो जायेगी। उनका आकलन था कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की चाबी उन्हीं के हाथ में रहेगी। कांग्रेस वहां मुलायम सरकार को समर्थन देगी बदले में मुलायम के 22 सांसदों का समर्थन केन्द को मिलेगा। किन्तु हाय रे विधाता, उनकी सारी सोच धरी की धरी रह गयी। उत्तर प्रदेश में राहुल की दिन रात की मेहनत भी काम न आयी। जनता ने उन्हें हवा हवाई ही नेता समझा। और उनकी सारी चेष्टाओं को हवा में ही उड़ा दिया। पूरा कुनबा भी मिलकर कुछ खास नहीं कर पाया। पांच राज्यों के चुनाव में मात्र मणिपुर में ही कांग्रेस अपनी सरकार बचा पायी। हालांकि जोड़तोड़ कर वह उत्तराखंड में भी सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गयी है। बावजूद इसके मतदाताओं द्वारा दी गयी गहरी चोट ने कांग्रेस की कमर तोड़ दी है। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश ने भी राहुल के आभामंडल को ध्वस्त कर दिया। दिन रात की मेहनत व दो सौ ज्यादा छोटी बड़ी सभायें और दो हजार किलोमीटर से ज्यादा का सफर भी कुछ काम नहीं आया। इस सबका असर पश्चिम बंगाल पर सबसे ज्यादा पड़ा है। तृणमूल कांग्रेस से त्रस्त राज्य के कांग्रेसी अपना घाव सहला रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी राज्य में कांग्रेस को एक और चोट देने की तैयारी में हैं। सूत्र बताते हैं कि जल्द ही कांग्रेस के कुछ विधायक तृणमूल में शामिल होंगे। अप्रैल में पश्चिम बंगाल से रिक्त होने वाली राज्य सभा की पांच सीटों पर ममता का दबदबा रहने से कांग्रेस की राह और कठिन ही दिख रही है।
मणिपुर में पहली बार चुनाव लड़ी तृणमूल ने 7 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया है। भले ही इस जीत का सांकेतिक महत्व ही हो परन्तु इससे तृणमूल प्रमुख की महत्वाकांक्षा को और हवा मिल गयी है। तृणमूल कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने के लिए बेचैन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस जीत के साथ उस तरफ एक और कदम आगे बढ़ा दिया हैं। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कोई सीट तो नहीं मिली किन्तु उनके दो उम्मीदवारों की हार बहुत ही कम वोटों से हुई। चुनाव परिणामों के बाद तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव व केन्द्रीय मंत्री मुकुल राय ने कहा कि हालांकि पार्टी को उत्तर प्रदेश में कोई सीट नहीं मिली है। परन्तु वहां उनके दो उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे। एक उम्मीदवार तो मात्र दो हजार वोटों से हारा। तृणमूल कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभारने की महत्वाकांक्षा पालने वाली ममता ने राज्य में सरकार गठन के बाद से ही चेष्टा में लग गयी थीं। गौरतलब है कि विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर तृणमूल सरकार ने मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित गंगा सागर मेले का बखूबी इस्तेमाल किया था। गंगासागर स्नान करने आये तीर्थयात्रियों की सुख सुविधा का ख्याल रखकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व उनकी पार्टी ने विभिन्न प्रान्तों से आये तीर्थ यात्रियों का दिल जीतने की भरपूर चेष्टा की थी। बंगला प्रेमी मुख्यमंत्री ने हिन्दीभाषी तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए कोलकाता से सागरद्वीप (जहां कपिलमुनि का मंदिर है और जहां गंगासागर स्नान होता है ) तक जगह जगह हिन्दी में सूचना पट्ट लगाये गये थे। यहां तक कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर गंगासागर तीर्थयात्रियों से हर साल तीर्थ कर के रूप में लिया जाने वाला टैक्स भी माफ कर दिया गया था। सारा खर्च दक्षिण 24 परगना जिला परिषद व राज्य सरकार ने उठाया था। उनके इस निर्णय का स्वयं कपिलमुनि मंदिर के कर्ता धर्ता अयोध्या से आये संत ज्ञानदास समेत तीर्थयात्रियों ने भूरि भूरि प्रशंसा की थी।
ममता बनर्जी अगर प्रकाश सिंह बादल के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचती तो एक बड़ा ही दिलचस्प नजारा देखने को मिलता। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को पानी पी पीकर कोसने वाली ममता को वहां जाने पर बीजेपी और एनडीए नेताओं के साथ मंच साझा करना पड़ता क्योंकि पंजाब में अकाली दल की सहयोगी पार्टी बीजेपी है। खैर जो भी हो राजनीति को संभावनाओं का खेल माना जाता है। कब धुर विरोधी गलबहियां डालें एक दूसरे के कशीदे पढ़ने लगें कहा नहीं जा सकता। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि ममता यदि एनडीए की गोद में बैठ जायें तो आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। जिस दिन ममता को आभास हो जायेगा कि कांग्रेस का साथ लाभदायक नहीं रहा उसी दिन वे कांग्रेस से अपना पिंड छुड़ा लेंगी।
बद्रीनाथ वर्मा
डी / 150 सोनाली पार्क. बांसद्रोनी, कोलकाता - 700070
मोबाइल - 8017633285

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें